मंगलवार, 8 जनवरी 2013

तुम अपनी उस खोह में लौट जाओ ! - विजय कुमार


कवि आलोचक विजय कुमार जी स्त्री विषयक  दस कविताएं प्राप्त हुईं हैं. ये कविताएं उन के तीन काव्य संग्रहों --" अदृष्य हो जाएंगी सूखी पत्तियाँ " , "चाहे जिस शक्ल से' तथा "रात पाली"   से चुनी गईं हैं. ये क्रमशः विभिन्न ब्लॉग्ज़ पर दिखेंगी.  इस कड़ी मे उन की एक विचलित करने वाली गद्य कविता 'उस के जिए हुए वर्ष'  यहाँ पढ़ी जा सकती हैं .  कड़ी मे दूसरी कविता के साथ  विजय जी का पत्र  फिर से  लगा रहा हूँ जो इन कविताओं को हालिया घटनाओं के मद्देनज़र समझने में मदद करता है :   


प्रिय भाई अजेय , 


चारों तरफ की स्थितियां आज भयावह रूप से वहशी और हैवानियत से भरी हुई हैं. सोचो तो कई बार बाहर रोज़ रोज़ घटती घटनाओं से कहीं ज़्यादा  अपने भीतर बैठा एक पितृ- सत्तात्मक समाज , उसका सोच और संस्कार डराने लगता  है . लडाई जितनी बाहर कानून- व्यवस्था और राज्य -सता को लेकर   है, उतनी , बल्कि उससे कहीं ज़्यादा अपने भीतर  के मर्दवादी सोच और संस्कारों से   है.  हम सब कहीं न कहीं अपने भीतर, अपने चेतन- अवचेतन में उस   पुरुषवादी सत्ता को ही तो  ढोते रहे हैं . . ऐसे महौल में आपने मुझ से स्त्री विषयक मेरी कवितायें मांगी है तो  .एक गहरे संकोच के साथ ही अपनी ऐसी दस कवियायें आपको भेज रहा हूं., इनमें आपको शायद एक गहरी आत्म- ग्लानि भी  मिले,जो मुझे कला के लिये ज़रूरी लगती है.  ये  कवितायें पिछले तीन दशकों में प्रकाशित अपने तीन संग्रहों से मैंने चुनी हैं ..कुछ प्रेम - कवितायें भी भेजता पर वह शायद  अभी नहीं . आपका निरंतर आग्रह न बना हुआ होता तो इन कविताओं को  भेजना अभी भी सचमुच मेरे लिये मुश्किल ही होता.   दरअसल दूसरों के लिखे को चर्चा में रखना मुझे हमेशा बहुत उत्साहपूर्ण लगता रहा है पर अपने लिखे को खुद ही सामने लाना कहीं एक  गहरे संकोच से भर देता रहा है.  मुख्यधारा के ताम - झाम से दूर बैठा हुआ हूं .मुझे पता नहीं ये कवितायें आपको कैसी लगेगीं. पर इनमें जो भी है यह मेरा अपना सम्वेदना संसार है , मेरी अपनी जीवन - दृष्टि है. 

सप्रेम

  • विजय कुमार 
  वसुन्धरा


दूर उपनगर के प्लेटफार्म नम्बर तीन पर
एक नंग धड़ंग औरत खड़ी है
दिन दहाड़े
सरे आम
बेखबर
आसमान तकती

यह रेनुआँ का कोई पुराना चित्र नहीं है

इस औरत को दो आदमी घूर रहे हैं
बीस आदमियों ने घूरा उसे
फिर तो दो सौ आदमी घूर रहे हैं

पगली है , पगली है
हँसे दो आदमी
बीस आदमी हँसे ज़ोर से
अब तो दो सौ आदमियों की डरावनी हँसी है
प्लेट्फार्म पर यहाँ से वहाँ  तक

थोड़ी से शर्म है इस हँसी में
ढेर सारी मौका परस्ती
और एक छापामार क़िस्म का सुख
बीसवीं सदी के अंतिम दशक का

पर हँसते हुए ये लोग पिछले ज़माने के बर्बर नहीं हैं 
कि हँसे तो हँसते ही चले जाएं
ये हँसते हुए दो सौ आदमी
पल भर में गायब हो जाते हैं
सिर्फ एक गाड़ी के आते ही

दूर उपनगर के प्लेटफार्म नम्बर तीन पर सुबह साढ़े नौ बजे खड़ी हुई
हे सृष्टि की अनमोल रचना !
अब इस प्लेटफार्म पर सिर्फ तुम्हारा
निपट नंगापन बचा है
अगली गाड़ी आने तक

तुम धरती की जिस खोह से निकलकर
हमारे संसर में अचानक चली आई
अपनी उस खोह में लौट जाओ

अगले वक़्त में हम तुम्हारे लिए थोड़ा सा रेशम
थोड़े से फल
एक आईना
और एक स्मृति जुटा लेंगे

देखो हमें ध्यान से देख लो ज़रा
शायद इस संसार के अंतिम मनुष्य गिने जाएं  

-----------------------------------------------------------------------------------


                                                                                             
विजय कुमार 

ख्यात कवि एवं आलोचक 


तीन कविता संकलन  'अदृश्य हो जायेंगी सूखी पंक्तियाँ', 'चाहे जिस शक्ल से' और 'रातपाली' तथा आलोचना की दो पुस्तकें 'कविता की सांगत' और 'खिड़की पर कवि'. उद्भावना के कविता विशेषांक 'सदी के अंत की कविता' का सम्पादन

सम्पर्क - 
vijay1948ster@gmail.com

7 टिप्‍पणियां:

  1. सच में एक सत्य उड़ेल दिया है यहाँ विजय जी ने, हम में से शायद ही कोई ऐसा होगा जिसने ऐसा न किया हो।
    "देखो हमें ध्यान से देख लो ज़रा
    शायद इस संसार के अंतिम मनुष्य गिने जाएं "
    एक झंझोरती हुई कविता।

    niraj pal

    जवाब देंहटाएं
  2. उत्तर
    1. विजय कुमार हमारे समय के उन बहुत थोड़े से कवियों में से हैं जिन्होंने साहित्य की मूल्यवत्ता को इस दुष्कर समय में भी बचाए रखा है .एक तरह से कहें तो आठवें दशक के अधिकांश कवि जहां कविता में दुहराव का शिकार होते हैं, वहीं विजय कुमार रात पाली जैसी अद्भुत संग्रह के साथ कविता को पुनर्जीवित करते है .एक ऐसी भाषामें जिसमे औसत जीवन का दर्द कविता की पक्तियों के बीच परिलक्षित होता है .

      हटाएं
    2. विजय कुमार हमारे समय के उन बहुत थोड़े से कवियों में से हैं जिन्होंने साहित्य की मूल्यवत्ता को इस दुष्कर समय में भी बचाए रखा है .एक तरह से कहें तो आठवें दशक के अधिकांश कवि जहां कविता में दुहराव का शिकार होते हैं, वहीं विजय कुमार रात पाली जैसी अद्भुत संग्रह के साथ कविता को पुनर्जीवित करते है .एक ऐसी भाषामें जिसमे औसत जीवन का दर्द कविता की पक्तियों के बीच परिलक्षित होता है .

      हटाएं
  3. Bahut hee acchee kavita. Aatammanthan karne ke liye vivash kartee hai. Aisee kavitain kam hee dekhne ko milatee hain. Dhanyavaad. - kamal jeet choudhary ( j and k )

    जवाब देंहटाएं

स्वागत है समर्थन का और आलोचनाओं का भी…