गुरुवार, 15 नवंबर 2012

भारतीय दर्शन परम्परा में वेदान्त का वर्चस्व और इसके सामाजिक-आर्थिक कारण


मार्क्सवाद के मूलभूत सिद्धांत के अंतर्गत लिखी जा रही लेखमाला का छठा खंड. यह इस युवा संवाद पत्रिका के इस अंक में प्रकाशित हुआ है. पिछले खंडो के लिए यहाँ क्लिक करें.






भारतीय दर्शन परम्परा की एक प्राथमिक समझदारी बनाने के क्रम में हमने पिछले लेखों में देखा कि हमारे यहाँ दर्शन की तमाम परम्पराएं एक के बाद एक विकसित हुईं. ज़ाहिर है कि इनका न तो विकास शून्य में हुआ और न ही पराभव. जहाँ इनके पैदा होने के महत्वपूर्ण  सामाजिक-आर्थिक कारण थे, वहीँ इनके अप्रासंगिक होते जाने के भी. जैसा कि मैंने पहले भी लिखा कि किसी भी समय के प्रभावी विचार उस समय की सामाजिक-राजनैतिक-आर्थिक व्यवस्था में प्रभावी वर्ग या सत्ता के विचार होते हैं. हर काल में इनके विरोधी विचार भी उपस्थित रहते ही हैं और वे इस सत्ता व्यवस्था के विचार या दर्शन पर सवाल खड़ा करते हैं. ये उस वर्ग के विचार होते हैं जो सत्तासीन वर्ग द्वारा उपेक्षित और शोषित किया जाता है. इसीलिए आप देखेंगे कि भारतीय परम्परा में वैदिक कट्टरपंथ वाले दर्शन के बरक्स खड़े हुए सभी दर्शन, चार्वाक से लेकर बौद्ध दर्शन तक, वैदिक चातुर्वर्ण्य (चार वर्णों ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र को मान्यता देने वाला सिद्धांत) का प्रतिकार करते हैं और ब्राह्मण वर्चस्व पर सवाल खड़े करते हैं. लेकिन अधिक तार्किक होने के बावजूद अगर इन्हें वैदिक वर्चस्व के आगे हारना पड़ा तो इसलिए कि ये उस वर्ग को एक कर सत्ता तंत्र पर कब्जा करने की स्थिति में नहीं आ सके. बौद्धिक विमर्शों से आगे जाकर वास्तविक परिवर्तन के वाहक न बन सके. मार्क्स ने लिखा था कि ‘अब तक के दर्शनों ने दुनिया को अलग-अलग तरीके से व्याख्यायित किया है, अब बारी दुनिया को बदलने की है’. ये दर्शन ‘दुनिया को बदलने’ के इस ज़रूरी काम को नहीं कर सके और इसीलिए असफल रहे. इस प्रक्रिया में सबसे प्रभावी दर्शन के रूप में वेदान्त स्थापित हुआ. इस अध्याय में हम यह देखने के प्रयास करेंगे कि वे कौन सी परिस्थितियाँ थीं जिनके चलते यह एक प्रभावी दर्शन के रूप में स्थापित हुआ और आज भी है. (असल में आजकल जिसे आध्यात्म कहा जाता है वह यही वेदान्त का दर्शन है)

वेदान्त का शाब्दिक अर्थ है वेदों का अंतिम भाग.[1]  वैदिक साहित्य को चार भागों में बाँटा जाता है. प्रथम भाग में चार वेदों – ऋग, साम, यजुर और अथर्व का समावेश होता है ; इन्हें संहिता कहते हैं. दूसरा भाग ब्राह्मण ग्रंथों का है, तीसरा अरण्यकों का और चौथा उपनिषदों का.[2] इस साहित्य के अंत में आये उपनिषदों पर आधारित सिद्धांत को वेदान्त कहा जाता है. प्रमुख उपनिषदों का रचनाकाल आमतौर पर ऋग्वेद के बाद से नौ सौ से हज़ार वर्षों का माना जाता है तो यह दौर ईसापूर्व पंद्रहवीं सदी से छठवीं-पांचवीं सदी तक का माना जाता है. लेकिन उपनिषदों में कोई समान रूप से सुसंगत विचार प्रतिपादित नहीं किये गए, बल्कि इसमें कई जगह तो परस्पर विरोधी प्रवृतियाँ पाई जाती हैं[3]. बादरायण ने अपने ग्रन्थ ‘ब्रह्म सूत्र’ में इस कठिनाई को दूर करने का प्रयास किया और उन्हें आदिकालीन वेदान्त का प्रणेता माना जाता है. इस दर्शन के अनुसार चेतना अथवा आत्मा ही हर वस्तु का मूल कारण थी और हर वस्तु अंत में उसी में विलीन हो जाती थी. इस आदिकालीन वेदान्त का सबसे प्रखर रूप में प्रचार करने वाली कृति भगवद्गीता है. कई लोगों का मत है कि बादरायण का ही एक नाम व्यास भी था और उन्होंने ही महाभारत तथा भगवद्गीता की रचना की है. भगवद्गीता वैदिक साहित्य का ग्रन्थ नहीं है लेकिन इसमें जो सिद्धांत प्रतिपादित हुए हैं वे आदिकालीन वेदान्त की स्थापना और प्रचार करने वाले ही हैं. मैं यहाँ इसका थोड़ा सा ज़िक्र करना चाहूँगा.

असल में गीता भारतीय दर्शन के इतिहास में धर्म और दर्शन का घालमेल करने वाला पहला ग्रन्थ है. महाभारत के युद्ध के ठीक पहले एक ‘ईश्वर’ के मुख से कहलवाया गया यह आख्यान अपने कहे के पक्ष में तर्क का उतना इस्तेमाल नहीं करता जितना ईश्वरीय होने का. अब चूंकि खुद ‘भगवान’ श्रीकृष्ण, जिन्हें विष्णु का अवतार बताया गया है, यह सब कह रहे हैं तो इस पर सवाल कैसे उठाये जा सकते हैं? दूसरा वेद विरोधी दर्शनों के सतत प्रहार से घायल वैदिक दर्शन यहाँ तमाम प्रवृतियों का समन्वय करता है. वेदान्त और सांख्य तथा योग, कर्म और ज्ञान, भक्ति और संन्यास सबकी मिली-जुली खिचड़ी पकाई गयी है. एक तरफ कहा गया कि तुम कर्म करो और फल की चिंता न करो तो दूसरी तरफ कहा गया कि मारे गए तो स्वर्ग मिलेगा और जीते तो राज्य! गीता में जगह-जगह सांख्य की चर्चा है, कपिल मुनि का गुणगान है लेकिन उनके भौतिकवादी दर्शन को एक आदर्शवादी मोड़ दे दिया गया है. एक जगह कहा गया है कि पदार्थ नित्य और अनादि है तथा सभी जीवों का जन्म प्रकृति से हुआ है तो दूसरी जगह कहा गया है कि भगवान् श्रीकृष्ण अथवा परमात्मा ही इस सृष्टि के जन्मदाता हैं.

आखिर इसकी ज़रुरत क्यों पड़ी? यह समझने के लिए इन उलटबांसियों के बीच गीता जिन चीजों पर बिलकुल समझौताहीन रूप से दृढ है उन्हें देखना होगा. वे हैं – चातुर्वर्ण्य में आस्था, ईश्वर में आस्था और नास्तिकों का विरोध. ‘भगवान’ खुद घोषणा करते हैं कि – चातुर्वर्ण्य अथवा समाज के चार वर्ण मैंने उनके गुणों और कर्मों के अनुसार बनाए हैं.’ इन्हीं वर्ण नियमों का पालन धर्म है और अपने धर्म का पालन करते हुए मर जाना दुसरे के धर्म की पालना से बेहतर है (स्वधर्में निधनं श्रेयः परधर्मों भयावह). ज़ाहिर है क्षत्रिय के लिए युद्ध करते हुए मरना श्रेयस्कर था लेकिन शूद्रों के लिए यह श्रेय ब्राह्मणों और क्षत्रियों की सेवा से ही प्राप्त हो सकता था.[4] इस सेवा में उठाये कष्टों का निराकरण अगले जन्म में होना था जब उनके इस जन्म के कर्मों की मार्कशीट के आधार पर अगले जन्म में उनके पैदाइश की स्थितियां तय होंगी. यह पुनर्जन्म का सिद्धांत चातुर्वर्ण्य की व्यवस्था के शिकारों के लिए अफीम जैसी राहत थी.

यह ‘चातुर्वर्ण्य’ इतना ज़रूरी क्यों था? इसके लिए ऋग्वेदकालीन समाज से वेदान्त कालीन समाज के रूपांतरण को थोड़ा समझना होगा. ऋग्वेदकालीन समाज अभी पशुपालन की अवस्था में था. शिकार भी एक साधन था लेकिन कृषि से अभी वे अपरिचित थे और कालान्तर में उन्होंने यह कला सीखी. आरम्भिक आर्य लोहे के बारे में भी नहीं जानते थे और उनके धनुष-बाण नुकीले पत्थरों अथवा तांबे के होते थे. लोहे की कुल्हाड़ी की खोज काफी बाद में हुई. आर्यों की समाज व्यवस्था भी अभी कबीलाई तरीके की थी. अगर देखें तो प्रगति के उस दौर में दुनिया की हर सभ्यता की व्यवस्था सामूहिक उत्पादन और उपभोग वाले कबीलाई समाज की ही रही है. हमारे यहाँ इसे ‘गण व्यवस्था’ कहा गया. उत्पादन के साधन निम्न स्तर के होने के कारण किसी तरह भरण-पोषण भर का अनाज पैदा होता था और यही कारण है कि वेदों में आपको अन्न की मांग करते हुए स्तोत्र जगह-जगह मिल जाते हैं. उत्पादन सामूहिक श्रम से होता था तो जाहिर है कि स्वामित्व भी सामूहिक ही होता. इसे ‘आदिम कबीलाई साम्यवादी व्यवस्था’ कह सकते हैं जहां हर सदस्य अपनी क्षमता के अनुसार श्रम करता था और फिर उसे उसकी आवश्यकता के अनुसार उपभोग की वस्तुएं मिल जाती थीं. गाय-बैल उस दौर की प्रमुख सम्पत्ति थे और स्वाभाविक है कि आर्यों के बीच इस गोधन के लिए संघर्ष होता रहता था. आर्यों का टकराव यहाँ के मूल निवासियों से हुआ जिनमें से कुछ उनसे तकनीकी रूप से पिछड़े हुए थे और सिन्धु घाटी सभ्यता के नगरों जैसे कुछ उनसे आगे भी थे. आर्यों और मूल निवासियों का यह संघर्ष ही वेदों में वर्णित देवासुर संग्राम है. आरम्भिक आर्य लड़ाई में शूर और आक्रामक तथा जीवन में भोग-विलास प्रिय थे. वेदों की ऋचाओं में जो उनका जीवन बिखरा पडा है वह उनके आध्यात्मिक होने की गवाही नहीं देता. वह अपनी भौतिक वास्तविकताओं के अनुरूप न समझ में आने वाली चीजों और प्रत्यक्ष घटनाओं पर आधारित कल्पनाएँ करता है, प्रकृति के रहस्यों से डर कर उनमें देवत्व आरोपित करता है और इसके अलावा समाज के विकास के साथ-साथ विकसित हुए शिल्पकार का कौशल, मानव का श्रम आदि उसकी विचार-प्रक्रिया में शामिल होते हैं तो वह उनमें से कुछ को भी देवता तथा पूज्य बनाता है. लोहे की कुल्हाड़ी (परशु) का जंगलों की सफाई तथा आत्मरक्षा में जो महत्व है, वही परशुराम को इतना महत्वपूर्ण तथा रोबीला देवता बनाता है. गोधन की लूट की लड़ाई में नेतृत्व करने वाला इंद्र सबसे बड़ा वैदिक देवता बनता है तो उस दौर के जीवन तथा समाज को सबसे ज़्यादा प्रभावित करने वाले सूर्य, पवन, वरुण आदि भी देवता का स्थान पाते हैं. इन्हें प्रसन्न करने की विधि थी यग्य, जिसमें वह धन-धान्य और सुख की कामना करते हुए प्रार्थना करता था. सामूहिक श्रम तथा सामूहिक स्वामित्व वाले इस समाज में समता, एकजुटता तथा बंधुत्व का भाव था और यह समाज गतिमान रूप से प्रगतिशील भी था.

लेकिन इस ‘गण व्यवस्था’ का अनंत काल तक चलना संभव न था. ऋग्वेद के प्रारम्भ और उपनिषदों के बीच के काल में उत्तर भारत की समाजार्थिक व्यवस्था में बहुत महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए. स्थाई खेती अब अर्थव्यवस्था का एक प्रमुख हिस्सा बन गयी, तो ज़ाहिर था कि घुमक्कड़ कबीलाई जीवन त्याग कर लोग एक जगह बसने लगे, गाँव छोटे-मोटे नगरों में तब्दील हुए तथा व्यापार बढ़ा. इसके साथ ही समाज में विकसित होने वाले नए उद्योगों और व्यवसायों के लिए विविध प्रकार के औजारों और उनके इस्तेमाल तथा निर्माण के लिएआवश्यक कौशल के मद्देनज़र एक नया शिल्पकार वर्ग तैयार होता अहि जिससे समाज की उत्पादन क्षमता तेज़ी से बढ़ती है, इनके बीच सामाजिक श्रम विभाजन अधिक व्यापक  और जटिल होते जाना स्वाभाविक ही था.

इस काल में जीवन की न्यूनतम ज़रूरतें पूरा होने के बाद अतिरिक्त उत्पादन बचने लगा. इस तरह ‘उत्पादन के इस अतिरेक’ की भारतीय समाज में पहली बार उपस्थिति दर्ज हुई और इसी के साथ वह ऐतिहासिक सवाल भी सामने आया कि इसका मालिक कौन हो? या तो पुरानी गण व्यवस्था के तहत यह सामूहिक संपत्ति हो सकती थी और इसका उपयोग पूरे समाज की बेहतरी के लिए किया जा सकता था या फिर समाज का अब प्रभुत्वशाली हो चला वर्ग इसे अपने निजी हित के लिए उपयोग कर सकता था. गण द्वारा किये जाने वाले यज्ञों के अगुआ धार्मिक नेता के रूप में सामने आये तो गणों के बीच होने वाले युद्धों के नेता राजनीतिक तथा सामरिक नेता के रूप में और उन्होंने इस अतिरिक्त उत्पादन पर अधिकार जताया. इसी के साथ सामूहिक स्वामित्व आधारित गण व्यवस्था का विघटन शुरू हुआ और निजी सम्पति आधारित व्यवस्था का विकास. भारतीय इतिहास में पहली बार स्पष्ट रूप से वर्गों का निर्माण हुआ. धार्मिक तथा सामरिक नेताओं ने ब्राह्मण और क्षत्रिय के रूप में प्रभुत्वशाली संपन्न वर्ग का निर्माण किया तो पशुपालक तथा कृषि और व्यापार में संलग्न वैश्य इनके वर्ग मित्र बने. इन तीनों वर्णों की सेवा करने पर बाध्य शूद्र (जो अक्सर विजित कबीलों के सदस्य होते थे) सर्वहारा वर्ग के सदस्य बने जिनका बाकी तीनों शोषण किया करते थे तथा जिनके श्रम से उत्पादित समाजिक उत्पादन का अधिशेष कब्जा किया जाता था. पुरानी अल्पविकसित गण व्यवस्था पर इस आगे बढ़ी हुई विकसित उत्पादन संबंधों वाली व्यवस्था की जीत भारत में पहली बार उस सिद्धांत का गवाह बनी जिसे मार्क्स ने इतिहास के अपने अध्ययन में पुष्ट किया – ‘सामाजिक संघर्ष में उन्नत और अधिक उत्पाद सामजिक व्यवस्था की जीत होती है’.[5] इसके आगे भारतीय इतिहास एक ओर सामाजिक प्रगति तो दूसरी ओर बहुसंख्यक दलित वर्ग के भयावह शोषण के द्वंद्वात्मक विरोध से आगे बढ़ा. ज़ाहिर है कि इस सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक व्यवस्था को बनाये रखने के लिए समाज को चार वर्णों में बांटकर ब्राहमण-क्षत्रिय वर्ग का प्रभुत्व तथा दलित वर्ग का शोषण बरकरार रखना ज़रूरी था. इसीलिए जब वैदिक धर्म पर चार्वाक, सांख्य तथा अन्य भौतिकवादी दार्शनिकों ने हमला करते हुए यग्य आदि के औचित्य तथा ब्राह्मणों के वर्चस्व पर सवाल उठाये और उनका जवाब देना मुश्किल होता गया तो एक ओर उनके साथ मनगढ़ंत प्रयोग कर उन्हें आदर्शवादी दर्शन में समेटने के लिए आदिकालीन वेदांत में समन्वय किया गया तो दूसरी ओर गीता में उसे ईश्वर द्वारा प्रमाणित करा के अप्रश्नेय बना दिया गया. अब वह भगवान का कहा गया था और उस पर कौन सवाल खड़ा कर सकता था? जो सवाल खड़ा करता वह सीधे नास्तिक घोषित कर दिया जाता. धर्म के साथ दर्शन के इस घालमेल ने तर्क की जगह सीमित कर दी. (हालांकि यहाँ यह कह देना भी ज़रूरी है कि गीता का दर्शन वर्णाश्रम समर्थक तथा एकांगी होने के बावजूद पलायन नहीं वरना साहस के साथ जीवन की समस्याओं का सामना करने की सीख देने वाला है, उसी के वज़ह से उसको भारतीय समाज में वह मान्यता मिली और बाद में गांधी सहित कई लोगों ने उसे अपनी तरह से उसे सकारात्मक रूप में अपने पक्ष में इस्तेमाल भी किया).

बाद में जब व्यापार के बढ़ने के साथ ब्राह्मणों के वर्चस्व पर नए सवाल उठाते बौद्ध तथा जैन धर्म आये (इनके उद्भव की समाजार्थिक स्थितियों का वर्णन पिछले अध्यायों में किया गया है) तो उसके प्रतिकार के लिए शंकराचार्य ने बादरायण के ब्रह्मसूत्र का भाष्य प्रस्तुत किया. अपनी खुद की कमजोरियों का शिकार होकर[6] कमजोर हो चुका बौद्ध धर्म उनके प्रहार को झेलने में सफल नहीं रहा और एक बार फिर चातुर्वर्ण्य के समर्थकों ने निर्णायक जीत हासिल की ( यहाँ शंकर के दार्शनिक तर्कों के विस्तार में न जाकर मैं दर्शन में विशेष रूप से उत्सुक पाठकों को इसके लिए राहुल सांकृत्यायन, के दामोदरन, हिरियन्ना आदि की यहाँ उद्धृत पुस्तकों को पढने की सलाह दूंगा). यह तत्कालीन सामन्तवादी व्यवस्था के अनुकूल थी जिसमें एक ओर उनकी प्रभुसत्ता को दैवीय अनुसंशा से स्थापित बता कर सुरक्षित किया जा रहा था तो दूसरी ओर उनके लिए उत्पादन तथा सेवा के लिए मुफ्त के दास दलितों के रूप में उपलब्ध हो रहे थे. भारत के कथित गौरवशाली इतिहास का सारा गौरव इन्हीं दमित जन के श्रम और खून के बल पर स्थापित हुआ है. अगर हम गौर से देखेंगे तो भारत ही नहीं दुनिया भर में इस दौर सामंतवाद अलग-अलग तरह से ऐसे ही दासों के मुफ्त श्रम पर विकसित हुआ. लेकिन भारत के सन्दर्भ में इसका समाज की जातीय संरचना में स्थापित होना अपने आप में इसे सबसे अलग करता है. इसने डा आंबेडकर के शब्दों में समाज के भीतर एक ऐसी संरचना बनाई जो बिना सीढ़ी वाली बहुमंजिली इमारत जैसी थी जिसमें एक शूद्र को जीवन भर ही नहीं अपितु अपनी पूरी वंशावली में शूद्र बने रहने और शोषण बर्दाश्त कर अमानवीय श्रम करने के लिए बाध्य होना पड़ता है.

ज़ाहिर है यह स्थिति भी टूटनी थी. कृषि आधारित सामन्तवादी उत्पादन संबंधों के बिखराव के साथ इसे भी ख़त्म होना ही था. लेकिन जहाँ योरप में यह सत्रहवीं शताब्दी में शुरू हो गया भारत में अंग्रेजों की प्रभुत्व स्थापना के कारण यह प्रक्रिया बाधित भी हुई और अपनी तरह से आगे भी बढ़ी. ज़ाहिर है आधुनिक काल के नए दार्शनिक आविष्कार तेजी से बदल रहे योरप में होने थे, हुए भी. आधुनिक भौतिकवाद का विकास सीधे-सीधे औद्योगिक क्रान्ति अर्थात कृषि अर्थव्यवस्था से औद्योगिक अर्थव्यवस्था में विकास के क्रम में हुआ. अगले अध्याय में हम उसका विस्तार से अध्ययन करेंगे और आद्य भौतिकवाद से द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के विकास की प्रक्रिया को समझने की कोशिश करेंगे.           




[1] देखें, भारतीय चिंतन परम्परा, के दामोदरन, पेज १९१ 
[2] देखें, भारतीय दर्शन- वैचारिक और सामाजिक संघर्ष, श्रीनिवास सरदेसाई, पेज-४२
[3] विस्तार के लिए देखें, दर्शन-दिग्दर्शन, राहुल सांकृत्यायन, ५१६-५३८

[4] विस्तार के लिए देखें, भारतीय चिंतन परम्परा, के दामोदरन, पेज १९६-२०३, साथ में मैं पाठकों को एक रोचक किताब ‘खट्टर काका’ भी पढने की सलाह दूंगा जिसके लेखक प्रोफ़ेसर हरिमोहन झा हैं.
[5] विस्तार के लिए देखें, भारतीय दर्शन- वैचारिक और सामाजिक संघर्ष, श्रीनिवास सरदेसाई, पेज-४२
[6] देखें, इसी श्रृंखला का पिछ्ला लेख 

13 टिप्‍पणियां:

  1. एक बिना मनन के अर्थात हड़बड़ी में लिखा गया आलेख। जब परम्परा का ज्ञान न हो, तब हाथ नहीं मारते। 'यजुर्व' कौन सा वेद है। पूरा लेख पराए संदर्भों का प्रस्तुतीकरण भर है।गीता और वेदान्त विषयक आपका अध्ययन कितना है वह यहाँ दहाड़ रहा है। वेदान्त का संधि विच्छेद करके शाब्दिक अर्थ कक्षा तीन का विद्यार्थी भी 'वेद का अंत' ही लिखेगा। जो आपने बताया है वेद का अंतिम भाग वह भी अधूरा है। डॉ. राधाकृष्णन ने लिखा है कि "वेदान्त का यौगिक अर्थ है वेद का अंत अथवा वे सिद्धान्त जो वेदों के अंतिम अध्यायों में प्रतिपादित किए गए हैं।"
    अब कोई आपके लेख से यदि समझे तो वह तो यही समझेगा कि वेदान्त का अर्थ वेदों का अंतिम अध्याय है। अन्तिम अध्याय में तो औषधि से लेकर सम्मोहन तक की विद्याये हैं तो क्या वे सब वेदान्त है। जब एक शब्द की व्याख्या उचित तरीके से नहीं कर सकते तो,
    कम लिखो लेकिन जब लिखो तो गोबर करते तो न दिखो।
    पंडित चतुर्वेदी

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    1. लगता है की वेदान्त का तिया-पान्चा होता देख आपका पंडित कुछ ज्यादा ही विचलित हो गया है. आपकी परम मूर्खता और पढ़ पाने के लिए आवश्यक धैर्य की कमी साफ़ दिखाई दे रही है. जहाँ वेदान्त की बात है वहां एक पूरा पैरा है. "वेदान्त का शाब्दिक अर्थ है वेदों का अंतिम भाग.[1] वैदिक साहित्य को चार भागों में बाँटा जाता है. प्रथम भाग में चार वेदों – ऋग, साम, यजुर्व और अथर्व का समावेश होता है ; इन्हें संहिता कहते हैं. दूसरा भाग ब्राह्मण ग्रंथों का है, तीसरा अरण्यकों का और चौथा उपनिषदों का.[2] इस साहित्य के अंत में आये उपनिषदों पर आधारित सिद्धांत को वेदान्त कहा जाता है. प्रमुख उपनिषदों का रचनाकाल आमतौर पर ऋग्वेद के बाद से नौ सौ से हज़ार वर्षों का माना जाता है तो यह दौर ईसापूर्व पंद्रहवीं सदी से छठवीं-पांचवीं सदी तक का माना जाता है. लेकिन उपनिषदों में कोई समान रूप से सुसंगत विचार प्रतिपादित नहीं किये गए, बल्कि इसमें कई जगह तो परस्पर विरोधी प्रवृतियाँ पाई जाती हैं[3]. बादरायण ने अपने ग्रन्थ ‘ब्रह्म सूत्र’ में इस कठिनाई को दूर करने का प्रयास किया और उन्हें आदिकालीन वेदान्त का प्रणेता माना जाता है. इस दर्शन के अनुसार चेतना अथवा आत्मा ही हर वस्तु का मूल कारण थी और हर वस्तु अंत में उसी में विलीन हो जाती थी. इस आदिकालीन वेदान्त का सबसे प्रखर रूप में प्रचार करने वाली कृति भगवद्गीता है. कई लोगों का मत है कि बादरायण का ही एक नाम व्यास भी था और उन्होंने ही महाभारत तथा भगवद्गीता की रचना की है. भगवद्गीता वैदिक साहित्य का ग्रन्थ नहीं है लेकिन इसमें जो सिद्धांत प्रतिपादित हुए हैं वे आदिकालीन वेदान्त की स्थापना और प्रचार करने वाले ही हैं. मैं यहाँ इसका थोड़ा सा ज़िक्र करना चाहूँगा." ज़ाहिर है आप जैसे अंधे को यह सब क्यों दिखेगा? जो दिखा वह गोबर खुद तक रखते तो बेहतर था, जो परिभाषा दी गयी है वह राहुल सांकृत्यायन और सरदेसाई की किताबों से है.

      और यह सब किसी से छुपा नहीं है कि मैंने भारतीय दर्शन पर कोई नया शोध नहीं किया है. बहुत शुरू में ही साफ़-साफ़ लिखा था कि यह विभिन्न किताबों में दी गयी जानकारियों का एक स्थान पर संक्षिप्त प्रस्तुतिकरण है जिसका उद्देश्य मार्क्सवाद को भारतीय सन्दर्भ में समझने के लिए ज़रूरी दार्शनिक बैकग्राउंड उपलब्ध कराना है.

      आप जैसे चेहरा छुपाये हुए नकली विद्वान मैंने साहित्य और कविता में भी बहुत देखे हैं जिनका काम ऐसे ही नकली चेहरों से यहाँ वहां कचरा फैलाना है. इस भाषा को मैं पहचानता हूँ और आप निश्चिन्त रहें तीन वर्षों के अनुभव में मैं आपको खूब जानता हूँ...आइन्दा औकात में रहें और मुझसे दूर रहें. इसे चाहें तो धमकी भी समझ लें.

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    2. हम बहुत ही सहिष्णु है जब तक कि हमें प्रसन्न करने वाले लेख लिखे जाते रहें गे . लेकिन हमारे स्थायित्व को डिस्टर्ब करने वाली चीज़ें लिखोगे तो हम इस ओढ़ी हुई सहिष्णुता को ताक पर रख देगें -- हमारी ज़िन्दा दिली अद्भुत है . हे - हे - हे ;)

      भाई , सच्चे हैं लोग . जब कि सदियों से असुविधाजनक शब्द सुनने की आदत ही नही बेचारों को .

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  2. बौद्ध धर्म ने कर्मकांड और ब्राह्मणों का विरोध तो किया है लेकिन बैद्ध भिक्षु उत्पादन की प्रक्रिया से कट गए और सत्ता पर आश्रित हो गए । सत्ता का पतन और ब्राह्मण का विरोध बौद्ध धर्म के पतन का कारण बना ।
    गीता अपनी कुछ कमजोरियों के वाबजूद (जो ब्राहमणों की साजिश लगती है) श्रम के महत्व को प्रतिस्थापित करती है और उसका सूक्ष्म विश्लेषण भी करती है । यह इश्वर के बहाने कर्म में आस्था पैदा करती है । कर्म के प्रति इसी आस्था के अभाव में अस्तित्ववादी दर्शन आया जिसमें कर्म और जीवन की नि:सारता / निरर्थकता (मिथ आफ सिसीफस) घोषित की गई । मृत्युबोध के सामने सबकुछ ब्यर्थ बताया गया । चार्वाक का ऋणं पित्वा घृतं पिवेत का सिद्धांत ही आज के बाजारवाद का सिद्धांत है, गीता इसके विपरीत संयम की बात करती है । लेकिन गीता के सिद्धांत को ब्राहमणों ने अपने हक में इस्तेमाल किया और उसे पूजनीय बताकर बहस के बाहर कर दिया ।

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    1. चार्वाकों के सम्बन्ध में आपके निष्कर्ष से असहमत हूँ भाई साहब.

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  3. Ashok bhai as I told you before, you are doing great job, its very important to understand the roots. its always easy to write and read on fresh paper but too tough to completely erase previously written and write some thing new on the same paper.... so bhai its not an easy job but you are doing it greatly.

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  4. यह समझते हुए कि बहुत सी बातों पर सूक्ष्म विवेचन की जरूरत है लेकिन अनावश्यक विस्तार से बचने के लिए उनका उल्लेख भर किया गया है ! लेख का उद्देश्य अपने अतीत को सरसरी तौर पर देखते हुए वर्त्तमान तक पहुँचना है और आदिम साम्यवादी युग से लेकर वर्ग विभाजन को वर्ण विभाजन का अधिक जड़ रूप देने के पीछे की प्रवत्तियों को समझना है ! मैं समझता हूँ कि लेख अपने उद्देश्य में सफलता पूर्वक आगे बढ़ रहा है ! हालाँकि कुतर्कियों के लिए गुंजाईश की कभी कोई कमी नहीं होती , वे अपना काम करेंगे ही ! लेखमाला के इस खंड का स्वागत है !

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  5. भारतीय दर्शन की भाववादी और भौतिकवादी धारा में उभरे अंतर्विरोधों का, इतिहास में उभरे सामाजिक द्वंदों के मध्य, सरल शब्द रूपों में व्यक्त करने का यह प्रयास सराहनीय है इससे युवा मनों में दर्शन और इतिहास को समझने की इच्छा पैदा होगी .....इस प्रयास के लिए आपको बधाई

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  6. यह श्रृंखला बिलकुल सही दिशा में जा रही है ..पहली कड़ी से लेकर अब तक ..| गीता के बारे में मेरे मन में भी बड़ी भ्रांतियां थीं , लेकिन जब मैंने डी.डी.कौशाम्बी का लिखा पढ़ा , तो मेरे मन के जाले उसी समय साफ़ हो गए ...उन्होंने विस्तार से उसके सामजिक आर्थिक पक्ष को समझाया है |तो आगे बढिए मित्र ...और बधाई स्वीकारिये ...

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  7. अच्छा लिखा है और मोटे तौर पर इस लेख से सहमत भी हूँ ...पर इसे अलग से लिखने की आवश्यकता क्यों पड़ी ? ..यह कुछ ठीक ठीक समझ नहीं आ रहा ...लेख के शीर्षक से 'वेदान्त दर्शन' पर कुछ अधिक प्रकाश पड़ने की उम्मीद थी पर जो पाया वह अधिकांश रामशरण शर्मा, द्विजेन्द्र नारायण झा ,रोमिला थापर या फिर किसी सीमा तक दामोदर धर्मानंद कौशाम्बी जैसों के द्वारा प्राचीन भारतीय इतिहास का विवेचन की दुसरी कापी लगा ...इन सब ने पहले हि बेहद तार्किक ढंग और लगभग अकाट्य रूप से प्राचीन भारतीय समाज के सामाजिक आर्थिक कार्य-कारण संबंधों की मार्क्सवादी व्याख्या कर डाली है ...मेरे विचार में जिन्होंने इन इतिहासकारों को नहीं पढ़ा होगा संभवतः उनकी समझ के जाले दूर करने में यह कड़ी सहायक होगी ....वैसे कुल मिला कर संक्षेप में एक वृहद तार्किक श्रृंखला को जिस कुशलता से समेटा है वह प्रशंसनीय है ....मेरी बधाई व आगे की कड़ियों हेतु शुभकामनाएँ स्वीकारें

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    1. ज़ाहिर तौर पर संतोष भाई. आप देखेंगे मैंने रिफ्रेंसेज़ भी दिए हैं. यह श्रृंखला नए लोगों के लिए ही लिखी जा रही है, जिन्होंने विस्तार से पढ़ा है उन्हें कुछ नया देने का दावा नहीं है. मेरी कोशिश बस भारतीय दर्शन से उतना परिचित करा देने की है जितना मार्क्सवाद और द्वंद्वात्मक भौतिकवाद को समझने के लिए ज़रूरी है (यह मैंने पिछली कड़ी की शुरुआत में ही साफ़ भी किया था)

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  8. भारतीय दर्शन परम्परा में वेदान्त का वर्चस्व और इसके सामाजिक-आर्थिक कारणों पर आपने सार्थक पोस्ट लिखी है!

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  9. सटीक ,संक्षिप्त और प्रभावी ।दर्शन के प्रारंभिक अध्येताओँ के लिए अत्यंत उपयोगी।

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स्वागत है समर्थन का और आलोचनाओं का भी…