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सोमवार, 7 नवंबर 2011

परचम और अधिक सुर्खरू हो जाता है...



आज महान अक्तूबर क्रांति की वर्षगांठ है. तरह-तरह के भाव मन में उमड़-घुमड़ रहे हैं. एक भाव महान लेनिन के प्रति अथाह श्रद्धा का भी है. क्रांति की छिन-छिन बदलती परिस्थितियों में वह कितने संयत और संतुलित रहकर घटनाक्रम पर नज़र रखे हुए थे, और ठोस ज़मीन पर खड़े होकर, लगभग भविष्यद्रष्टाओं की तरह टिप्पणी कर सकते थे ! उनका प्रसिद्ध वाक्य अक्सर कानों में गूंजता है. क्रांति की तिथि के बारे में साथियों से उनका यह कहना बेहद अर्थपूर्ण था : "6th will be too early and 8th will be too late". बचा क्या? कि क्रांति ७ अक्तूबर (पुराने कलेंडर के मुताबिक) को होगी. तेज़ी से बदलते हालात के सारतत्व की ऐसी पकड़ वाले महान क्रांतिकारी की आज याद न आना अस्वाभाविक होता. आज का दिन दुनिया भर के तमाम मुक्तिकामी जनगण को प्रेरणा दे सके, इस कामना के साथ आप सबको यह दिन शुभ हो. - मोहन श्रोत्रिय 



लेनिन की लंबी कविता 'पैरों से रौंदे जाते हैं आज़ादी के फूल' का एक हिस्सा 


पैरों सेरौंदे जाते हैं आज़ादी के फूल
और अधिक चटख रंगों में
फिर से खिलने के लिए।

जब भी बहता है
मेहनतकश का लहू सड़कों पर,
परचम और अधिक सुर्ख़रू
हो जाता है।

शहादतें इरादों को
फ़ौलाद बनाती हैं।
क्रान्तियाँ हारती हैं
परवान चढ़ने के लिए।

गिरे हुए परचम को
आगे बढ़कर उठा लेने वाले
हाथों की कमी नहीं होती।

3 टिप्‍पणियां:

  1. भाई, मैं भी सोच रहा था इस कविता के बारे में, पर इतना हिस्सा तक उपलब्ध न था मेरे पास. जितना भर पढ़वा दिया उसके लिए मन से आभार.

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  2. कविता के लिए शुक्रिया…लेकिन एक शिकायत कि जब लेखक अंग्रेजी में न लिखकर गैर-अंग्रेजी भाषा में लिख चुका हो तो उसकी रचना या सन्दर्भ या नाम-पता कुछ भी या तो हिन्दी में(प्रस्तुत की जा रही भाषा में हो) हो या मूल भाषा में…जैसे मार्क्स के लिए सारे लेखक अंग्रेजी की चिप्पी लगा जाते हैं…मानो उन्होंने सब कुछ अंग्रेजी में लिख डाला हो…

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