शनिवार, 24 नवंबर 2012

नौसेना विद्रोह-हंगल साहब-गांधी जी


सुरेन्द्र मनन का यह स्मृतिरेख कथन पत्रिका में छपा है. इसमें ए के हंगल ने नौसेना विद्रोह के दौर के राजनीतिक-सामाजिक माहौल पर विस्तार से और बहुत रोचक तरीके से बात की है. यहाँ यह लेख पत्रिका की सम्पादक की अनुमति से साभार...




वह विद्रोह एक वर्ग-संघर्ष था
ए. के. हंगल
प्रस्तुति: सुरेंद्र मनन


ए. के. हंगल (पूरा नाम अवतार कृष्ण हंगल) थिएटर को समर्पित एक कलाकार, इप्टा के सक्रिय सदस्य, सुपरहिट फिल्मों के सफल चरित्र अभिनेता और अपने सरल-सौम्य व्यक्तित्व के कारण फिल्म इंडस्ट्री में ‘हंबल साहब’ के तौर पर जाने जाते थे। लेकिन उनके व्यक्तित्व का एक अन्य अत्यंत महत्त्वपूर्ण पक्ष भी था, जिसके बारे में कम लोग जानते हैं। वह पक्ष है उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता। आजादी से पहले अविभाजित कम्युनिस्ट पार्टी के वे कर्मठ सदस्य थे और जन-आंदोलनों में उनकी सक्रिय भागीदारी रही। भारत विभाजन के बाद कराची से वे बंबई आ गये और इप्टा आंदोलन को पुनर्जीवित करने में उन्होंने प्रमुख भूमिका निभायी। फिल्म जगत में इतने वर्ष बिताने के बाद भी उनकी प्रतिबद्धता कायम रही। 

रायल इंडियन नेवी में 1946 में हुआ विद्रोह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास का ऐसा विस्फोटक अध्याय है, जिसे अंग्रेजी हुकूमत ने दबाने, गलत ढंग से व्याख्यायित करने और नष्ट कर देने का हर संभव प्रयास किया। स्वतंत्र भारत में भी विभिन्न कारणों से यह अध्याय अनछुआ ही रहा और इतिहास में इस विद्रोह का सरसरी तौर पर ही वर्णन मिलता है, जबकि नौसैनिकों के इस क्रांतिकारी संघर्ष के बाद ही अंग्रेज यह समझ पाये कि उनके साम्राज्य की नींव हिल चुकी है और अब हिंदुस्तान में उनका और अधिक टिके रह पाना संभव नहीं।

इस विषय पर केंद्रित फिल्म बनाने के सिलसिले में मैं कुछ ऐसे व्यक्तियों की तलाश में था, जो नौसेना विद्रोह के चश्मदीद गवाह रहे हों। विद्रोह के समय हंगल साहब कराची में थे और न केवल उन घटनाओं को उन्होंने करीब से देखा था, बल्कि नौसेना के उस क्रांतिकारी कदम का खुलकर समर्थन भी किया था। मैंने उनसे संपर्क किया, तो अत्यंत व्यस्त होने के बावजूद फिल्म के लिए इंटरव्यू देने को वे तुरंत राजी हो गये। साक्षात्कार का समय एक घंटा तय हुआ था, लेकिन उस समय और उस दौर को याद करते हुए हंगल साहब स्मृतियों में इतने खो गये कि बातचीत तीन घंटे तक खिंच गयी। यहाँ उस साक्षात्कार में हंगल साहब द्वारा कही गयी बातों को उनके संक्षिप्त वक्तव्य के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। उनका यह वक्तव्य भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में नौसेना विद्रोह के महत्त्व और तात्कालिक राजनीतिक परिस्थितियों के बारे में हंगल साहब की सोच और समझ को रेखांकित करता है।--सुरेंद्र मनन




आपने फोन पर जब मुझसे रायल इंडियन नेवी में हुई बगावत के बारे में बात की, तो उस समय मैं शूटिंग पर जाने के लिए तैयार हो रहा था। मैं एकदम चैंका और मुझे हैरानी हुई कि यह कौन है, जो इतना अरसा गुजर जाने के बाद इस बगावत के बारे में न सिर्फ बात कर रहा है, बल्कि फिल्म भी बनाना चाहता है। मुझे हैरानी इसलिए हुई कि इस बगावत को तो चाहे अंग्रेजी सरकार हो या आजाद हिंदुस्तान की सरकार, एक साजिश कहकर उसे भुला देना चाहती थी। फिर इस पर फिल्म कैसे बन रही है? तो यूँ समझिए कि मैं खुद आपसे मिलना चाहता था। उस दिन शूटिंग करने के बाद जब मैं सेट पर बैठा आराम कर रहा था, तो वे सब बातें याद आने लगीं। उसके बाद हर रोज वही खयाल आने लगे। बहुत-से किस्से हैं उस बगावत से जुड़े। आप इस पर रिसर्च कर चुके हैं, तो जानते होंगे कि बगावत की शुरुआत यहीं बंबई से हुई थी। ‘तलवार’ से, जो रायल इंडियन नेवी का सिग्नल स्कूल था। उसके बाद बगावत एक जहाज से दूसरे जहाज और रायल इंडियन नेवी के एक बेस से दूसरे बेस तक आग की तरह फैल गयी।

रायल इंडियन नेवी में जो बगावत हुई, उसकी ऊपरी तौर पर और फौरी वजह यह थी कि हिंदुस्तानी जहाजियों की कुछ माँगें थीं--अच्छा खाना, बेहतर सर्विस कंडीशंस और अंग्रेज अफसरों की जो बदसुलूकी थी, उसकी मुखालफत। लेकिन असल वजह यह नहीं थी। असल कारण दूसरे थे, इससे बड़े थे।

उस समय की दुनिया का हम जायजा लें, तो देखेंगे कि बड़े उथल-पुथल का दौर था वह। दूसरे विश्व युद्ध के खत्म होने से फासिज्म का खात्मा हुआ और इस स्थिति ने समाजवादी ताकतों और पश्चिमी जनतांत्रिक ताकतों को विजय दिलवायी थी। सोवियत संघ ने गठबंधन के सामने यह बात रखी थी कि अगर हमारी जीत होती है, तो हमारा यह फर्ज बनता है कि गुलाम देशों को आजादी दिलवाने में मदद करें। जनतांत्रिक ताकतों को विश्व युद्ध में जब जीत हासिल हुई, तो दुनिया भर में उस जीत का असर यह हुआ कि जितने गुलाम देश थे, उन्हें यह उम्मीद बँधी कि अब वे भी आजाद हो जायेंगे। हम हिंदुस्तानियों को भी यह लगने लगा कि अब आजादी दूर नहीं और अंग्रेजों की गुलामी से जल्द ही हमें मुक्ति मिलने वाली है। अंग्रेजों के डेलिगेशन हिंदुस्तान आते, तो जनता को तरह-तरह की उम्मीदें बँधतीं। 

दूसरी बात, जिसे लोग भूल जाते हैं, या जान-बूझकर जिसका जिक्र नहीं करते, या नहीं करना चाहते, वह यह कि हिंदुस्तान में उस समय कामगार वर्ग का आंदोलन बहुत जोरों पर था। बंगाल में किसान आंदोलन, दक्षिण भारत में अनेक प्रगतिशील और सांस्कृतिक आंदोलन जोरों पर थे। जगह-जगह हड़तालों, जुलूस, बेचैनी और गुस्से का माहौल था। इस सबके अलावा आजाद हिंद फौज के बंदियों को छुड़वाने के लिए देश भर में जनता ने जिस तरह से प्रदर्शन किये, उससे अंग्रेज हुकूमत जहाँ एक ओर डरी हुई थी, वहीं वह बहुत हिंसक भी हो उठी थी। तो यह ऐसा समय था कि छोटी-सी चिंगारी से भी आग भड़क सकती थी। ऐसे माहौल में राॅयल इंडियन नेवी के हिंदुस्तानी जहाजियों ने बगावत कर दी। वह बगावत थी तो एक चिंगारी, लेकिन उसका नतीजा बहुत बड़ा था। 

यहाँ मैं एक और बात का जिक्र करना चाहता हूँ कि बदनसीबी से उस समय हिंदुस्तान की जनता तीन धाराओं में बँटी हुई थी। एक धारा थी कांग्रेस के पक्ष में, दूसरी मुस्लिम लीग, जो विभाजन चाहती थी, और चाहती थी कि पाकिस्तान बने, और तीसरी कामगार वर्ग की धारा--जो धर्मनिरपेक्ष ताकतों का आंदोलन था, कम्युनिस्ट आंदोलन था। लेकिन तीनों धाराओं की जनता अंग्रेजों के खिलाफ भड़की हुई थी। नेवी में जब बगावत हुई, तो जहाजियों ने हर बेस पर अपने जहाजों पर तीन झंडे फहराये--कांग्रेस, मुस्लिम लीग और कम्युनिस्ट पार्टी के। यूनियन जैक उन्होंने उतार फेंका था। उनका मकसद यह था कि देश की जनता जब ये तीनों झंडे देखेगी, तो उन्हें सब धाराओं का समर्थन हासिल होगा। और वे ठीक ही थे। क्योंकि ऐसा ही हुआ। देश भर की जनता आपसी भेदभाव भूलकर जहाजियों के समर्थन में सड़कों पर उतर आयी। फ्लोरा फाउंटेन पर जबर्दस्त प्रदर्शन हुए। सारा बंबई शहर बंद। सेना और जनता दोनों की यह एकता जो अंगे्रजों के खिलाफ इस बगावत में बनी, यह अभूतपूर्व वाकया था। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। हाँ, गदर के समय ऐसा हुआ था, लेकिन उसके बाद यह एकता अब बनी थी। उस समय बंबई में मेरे आर्टिस्ट मित्र थे चित्तो प्रसाद। उन्होंने इस बगावत को अपने रेखांकनों में उतारा कि कैसे नेवी के जवान जंजीरें तोड़कर अंग्रेजों के खिलाफ उठ खड़े हुए और अंग्रेज हुकूमत ने कैसे उन पर और हिंदुस्तानी जनता पर अत्याचार किये। 

मैं उस समय कराची (अब पाकिस्तान) में था और छोटा-मोटा कम्युनिस्ट लीडर था। टेªड-यूनियन आंदोलन में सरगर्म था। हमने जब रेडियो पर इस बगावत की खबर सुनी, तो कराची बंद की काल दे दी। आप हैरान होंगे यह जानकर कि हम सिर्फ बीस-पच्चीस लड़के थे, लेकिन जब काॅल दी, तो सारा कराची शहर बंद! एक पान वाले तक की दुकान न खुली। शाम को हमने ईदगाह मैदान में मीटिंग रखी थी। हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई, पारसी--सब ईदगाह मैदान पहुँचे। मुझे यह कहते हुए अफसोस हो रहा है कि मुख्यधारा की जो पार्टियाँ थीं, उनके लीडरान को यह बात पसंद न थी कि जाति-धर्म-पार्टी भुलाकर जनता इस तरह से एकजुट हो। कांग्रेस और लीग के नेता भी इस मीटिंग में आये। उन्होंने मीटिंग बर्खास्त करवाने की कोशिश की और कहा कि ऐसी मीटिंग करने से अंग्रेज हुकूमत तक गलत संदेश जायेगा। मुझे अच्छी तरह याद है कि पब्लिक ने हूट किया, गो बैक के नारे लगाये और उन लीडरों को वहाँ से चले जाने पर मजबूर कर दिया। बाद में धड़धड़ाती हुई पुलिस पहुँच गयी। उसने भीड़ पर गोली चला दी। हर तरफ अफरा-तफरी मच गयी। दर्जन भर लोग इस हादसे में मारे गये। मैं बाल-बाल बचा। 

ऐसा ही एक और वाकया मुझे याद है, जब पेशावर में गोली चली और खून से लथपथ मैं घर पहुँचा था। अब्दुल गफ्फार खान और गांधी की गिरफ्तारी के विरोध में तब एक जुलूस निकाला गया था। जुलूस में ज्यादातर पठान थे। माँग यह थी कि खान और गांधी को रिहा किया जाये। किस्साखानी बाजार में जब यह सब हो रहा था, तो पुलिस आ पहुँची। पुलिस हालात पर जब काबू न पा सकी, तो फौज को बुलाया गया। पहली ट्रक जो फौज की आयी, वह थी गढ़वाली रेजीमेंट। उसे गोली चलाने का हुक्म दिया गया। उन्होंने बंदूकें उठायीं, सामने देखा और बंदूकें नीचे रख दीं। कहा कि ये निहत्थे लोग हैं, हम इन पर गोली कैसे चला सकते हैं। इस रेजीमेंट का नेता था चंद्रसिंह गढ़वाली। उस समय यह बहुत बड़ी बात थी कि अंग्रेज अफसरों की कोई हुक्मउदूली करे, वह भी फौज में। उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और कोर्टमार्शल के बाद 14-14 साल की सजा दी गयी। 

चंद्रसिंह गढ़वाली मेरा बहुत बड़ा प्रेरणास्रोत रहा कि उस समय वह इतनी हिम्मत कर सका। हमारे इतने राष्ट्रीय सम्मान हैं, पुरस्कार हैं--पद्म विभूषण, पद्म भूषण, पद्म श्री, रत्न और जाने क्या-क्या। लेकिन चंद्रसिंह गढ़वाली के नाम कोई सम्मान नहीं। बदनसीबी से हमारे नेताओं का इस तरफ ध्यान नहीं जाता। पेशावर में यह जो कांड हुआ, उस पर गांधी जी का इंटरव्यू लंदन के एक अखबार में छपा। जब उनसे पूछा गया कि चंद्रसिंह गढ़वाली ने गोली चलाने से जो इनकार किया, उस पर उनकी क्या राय है, तो आप हैरान होंगे यह जानकर कि गांधी जी का जवाब था कि उसे अपनी ड्यूटी करनी चाहिए थी। 

इन घटनाओं का जिक्र मैं आजादी के आंदोलन के दौरान हिंदुस्तानी जनता का जो जज्बा था और नेताओं का जो रवैया था, वह बताने के लिए कर रहा हूँ। 

रायल इंडियन नेवी में जो बगावत हुई, उसे भी कांग्रेस हो या मुस्लिम लीग, दोनों पार्टियों के कार्यकर्ताओं ने, आम जनता ने, खुलकर समर्थन दिया, अपना खून बहाया, लेकिन नेताओं ने उस बगावत का समर्थन नहीं किया। सवाल उठता है कि ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए कि नेवी की बगावत हो या दूसरे आंदोलन--यह सब एक राष्ट्रीय संघर्ष तो था ही, लेकिन साथ-साथ वर्ग-संघर्ष भी था। दोनों का मिश्रण था हमारी आजादी की लड़ाई में। अलग-अलग जगहों पर हो रहे इन आंदोलनों की बागडोर कामगार वर्ग के हाथों में जा रही थी। कम्युनिस्ट ताकतों के हाथ में जा रही थी। और हो सकता था कि इंकलाब आ जाता। भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव की शहादत को जनता भूल नहीं सकती थी। मुझे याद है, जिस दिन भगत सिंह को फाँसी दी गयी, पेशावर में पठान फूट-फूटकर रो रहे थे और मैं बयान नहीं कर सकता कि कैसा रोष और गुस्सा था वह। 

तो मैं कह रहा था कि अगर बागडोर कामगार वर्ग के हाथों में आ जाती, तो इंकलाब हो जाता। उस इंकलाब में आजादी का मतलब था कामगार वर्ग की आजादी। तो जाहिर है, मुख्य पार्टियों की लीडरशिप तो कामगार वर्ग की थी नहीं। वह थी उच्च वर्ग और मध्य वर्ग की। इसलिए ऐसे आंदोलनों के लिए उनकी ‘लिप सिंपैथी’ तो थी, जो उनकी मजबूरी थी, लेकिन असल में समर्थन नहीं था। इस तरह उनका दोगला चरित्र था। नेवी में हिंदुस्तानी जहाजियों ने जो बगावत की, उसके साथ भी यही हुआ। न कांग्रेस, न लीग की लीडरशिप ने उसे समर्थन दिया। और अंग्रेजों ने बेरहमी से बगावत को कुचल दिया। 

हम जानते हैं कि आजादी के बाद भी उन जहाजियों को, जिन्होंने बगावत में हिस्सा लिया था, वापस नेवी में नहीं लिया गया। आजाद हिंद फौज के जवानों को भी भारतीय सेना में वापस नहीं लिया गया। विडंबना देखिए कि नेवी के सेलर्स को तो स्वतंत्रता सेनानियों का दरजा तक नहीं मिला, जबकि नेवी में हुई बगावत के कारण ही अंग्रेजों को लगा कि अब वे हिंदुस्तान में नहीं टिक पायेंगे और आजादी दिलवाने में इस बगावत का बहुत बड़ा योगदान रहा। 

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