रविवार, 19 फ़रवरी 2012

क्या करें इस लोकतंत्र का हम...


हिमांशु कुमार की यह कविता किसी इंट्रो की मुहताज नहीं...सच कहूँ तो कुछ लिखने की हिम्मत भी नहीं कर रही...


चूंकि देश में लोकतंत्र है इसलिए, लोगों को विश्वास नहीं है मुझ पर

मैं यह कविता इसलिए नहीं लिख रहा हूँ
क्योंकि मैं सिद्ध करना चाहता हूँ कि मैं आपसे अधिक बुद्धिमान और प्रतिभशाली हूँ
और ना इसलिए क्योंकि मैं देखना चाहता हूँ आपकी आँखों में अपने लिये प्रशंसा |
असल में मेरी रुलाई फुटकर बाहर आना चाह रही है
और मैं जानता हूँ कि रोना कोई हल नहीं है,
इसलिए मैं कविता के जरिये अपना रोना आप तक पहुंचाता हूँ |

मार खाकर अपमानित कुते की तरह, अपने नपुंसक क्रोध को लिये
एक बौखलाया आदमी और कर भी क्या सकता है ?
जबकि देश में लोकतंत्र हो
किससे लड़े वो, उस लड़की की तरफ से ?
जिसने उसे सर्वशक्तिमान माना था और
खुद को बचा लेने के पूर्ण विश्वास के साथ
उस तक आयी हो लेकिन
जिसे उसके सामने से बाल पकडकर घसीटते हुए
ले जाया गया सिर्फ इसलिए कि वह लड़की थी
और हिम्मतवाली लड़की थी,
और मैं, जो कि ये जानता हूँ, कि वो निर्दोष थी,
और क्योंकि मैं ये भी जानता हूँ, कि उसके द्वारा झेली गई यातना के लिये,
मैं भी जिम्मेदार हूँ और क्योंकि मैं चिल्लाकर बताना चाहता हूँ सारी दुनियाँ को,
कि ये सब गलत हो रहा है लेकिन,
चुकि देश में लोकतंत्र है इसलिए,
लोगों को विश्वास नहीं है मुझ पर,
क्योंकि लोकतन्त्र में ये सब सम्भव ही नही है,

अब चूंकी मैं दावा कर रहा हूं कि लोकतन्त्र मर चुका है,
लेकिन क्योंकि तुम फायदे में हो इस,
मरे हुए लोकतन्त्र के साथ जीने में,
इसलिए तुम जान बूझ कर मुझे,
अनसुना कर रहे हो,
मैं चिल्ला कर लाश दिखाना चाहता हूं, इस लोकतन्त्र की,
इसलिए कविता लिख कर उसके,
मर जाने की खबर तुम तक पहुंचाता हूं !

यकीन मानो कविता के सहारे तुम्हारे सभ्य
समाज में घुसपैठ करने का मेरा कोई मकसद नहीं है
असल में कविता मेरी मजबूरी , आखिरी हथियार , और मेरे जिंदा होने का आखिरी सबूत है


यहाँ यह कविता दंतेवाडा वाणी से साभार 

1 टिप्पणी:

  1. गीतांजलि कुमार2 नवंबर 2012 को 10:34 am बजे

    महोदय,आपकी कविता निश्चित ही प्रसंशनीय है,,किन्तु धन्यवाद् कह देने मात्र से वो आग शांत हो जायेगी जो मुझे अन्दर ही अन्दर जला रही है,जबकि अभी उसके शांत होने का समय नहीं है |

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