शुक्रवार, 4 जनवरी 2013

बलात्कार से बचने के भागवत-रहमानी नुस्खे - राकेश बिहारी



आज मोहन भागवत का एक और बयान आया है, साथ में कैलाश विजयवर्गीय का बयान आया है. बयानों का यह सिलसिला तो चलता ही रहेगा. शुक्रवार के ताज़ा अंक में ऐसे तमाम अटपटे बयान हैं. . हिंदी के युवा कथाकार राकेश बिहारी ने उनमें से दो को केंद्र में रखते हुए यह टिप्पणी जनपक्ष के लिए लिखी है






शुक्रवार के ताज़ा अंक में प्रकाशित बसपा सांसद शफीकुर्रहमान वर्क और आरएसएस सरसंघचालक मोहन भागवत के बयान स्त्री संबंधी अपराधों को रोकने का एक नायब नुस्खा पेश करते हैं. इन दो
महापुरुषोंने जो नुस्खे पेश किये हैं, वे हैं - घर में गो-पालन शुरु कर दिया जाये और महिलाओं को पर्दे में रखा जाय. एक ऐसे समय में जब स्त्री सम्मान और सुरक्षा को लेकर देशव्यापी  आंदोलन और विमर्श जारी है, ये बयान इस बात को स्पष्ट करने के लिये काफी हैं कि धर्म आधारित सामाजिक-राजनैतिक व्यवस्था के हिमायती ये लोग स्त्रियों के सम्मान और सुरक्षा को लेकर किस व्याधि से पीड़ित हैं.

उल्लेखनीय है कि ये दोनों महानुभावहमारे समय के दो महत्वपूर्ण राजनैतिक विचारधारओं के प्रतिनिधि हैं. महत्वपूर्ण है कि इन दोनों जमातों में कई प्रभावशाली महिलायें जिम्मेदार पदों पर मौजूद हैं जो न तो पर्दे में रहती हैं और न सिर्फ उन्हीं पुरुषों के बीच उठती-बैठती हैं जिनके घरों पर गायें पाली जाती हैं. क्या ये दोनों धर्माधिकारी यह बता सकते हैं कि सत्ता और शक्ति के केन्द्र में स्थित उनकी पार्टी की ये महिलायें कैसे सुरक्षित हैं? चाहे महिलाओं को पर्दे में रहने की हिदायत हो या फिर स्त्री संबंधी अपराध से मुक्ति के लिये गो-पालन का सुझाव, उसी पितृसत्तात्मक सोच के बीज-मंत्र हैं, जो स्त्रियों को निरीह जायदाद से ज्यादा कुछ नहीं मानते. गाय की तरह घर के खूंटे से बंध कर गोधर्म का निर्वहन करने और बाहर निकलने पर अपना सर्वांग ढंककर रखने की यह हिदायत दर असल महिलाओं को एक तरह की धमकी है कि यदि सुरक्षित रहना चाहते हो तो ऐसे रहो वर्ना....

इस कूढ़मगज मर्दवादी मानसिकता का बहिष्कार किये बिना स्त्री अधिकार और सम्मान की कोई बात बेमानी होगी. उम्मीद करता हूं कि हमारे कुछ तत्वज्ञानी साथी धर्म और संप्रदाय के इस सामाजिक-व्यावाहारिक और सर्वधर्म समभावीचेहरों के  बचाव में धर्मशब्द की कोई थोथी और सैद्धांतिक व्याख्या लेकर नहीं बैठ जायेंगे. समय उन लोगों की तरफ भी देख रहा है जो एकांगी यथार्थ की आलोचना-प्रतिआलोचना में अपनी ऊर्जा लगाकर चाहते न चाहते इन्हीं शक्तियों को मजबूत कर जाते हैं.      

24 टिप्‍पणियां:

  1. मुझे अपनी बेटी और बेटे के जवान होने से पहले तक इस मानसिकता को पूरे समाज में अप्रासंगिक होते देखना है ! वैसे भी इन महानुभावों की असेल मंशा तो जनता अब समझ ही लेती है , विरोध चाहे न करे !

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    1. इस लेखक की मंशा भी सहज ही समझी जा सकती है

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  2. जिसने भी ये लेख लिखा है पूरी तरह से पूर्वाग्रह से ग्रसित हो कर लिखा है।
    1- गाय पालने का काम महिलाएं करें ऐसा कहा क्या ?
    2- ऐसा कह कर धम्की दी, ऐसा निष्कर्ष लेखक ने कैसे लगाया?
    3- गाय पालना पितृसत्तात्मक सोच का प्रतीक है ये किसने पढ़ाया?
    4- मोहन भागवत राजनीतिक विचारधारा से संबंध रखते हैं कथन का कोई औचित्य नहीं है। थोड़ा और जानकारी लें।
    5- महिलाओं को सर ढकने की बात को अनुचित कहा जा सकता है परन्तु संस्कार की बात किसी भी तरह से अनुचित नहीं कही जा सकती, यह पुरुष और महिला दोनों के लिए समान रूप से लागू होती है।
    6- अन्तिम लाइन मे एकांगी यथार्थ की आलोचना प्रतिआलोचना मे अपनी ऊर्जा लगाने की आपने भी आलोचना ही की है और किसी तरह का विकल्प देने का प्रयास नहीं किया है
    7- आशा है शीघ्र लेखक किसी प्रकार का सर्वोत्तमऔर सर्वमान्य विकल्प प्रस्तुत करेंगे।
    धन्यवाद !

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  3. पदम् सिंह जी

    १- जिन घरों में गाय पाली जाती है, उनका सर्वे कर के देखिये कभी. उनके पालन में स्त्रियों की भूमिका का अंदाजा हो जाएगा.
    २- मनचाहा अर्थ न निकालिए. पूरी पंक्ति पढ़िए - गाय की तरह घर के खूंटे से बंध कर गोधर्म का निर्वहन करने और बाहर निकलने पर अपना सर्वांग ढंककर रखने की यह हिदायत दर असल महिलाओं को एक तरह की धमकी है कि यदि सुरक्षित रहना चाहते हो तो ऐसे रहो वर्ना....

    ३- वही सलाह. पूरी पंक्ति - चाहे महिलाओं को पर्दे में रहने की हिदायत हो या फिर स्त्री संबंधी अपराध से मुक्ति के लिये गो-पालन का सुझाव, उसी पितृसत्तात्मक सोच के बीज-मंत्र हैं, जो स्त्रियों को निरीह जायदाद से ज्यादा कुछ नहीं मानते.

    ४- क्या जानकारी लेनी है? मोहन भागवत क्या आर एस एस में नहीं हैं? क्या आर एस एस की राजनीतिक विचारधारा नहीं है? कहिये तो गोलवरकर की किताबों से आपको पच्चीस-पचास उदाहरण प्रस्तुत कर दूं? अधिक जानकारी वाली सलाह आपको वापस कर रहा हूँ.

    ५- संस्कार कौन से? वैसे 'पुरुषों और महिलाओं के लिए समान' संस्कारों को लेखक ने कब गलत बताया है?

    ६- यह लघु टिप्पणी है, फिर भी इसके निष्कर्ष 'गाय पाल कर बलात्कार से मुक्ति पायें' जैसे विकल्प से अधिक बेहतर और मानीखेज हैं.

    ८- आशा है आप सर्वोत्तम और सर्वमान्य तक पहुँचने के लिए आलोचना के अधिकार की अनिवार्यता से सहमत होंगे.

    सादर

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  4. भारत में बलात्‍कार एक सांस्‍कृतिक और पारिवारिक और परंपरागत और संस्‍थागत कृत्‍य है। वह घुट्टी में है और स्‍वीकार्य है और उसका पता भी नहीं चलता क्‍योंकि वह सनातन है और नैतिक है, धर्मसम्‍मत है।

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    1. हां, ऐसा ही है। ऊपर पोस्ट चिपकाए जाने तक मोहन भागवत का अगला बयान नहीं आया था जिसमें वह कहता है कि बलात्कार इंडिया में हो रहे हैं, भारत में नहीं। भारत??

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    2. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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    3. मोहन भागवत के भारत का मतलब यदि ग्रामीण और पिछ्ड़ा क्षेत्र है तो ; लगता है *भारत* इस आदमी ने *देखा* नहीं है . खाप पंचायतों और सती और बुर्का की बात अगर छोड़ भी दें, तो भी जो भारत बेहद मासूम , निरीह , सात्विक , भोला और सादा दिखता है वहाँ बलात्कार ऐसे होता :

      ब्यूँस की टहनियाँ
      (आदिवासी बहनों के लिए)

      हम ब्यूँस की टहनियाँ हैं
      दराटों से काट छाँट कर
      सुन्दर गट्ठरों में बाँध कर
      हम मुँडेरों पर सजा दी गई हैं

      खोल कर बिछा दी जाएंगी
      बुरे वक़्त मे
      हम छील दी जाएंगी
      चारे की तरह
      जानवरों के पेट की आग बुझाएंगीं

      हम ब्यूँस की टहनियाँ हैं
      छिल कर
      सूख कर
      हम और भी सुन्दर गट्ठरों में बँध जाएंगी
      नए मुँडेरों पर सज जाएंगी
      तोड़ कर झौंक दी जाएंगी
      चूल्हों में
      बुरे वक़्त में
      ईंधन की तरह हम जलेंगी
      आदमी का जिस्म गरमाएंगीं.


      हम ब्यूँस की टहनियाँ हैं
      रोप दी गई रूखे पहाड़ों पर
      छोड़ दी गई बेरहम हवाओं के सुपुर्द
      काली पड़ जाती है हमारी त्वचा
      खत्म न होने वाली सर्दियों में
      मूर्छित , खड़ी रह जातीं हैं हम
      अर्द्ध निद्रा में
      मौसम खुलते ही
      हम चूस लेती हैं पत्थरों से
      जल्दी जल्दी खनिज और पानी

      अब क्या बताएं
      कैसा लगता है
      सब कुछ झेलते हुए
      ज़िन्दा रह जाना इस तरह से
      सिर्फ इस लिए
      कि हम अपने कन्धों पर और टहनियाँ ढो सकें
      ताज़ी, कोमल, हरी-हरी
      कि वे भी काटी जा सकें बड़ी हो कर
      खुरदुरी होने से पहले
      छील कर सुखाई जा सकें
      जलाई जा सकें
      या फिर गाड़ दी जा सकें किसी रूखे पहाड़ पर
      हमारी ही तरह .

      हम ब्यूँस की टहनियाँ हैं
      जितना चाहो दबाओ
      झुकती ही जाएंगी
      जैसा चाहो लचकाओ लहराती रहेंगीं
      जब तक हम मे लोच है

      और जब सूख जाएंगी
      कड़क कर टूट जाएंगी.


      2004

      ..... और फेसबुक पर जो इन महाशय की *उदात्त* तस्वीरें आ रही हैं , उन मे भी नैतिकता वश बलात्कार न कर पाने की कुंठाएं ही झलक रही हैं .

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  5. क्या कहा जाए? सबके अपने नुस्खे हैं जो भडकीले कपडे न पहनने, रात में घर में रहने , लोगों से न मिलने-जुलने से लेकर बुरका पहने जाने और गाय पालने तक आगये हैं. इन सब का लब्बोलुबाब एक ही है कि जिसका रेप किया जा रहा है दोष उसीका है रेप जो कर रहा है वह उतना दोषी नहीं है क्योंकि उसको तो यह सब करने के लिए उकसाया जा रहा है. यह बकवास ऐसे ही चलती रहेगी. जब भी ऐसा कुछ होता है तब यही बयान आते हैं, ऐसे ही नसीहतें दी जाती हैं. इन पर ध्यान देना समय और ताकत बर्बाद करना है इसलिए मै इनके बारे में न सोचकर वह करता हूँ जो मुझे ठीक लगता है और मेरा भरोसा है अगर हम सब समानता और अस्मिता के पक्षधर बन कर एक साथ चलेंगे तो इन लोगों के मुंह स्वयं ही बंद हो जायेंगे. ये लोग जानते हैं कि पूरा बदन ढकने वाली स्त्री से लेकर एक छोटी बच्ची तक कोई बलात्कारियों से सुरक्षित नहीं है लेकिन ये जान बूझ कर ऐसी बातों से असल मुद्दे को डाइल्यूट करना चाहते हैं. यह एक सोची समझी चाल है और इससे बहुत सावचेत रहने की ज़रूरत है.

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  6. @ अम्बुज जी से पूर्ण सहमती .हमारे मिधक ......हमारी संस्कृति के तीनो प्रमुख आराध्य (ब्रह्मा-विष्णु- महेश) समय समय बलात्कार पर उतारू हुए हैं, देवताओं के राज इंद्र ने तो कई बार भेष बदल कर किया भी है। कमजोर की लुगाई सबकी भौजाई जैसे मुहावरों का निहितार्थ बताता है की औरतों के बारे में हमारी मानसिक बुनावट क्या है? बहुत गहरी सफाई की जरुरत है .....

    पवन मेराज (फेसबुक से)

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  7. अशोक भाइ ! यह दिलचस्प वक्तव्य है । इस विषय पर मेरी सोच यह कहती है ,.कि औरत को बूर्के या हिन्दुओ मे घूँघट की प्रथा हमारे समाज की पुरानी संस्कृतिक पंरम्परा रही है ,..यह रिवाज पुराने समय में या आज के बहुत से क्षेत्रो मे है,.. जिसे लोग गलत नही मानते है ,..तभी तो इसका पालन हो रहा है । बहरहाल मुद्दा यहां बलात्कार से जुडा है ,..तो देखिये ऎसा है,.. कि अभी यह गरीब देश अमेरिका या ब्रिटेन जैसा अभी विकसित नही है ,..बल्कि इसे उनसे बेहतर भारतीय मर्यादित संस्कार के साथ साथ विकसित होने की आवश्यकता है ,..जिसमे अभी काफ़ी समय लगेगा । लिहाजा इसी मार्फ़त से उक्त बयान जारी है,.. जो निहायत दकियानुस है । जरूरी नही कि ऎसे बयान को महत्व दिया जाय ।
    दुसरी भागवत की बात का हमने गलत अर्थ लगा लिया है ,..और हम ख्वाहम्ख्वाह लाल-पीली हो रहे है,.. जहा तक मै समझता हूँ मूलार्थ यह है कि जिस सामाजिक हिन्दु समाज मे हम रहते आये है ,..उसमे गाय तक जैसे प्राणी को माता के समान आदर और पूजन किया जाता रहा है ,..उस दृश्य का महज यह एक मात्र एक अनुशंशा है,. कि लोग पुन: नैतिक मूल्य जो खोते जा रहे है वह फ़िर से बहाल हो और कुछ भी नही ।
    मै किसी वाद मे नही उलझता और जो समझता हूं ,.वह लिखा हूं,.. और मेरी निजी राय यह है कि ऎसे लोगो को तरजीह देकर हम स्वय्ं को ही कमजोर कर रहे है ,.और कुछ नही । सादर ।

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    1. माना कि यह अश्लील , मूर्खता पूर्ण और हास्यास्पद बयान है . तथा तरजीह देने लायक नहीं है . लेकिन इस बयान से हमारी संस्कृति की एक ऐसी छवि खुलती है जिसे हम अन्यथा देख नहीं पाते ( देखना नहीं चाहते) . अतः इस बयान का रचनात्मक महत्व है. यह प्रतीक है हमारी अज्ञानता का . इसे देखें और अपने को संकारित करें हम .

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  8. हम ने गऊ माता कह कर युगों से तुम्हें पूजा है
    चूसा है
    काले कपड़ों में ढँक कर बड़े जतन से सहेजा है
    निजी सम्पत्ति की तरह बरता है

    सड़्कों पर प्रफुल्ल आज़ाद मत घूमो
    खूबसूरत आकर्षक मत दिखो
    हमॆं ज़्यादा न उकसाओ
    वरना हम रैप कर देंगे
    क्यों कि हम पुरुष हैं

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  9. सादर अजेय जी ! नमस्कार,.. आपकी ब्युस की टहनियां ,.. हमने पुनेठा जी सहयोग से पहले से ही पढी है अच्छी है सोचा नही था आपसे मुलाकात होगी ।
    सबसे पहली बात कि जैसा कि मैने लिखा है मै बहसो मे उलझना नही चाहता ,.. इसका कारण यह नही कि विज्ञ या अज्ञ हूं ,..कारण यह है कि बहस बहस न होकर बहसबाजी हो जाती है ,जिससे केवल खिन्नता के सिवा कुछ हासिल नही होता ,.बहरहाल आपने लिखा है कि ---" इस बयान से हमारी संस्कृति की एक ऐसी छवि खुलती है जिसे हम अन्यथा देख नहीं पाते ( देखना नहीं चाहते) यह प्रतीक है हमारी अज्ञानता का " ---मै आपसे यहां तक सहमत हूं ,देखना तो मै भी नही चाहता ।
    पर छवि है तभी तो खुलती है ? और क्यो नही देख पाते सच को हम ? अगर रोग के अच्छे बुरे पहलु को पुरी तरह जानेगे नही तो रोग से मुक्त कैसे होगे श्रीमान जी ?
    बिम्ब और प्रतीको को (गऊ ,बुर्का ,घूंघट ) थोडी देर के लिये अलग रखकर देखे तो धर्म के पुराने नैतिक (सही -गलत धार्मिक) मूल्यो को हमारा आज का समाज अधिकांशत: प्रतिशतता मे अपने सर लादे हुए है ,..जिसमे गलत मूल्यो का विरोध दर्शाना गलत नही है पर यह भी सच है कि धर्म ने ही हमे यह संस्कार मूल्य दिया कि रेप गलत है पाप है अथवा कोई भी गलत काम गलत है इसे झुठलाया नही जा सकता । हमारी मानसिक पारिवारिक शांति की ओट मे भी धर्म खडा है । हम आज भी अपने निकटतम खून के रिश्ते से विवाह नही कर सकते । ये मूल्य कहां से आये ? अगर ये मूल्य नही होते तो हम आज भी कबिलाई या युरोपीय शैली के घिनौने नंगेपन की शैली मे कही जी रहे होते जहां रेप जैसी चीज को भी इन्ज्वाय करने और नजर अंदाज करने की दृष्टि से देखा जाता है । यहां भी वे संस्कारित मूल्य ही थे कि जिसके बलबूते दामिनी ने प्रतिरोध किया और बहादुर कहलायी । अतएव धर्म का पुर्णत: बहिष्कार हमारी ना समझी है ।
    परन्तु यहां अनगिनत वारदातो के बाद यह मार्मिक घटना भी पहली नही है और मीडियां के हस्त्क्षेप के बाद ,..ही लोग को उग्र है मीडिया को धन्यवाद देना चाहिये ताकि यह ठीक से काम करती रहे । रेप के बाद की,, की गई एक जघन्यता पाशविक क्रूरता के बाद यह जन चेतना मुखरित हो रही है, यह एक अच्छी पहल है ,मर्द्वाद ने औरतों पर बहुत जुल्म किये है और करते जा रहे है इसे किसी भी कीमत पर रोकना होगा । और इसके लिये धर्म के पुराने सडे गले वाहयात चरम पंथियो की अर्थहीन बयानो को मुद्दा बनाने से परहेज करना होगा उन्हे तूल देना यह साबित करता है कि हम स्वयं अंदर से खोखले है ।हाथियो से भरे नही है , पुराने मूल्यो और नये मूल्यो की टकराहट अवश्य होगी और उसमे उलझने से बेहतर है इस सडी गली सरकार की सियासत को मजबूर करना कि वह कनून मे बदलाव लाये मुद्दा यह होना चाहिये न कि किसी उथली बयान का प्रत्युतर दिया जाय । तथास्तु । सादर अजेय जी मै अपने को संकारित करने की चेष्टा मे हूं आपका अभिनन्दन व आभार इस खाकसार को भी कुछ बाते लिखने का अहोभाग्य प्राप्त हुआ । धन्यवाद ।



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    1. आप के सरोकार प्रशंसनीय हैं लेकिन आप के पूर्वाग्रह मज़ेदार है . इन पूर्वाग्रहों से मुक्त न होईयेगा तो आप के सरोकार व्यर्थ चले जाएंगे. जैसे * कबायली संस्कृति और यूरोपीय संस्कृति घिनौनी है * आप की बातों से लगता है आप ने इन दो संस्कृतियों के नंगेपन को खूब गहराई से जाना है . और इस जानने में यह भी शामिल है कि इन संस्कृतियों मे बलात्कार का आनन्द लिया जाता है. विरोध नहीं किया जाता , इसे होने दिया जाता है . और कथित भारतीय / हिन्दू/ हिन्दस्तानी संस्कृति ( ज़ाहिर है जिस मे यहाँ के कबायली शामिल नहीं हैं ) में धर्म के कारण ही बलात्कार का विरोध किया जाता है . धर्म न होता यहाँ भी महिलाएं बलात्कार का आनन्द लेतीं, और और विरोध न करतीं . यह अद्भुत है!!लगता है कबायलियों के साथ साथ आप ने महिलाओं को भी गहराई से समझा है . मुझे तो लग रहा है आप इन दो महानुभावों के बयानो को बिना सोचे समझे अर्थहीन कह दे रहे हैं. आप के विचार मुझे उन्हीं के आस पास लग रहे हैं . बहर हाल आप ने ईमानदारी से यहाँ अपने विचार रखे . और अपनी कामना ज़ाहिर की . मैं आप के धर्म से और जो भी उस का ईश्वर हो , उस से प्रार्थना करूगा कि वे आप की मनो कामना पूरी करें . आप जल्द संस्कारित हों .

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  10. लोकतंत्र का ये भी एक नुक्सान है कि सभी का सोचने का अपना अपना तरीका है

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  11. शिव शम्भु जी , आप सही सोच रहे हैं . लेकिन अपनी संस्कृति सड़न को 'देखना नहीं चाहना' , बहस से बचना , बुराई की जड़ को नज़र अन्दाज़ करना मैं नहीं समझता कि कोई समझदारी है . मैं आगे बहस नहीं करता, आप खुद सोच लीजिए , आप के विचार का सम्मान करता हूँ .

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  12. छील छील कर छीछालेदर कर दी गयी है हमारी सभ्यता की, कुछ रुढियों के चलते पूरी सभ्यता को गलत ठहराना मैं उचित नहीं समझता, वैसे भागवत और रहमान के ये बयान उनकी टुच्ची मानसिकता के द्योतक हैं और कुछ नहीं, सबसे बड़ी बात यह कि ये दोनों एक बड़े वर्ग को भी प्रभावित करते हैं जो चिंतनीय है। बसंत सर के शब्दों में " अगर हम सब समानता और अस्मिता के पक्षधर बन कर एक साथ चलेंगे तो इन लोगों के मुंह स्वयं ही बंद हो जायेंगे. ये लोग जानते हैं कि पूरा बदन ढकने वाली स्त्री से लेकर एक छोटी बच्ची तक कोई बलात्कारियों से सुरक्षित नहीं है लेकिन ये जान बूझ कर ऐसी बातों से असल मुद्दे को डाइल्यूट करना चाहते हैं। "

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  13. छील छील कर छीछालेदर कर दी गयी है हमारी सभ्यता की, कुछ रुढियों के चलते पूरी सभ्यता को गलत ठहराना मैं उचित नहीं समझता, वैसे भागवत और रहमान के ये बयान उनकी टुच्ची मानसिकता के द्योतक हैं और कुछ नहीं, सबसे बड़ी बात यह कि ये दोनों एक बड़े वर्ग को भी प्रभावित करते हैं जो चिंतनीय है। बसंत सर के शब्दों में " अगर हम सब समानता और अस्मिता के पक्षधर बन कर एक साथ चलेंगे तो इन लोगों के मुंह स्वयं ही बंद हो जायेंगे. ये लोग जानते हैं कि पूरा बदन ढकने वाली स्त्री से लेकर एक छोटी बच्ची तक कोई बलात्कारियों से सुरक्षित नहीं है लेकिन ये जान बूझ कर ऐसी बातों से असल मुद्दे को डाइल्यूट करना चाहते हैं। "

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  14. नागवार
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    मैं बस सोचता रहता हूँ,
    करता कुछ नहीं, वैसे भी करने की कुवत कहाँ है,
    अगर कुछ करना होता तो यहाँ बैठा कविता थोड़े ही लिख रहा होता,
    सच कहता हूँ, यह तो होना ही था एक दिन, इसे आप आज की उपज न समझें,
    बरसों से पाल-पोस कर इतना बड़ा किया है,
    तब कहीं जाके आज फूटी है इसमें बालियाँ,
    पहले खेतों में जार जार किया,
    फिर प्रेमिका बनाकर बांटा,
    दलित के नाम पर लूटा खसोटा,
    आदिवासी बताकर महीनो भोगा,
    भोगता ही रहा, हर रूप में, रंग में, जहाँ मिली जैसी मिली, मार कर पीट कर,
    अब यह तो अधिकार था पुरुष होने का,
    पुरुष होने की दबंगई यूँ ही थोड़े न आ जाती है,
    खैर, छोडिये आप को इन सबसे क्या लेना देना,
    आप तो मज़े लीजिये,
    टी आर पी बढाइये,
    और चटखारे ले लेकर नमक मिर्च लगाकर देखिये न्यूज़ चैनल्स,
    और आँखें घुमा घुमा कर पढ़िए खबर,
    अमा मियां आप भी नाहक ही परेशान होते हैं, यह तो बस एक दौर है,
    जो गुजर जायेगा, और रह जाएगी वो लड़की,
    जिसके साथ वह सब कुछ हुआ जो आपकी आँखें चलचित्र पर देखना चाहती थी,
    देखा सुनते ही आँखें फ़ैल गयी न, चमक तो देखिये मियां,
    अन्दर का भेड़िया गुर्राने लगा है,
    जीभ से टपकने लगी है लार,
    कि काश!! उनकी जगह हम होते,
    तो मुह को कपडे से ढांप के किया होता सब कुछ,
    देख ही न पाती हमें,
    और नहीं तो गला तब तक दबाते जब तक की एक एक साँस घुट कर निकल नहीं जाती,
    पहचानती कहाँ से, और किसको पहचानती,
    मियां राम सिंह, तुम तो बेकार निकले,
    हमें बुला लिया होता तो आज यहाँ बाहर कोई और ताज़ा गोश्त काट रहे होते,
    अरे आप तो यूँ ही नज़रें छुपा रहे हैं,
    मैंने आपकी एक ही गांठ तो पकड़ी है अभी,
    आप के दिल में तो कुछ और भी चल रहा होगा, है न,
    बिलकुल सही,
    कवि हूँ न, अन्दर तक पैठ नहीं पाता,
    बस ऊपर ऊपर ही नज़रें घुमाकर अंदाज़े पर लिखने बैठ जाता हूँ,
    लेकिन आज क्या सही पकड़ी मैंने, है न?
    चलिए कोई नहीं मैं तो बातें कर रहा था भोग और भोगने की,
    लेकिन यह क्या पब्लिक भड़क गयी है,
    अब कहाँ से भोगेंगे आप और कहाँ जाकर मरेगा आपके अन्दर का यह भेड़िया,
    फिर भी चिंता न कीजिये आप,
    यह तो बस कुछ समय की बात है,
    आयं क्या कहा,
    हाँ वह तो है,
    आज तो मनचले भी बदल गए हैं,
    हाथों में मशाल लेकर दिलाने चले हैं न्याय,
    लेकिन आप फिक्र न कीजिये कुछ दिनों की ही बात है,
    फिर दिख जायेंगे आप को यह उसी बस अड्डे पर,
    लड़कियों को छेड़ते,
    शिकार तलाशने गए होंगे वहां,
    या फिर थोडा बहुत दिल तो सबके अन्दर होता है,
    पिघल गया होगा,
    अब आपकी तरह इतना कटु थोड़े न है सबका,
    अच्छा एक बात बताइए,
    आपके घर में भी बहन, माँ, बेटी या बहु है?
    अरे बुरा न मानिये, सुनिए तो,
    है या नहीं,
    ओ हो .................
    कल आप ही तरह कोई उन्हें लूटेगा तब तो आप तालियाँ बजायेंगे,
    क्यूँ है न,
    अरे मैंने तो पहले ही कहा था आपको,
    बरसों पालने पोसने पर जाके कहीं पैदा होते हैं राम सिंह जैसे जानवर,
    और आप तो राम सिंह के भी बाप है,
    तो भला यह नागवार क्यूँ गुजर रहा है मियां?

    -नीरज

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  15. इस लेख के लिए आभार. अजेय की टिप्पणियों ने वह सब कह दिया जो कहने की आवश्यकता थी.
    घुघूतीबासूती

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  16. mujhe samajh nahi aata, poora vigya samaj, agya samaj ki tarah, bahas ko ched kar apne kis dharm ka nirvaah kar raha hai.

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स्वागत है समर्थन का और आलोचनाओं का भी…