बुधवार, 15 अगस्त 2012

संघ की देशभक्ति : कुछ ऐतिहासिक तथ्य


आज पंद्रह अगस्त को संघ का देशभक्ति का दावा कुछ ज्यादा ही मुखर हो जाता है. आइये इतिहास के पन्नों से तलाशें संघ और देशभक्ति के रिश्ते की कुछ असलियत. यह अंश शम्सुल इस्लाम की किताब 'वी आर अवर नेशनहुड डिफाइंड - ए क्रिटिक' से लिया गया है और अनुवाद मेरा है.

वैसे यह भी की यह 'जनपक्ष' की तीन सौवीं पोस्ट है...आप सबके बिना यह सफ़र मुमकिन न था. इस सफ़र पर अगली पोस्ट में कुछ और...
गोलवलकर ने राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन से दूर रहने को सही ठहराया

गोलवरकर ने अपनी किताब ‘हम या हमारी परिभाषित राष्ट्रीयता’ में यह स्पष्ट कर दिया कि उनकी हिन्दुत्व की अवधारणा अपनी उत्पति और स्वभाव से ही ब्रिटिश राज के ख़िलाफ़ पनप रहे उस स्वाधीनता संग्राम से कोई संबंध और लगाव नहीं रख सकती थी जो एक ऐसी व्यवस्था के लिये लड़ रहा था जहाँ हिन्दू और मुसलमान दूसरे समुदायों के साथ बराबरी के भागीदार हो सकें। स्वाभाविक तौर पर गोलवरकर ने ऐसे किसी धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवादी विमर्श का हिस्सा बनने से इंकार किया क्योंकि वह हिन्दू राष्ट्र या नस्ल की श्रेष्ठता स्वीकार नहीं करता। वह आज़ादी की लड़ाई का हिस्सा नहीं बनना चाहते थे क्योंकि यह लड़ाई धार्मिक विभेदों से ऊपर उठ कर सभी भारतीय जन की मुक्ति की तलबगार थी। चूंकि यह लड़ाई हिंदू राष्ट्र के निर्माण की आश्वस्ति नहीं देती थी, एक हिन्दू राष्ट्रवादी के रूप में गोलवरकर ने औपनिवेशिक सत्ता के ख़िलाफ़ ज़ारी लड़ाई से अलग रहने के लिये निम्नलिखित वैचारिक तर्क प्रस्तुत किया –

‘हम एक राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के पक्ष में हैं न कि राज्य के रूप में रूप में राजनैतिक अधिकारों के एक बेतरतीब समुच्चय के। हम जो चाहते हैं वह है – स्वराज और हमें इस बात को पक्के तौर पर जानना होगा कि इस ‘स्व’ का अर्थ क्या है। ‘हमारा राज्य’- हम कौन हैं? इस दौर में यही सबसे ज़रूरी सवाल है जिसका जवाब देने की हम कोशिश करेंगे। इसके लिये, हमें दुनिया भर में स्वीकृत राष्ट्र की अवधारणा को समझना तथा विवेचित करना होगा और यह देखना होगा कि हम ख़ुद उससे कितने सहमत हैं? और अगर नहीं तो क्यों और क्या इस तरह का भटकाव किसी मायने में सही है। हमें निश्चित तौर पर अपने संदर्भ में वैश्विक अवधारणा को लागू कर यह देखना होगा कि राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के लिये हमारे संघर्ष में राष्ट्रीय विचार का क्या अर्थ होना चाहिये। और हम अपनी समस्या की तरफ़ एक की जगह कई अन्य दृष्टिकोणों से देखेंगे।[1]  

उनके दृष्टिकोण से भारतीय राष्ट्रवाद के धर्मनिरपेक्ष विमर्श के ठीक उलट भारतीय राष्ट्रवाद का आधार केवल हिन्दू धर्म और नस्ल ही हो सकते हैं और कोई भी अलग अन्तर्वस्तु एक वि-राष्ट्रीकरण की प्रक्रिया की और ले जायेगी।

‘अब यह देखते हुए कि प्राचीन हिन्दुस्थान अपनी हिन्दू राष्ट्रीयता को समझता था हमारे सामने स्वाभाविक रूप से यह सवाल उठता है कि कैसे हमलोग आज तक उस वैज्ञानिक अवधारणा और अपनी हिन्दू राष्ट्रीय चेतना को जाग्रत करने की ज़रूरत को भुलाये रहे? ऐसा क्यूं हुआ कि हमारे तमाम कार्यकर्ताओं ने दूसरे रास्ते पकड़ लिये और ऐसी राष्ट्रीयता के लिये घातक कामों में लगे हैं? ऐसा क्यूं हो रहा है कि आज हम यह देख रहे हैं कि यह पारंपरिक और सही समझ ज़्यादा लोगों को आकर्षित करने में असफल रही है और वे अपने वास्तविक राष्ट्रीय प्रकृति की एक गड़बड़ समझदारी से शुरुआत करते हैं। लेकिन उनकी ग़लत समझ के कारणो का पता लगाना मुश्किल नहीं है।[2]     

वह सभी समुदायों और वर्गों के एक संयुक्त मुक्ति संघर्ष को और कुछ नहीं अपितु विराष्ट्रीकरणकहने की हद तक जाते हैं। मिले-जुले राष्ट्रवाद की अवधारणा को पूरी तरह  ख़ारिज़ करते हुए उन्होंने कहा कि

हिन्दुओं को यह कहकर बरगलाया जा रहा है कि हम, जो हिन्दू राष्ट्रीय पुनर्जागरण के पक्ष में हैं ( जैसा कि हमें सबसे तार्किक रूप में होना चाहिये), ‘राष्ट्रीयनहीं हैं और वे दूसरे, जो सराय सिद्धांत से बेहूदे तरीके से चिपके हुए हैं और अपनी सांस्कृतिक विरासत को नहीं स्वीकार करते, वास्तविक देशभक्तहैंहमारा क्रमिक विराष्ट्रीयकरण, हमारा अपनी नस्ली भावना को सो जाने देना ही हमारी वर्तमान दुखद अवस्था का मूल कारण है और आज भी अपनी वास्तविक राष्ट्रीयता के प्रति हमारी वही अरुचि राष्ट्र के अपने सर्वोच्च शिखर तक उठने और दुनिया में अपनी वाज़िब जगह फिर से हासिल करने में बाधा उत्पन्न कर रही है।[3] 










स्वाधीनता संग्राम से गद्दारी

हम या हमारी परिभाषित राष्ट्रीयताके अलावा भी गोलवरकर का तमाम ऐसा लिखा और कहा उपलब्ध है जिससे यह बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि वह भी अपने गुरु हेडगेवार की ही तरह स्वाधीनता आंदोलन से नफ़रत करते थे। आज़ादी के काफ़ी बाद मध्यप्रदेश के इन्दौर में 9 मार्च 1960 को आर एस एस के उच्च-स्तरीय कार्यकर्ताओं की एक बैठक को संबोधित करते हुए वे स्वाधीनता आंदोलन के प्रति अपने दृष्टिकोण को निम्न शब्दों में व्यक्त करते हैं-

रोज़मर्रा के कामों में हमेशा उलझे रहने की ज़रूरत के पीछे एक और कारण है। देश में समय-समय पर विकसित होने वाली स्थितियों के कारण लोगों के दिमाग़ में कुछ बैचैनी बनी रहती है। 1942 में ऐसी ही उथल-पुथल थी। उसके पहले 1930-31 का आंदोलन (असहयोग आंदोलन) था। उस समय कई दूसरे लोग डाक्टर जी के पास गये थे। इस प्रतिनिधिमण्डल ने डाक्टर जी से अनुरोध किया कि यह आंदोलन स्वाधीनता दिलायेगा और संघ को भी पीछे नहीं रहना चाहिये। उस समय जब एक सज्जन ने डाक्टर जी से कहा कि वह जेल जाने को तैयार है तो डाक्टर जी ने कहा, ‘ज़रूर जाइये। लेकिन फिर आपके परिवार का ख़्याल कौन रखेगा? उस सज्जन ने जवाब दिया, ‘मैने न केवल दो वर्षों तक घर चल जाने लायक अपितु आवश्यकतानुसार आर्थिक दण्ड के भुगतान की भी पर्याप्त व्यवस्था कर दी है।इस पर डाक्टर जी ने उनसे कहा, ‘अगर आपने पर्याप्त धन की व्यवस्था कर ली है तो दो वर्षों तक संघ का कार्य करने के लिये आ जाईये।घर लौटने के बाद वह सज्जन न तो जेल गये और न ही संघ कार्य करने के लिये आगे आये।[4]

यह घटना स्पष्ट तौर पर दिखाती है कि संघ नेतृत्व किस तरह ईमानदार देशभक्त लोगों को हतोत्साहित कर आज़ादी की लड़ाई के उद्देश्य से हटाने में लगा था।

भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में असहयोग आंदोलन तथा भारत छोड़ो आंदोलन, मील के दो महान पत्थर थे और यहाँ आप देखिये कि संघ के महान गुरु (गोलवलकर) की आज़ादी की लड़ाई की इन दो महान घटनाओं पर क्या थीसिस है। कांग्रेस के नेतृत्व वाले ब्रिटिश विरोधी इन दो महान आंदोलनो पर ख़ुले तौर पर कीचड़ उछालते हुए वह कहते हैं-

निश्चित तौर पर इस संघर्ष के बुरे परिणाम होंगे। 1920-21 के आंदोलन (असहयोग आंदोलन) के बाद लड़के उद्दण्ड हो गये। यह नेताओं पर कीचड़ उछालने की कोशिश नहीं है। लेकिन ये संघर्ष के अवश्यंभावी परिणाम थे। बात यह है कि हम इनके नतीजों को सही तरीके से नियंत्रित नहीं कर पाये। 1942 के बाद लोग अक्सर ऐसा सोचने लगे कि अब क़ानून के बारे में सोचने की कोई ज़रूरत नहीं है।[5]

इस प्रकार गोलवरकर चाहते थे कि भारतीय अमानवीय ब्रिटिश शासकों के बर्बर तथा दमनकारी क़ानूनों का सम्मान करें! जैसा कि हम आगे देखेंगे, गोलवरकर ने यह स्वीकार किया कि 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान संघ के रवैये की चतुर्दिक आलोचना के बावज़ूद तत्कालीन संघ नेतृत्व (उस समय गोलवरकर संघ के सरसंघचालक थे) स्वाधीनता संग्राम से अलग रहने के अपने स्टैण्ड से नहीं डिगा।

‘1942 में भी कई लोगों के हृदय में बड़ी प्रबल भावनायें थीं। उस समय भी संघ का रोज़मर्रा का काम ज़ारी रहा। प्रत्यक्ष रूप से संघ ने कुछ न करने का संकल्प लिया। बहरहाल, संघ के स्वयंसेवकों के मन में उथल-पुथल मची हुई थी। ऐसा केवल बाहरी लोगों ने नहीं बल्कि स्वयंसेवकों ने भी कहा कि संघ अकर्मण्य लोगों की संस्था है, वे फालतू बातें करते हैं। वे बुरी तरह से नाराज़ भी हुए।[6] 

बहरहाल, संघ का ऐसा एक भी प्रकाशन या दस्तावेज़ नहीं है जो भारत छोड़ो आंदोलन या उस समय चल रही आज़ादी की लड़ाई में संघ द्वारा किये गये अप्रत्यक्ष कामों पर कुछ प्रकाश डाल सके। हालाँकि उस दौर के जन उभार को देखते हुए यह मुमकिन है कि संघ से जुड़े कुछ लोगों ने व्यक्तिगत तौर पर किन्हीं ब्रिटिश विरोधी संघर्षों में हिस्सेदारी की हो, लेकिन वे इक्की-दुक्की पृथक घटनायें रही होंगी। बहरहाल, एक संगठन के तौर पर संघ ने ब्रिटिश साम्राज्यवादी शासन के ख़िलाफ़ या दमित भारतीय जनता के अधिकारों के लिये कोई संघर्ष नहीं छेड़ा, न ही संघ का उच्च नेतृत्व कभी भी आज़ादी की लड़ाई का हिस्सा रहा।

गोलवरकर और संघ विदेशी शासन के ख़िलाफ़ किसी भी आंदोलन के प्रति अपना विरोध छिपा पाने में कभी भी सफल नहीं हुए। यहां तक कि मार्च 1947 में भी जब ब्रिटिश शासक सिद्धांत रूप में भारत छोड़कर चले जाने का फैसला कर चुके थे, दिल्ली में संघ के वार्षिक दिवस समारोह को संबोधित करते हुए गोलवलकर ने कहा कि संकुचित दृष्टि वाले नेता ब्रिटिश राज्यसत्ता के विरोध का प्रयास कर रहे हैं। इस बिन्दु को और विस्तारित करते हुए उन्होंने कहा कि देश की बुराईयों के लिये शक्तिशाली विदेशियों को दोषी ठहराना उचित नहीं। उन्होंने विजेताओं से अपनी घृणा के आधार पर राजनैतिक आंदोलन शुरु करने की प्रवृतिकी निन्दा की।[7] इस मुद्दे पर अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करने के लिये उन्होंने एक घटना का वर्णन भी किया :

‘एक बार एक सम्माननीय वरिष्ठ सज्जन हमारी शाखा में आये। वह संघ के स्वयंसेवकों के लिये एक नया संदेश लाये थे। जब उन्हें बोलने का मौका दिया गया तो वह बड़े प्रभावी तरीके से बोले, ‘अब केवल एक काम कीजिये। अंग्रेज़ों को पकड़िये, उनकी पिटाई कीजिये और उन्हें खदेड़ दीजिये। बाद में जो होगा देखा जायेगा।उन्होंने बस इतना कहा और बैठ गये। इस तरह की विचारधारा के पीछे राज्यसत्ता के प्रति दुख और क्षोभ की भावना और घृणा पर आधारित प्रतिक्रियावादी प्रवृति है। आज के राजनैतिक संवेदनावाद की बुराई यह है कि इसका आधार प्रतिक्रिया, क्षोभ और क्रोध और दोस्ताने को भुलाकर विजेताओं का विरोध है।[8]

गोलवरकर के प्रति पूरी इमानदारी बरतते हुए यह कहना होगा कि उन्होंने कभी इस बात का दावा नहीं किया कि संघ ब्रिटिश शासन के ख़िलाफ़ था। 5 मार्च 1960 को इंदौर में दिये गये भाषण के दौरान उन्होंने स्वीकार किया कि :

बहुत सारे लोगों ने अंग्रेज़ों को बाहर निकाल कर देश को आज़ाद कराने की प्रेरणा से काम किया। अंग्रेज़ों की औपचारिक विदाई के बाद यह प्रेरणा कमज़ोर पड़ गयी। असल में इस तरह की प्रेरणा धारण करने की कोई ज़रूरत ही नहीं थी। हमें याद रखना चाहिये कि अपनी प्रतिज्ञा में हमने देश को धर्म तथा संस्कृति रक्षा के द्वारा आज़ाद कराने की बात की है। उसमें अंग्रेज़ों की विदाई का कहीं कोई ज़िक्र नहीं है।[9]  

यहाँ तक कि संघ औपनिवेशिक शासन को एक अन्याय मानने के लिये भी तैयार नहीं था। 8 जून 1942 को जब देश अभूतपूर्व ब्रिटिश दमन के दौर से गुज़र रहा था संघ कार्यकर्ताओं के अखिल भारतीय प्रशिक्षण कार्यक्रम की समाप्ति के अवसर पर दिये गये भाषण में गोलवरकर ने घोषणा की :

समाज की वर्तमान पतित अवस्था के लिये संघ किसी और को दोष नहीं देना चाहता। जब लोग दूसरों के सर पर दोष मढ़ने लगते हैं तो उसके मूल में उनकी अपनी कमज़ोरी होती है। कमज़ोरों के प्रति होने वाली नाइंसाफ़ी को मज़बूतों के सर मढ़ना बेकार हैसंघ अपना बेशक़ीमती वक़्त दूसरों को गाली देने या उनकी आलोचना करने में बर्बाद नहीं करना चाहता। अगर हम यह जानते हैं कि बड़ी मछली छोटी मछली को निगल जाती है तो उस बड़ी मछली पर आरोप लगाना निरा पागलपन है। अच्छा हो या बुरा क़ुदरत का नियम हमेशा सही होता है। यह कह देने से कि यह अन्यायपूर्ण है वह नियम बदल नहीं जाता।[10]

इस प्रकार यह देखा जा सकता है कि गोलवरकर के नेतृत्व में संघ ने आज़ादी की पूरी लड़ाई के दौरान एक अत्यंत विश्वासघाती भूमिका निभाई। सभी साक्ष्य इसकी तोड़फोड़ की कार्यवाहियों की ओर तथा इस तथ्य की ओर इशारा करते हैं कि यह संगठन और इसका नेतृत्व कभी भी आज़ादी की लड़ाई का हिस्सा नहीं रहे। आर एस एस का इकलौता महत्वपूर्ण योगदान ब्रिटिश साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ भारतीय जनता के उभरते हुए  एकताबद्ध संघर्ष को हिन्दू राष्ट्र के अपने अत्यन्त पृथकतावादी नारे से लगातार बाधित करना था।         

   


भगत सिंह, चन्द्रशेखर आज़ाद और अशफ़ाक़ उल्ला ख़ान की क्रांतिकारी परंपरा को कलंकित करना

गोलवरकर के नेतृत्व में संघ न केवल आज़ादी की लड़ाई से अलग रहा बल्कि उसने शहादत की पूरी परंपरा को भी ख़ारिज़ किया और इस प्रकार भगत सिंह, चन्द्रशेखर आज़ाद, अशफ़ाक़ उल्ला ख़ान और उनके जैसे क्रांतिकारियों के नेतृत्व वाले आंदोलन को कलंकित भी किया। वह लिखते हैं- हमारी भारतीय संस्कृति के अलावा बाक़ी सभी शहादत की प्रशंसा करते हैं और उसे आदर्श बनाते हैं तथा ऐसे शहीदों को अपने नायकों दर्ज़ा देते हैं।[11] वह यह तर्क देने की हद तक जाते हैं कि

‘हमारी पूजा के तत्व हमेशा सफल जीवन रहे हैं। यह साफ़ है कि जो जीवन में असफल होते हैं उनमें निश्चित तौर पर कुछ गंभीर खामियां होती हैं। जो ख़ुद हारा हुआ है वह किस प्रकार दूसरों को रौशनी दे सकता है और सफलता की राह पर ले जा सकता है।[12]

निश्चित तौर पर यही कारण रहा होगा कि चाहे हेडगेवार का नेतृत्व रहा हो या गोलवरकर का, संघ ने ‘विजेता’ ब्रिटिश शासकों का कभी विरोध नहीं किया। यहाँ पर शहादत की पूरी परंपरा की निंदा करते गोलवरकर के हुए कुछ और मौलिक विचार प्रस्तुत हैं :

‘निःसंन्देह ऐसे पुरुष जो शहादत को अपनाते हैं महान नायक हैं और उनका दर्शन भी प्रमुखतया मर्दाना है। वे ऐसे सामान्य पुरुषों से बहुत ऊपर हैं जो भयभीत होकर भाग्य के भरोसे बैठ जाते हैं और भय तथा अकर्मण्यता में पड़े रहते हैं। लेकिन सबके बावज़ूद ऐसे व्यक्ति हमारे समाज में आदर्श की तरह नहीं देखे जाते। हम उनके बलिदान को महानता के उस सर्वोच्च बिंदु की तरह नहीं देखते जिसकी आकांक्षा पुरुषों को करनी चाहिये। क्योंकि अंततः वे अपने आदर्श की प्राप्ति में असफल हुए, और असफलता का मतलब है कि उनमें कोई गंभीर त्रुटि थी।[13]

क्या शहीदों को इससे अधिक कलंकित और अपमानित करने वाला कोई वक्तव्य हो सकता है?

महान क्रांतिकारियों के बारे में ऐसी बकवास फैलाने वाले गोलवलकर अकेले नहीं थे। आज़ादी की लड़ाई के शहीदों को प्यार करने वाले और उनकी प्रशंसा करने वाले किसी भी भारतीय को अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लड़ रहे उन क्रांतिकारियों के बारे में हेडगेवार की भावनायें जानकर धक्का लगेगा। संघ द्वारा प्रकाशित हेडगेवार की जीवनी के अनुसार उनका दृढ़ विश्वास था कि-

‘देशभक्ति का मतलब केवल जेल जाना नहीं है। इस तरह की दिखावटी देशभक्ति में बह जाना सही नहीं है। वह (हेडगेवार) अक्सर यह अपील किया करते थे कि वक़्त आने पर देश के लिये मरने के लिये हमेशा तैयार रहने के साथ-साथ देश की आज़ादी के लिये संगठन बनाते हुए ज़िंदा रहने की इच्छा बहुत ज़रूरी है।[14]

यह वास्तव में बेहद करुणास्पद है कि भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव, अशफ़ाक़ उल्ला ख़ान, चन्द्रशेखर आज़ाद जैसे क्रांतिकारी इस ‘महान देशभक्त विचारक’ के संपर्क में नहीं आये। अगर उन्हें इनसे मिलने का महान अवसर मिला होता तो इन शहीदों को ‘दिखावटी देशभक्ति’ के लिये अपनी जान की क़ुर्बानी देने से बचाया जा सकता था। निश्चित रूप से यही वज़ह रही होगी कि संघ ने आज़ादी की लड़ाई के दौरान न तो कोई शहीद पैदा किया न ही कोई देशभक्त।

जिन लोगों ने ब्रिटिश शासकों के ख़िलाफ़ संघर्ष में अपना सब कुछ क़ुर्बान कर दिया उनके प्रति गोलवरकर के दृष्टिकोण को ‘शर्मनाक’ कहना भी पर्याप्त नहीं होगा। भारत के अंतिम मुग़ल शासक बहादुर शाह ज़फ़र देशभक्त भारतीयों का केंद्रबिंदु और 1857 के महान स्वाधीनता संग्राम का प्रतीक बनकर उभरे थे। उनका मज़ाक उड़ाते हुए गोलवलकर ने लिखा :

‘1857 में भारत के तथाकथित अंतिम शासक ने आह्वान किया था – गाज़ियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की/ तख़्ते लंदन तक चलेगी तेग़ हिन्दुस्तान की…लेकिन अंततः क्या हुआ? वह हर आदमी जानता है।[15]

देश के लिये अपना सब कुछ क़ुर्बान करने वालों के बारे में गोलवलकर क्या सोचते थे यह उनके नीचे लिखे शब्दों से भी स्पष्ट है। उनमें अपनी मातृभूमि की आज़ादी के लिये अपना जीवन न्यौछावर करने की आकांक्षा रखने वाले महान क्रांतिकारियों से इस तरह का सवाल पूछने का दुस्साहस था कि मानो वह अंग्रेज़ों का प्रतिनिधित्व कर रहे हों,

‘लेकिन एक आदमी को सोचना चाहिये कि क्या संपूर्ण राष्ट्रीय हित इसके द्वारा पूरा होगा? बलिदान के कारण पूरे समाज देश के हित के लिये अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देने की सोच नहीं बढ़ती। अब तक के अनुभव से यह पाया गया है कि सीने की यह आग आम लोगों के लिए असहनीय होती है।’[16]





















[1] देखें, गोलवलकर की किताब वी आर अवर नेशनहुड डिफाइंड’, पेज़-3, प्रकाशक- भारत पब्लिकेशन, 1939
[2] देखें, गोलवलकर की किताब वी आर अवर नेशनहुड डिफाइंड’, पेज़-57, प्रकाशक- भारत पब्लिकेशन, 1939
[3] वही, पेज़-63
[4] देखें श्री गुरुजी समग्र दर्शन, खण्ड-4, पेज़-39-40, प्रकाशक- भारतीय विचार साधना, नागपुर, 1981
[5] वही, पेज़ 41
[6] वही, पेज़ 40
[7] देखें श्री गुरुजी समग्र दर्शन, खण्ड-1, पेज़-109, प्रकाशक- भारतीय विचार साधना, नागपुर, 1981
[8]वही पेज़-109
[9] वही, पेज़-2
[10] वहीपेज़ 11-12
[11] देखें ,गोलवरकर की पुस्तक बंच आफ़ थाट्सका पेज़-183, प्रकाशक- साहित्य सिंधु, बेंगलोर- 1996
[12] वही, पेज़ 282
[13] वही, पेज़-283
[14] देखें, सी पी भिषकर की किताब ‘संघवृक्ष के बीज- डा केशव राव हेडगेवार’ का पेज़-21, प्रकाशक- सुरुचि, दिल्ली-1994
[15] देखें श्री गुरुजी समग्र दर्शन, खण्ड-1, पेज़-11, प्रकाशक- भारतीय विचार साधना, नागपुर, 1981

[16] वही पेज़-61

12 टिप्‍पणियां:

  1. ताज्जुब हुआ यह जान कर कि,जिस RSS का गठन ही ब्रिटिश साम्राज्य की रक्षा के लिए हुआ था उससे देश भक्ति की उम्मीद की गई। संघ ने अपने मालिक ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के हितों का संरक्षण पूरी वफादारी से क्या था। संशय क्यों हुआ?

    जवाब देंहटाएं
  2. सच्चाई तो यही है कि आरएसएस ने 1942 की बात तो छोडिये 1925 में स्थापना के बाद आजादी की लडाई मे भाग लेने की कभी कोई आवष्यकता नही समझी थी। 15 अगस्त 1947 को देश की आजादी तक आरएसएस की स्थापना के 22 वर्ष पूरे हो गये थे। इन 22 वर्षो में आरएसएस ने देश की आजादी की लड़ाई में कोई योगदान नही दिया।

    जिन्ना से आरएसएस का तालमेल तब भी उजागर हुआ था जब आडवानी ने देश के गृहमंत्री के रूप में कराची यात्रा के दौरान जिन्ना को धर्म निरपेक्ष कहा था।। कांग्रेस एवं आरएसएस में धर्म निरपेक्षता के मुद्दे पर शुरू से मतभेद रहे हैं। कांग्रेस ने और महात्मा गांधी,पं.नेहरू, सरदार पटेल, लाल बहादुर शास्त्री समेत कांग्रेस के सभी बडे नेताओं ने विभाजनकारी विचारों और विभाजनकारी शक्तियों के खिलाफ निरंतर संघर्ष किया है और इसके लिये कुर्बानियां भी दी है।

    आजादी के समय से ही कांग्रेस के स्वतंत्रता आंदोलन को कमजोर करने के लिये मुस्लिम राष्ट्रवाद और हिन्दू राष्ट्रवाद एक दूसरे की होड़ करते हुये एक दूसरे को बढ़ावा देते थे और अंग्रेज फूट डालो और राज करो की नीति में जहां जब जैसी जरूरत होती थी इन का उपयोग करते थे।

    आर एस एस के जन्म के मूल मे ही अँग्रेज़ी साम्राज्य बाद का पोषण है .वे आज अँग्रेज़ों के जाने के बाद अमेरिकी साम्राज्य बाद का छद्म पोषण ही करते हैं .

    जवाब देंहटाएं
  3. In the same book Golwalkar says "As far as the national tradition of this land is concerned, it never considers that with a change in the method of worship, an individual ceases to be the son of the soil and should be treated as an alien. Here, in this land, there can be no objection to God being called by any name whatever. Ingrained in this soil is love and respect for all faiths and religious beliefs. He cannot be a son of this soil at all who is intolerant of other faiths." You should be ashamed of selective quoting

    जवाब देंहटाएं
  4. बेनामी रहकर और अपने 'उद्धरण' में पेज संख्या (किताब का भी क्योंकि the same book से कुछ साफ़ नहीं होता, यहाँ कई किताबें उद्धृत हैं) न देकर आपने खुद ही अपनी विश्वसनीयता पर सवाल खड़ा कर दिया है. फिर भी लीजिये कुछ और चीजें

    एम एस अने - ‘मैने पाया कि मुसलमानों की समस्या से गुज़रते हुए लेखक हिन्दू राष्ट्रीयता और हिन्दू संप्रभुतासंपन्न राज्य के बीच का अंतर हमेशा दिमाग़ में नहीं रख पाये हैं। एक संप्रभु राज्य के रूप में हिन्दू राष्ट्र एक सांस्कृतिक राष्ट्रीयता के रूप में हिन्दू राष्ट्र से पूरी तरह भिन्न चीज़ है। किसी भी आधुनिक राज्य ने एक बार अपनेआप या फिर किसी क़ानूनी नियम के चलते घुलमिल जाने के बाद अपने यहां रहने वाले विभिन्न राष्ट्रीयताओं वाले अल्पसंख्यकों को नागरिक अधिकारों से वंचित नहीं किया है।’ (गोलवलकर की किताब ‘वी आर अवर नेशनहुड डिफाइंड’ की भूमिका में , पेज़-xiii, प्रकाशक- भारत पब्लिकेशन, 1939)

    २- वैसे राकेश सिन्हा इस किताब को गोलवरकर का ओरिजिनल काम मानते ही नहीं ---- "निश्चित रूप से एक व्यग्र और दिक्भ्रम वाली समझ उस किताब की अन्तरवस्तु को प्रभावित करती है। उस समय तक गुरुजी के आर एस एस के वैचारिक मिशन से जुड़े बहुत दिन नहीं हुए थे। तथ्य यह है कि वह किताब ‘हम’ (हम और हमारी परिभाषित राष्ट्रीयता) न तो संघ के और न ही परिपक्व गुरुजी के विचारों का प्रतिनिधित्व करती है। उन्होंने यह तब ख़ुद भी स्वीकार किया जब उन्होंने य रहस्योद्घाटन किया कि इस किताब में उनके विचार नहीं है बल्कि यह जी डी सावरकर की किताब ‘राष्ट्र मीमांसा’ का संक्षिप्त रूप है।" (राकेश सिन्हा की किताब ‘श्री गुरुजी एण्ड इण्डियन मुस्लिम्स’, प्रकाशक- सुरुचि, दिल्ली-2006 )

    ३- गोलवरकर - यह ‘स्वाभाविक और दैवी’ है कि केवल हिन्दुओं को भारतीय नागरिक होने का अधिकार होना चाहिये। (वही, पेज-२६)

    ४- 1960 में मुसलमानों, इसाईयों, यहूदियों और पारसियों के बारे में एक भाषण देते हुए उन्होंने कहा कि अल्पसंख्यक बिरादरियां ‘मेहमान’ हैं लेकिन इस धरती की संतान नहीं। (क्रेग बैक्स्टर की किताब ‘द जनसंघ : ए बायोग्राफी आफ एन इण्डियन पोलिटिकल पार्टी’ पेज ३१-३२)

    ५- कोई समुदाय राज्य के विभाजन के अधिकार का दावा नहीं कर सकता। लोकतांत्रिक राज्य उस राष्ट्रीयता के संप्रभुत्व में रहेगा जिससे राज्य की बहुसंख्या संबद्ध है। दूसरों को अपनी संस्कृति तथा धर्म के संरक्षण के लिये कुछ विशेष सुरक्षा प्रावधानों के साथ बहुसंख्यकों की ही तरह नागरिकता की सारी सुविधायें प्राप्त होंगी। मेरे ख़्याल से यही सबसे सही, सबसे न्यायपूर्ण तथा सबसे व्यवहारिक दृष्टिकोण है जो हमें अपनाना चाहिये। (वी आर अवर नेशनहुड डिफाइंड, लेखक की भूमिका पेज-४ )

    इतने से काम चल जाएगा भाई?

    जवाब देंहटाएं
  5. ये बात तो पता ही थी कि संघ की देशभक्ति कैसी थी और स्वतंत्रता संग्राम में उनका कितना योगदान था, लेकिन आपने अपनी शोधपरक दृष्टि से बिन्दुवार विश्लेषण करके और भी स्पष्ट कर दिया. इन लोगों के लिए आज भी देशभक्ति का मतलब वही है, जो इनके संस्थापक और गुरुओं ने बताया था.

    जवाब देंहटाएं
  6. जनपक्ष का यह सफर आपके लिए आसान तो कत्तई नहीं रहा होगा | आपने इसको संचालित करने के लिए जो लाईन ली , उस पर चलना आज के दौर में बहुत ही कठिन है ...| और फिर उस पर चलते हुए 300 पोस्ट का आंकड़ा प्राप्त कर लेना तो सचमुच ही विस्मयकारी है | लोग एक बार सच बोलने के बाद जीभ जलने की बात करने लगते हैं , और उस जलन को ठंडा करने के लिए सालों जुगाली करते हैं | ऐसे में यह समझ पाना कोई कठिन काम नहीं है , कि जिस ब्लाग पर अपना पक्ष स्पष्ट किये बिना कोई पोस्ट ही नहीं लगती हो , वहाँ के झंझावत कैसे रहे होंगे ,और बतौर ब्लॉगर आपके सामने कितनी चुनौतियाँ आयी होंगी | तो सबसे पहले इसके लिए आपको क्रांतिकारी लाल सलाम...

    इस पोस्ट को पढकर भी जनपक्ष की दिशा को जाना जा सकता है | देश भक्ति में पोर-पोर डूबने का दिखावा करने वाले लोगों की वास्तविक मानसिकता का पर्दाफाश करता हुआ यह लेख आज के दिन में भी बहुत प्रासंगिक है ...बधाई इसके लिए

    जनपक्ष का यह कारवा चलता रहे , हम सबकी यह कामना है ...

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. यह आप दोस्तों के सहयोग से ही मुमकिन हुआ मित्र

      हटाएं
  7. एक बार मैदान थाम लेने के बाद अप संघर्ष से उपराम नहीं होते , न विराम लेते हैं . आप का यह गुण सबके सीखने लायक है. आगे ही आगे बढाए जा कदम ..

    जवाब देंहटाएं
  8. Isko padh kar aisa laga ki ye vidvesh ki bhavna se likha gaya hai,aur arop bahut hi nimn star ke hai, jiska vajood nahi hai.

    जवाब देंहटाएं
  9. कल 26/01/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
    धन्यवाद !

    जवाब देंहटाएं

स्वागत है समर्थन का और आलोचनाओं का भी…