गुरुवार, 16 अगस्त 2012

भोपाल से तीन लेखकों के वक्तव्य की अगली कड़ी



सांस्कृतिक विकृतीकरण फासीवाद का ही पूर्वरंग है

(सोने में जंग लगेगी तो फिर लोहा क्या करेगाः दूसरी किस्त)
पहली किस्त यहाँ 

हमारे पिछले वक्तव्य पर साहित्य-समाज में विपुल सहमति से स्पष्ट है कि खासतौर पर मध्यप्रदेश में साहित्य-संस्कृति के क्षेत्र में पैदा किये गये और लगातार पैदा किये जा रहे नये-नये संकटों के प्रति एक व्यापक चिंता है। साथ ही प्रतिरोधात्मक कार्रवाही के लिए अधिकांश रचनाकारों और संस्कृतिकर्मियों में बेचैनी है और प्रतिवाद भी। तमाम अग्रज और युवा रचनाकार साथियों के समर्थन के प्रति कृतज्ञता के साथ, अब हम उनके सुझावों की रोशनी में कुछ बातें जोड़ना चाहते हैं और कुछ बिंदु अधिक स्पष्ट कर देना चाहते हैं जिससे प्रतिरोध को तीक्ष्ण किया जाकर, उसे कुछ और विस्तृत आधार दिया जा सके।

1. मध्यप्रदेश की वर्तमान सरकार के संस्कृति विभाग के अधीन कार्यरत समस्त सांस्कृतिक उपक्रमों यथा अकादमियों, परिषदों, सृजनपीठों और भारत भवन न्यास के कार्यकलापों एवं नीतियों के खि़लाफ़ हमारा विरोध सकारण है और साफ तौर पर वैचारिक भी। लेकिन यह सिर्फ भारत भवन न्यास के विरोध तक सीमित नहीं है, जैसा कि वातावरण बनाया गया है। लेकिन हम भलीभांति परिचित हैं कि भारत भवन न्यास भी म.प्र. सरकार के सुविचारित, राजनीतिक और सांस्कृतिक एजेण्डे के तहत काम करनेवाली संस्था है। यह भी कहा जा सकता है कि वह म.प्र. सरकार की सांस्कृतिक-राजनीतिक नीतियों पर एक मुखौटा है जो बेहद चालाकी के साथ, कुछ महत्वपूर्ण और मान्य रचनाकारों की सहभागिता को प्रेरित और नियोजित कर, वर्तमान सरकार की ढकी-छिपी मंशाओं के कलुष और राजनीतिक इरादे को छिपाने की कोशिश कर रहा है। (कुछ समय पहले तक यहाँ के न्यासियों में चल रही अन्तर्कलहों ने भी इसे निर्लज्जता के साथ उजागर कर दिया था।) बहरहाल, संस्कृति विभाग के अधीन संस्थाओं में कार्यरत किसी भी कर्मचारी-अधिकारी से हमारा किसी प्रकार का व्यक्तिगत विरोध नहीं है, अगर कोई ऐसा मानता है तो यह उसकी नासमझी है, भ्रम है और मूल मुद्दे से भटकाने की हास्यास्पद कोशिश है। हम संस्कृति विभाग के सभी उपक्रमों, पत्रिकाओं और निकायों का अपने विचारधारात्मक कारणों से विरोध करते हैं। विगत आठ नौ वर्ष पूर्व तक महत्वपूर्ण मानी जाने वाली साहित्यिक पत्रिका ‘साक्षात्कार’ से दूरी भी इसी बात का एक और सहज प्रमाण है।

2. जैसा कि पिछले वक्तव्य में कहा था कि हमारा मुख्य विरोध इन संस्थाओं के राजनीतिक रूपांतरण को लेकर है। कुछ लोग इन स्थितियों के प्रति आँखें बंद कर लेना चाहते हैं, उनसे हम कहना चाहते हैं कि आज प्रतिवाद की जितनी जरूरत है, उतनी ज्यादा शायद पहले कभी नहीं थी। अन्य प्रदेशों में भी ऐसी ही स्थितियाँ बनी हैं और वहाँ भी प्रतिरोध की जरूरत बढ़ती जा रही है। सांस्कृतिक विकृतीकरण फासीवाद का ही पूर्वरंग है। इसलिए अकादमियों, न्यासों, परिषदों और सृजनपीठों पर नीमहकीम, असाहित्यिक, कलाविहीन, वैचारिक रूप से दरिद्र और दक्षिणपंथी लोगों को बैठाया जाता है तो उसका संज्ञान लेना ज़रूरी है। यदि यह राजनीतिक एजेंडे के तहत किया जा रहा है तो मामला अधिक गंभीर हो जाता है। महज अपनी पसंद का आदमी बैठाया जाना और अपनी विचारधारा के आदमी को पदासीन कराना, इन दो चीजों में जमीन-आसमान का फर्क होता है। हम स्मरण कर सकते हैं कि फासिज्म को संस्कृति के औजारों से लागू करना एक पुराना लेकिन धोखादेह कारगर तरीका रहता आया है। साथ ही, हिन्दी भाषा और साहित्य के उन्नयन और सांस्कृतिक-साहित्यिक अस्मिता को बनाने, बचाने के लिये स्थापित अनेक संस्थाएँ, यथा सम्मेलन और प्रचारिणी सभाएँ भी आज ऐसे लोगों का अड्डा बन कर रह गयी हैं जिनका हिन्दी या उसके साहित्य से दूर का भी रिश्ता प्रतीत नहीं होता। उत्तर प्रदेश, बिहार, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, दिल्ली या राजस्थान का दृश्य भी मध्यप्रदेश से बहुत अलग नहीं है। हम रेखांकित करना चाहते हैं कि समय आ गया है जब हिन्दी भाषा और साहित्य-हित के लिये बनाई गयी तमाम संस्थाओं की दुर्दशा और विरूपीकरण की कोशिश के खि़लाफ़ एक समुचित प्रतिरोधात्मक कार्रवाही भी लेखकों और संस्कृतिकर्मियों द्वारा शुरू की जाये।

3. यह वक्तव्य न तो पहले हस्ताक्षर अभियान था और न अब है। हमने अनुरोध करते हुए इन स्थितियों के प्रति ध्यानाकर्षण किया था कि रचनाकार साथी इस सारी स्थिति पर विचार करते हुए तय करें कि वे किसके साथ हैं, क्योंकि हम आश्वस्त हैं कि तमाम सुविज्ञ साहित्य संस्कृतिकर्मी अपनी पक्षधर्मी विवेक चेतना से अपना निर्णय लेने में सक्षम हैं। लेकिन हम कोई याचनापत्र जारी नहीं कर रहे हैं और न ही किसी तरह का कोई नेतृत्व करने की लालसा यहाँ है। हम सिर्फ हमारा वैचारिक और विचारधारात्मक पक्ष रख रहे हैं। दक्षिणपंथी राजनीति और उसकी सरकारों के प्रति हमारा रुख हमेशा से ही स्पष्ट है।

4. पूंजीवादी-लोकतान्त्रिक और दक्षिणपंथी राजनीतिक दलों की सरकारों की हमारी आलोचना, उनसे हमारा सम्बंध और संघर्ष हमेशा ही विचारधारात्मक होगा। लेकिन अन्यान्य विचारों के महत्वपूर्ण रचनाकारों के अवदान के प्रति हमारा आदर और कृतज्ञता कभी भी औछी नहीं रही है। हमारा विरोध साहित्यिक और सांस्कृतिक संस्थाओं को पर्देदारी के साथ जनविरोधी, राजनीतिक मंशाओं के उपक्रम बनाये जाने से है। हमारा विरोध वस्तुतः साहित्य संस्कृति की सार्वजनिक संस्थाओं के विकृतिकरण और उन पर अयोग्य व्यक्तियों के काबिज़ होने से है। हम जानते हैं कि वैचारिक आधार पर प्रतिरोध के दौरान औसतन तीन तरह के लोग सामने आते हैं। एक वे, जिनका प्रतिरोध की लंबी परंपरा के सुसंयोग के कारण फिलहाल हिन्दी के दृश्य में बहुलांश है, जो प्रस्तुत स्थितियों पर गंभीरता से विचार करते हुए बहुत ठोस आधार पर समर्थन देते हैं। दूसरे, वे जो अपनी दक्षिणपंथी या वामविरोधी वैचारिकता के कारण स्पष्ट तौर पर एक विपक्ष बनाते हैं। और तीसरे वे, जो कहीं नहीं रहना चाहते, जो कहीं भी प्रतिबद्ध नहीं हैं, जो हर बात को चुटकुले में, अंगभीरता और चलताऊ टिप्पणी में बदल देना चाहते हैं ताकि वे अपनी प्रतिभाहीनता के साथ कोई सेंध लगा सके, गुब्बारे लपक सकें। वे हर प्रतिबद्ध लड़ाई को अपने निजी मौके या निजी शत्रुता की तरह ही देख पाते हैं अथवा मजावादी वातावरण बनाने की कोशिश करते हैं। यह भी दिलचस्प है कि इधर इनके साथ ऐसे भूतपूर्व माक्र्सवादी, संप्रति उत्तर-आधुनिक, पॉपुलर संस्कृति के समर्थक भी प्रकट हुए, जिनके पास विचार और भाषा की गजब दरिद्रता है लेकिन वे हर जगह अपनी प्रकृति के अनुरूप हास्यास्पद या विचारहीन टिप्पणी करते हैं। वे वाहन में जुते न होकर भी उसे खींचने के भ्रम में रहते हैं। उनसे हमारा निवेदन है कि महोदय, आसमान आपकी टांगों पर नहीं टिका है, इन्हें नीचे कर लीजिये वरना इनका अन्यथा अर्थ भी प्रकट ही है। इनमें से पहले वर्ग के साथी हमारे नैसर्गिक मित्र हैं ही। अन्य से संघर्ष है और रहेगा, इसमें न हमें कभी संदेह था, न अब है। तमाशबीनों से हम सिर्फ इतना कहेंगे कि इतिहास किसी को क्षमा नहीं करता। 

5. किसी भी साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था में सहभागिता का निर्णय आधारहीन नहीं हो सकता। वह एक सचेत, सजग और वैचारिक निर्णय होता है, अवसरवादी नहीं। हम न तो अंध विरोध करना चाहते हैं न अंध समर्थन। लोकतान्त्रिक संस्थाओं का फासीवादी रूपांतरण किया जायेगा तो हम उसका विरोध करेंगें। प्रतिवाद का यह न पहला मौका है और न अन्तिम। हम विश्वास करते हैं कि सही लक्ष्य के लिये उठी धीमी और एकल आवाज़ें भी जरूरी होती हैं। समय-समय पर वामपंथी लेखक संगठनों द्वारा भी प्रतिरोध के निर्णय लिए ही गए हैं, जो वर्तमान में भी लागू हैं। अनेक बार संस्थाओं के बहिष्कार हुए हैं, फिर आवाजाही हुई है और जरूरत पड़ने पर फिर प्रतिवाद किया गया है। इस तरह का कोई भी विरोध स्थिर या व्यक्तिगत नहीं होता। कई बार लेखकों का एक समूह भी निर्णय लेता है, उसे अनेक साथी आगे बढ़ाते हैं और सोच समझकर अपनी तरह से शरीक होते हैं या उतना ही सोच समझकर कुछ लोग प्रतिरोध में शामिल नहीं होते। इसमें विचित्र कुछ भी नहीं, न ही कोई अंतर्विरोध है। यह सुखद है कि जन विरोधी, साहित्य-संस्कृति विरोधी एवं फासीवादी सत्ता संरचनाओं के विरुद्ध प्रतिरोध की परंपरा वर्तमान तक चली आती है और हम उसके हिस्से है। लेकिन यहाँ यह भी याद किया जा सकता है कि दुनियाभर में ऐसी सत्ता-संरचनाओं का विरोध करने में जब-जब भी लेखकों ने कोताही बरती है तब तब उसके दुष्परिणाम समाज के सामने आए हैं।

6. लगभग नौ बरस पहले ही हमने इन संस्थाओं में सहभागिता नहीं करने का निर्णय ले लिया था। तबसे हम लगातार मध्यप्रदेश सरकार की साहित्यिक और सांस्कृतिक संस्थाओं की गतिविधियों को देखते रहे हैं। समय-समय पर स्थानीय स्तर पर इनका विरोध भी करते रहे हैं लेकिन हमें लगा कि अब इस विरोध को व्यापक और अधिक प्रभावी बनाये जाने का समय आ गया है। सबकी तरह हमारी भी कुछ सहज सीमाएँ हैं। यह संभव भी नहीं कि सारी खबर कुल दो-चार लेखक ही रखें और हर विषय को, सांस्कृतिक प्रतिरोध के किसी एक पर्चे में और एक ही वक्तव्य का हिस्सा बना दें। हम विभिन्न क्षेत्रों में चल रहे जनांदोलनों में भी सामर्थ्‍यभर हिस्सेदारी करते रहे हैं। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि समाज के अन्य संकटों के सामने संस्कृति के संकट को कमतर करके देखा जाये या जिस समय अन्य क्षेत्रों में जनविरोधी गतिविधियाँ हो रही हों तब संस्कृति और साहित्य के क्षेत्र के संकट पर चुप लगा ली जाये। यह सोच एक उग्र बचकानेपन से ज्यादा कुछ नहीं है। हम चाहते हैं कि सभी प्रदेशों के रचनाकार साथी अपने प्रदेश की ऐसी साहित्यिक सांस्कृतिक संस्थाओं के विरूपीकरण के विरोध के लिये प्रतिरोध की कार्रवाही की शुरूआत करें। कुछ व्यापक कार्य हर जगह, हर शहर, प्रत्येक लेखक संगठनों, साथियों और एक्टिविस्ट लोगों की सामूहिकता और पक्षधर पहलकदमी से संभव है। जो हमसे छूट रहा है, उसे वे पूरा करें। हम हर ऐसे विरोध में साथ होगें। 

एक बार फिर सभी रचनाकारों और संस्कृतिकर्मियों से आग्रह करते हैं कि इस भयावह होते जाते संकट को कम करके न आँके। सोचें और प्रतिरोध की रणनीति तय करें। मुक्तिबोध के सवाल को यहाँ फिर पूछा जाना अप्रसांगिक न होगा कि तय करो कि तुम किसके साथ हो? और यह भी कि पार्टनर, तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?

  राजेश जोशी                            कुमार अम्‍बुज                              नीलेश रघुवंशी 
          
    
        

2 टिप्‍पणियां:

  1. vichar kavita ya aaj ki kavita ki politics ke bare me kavi maun rahna pasand kar raha hai...suwidhaen kise buri lagti hain

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  2. एक बेहद जरूरी प्रतिरोध। जरूरत यह भी है कि इसे आगे लाया जाए।

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