अँधेरा इन दिनों सबको नया-सा लगता है
बाज़ार की माँग के हिसाब से तय होते हैं टीवी सीरियलों के विषय और चरित्र
- प्रांजल धर
कोई सात साल पहले की मेरठ की एक ख़ूबसूरत रात की बात है। ख़ूबसूरत यानी सन्नाटे
भरी। माघ महीने के अँजोर पाख की रात। शब्दों से नशा पैदा करने वाले शायर शबाब
मेरठी से अचानक मेरी मुलाकात हुई। बातों-बातों में उन्होंने मुझसे कहा कि आप तो
मीडिया पर लिखते हैं, आप यह बताइये कि आपको आज तक का सबसे पसन्दीदा टीवी सीरियल
कौन-सा लगा? मैंने अपने दिल की बात तपाक से कह दी कि ‘फिर वही तलाश’। तब उन्होंने बताया कि इस सीरियल के
टाइटिल सांग और डायलॉग्स को लिखने से लेकर इसकी रचना तक के अन्य अनेक चरणों में भी
उनका योगदान रहा है। मेरे पास शब्द नहीं हैं, उस पल को बयाँ करने के लिए कि अपने सर्वाधिक
प्रिय टीवी धारावाहिक की मुख्य टीम में शामिल रहे किसी महत्वपूर्ण शख्स से बहुत
लम्बी बात करने का मौका मुझे मिला है। मैंने उनकी चर्चित किताब ‘लोहे का जायका’ पढ़ी थी। यह किताब मेरे पैदा होने के
तीन बरस पहले यानी सन 1979 में दिल्ली से प्रकाशित हुई थी और नब्बे के दशक में
मुझे मेरे एक पत्रकार मित्र ने उपहार में दी थी। शबाब मेरठी अच्छे शायर हैं, यह
बात तो मुझे मालूम थी। पर सीरियल वाली बात से मैं बिल्कुल अनजान था। तभी सोचा था,
और उन्होंने कहा भी था कि धारावाहिकों के बदलाव और विश्लेषण पर कुछ लिखो प्रांजल। इस
बदलाव का ज़िक्र करते हुए उन्होंने अपना एक शेर कहा था, “किसी
को दर्द, किसी को दवा-सा लगता है/ अँधेरा इन दिनों, सबको
नया-सा लगता है।” मैंने उनसे हाँ कहा था। उस लेखन की
शुरूआत करते हुए मैं शबाब मेरठी साहब को धन्यवाद दे रहा हूँ।
जहाँ पिछली शताब्दी के सत्तर, अस्सी और नब्बे के दशक में दूरदर्शन अकेला चैनल था,
वहीं आज ज़ी टीवी, सोनी, कलर्स, स्टार प्लस, लाइफ़ ओके, सहारा वन और सब टीवी जैसे
अनेक चैनल ऐसे धारावाहिकों को प्रसारित कर रहे हैं जिनसे हमारे देश का मिडिल क्लास
बहुत लगाव महसूस करता है। ‘हम लोग’ और ‘बुनियाद’ के बाद आया ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ जैसे टीवी
सीरियलों का दौर। इसके बाद ‘ब्योमकेश बख्शी’ और ‘देख भाई देख’ जैसे सीरियलों
ने अपना जलवा बिखेरा और उस समय के यथार्थ को परदे पर पेश करके इण्डियन सोप ओपेरा की
नई इबारत लिखी। जहाँ ‘ब्योमकेश बख्शी’
वकील से लेखक बने शरदिन्दु बन्द्योपाध्याय की साहित्यिक कृति का टेलीविज़न संस्करण
था, वहीं ‘देख भाई देख’ ने जया बच्चन
के प्रोडक्शन और आनन्द महेन्द्रू के लेखन और निर्देशन के अन्तर्गत हल्की-फुल्की कॉमेडी
टीवी शो के रूप में अपनी खूब पहचान बनाई। ‘देख भाई देख’ पहले तो डीडी मेट्रो पर 1993 से 1997 के दौरान दिखाया गया और बाद में
सोनी सब टीवी और दूरदर्शन पर इसका पुनर्प्रसारण किया गया। फ़रीदा जलाल, शेखर सुमन,
नवीन निश्चल और उर्वशी ढोलकिया जैसे कलाकारों के अभिनय ने दीवान परिवार की तीन
पीढ़ियों की समानताओं-असमानताओं को नये तरीके से दर्शकों के सामने रखा था। बहरहाल,
आज के सीरियल नई देहभाषा के साथ-साथ नये किस्म के संवादों को पेश करके बदलाव की नई
बयार का रुख़ नापने की कोशिश करते नज़र आते हैं। यह ठीक है कि न सिर्फ़ सीरियलों
के मुद्दे बदले हैं, बल्कि उनकी थीम, करेक्टर, भाषा और बारीकी की मात्रा में भी
बहुत परिवर्तन आए हैं। इनमें से काफी कुछ तो बाजार ही तय कर रहा है ताकि लोगों का ‘टाइम पास’ आराम से हो सके। फिर भी तमाम दर्शकों को
आज की तकनीकों से लैस धारावाहिक अँधेरे की तरह ही लगते हैं। किरदारों के चेहरों पर
लगातार लम्बे समय तक कैमरे को फोकस कर-करके दर्शकों को बोर करना मानो आज शगल ही बन
चुका है। ऊपर से कानफोड़ू ध्वनियाँ तंग करती हैं, जिन्हें कम से कम संगीत कहने से
तो परहेज ही करना उचित होगा। इन सवालों पर सीरियल निर्माताओं को सोचना चाहिए।
समय के साथ पहनावे, फैशन, सोच-विचार और राजनीतिक यथार्थ में बदलाव आए। यह
राजनीतिक यथार्थ में आई बदलाव की लहर को पकड़ने की ही कोशिश है कि ज़ी टीवी के
सीरियल ‘कुबूल है’ ने धर्म और
रिश्तों के आपसी उलझाव की व्यापक पड़ताल की। ज़ोया और असद की तय शादी के बार-बार
टूटने का यथार्थ हमें बताता है कि आज समय किस कदर बदल चुका है। असद का छोटा भाई इस
सीरियल में अपने पहनावे का बहुत खयाल रखता है। वैसे इस सीरियल ने इस्लामी कल्चर को
बेहद रवानी के साथ पेश किया है और आज धारावाहिकों की भीड़ में भी यह शायद अकेला
ऐसा सीरियल है जो मुसलमानों में हो रहे वैचारिक परिवर्तनों को बेहद गहराई से
रेखांकित करता है। पर एक अँधेरा पहलू यह भी है कि आज के धारावाहिकों में कुछ खास टाइप्ड
फ़ार्म्यूलों और कुछ स्पेशल स्टाइल के उबाऊ दोहरावों के कारण दर्शकों का एक बड़ा
तबका इनसे भाग भी रहा है। इसीलिए सीरियलों में व्याप्त अँधेरे को दूर करने के लिए सीरियल
इण्डस्ट्री पर एक दबाव यह है कि किस तरह इस दूर भागते दर्शक वर्ग को नज़दीक लाया
जाए?
भारतीय समाज का एक पुराना मिथक है कि हर कामयाब पुरुष के पीछे किसी महिला का
हाथ होता है। क्या किसी कामयाब स्त्री के पीछे किसी मर्द का हाथ नहीं हो सकता! हमारे नये समय की नई सोच को देखना हो तो ‘दिया और बाती हम’ का नाम लिया जा सकता है। स्टार
प्लस के इस सीरियल में कम पढ़ा-लिखा सूरज अपनी टॉपर पत्नी सन्ध्या के सपनों को
पूरा करने के लिए अनेक मुसीबतें झेलता है। यह सीरियल वैचारिक बदलाव का बैरोमीटर
है। पुष्कर की एक मारवाड़ी फैमिली से जुड़े ढेर सारे पहलुओं को दिखाकर दर्शकों का
मन मोहने वाला यह सीरियल परम्परा और आधुनिकता का अद्भुत संगम प्रस्तुत करता है।
हमारे समय की आधुनिकता के तापमान को मापते हुए यह सीरियल परम्पराप्रेमी सास भाभो
को दर्शकों के सामने लाता है और उनके संवादों के ज़रिये प्रेम में मगन एक ऐसे
जोड़े को पेश करता है जिनकी शैक्षिक योग्यताएँ बहुत अलग हैं, जिनमें बहुत ज्यादा
ऐसे डिफ़रेंसेज़ हैं, जिसे हम मनोविज्ञान की चलताऊ भाषा में ईडियोसिनक्रेसीज़ कह
सकते हैं।
प्रेम फिल्मों के लिए ही नहीं, बल्कि
सीरियलों के लिए भी एक महत्वपूर्ण और रोचक विषय रहा है। सवाल है कि इस घिसे-पिटे
विषय में नया क्या है? हाँ, नया है प्रेम को पेश करने का तरीका,
चाहे वह एसएमएस की सुविधा का लाभ लेते हुए किया जाए या फिर वैलेण्टाइन कार्ड देकर।
उदारीकरण और सैटेलाइट चैनलों की बाढ़ के बाद प्रेम की व्यूअरशिप में जो बदलाव आए
उन्होंने सीरियल-निर्माताओं पर यह दबाव डाला कि वे प्रेम के ऐसे पक्षों को
प्रसारित करें जो या तो अब तक अछूते रहे थे या फिर जिनका ग्लोबल करेक्टर रूपायित
नहीं हो पा रहा था। पर इस ग्लोबल करेक्टर में सामाजिक सरोकार खोजना रेगिस्तान में
पानी खोजने के बराबर कठिन हो सकता है। पहले भी प्रेम के सीरियल बने और दिखाए गये
थे। उदाहरण के लिए हम प्रेम के गुनगुने और शरबती आयाम को दिखाने वाले दूरदर्शन के
दो दशक पुराने सीरियल ‘फिर वही तलाश’
का नाम ले सकते हैं। यह सीरियल जब शुरू होता था तो शबाब मेरठी के लिखे टाइटिल सांग
की ये पंक्तियाँ अनिल बिस्वास के संगीत के अन्तर्गत चन्दनदास की मीठी आवाज़ में गूँजती
थीं-
यूँ निकल पड़ा हूँ सफ़र पे मैं, मुझे मंजिलों की तलाश है, नए रास्ते, नए आसमाँ, नए हौसलों की तलाश है। जहाँ बन्दिशों की हो हद ख़तम, उस हसीं सहर की तलाश है, जहाँ रंग-ओ-ख़ुशबू का हो मिलन, मुझे उस उफ़क़ की तलाश है।
पर इस टाइटिल सांग का वह हिस्सा भी कुछ कम मज़ेदार नहीं जो इस सीरियल में नहीं
गाया गया था। वह यों है-
मुझे याद है तेरे इश्क में कभी फूल बनके हँसा था मैं, मेरी उस हँसी पे जो हँस सके, उन्हीं कहकहों की तलाश है। कोई मुझसे दूर भी जाए तो, जिन्हें अपनी रूह में सुन सके, मुझे ज़िन्दगी तेरी नब्ज़ में उन्हीं आहटों की तलाश है। वो जो मुद्दतों मेरे साथ था, वो जो मेरा दाहिना हाथ था, मेरी ज़िन्दगी से निकल गया, मुझे आसरों की तलाश है।
‘बड़े
अच्छे लगते हैं’ ने सास बहू जैसी किसी स्टोरी की बजाय चालीस
की उम्र के आस-पास के एक जोड़े की भावनाओं को समग्रता में दिखाया है। युवा पीढ़ी
की महत्वाकांक्षाएँ ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में बढ़ी हैं और लिव-इन, होटल कल्चर या
करियर की तरफ ध्यान देने के कारण आज विवाह की उम्र बढ़ी है। राम कपूर और प्रिया
पहले शत्रुता का भाव रखते हैं, फिर दोस्त बनते हैं और वक्त के साथ यह दोस्ती प्यार
में बदल जाती है। इस सीरियल में, और प्रकारान्तर से कहें तो आज के अनेक सीरियलों
में भाई-बहन के खूबसूरत रिश्ते भी पार्श्व में चलते रहते हैं। यह सब एक भव्य सेट
के साथ आज के सीरियलों में दिखाया जा रहा है। हालाँकि ‘क्योंकि
सास भी कभी बहू थी’ जैसे सीरियलों ने भी संयुक्त परिवार की
विकृतियों को खूब बढ़ा-चढ़ा कर दिखाया और दर्शकों ने इसे खूब पसन्द भी किया है। आज
के सीरियलों ने हमारे समाज का चित्र खींचने के साथ-साथ उसे यह प्रेरणा भी दी है कि
उसे कैसा होना चाहिए। उदाहरण के लिए ‘प्यार का दर्द है
मीठा-मीठा, प्यारा-प्यारा’ की अवन्तिका के फ़ैशन सेंस ने
बहुत प्रशंसक पैदा किये हैं और मेट्रोपॉलिटन्स में ही नहीं, गाँवों में भी इस
तरीके के फ़ैशन का असर देख सकते हैं। यहाँ आदी और पंखुरी के दोस्ताना रिश्ते में
प्यार का मसालेदार छौंक भी मिला हुआ है। ज़ाहिर है कि आज का समाज ‘नीम का पेड़’ वाले समाज से काफी आगे का है और आज के
व्यूअर्स परिधान और गहनों के साथ-साथ इस बात पर भी ध्यान देते हैं कि उनके प्रिय
सीरियल में किरदारों के पास किस कम्पनी के मोबाइल फोन्स, आई पॉड्स या कारें हैं या
फिर उनके घरों की, उनके किचन की सजावट भला किस तरह की गयी है। ‘इण्टीरियर डेकोरेशन’ वाले समय में आज खाने से ज्यादा
जोर खाना परोसने के और खाना खाने के तरीकों पर है। अधिकतर सीरियलों के परिवार
आर्थिक रूप से सम्भ्रान्त दिखते हैं, लम्बी-लम्बी विदेशी गाड़ियाँ दिखाते हैं या
फिर गाँव-गँवई के फुटेज लाकर रूरल-अरबन डिवाइड का रेखांकन करते हैं।
सोचने वाली बात है कि आज के सीरियलों
की स्क्रिप्ट भला किस किस्म के लोग लिख रहे हैं?
एक दौर था जब शबाब मेरठी जैसे लोगों ने यह काम किया था, गरीबी के ऐसे दिन देखे थे
कि पेट भरने के लिए अपने तमाम लेखों और स्क्रिप्ट को रद्दी में कबाड़ी वाले को बेच
दिया मजबूरी में। आज भी मेरठी साहब (जिनका मूल नाम दिनेश कुमार स्वामी है) कहते
हैं कि मैं सोचता था कि गीत और स्क्रिप्ट मैं किसी को दिखाकर क्या करूँगा प्रांजल! जिसको मेरा लेखन अच्छा लगेगा, वह मुझे खुद खोज लेगा। उसके बाद वे बताते
हैं कि किस प्रकार कमलेश्वर जी ने अपनी कथा यात्रा नामक पत्रिका में उनकी रचनाओं
को प्रमुखता से स्थान दिया था, कि किस तरह बेनज़ीर भुट्टो उनसे तब सम्पर्क रखती
थीं, जब वे निर्वासन में थीं और अख़बार निकाला करती थीं, कि किस प्रकार मेरठी साहब
कितनी गहराई तक कम्युनिस्ट बने रहे...। ये संस्मरणात्मक बातें लिखने का औचित्य
यहाँ नहीं बनता इसलिए इन चीज़ों पर कभी बाद में विस्तार से लिखूँगा। फिलहाल इतनी
प्रासंगिकता इन बातों की यहाँ ज़रूर है कि अगर स्क्रिप्ट राइटर काफी पढ़ा-लिखा
होगा, हाशिये के लोगों के प्रति उसमें कोई संवेदना होगी तो कहानी में दम अपने आप आ
जाएगा और कोई भी सीरियल उतना ही कामयाब या लोकप्रिय होता है जितनी कि उसकी कहानी। आर.के.
नारायण की लघु कथाओं पर आधारित ‘मालगुडी डेज़’ इस बात की एक उम्दा मिसाल है।
चाहे वह नैतिक और अक्षरा सिंघानिया के
रिश्तों को लेकर दिखाया जाने वाला सीरियल ‘यह
रिश्ता क्या कहलाता है’ हो या फिर कच्ची उम्र के पक्के
रिश्तों का खाका खींचने वाला सीरियल ‘बालिका वधू’, इन सबमें मानवीय सम्बन्धों की भीतरी तहों तक पहुँचने की कोशिश की गयी
है। उन तहों की जिन्हें हमारे देश का मध्य वर्ग देखना चाहता है, जब वह टाइम पास कर
रहा होता है। शुद्ध मनोरंजन को केन्द्र में रखकर बनाये जाने वाले इन सीरियलों में
समाज तो खूब दिखता है लेकिन सामाजिक सरोकार उतने नहीं दिखाई देते। इनकी सारी
संवेदनाएँ बनावटी लगती हैं, स्त्रियों की छवियों को भी ये कोई अच्छे तरीके से नहीं
पेश करते, ये प्रायः बाज़ार के बोझ तले दबे-से नज़र आते हैं और समानता जैसे
सामाजिक मूल्यों से इनका कोई वास्ता भी नहीं होता। शबाब मेरठी के ही शब्दों में
कहें तो “कुछ लोग जिनके पास चरागों के ढेर हैं/ वो लोग चाहते हैं बड़ी लम्बी रात हो।” वैसे भी
फेसबुक और इण्टरनेट से जुड़ी हमारी युवा पीढ़ी अपने घर के पड़ोस में रहने वाले
लोगों की तुलना में उनकी फिक्र ज्यादा करती है जो उससे फेसबुक पर जुड़े हुए हैं,
कहीं थाईलैण्ड या अमरीका में बैठे हैं और जिनसे न पहले कभी उनकी मुलाकात हुई होती
है और न ही आगे होने की कोई सम्भावना बनती है। तो क्या मदर्स डे, फ़ादर्स डे और
वैलेण्टाइन डे वाली टेलीविजन धारावाहिकीय संस्कृति ही हमारे समाज का पूरा सच है? अगर नहीं, तो ‘मालगुडी डेज़’
जैसे सीरियल आज क्यों कोई बना नहीं पा रहा?
---------------------
प्रांजल धर
मई 1982 में उत्तर प्रदेश के गोण्डा जिले के ज्ञानीपुर गाँव में जन्मे प्रांजल की कविताएँ, कहानियाँ, समीक्षाएँ, यात्रा वृत्तान्त और आलेख देश की सभी प्रतिष्ठित पत्र – पत्रिकाओं में प्रकाशित और प्रकाशित। देश भर के अनेक मंचों से कविता पाठ। अनेक विश्वविद्यालयों और राष्ट्रीय- अन्तरराष्ट्रीय महत्व के संस्थानों में व्याख्यान। राष्ट्रकवि दिनकर की जन्मशती के अवसर पर ' समर शेष है ' पुस्तक का संपादन। ' नया ज्ञानोदय ' और ' जनसंदेश टाइम्स ' समेत अनेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में नियमित स्तम्भकार । वर्ष 2006 में राजस्थान पत्रिका पुरस्कार, वर्ष 2010 में अवध भारती सम्मान तथा पत्रकारिता और जनसंचार के लिए वर्ष 2010 का प्रतिष्ठित भारतेन्दु हरिश्चन्द्र पुरस्कार। हाल ही में कविता के लिए प्रतिष्ठित भारत भूषण पुरस्कार से सम्मानित
आकर्षक शीर्षक देखकर पढ़ने बैठा लेकिन बहुत चाहने पर भी पर भी इसके कंटेंट में शीर्षक को सही साबित करती एक भी लाइन नहीं मिली। शायद बहुत जल्दी में लिखा गया था।
जवाब देंहटाएंअच्छी पड़ताल है मित्र ..आपने उन पुराने दिनों को याद दिलाकर नास्टेलजिक बना दिया ...
जवाब देंहटाएंभाई प्रांजल ने बहुत सारे चैनल्स की सटीक पड़ताल की है यह उनका ही कमाल है कि पूरा लेख एक सांस में पढ़ गया .... जबकि एक भी टीवी सीरियल कभी नहीं देखता मैं ...कारण केवल यही है कि जब कभी टीवी के सामने ठिठक जाओ या गलती से कोई धारावाहिक लग जाए तो सामने कोई न कोई षड्यंत्र या बदला ऐसा ही देखने को मिलता है
जवाब देंहटाएंमैं इसी लिए हाथ ही जोड़ता हूँ टीवी से और सीरिअल्स से भी !
लोकप्रिय सीरियलों को आलोचनात्मक ढंग से देखने और सार्थक टिप्पणी करने से इस क्षेत्र को सुरुचि और अर्थपूर्ण बनाने मे मदद मिल सकती है। मनोरंजन का यह माध्यम बहुत महत्वपूर्ण है,इसमें ऐसे काम की सचमुच बहुत आवश्यकता है। बधाई प्रांजल भाई।
जवाब देंहटाएंसीरियल देखने का काम हम लोगों का है ................. उसमे भी लेखकों का हस्तक्षेप? पढ़के अच्छा लगा अब सीरियल देखते समय नज़रें कुछ और भी खोजेंगी .... प्रांजल जी को उपयोगी लेख के लिए बधाई!
जवाब देंहटाएं