भारतीय लोकतंत्र एक सामन्ती
लोकतंत्र है
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मदन कश्यप
दखल के लिए यह कोलाज भाई महेश वर्मा ने बना कर भेजा था.. |
ग्राम्शी ने कहा था कि एक
बुर्जुआ लोकतंत्र में पूँजी जनता के सामूहिक विवेक को नियंत्रित करती है. आज भारत
सहित सारी दुनिया में यह देखा जा सकता है. इन लोकतंत्रों में सारे निर्णयों और
सारी गतिविधियों के केन्द्र में लोक नहीं पूंजीपति हैं. बड़े स्पष्ट तरीके से
नीतियाँ इस प्रकार बनाई जा रही हैं कि वे पूंजीपतियों के वर्ग-हितों के अनुरूप
हों. इस प्रक्रिया में स्वाभाविक रूप से समाज का बड़ा हिस्सा वंचना का शिकार होकर
हासिये पर जा रहा है. किसान, मजदूर और आदिवासी अब सत्ता विमर्श के केन्द्र
पर नहीं हैं. एक ऐसा विकास-विमर्श प्रचलित किया जा रहा है जिसमें पूंजीपतियों की
समृद्धि को ही विकास का पर्याय बना दिया गया है. यह केन्द्र लगातार संकुचित हो रहा
है और हाशिया बढ़ता जा रहा है.
इसके स्रोत सत्ता की बदली हुई
शब्दावली में भी देखे जा सकते हैं. संविधान में कहीं ‘केन्द्र’ शब्द का प्रयोग नहीं है. वहाँ ‘संघीय शासन’ की बात की गयी थी. लेकिन आप देखेंगे कि मीडिया से लेकर सत्ता तक की भाषा
में ‘केन्द्र सरकार’ का प्रचलन है. यह
सिर्फ भाषा का खिलवाड नहीं. यह उस बदले हुए वैचारिक परिदृश्य को भी दिखाता है
जिसमें सभी का प्रतिनिधित्व करने वाली और विभिन्न राष्ट्रीयताओं तथा समाजों के एक
संघ की प्रतिनिधि सरकार एक सर्वाधिकारी केन्द्रीय सत्ता में तब्दील हो गयी है. यह
सत्ता स्वाभाविक रूप से उन बड़े तथा प्रभावी समुदायों की सत्ता है जिनकी बहुसंख्या इस
संख्या आधारित चुनाव प्रणाली को प्रभावित करती है. उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश या
बिहार जैसे प्रदेशों का संघीय राजनीति में जिस तरह से दबदबा है वह इसी कारण से है.
और ठीक यही कारण है जिसकी वज़ह से उत्तर पूर्व जैसे हिस्से लगातार उपेक्षा झेल रहे
हैं. दिल्ली में होने वाले अन्ना के आंदोलन को तो राष्ट्रीय आंदोलन का दर्ज़ा मिल
जाता है लेकिन इरोम शर्मिला का आंदोलन हासिये का आंदोलन बन कर रह जाता है. हालाँकि
मैं यहाँ यह ज़रूर कहना चाहूँगा कि अन्ना के आंदोलन की इतनी भूमिका मैं स्वीकार
करता ही हूँ कि उसने लंबे समय बाद मध्य वर्ग के एक हिस्से को आंदोलित किया और
उन्हें सड़क पर ले आया. इससे आगे का काम परिवर्तनकारी शक्तियों का है. यही नहीं इन
राज्यों और समुदायों के भीतर के तमाम अल्पसंख्यक समाज भी लगातार हासिये पर बने
रहते हैं. चूंकि वे संख्या में इतने बड़े नहीं होते कि किसी चुनाव की प्रक्रिया को
प्रभावित कर सकें तो उनकी आवाज़ को भी कोई महत्व नहीं दिया जाता. यह लोकतंत्र की एक
बड़ी सीमा है और इसके ‘सबका राज्य’ होने
के मिथक पर एक बड़ा सवाल भी खड़ा करता है.
साथ ही मैं भारतीय लोकतंत्र को
एक ‘सामंती लोकतंत्र’ भी कहना चाहूँगा. इसमें जाति,
धर्म और क्षेत्रीयता जैसी संरंचनाएँ बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाती
हैं. पश्चिमी देशों में जहाँ लोकतंत्र बुर्जुआ प्रकृति का है, वहाँ अपनी सीमाओं के बावजूद मनुष्य की अस्मिता तथा जीवन का सम्मान है.
उदाहरण के लिए वहाँ दवा या खाने-पीने के चीजों में मिलावट संभव नहीं. इसके लिए
बेहद कड़ी सज़ाएँ हैं, लेकिन भारत में ये अपराध आम हैं. यहाँ
का लोकतंत्र अभी मनुष्य की अस्मिता के सम्मान का प्राथमिक गुण भी नहीं सीख पाया
है. औपनिवेशिक गुलामी से मुक्ति के बाद जिस तरह किसी बड़े और व्यापक आमूलचूल
परिवर्तन की जगह सामंती वर्ग ही सत्ता वर्ग में तबदील हुआ, उसमें
यह स्वाभाविक था. ऊँची जातियों के पूर्व सामंतों का समाज के भीतर दबदबा रहा. जाति
और धर्म की उत्पीडक संरंचनाओं को तोड़ने के कोई गंभीर प्रयास नहीं किये गए. बल्कि
पूरी चुनावी प्रक्रिया को जाति/क्षेत्र/धर्म के आधार पर तय किया गया. लोकसभा से
लेकर ग्रामसभा तक जातियाँ चुनावी नतीजों और नीतियों के केन्द्र में रहीं और
जातिमुक्त समाज का स्वप्न हासिये पर. आरक्षण ने एक धीमी प्रक्रिया के तहत वंचित
जातियों से एक हिस्से को मुख्यधारा में लाने में निश्चित रूप से सकारात्मक भूमिका
निभाई है लेकिन जाति और धर्म के भारतीय लोकतंत्र से अविभाज्य रिश्ते को वह भी
प्रभावित नहीं कर पाया है. ज़ाहिर है कि इस ‘सामंती लोकतंत्र’
में केन्द्र और हासिये का विभाजन प्रभावशाली तथा वंचित जातियों,
बहुसंख्यक तथा अल्पसंख्यक धर्मों और संपन्न तथा उपेक्षित क्षेत्रों
में होता ही है.
इस केन्द्र और हासिये के विभाजन
का असर भी शुरू से ही साफ़ दिखाई देने लगा था. कश्मीर, पूर्वोत्तर ही
नहीं देश के तमाम हिस्सों सहित लगभग हर राज्य में इस द्वंद्व का प्रतिफलन
हिंसक/अहिंसक संघर्षों में हुआ है. सुविधाप्राप्त तथा वंचितों के बीच बढ़ती खाई ने
भारत ही नहीं दुनिया भर में एक ऎसी स्थिति बनाई है जिसमें लोगों का गुस्सा साफ़
दिखाई दे रहा है. अरब देशों से लगाए यूरोप और अमेरिका तक में जारी जनता के विरोध
प्रदर्शन पूंजीवादी लोकतंत्र की इसी विफलता के स्वाभाविक परिणाम हैं. यहाँ बड़ी
भूमिका निभाने में क्रांतिकारी शक्तियों की अक्षमता ही पूंजीवाद को अब तक ज़िंदा
रखे है. ऐसा क्यों है, इस पर गंभीर विचार की ज़रूरत है.
दखल विचार मंच के कार्यक्रम में दिए गए
व्याख्यान के आधार पर
प्रस्तुति - फिरोज खान
सामंती लोकतंत्र
जवाब देंहटाएंमाकूल है यह।
सामंती ढांचे के बदले हुए रूप का नाम लोकतंत्र कैसे हो सकता है ? यह विचारणीय है। विकास के नाम पर हो रही गतिविधियां सामंतो की बदलती प्राथमिकताओं से अलग नहीं हो सकती ।
वर्तमान समय में अल्पसंख्यकों के हासिए पर होने का कारण उनके वोट बैंक को प्रभावित नहीं करने का आपके तर्क से मैं सहमत नहीं हूं। बल्कि इससे इतर, अल्पसंख्यक समाज बोट बैंक के रूप में ही प्रयोग किए जा रहें हैं। हां यह बात दिगर है कि वोट बैंक की राजनीति में धर्म का महत्व अधिक होता है और राष्टहित और समाज हित का कम।
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