गौरव सोलंकी ने ज्ञानपीठ पर जो सवाल उठाये थे और उसके बाद हिन्दी के साहित्यिक जगत में जिस तरह बहस तेज हुई है, उसके बाद इस बाबत "निरपेक्ष" रहना कम से कम हमारे लिए संभव नहीं था. यह मामला अपने आरम्भ में भले एक युवा लेखक (जो कभी ज्ञानपीठ के स्वेच्छाचारी निदेशक की गुड बुक में रहा) और संस्था के बीच में रहा हो लेकिन आज यह हिन्दी में प्रकाशक और लेखक के बीच के संबंधों, लेखक के स्वाभिमान और हिन्दी प्रकाशन के पूरे परिदृश्य में नियमों के भयावह उल्लंघनों की बहस बन चुकी है. हमने इस बारे में उठ रहे तमाम सवालों पर गौरव सोलंकी से प्रतिक्रिया देने का अनुरोध किया था जो अब शब्दशः यहाँ प्रकाशित की जा रही है. जो मित्र इस पूरे घटनाक्रम से परिचित हैं उनके लिए कुछ ज़रूरी लिंक भी दिए जा रहे हैं.
मैं हिन्दी साहित्य की इस व्यवस्था को बदलने की कोशिश तो करूंगा लेकिन इसके हिसाब से ख़ुद को किसी कीमत पर नहीं बदलूंगा !
इस पूरी बहस में कुछ साथी लगातार मेरे चरित्र पर सवाल उठा रहे हैं या ऐसी कोशिश कर रहे हैं। एक तरह से यह सही भी है। अंधे होकर मेरी सब बातें मानी भी नहीं जानी चाहिए। मुझे भी उसी कसौटी पर कसा जाना चाहिए, जिस पर मैं उन्हें कसने की कोशिश कर रहा हूं, जिनके विरोध में हम सब खड़े हैं।
मुझ पर संदेह करने और कभी कभी तो उसे यक़ीन के साथ कह रहे साथियों को तीन बातें 'निश्चित' तौर पर लग रही हैं कि पहले भी यह पुरस्कार मुझे सेटिंग से मिला था, मुझे इस पूरे सिस्टम की जानकारी शुरू से ही थी और अब व्यक्तिगत परेशानी हुई तो आवाज़ उठाई। यह वक्तव्य उन्हीं से बात करने और अपनी बात कहने के लिए है। साथ ही अपना अतीत खोलकर रखने के लिए भी। बाकी फ़ैसला आपको करना है।
सबसे पहले तो, कृपया मुझे फ़ैशनपरस्त या किसी भी तरह का क्रांतिकारी समझने की भूल न करें। मैंने यह सब किसी के लिए भी नहीं किया है। मेरी सारी लड़ाई एक पूर्वाग्रही, भ्रष्ट और बेशर्म व्यवस्था से है और अपने लेखक और अपनी किताब के सम्मान की है। लेकिन यह इसी तरह सब लेखकों और सब किताबों के सम्मान से जुड़ जाती है। हर लड़ाई ऐसे ही तो शुरू होती है कहीं ना कहीं। गाँधी जी को भी तो अफ़्रीका में काला होने के कारण ट्रेन से फेंक दिया गया था। क्या तब उनकी लड़ाई भी व्यक्तिगत हो जाती है? मैं उनसे अपनी तुलना नहीं कर रहा, और न ही लाखों करोड़ों मील दूर तक ऐसा कर सकता हूं। मैं बस लड़ाई शुरू होने के ढंग को समझाने के लिए एक उदाहरण दे रहा हूँ।
एक और तथ्य है, जिसे उठाने का कोई तुक नहीं और न ही मैं इसे बलिदान की तरह कह रहा हूं इसलिए इस पर मुझे कोसने मत लगिएगा। यह सिर्फ़ अपने चरित्र को समझाने की कोशिश में कह रहा हूँ। यह मेरा अपना निर्णय था कि मैंने आईआईटी से पढ़ाई के बाद एक कम्पनी की नौकरी छोड़ी और फ़िलहाल सिर्फ़ लेखक हूं। अगर आपको लगता है कि बहुत महत्वाकांक्षी और किसी भी शर्त पर ऊपर जाने की चाह रखने वाले लोग ऐसे फ़ैसले लेते हैं तो इस बारे में क्या कहूं?
दूसरा, एक साथी का आरोप आया है कि 'किसी' ने उन्हें पिछले साल नवलेखन पुरस्कार की खबर पहले ही दे दी थी कि दो में से एक को मिलेगा और मुझे मिला। इस तरह वे घोषणा कर रहे हैं कि मैं उसी व्यवस्था का हिस्सा था और मुझे किसी जुगाड़ से ही सब मिला था। बहरहाल, उस समय चार लोगों को यह पुरस्कार दिया गया था, दो को कविता की किताब के लिए, दो को कहानी की किताब के लिए, फिर एक को मिलने का कैसे पता चला उन्हें और वे कह रहे हैं कि सही भी निकला? फिर भी, अगर कोई एक भी आदमी किसी भी तरह यह सिद्ध कर सके कि मैंने एक भी दफ़ा किसी से इसकी सिफारिश करवाई हो, कोई प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष चापलूसी की हो तो मैं खुद फेसबुक पर सार्वजनिक रूप से घोषणा करूंगा कि मेरा पूरा पत्र खोखला और झूठा है और मैं एक नम्बर का दोहरे चरित्र का आदमी हूँ।
मेरा उन साथी से आग्रह है कि उस आदमी का नाम लीजिए, जिसने पहले ही आपसे यह बता दिया था। जो आदमी सबके नाम के साथ सब कुछ बता रहा है, उसकी नीयत पर आप शक कर रहे हैं और मुझे आपसे यह भी शिकायत है कि आपको सब 'इल्हाम' पहले से है, आपने उसी समय यह क्यों नहीं कहा? यह पूरी लड़ाई को और मज़बूत बनाता। आप अब भी बिना नाम लिए बात कर रहे हैं। मुझे इसी से शिकायत है। इस रवैये से। कि जो बोल रहा है, उसमें फलां कमियाँ हैं और हम को सब पता तो है लेकिन बोलेंगे नहीं। उस आदमी का नाम प्लीज़ बताइए और पूरी प्रक्रिया। मैं ख़ुद इस फ़िक्सिंग को सामने लाने में जो बन पड़ेगा, करूंगा।
कुछ तो तथ्यों के साथ कहिए। कम से कम उस आदमी को तो यह जानने का हक बनता है, जिसने भले ही सब साहित्यकारों को मालूम बातों का ही उद्घाटन किया लेकिन जब उसे पता चला, उद्घाटन किया तो।
जहाँ तक आपको यह लगता है कि मुझे इस राजनीति और भ्रष्टाचार का सब पहले से पता था, तो मैं साहित्य का विद्यार्थी नहीं था। इंजीनियरिंग पढ़ी और आईआईटी के वे चार साल देश की सबसे पारदर्शी व्यवस्थाओं में से एक में बिताए। वहीं शायद यह अपेक्षा शुरू हुई कि पूरी दुनिया को ऐसा ही होना चाहिए। वहाँ से निकलने के बाद तहलका में लिखता था, कविताएँ कहानियाँ लिखता था। हर जगह छपती थी। दो-चार लोगों के अलावा किसी से मिलता नहीं था। उनसे भी औसतन तीन-चार महीने में एक बार। चन्दन ने कुणाल से मिलवाया था। कुणाल की कई कहानियाँ मुझे बहुत पसन्द थीं/हैं और इस नाते मैं उनकी लेखक के रूप में इज़्ज़त करता था। मैंने उन्हें एक दो बार अपनी फ़िल्मों के कलेक्शन से फ़िल्में दीं और उनसे किताबें लीं। मेरी पहली कहानी तद्भव में छपी थी। उसके बाद जो कहानी ज्ञानोदय में छपी, वह भेजने के करीब छ: महीने बाद छपी होगी। ऐसा ही चला, जब तक चला। परस्पर लेखकीय सम्मान के सम्बन्ध थे। कम से कम मेरी ओर से तो यही। मुश्किल से एक या दो बार ही सिर्फ़ मैं और कुणाल मिले होंगे। चन्दन दिल्ली आते थे तो कई बार उनके पास रुकते थे। तब इस बहाने उनसे मिलना हो जाता था। ऐसी ही एक मुलाकात में दो-तीन और लेखक आए थे। मनोज पांडेय, राकेश मिश्र भी थे। दोनों से इकलौती बार तभी मिला। सब मुझसे बड़े थे और मुझे लगभग बच्चे की तरह ट्रीट करते रहे। राकेश मिश्र से बाद में भी दो-तीन बार बात हुई, जब उन्होंने मेरी कहानियां पढ़कर बधाई देने के लिए फ़ोन किया। मैं शायद कभी उन्हें फ़ोन नहीं कर पाया और एकाध बार व्यस्त होने के कारण उठा भी नहीं पाया। उसके बाद से शायद वे नाराज़ हैं, ऐसा दूसरे लोग ही बताते हैं।
ख़ैर, उस इकलौती मुलाकात में मैंने पहली बार देखा कि एक लेखक शशिभूषण द्विवेदी बिना बुलाए चले आए थे। पूरा समय कुणाल ने उन्हें अपमानित किया और वे हँसते हुए शराब पीते रहे। कुणाल कह रहे थे कि वे आए भी शराब के लिए ही हैं। मैंने पहली बार किसी को इस तरह अपना आत्मसम्मान खोकर हँसते हुए देखा था। सब हँस रहे थे। लौटते हुए मुझे बहुत बुरा लगा। कुणाल ने बाद में पुराना कुछ बताते हुए कहा कि उनसे इसी तरह बात की जा सकती है। मुझे अजीब लगा लेकिन यह भी लगा कि कुछ पर्सनल प्रॉब्लम होगी, वे दोनों सालों से एक दूसरे को जानते थे और शशिभूषण भी तो सब सुन रहे थे। मैंने शशिभूषण द्विवेदी की एक किताब 'ब्रह्महत्या' कभी खरीदी थी। उसके बाद से वह किताब नहीं पढ़ पाया। कैसे पढ़ता?
इसके बाद कुणाल से अक्सर चंदन या श्रीकांत के साथ ही मिलना हुआ। कुल पाँच-छ: बार। दो साल के अंतराल में। सैटिंग ऐसे हो जाती हो तो बहुत आसान है। मेरा तज़ुर्बा ठीक ठाक ही रहा था। कहानियां लिखता था, छप जाती थी। चार कहानियां कथादेश में छपी हैं-एक शायद छपने वाली है, चार कहानियां ज्ञानोदय में, दो कहानियाँ तद्भव में और एक कहानी वागर्थ में छपी हैं. एक अभी लमही में छपी है, कुछ कहानियाँ अखबारों में. बाकी ब्लॉग पर. पर सवाल उठा रहे साथी इनमें से ज्ञानोदय की चार कहानियों को ही याद रखेंगे अपनी सुविधा से और ज्ञानपीठ वालों की तरह चाहेंगे कि यह सिद्ध करें कि गौरव सोलंकी की कहानियां वहीं छपती थीं बस। हर जगह छपती थी, हर जगह भेजता था कहानी। हंस में भी दो बार भेजी लेकिन उन्हें छापने लायक नहीं लगी. इसमें मेरी क्या ग़लती? आप यह कैसे कह देते हैं कि गौरव ज्ञानपीठ का लेखक था? कथादेश का क्यों नहीं था? तहलका का क्यों नहीं था? और लेखक था सिर्फ़, कहीं का क्यों होगा?
और इनमें से किसी भी संपादक से कहानी भेजते वक्त या कभी पत्रिका मंगवाते वक्त के अलावा बात तक हुई हो तो मुझे बताया जाए। कथादेश के हरिनारायण जी ने मेरी चार कहानियां छापी हैं और अब तक हमारी फ़ोन पर कुल पांच मिनट से ज़्यादा बात नहीं हुई होगी। हम बस एक बार एक फ़ंक्शन में एक डेढ़ मिनट के लिए मिले हैं। तद्भव के अखिलेश जी से मैं कभी नहीं मिला। उन्होंने कहानी छापने से मना किया तो महीनों तक दूसरी कहानी भेजने की बात तक नहीं की। कालिया जी से दो तीन बार बहुत सारे लोगों की उपस्थिति में मिला और इस मुद्दे से पहले उनसे फ़ोन पर इकलौती बात तब की थी, जब तहलका के साहित्य अंक के लिए उनसे किताबों की लिस्ट लेनी थी। आप अपने घर में बैठे मुझे सैटिंग वाला मानते हैं क्योंकि आपने तय कर लिया है कि इसी से कोई आदमी छप सकता है।
सब कुछ मालूम होने की बात है तो मैं इतना अनजान था कि साल भर पहले उदय प्रकाश जी ने हिन्दी साहित्य की राजनीति पर कुछ लिखा था तो मैंने उन्हें फ़ेसबुक पर मैसेज करके कहा था कि मैं चाहूंगा कि आप तहलका के लिए इन सब सच्चाइयों पर एक लेख लिख सकें. मैंने यह भी लिखा था कि मुझे ख़ुशकिस्मती से अब तक ऐसा कोई तज़ुर्बा नहीं हुआ है. आप मेरी नीयत पर तो हमेशा की तरह शक करेंगे. संभव हो तो उदय जी से कनफ़र्म कर सकते हैं. मैं लेखकों से मिलना कम ही पसंद करता हूं और लेखकों के बारे में बातें करना उससे भी कम। कई दोस्तों से कह भी चुका हूं यह। यह ख़ूबी नहीं कह रहा, बस स्वभाव है मेरा। ऐसे में क्या पता होगा मुझे? जो दिखता गया, पता चलता गया, जितना चलता गया, उसका विरोध करता रहा, समर्थन करता रहा.
अब इतनी भयानक चीजें साफ हुईं तो उनका भी विरोध किया. आगे भी कुछ हुआ तो करूंगा. और सिर्फ़ अपनी बातें नहीं खोलीं, जिन साथियों की तकलीफ़ मालूम थी, उनकी भी लिखी. अब भी लिख रहा हूं, लिखता रहूंगा. मुझे तकलीफ़ बस इस बात से होती है कि आप या दूसरे लोग गर्व से यह कह रहे हैं कि हमें तो यह सब पहले से पता था। शायद पहले दिन से ही पता हो आपको। सौ साल से पता हो, लेकिन उससे हुआ क्या? और मुझे तो इस दुनिया में आने के बाद ही समझ आएगा ना? बमुश्किल तीन साल से हूं साहित्य में और उसमें भी पूरी राजनीति से लगभग आउट ऑफ टच। मैं दूसरों की नहीं मानता, जब तक वे कनविंस न कर दें मुझे। कुछ गलत दिखता है, समझ आता है, तभी बोलता हूं। लेकिन मुझे तकलीफ़ है कि आपको पता था और ज़ाहिर है कि सब कुछ इतना बुरा है, फिर कोई सीधे सीधे क्यों नहीं बोलता। इतनी बुरी बातें हैं, रोज़ एक बात तो बोलनी ही चाहिए। आप कहेंगे कि आपका ख़त तहलका नहीं छापता पर ब्लॉग हैं, फ़ेसबुक है अब तो। मुझे तकलीफ़ है कि हम इतना शक करने लगे हैं कि हर आदमी की हर बात पर शक करते हैं और सिर्फ़ शक नहीं करते, फ़तवे जारी कर देते हैं। उसका पक्ष सुनने से पहले ही।
और आप इसके बावजूद मानकर ही बैठे हैं कि इसे सब पहले से पता था तो बोला क्यों नहीं, इसके इरादे खराब थे। तो यह कि लोग पचास साल से झेल रहे हैं. कोई कितना भी कमीना है, लेकिन तीन साल में भी अगर बोला तो बोला तो. कोई और तो तब भी नहीं बोल रहा, जो बोलता है, उसे आप उसे कोसने लगते हैं. ऐसे में हम उन अन्यायियों को ही मज़बूत कर रहे होते हैं। ज्ञानपीठ से छप रहे एक-दो युवा लेखक ऐसा खूब कह रहे हैं क्योंकि उन्हें छपने और ऊपर जाने का यही एक तरीका आता है। राजनीति ऐसी है कि वह आदमी, जिसने बार बार मांगकर 'ग्यारहवीं ए के लड़के' ली थी कि कहीं और बिल्कुल मत देना, वही उसे अश्लील बताता है।
कुछ साथी मुझे सलाह देते हैं कि हर बात का जवाब मत दो। यह तुम्हारा ध्यान भटकाने के लिए है। लेकिन झूठ मुझसे बर्दाश्त नहीं होता। आप मेरी कमी पर मुझे थप्पड़ मारिए, लेकिन झूठे आरोप इस विश्वास से लगाएँगे तो मैं चुप न रह पाऊंगा। मैंने ख़त में भी लिखा है, यहाँ भी कह रहा हूँ कि मैं हिन्दी साहित्य की इस व्यवस्था का आदमी नहीं हूं। इसे बदलने की कोशिश तो करूंगा लेकिन इसके हिसाब से ख़ुद को किसी कीमत पर नहीं बदलूंगा।
जो तहलका में ख़त के छपने से बहुत गुस्से में हैं, उनके लिए आख़िरी बात ये कि तहलका ने वह ख़त छापकर बहुत बुरा किया। वह कई अख़बारों को भी भेजा गया था लेकिन बाकी सब मुख्य अख़बारों और पत्रिकाओं की तरह उन्हें भी इसे इगनोर कर देना चाहिए था। ऐसी बातों को सामने लाना ग़लत है। इसके लिए मैं तहलका की भर्त्सना करता हूं।
मैंने अपनी सब बातें कह दी हैं। बहुत ज़रूरी न हुआ तो और नहीं लिख पाऊंगा। आप देख ही रहे हैं कि कुर्सी वालों के कितने सवालों का जवाब देना पड़ रहा है। ऐसे में आप साथी बुरा नहीं मानेंगे तो मेरी मदद होगी।
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फेसबुक पर चली बहस यहाँ
१- प्रभात रंजन का सवाल - आप गौरव के साथ हैं या कौरव के?
२ - गौरव सोलंकी द्वारा ज्ञानपीठ को भेजा पत्र यहाँ पढ़ें
३ - जनादेश पर छपा हिमांशु बाजपेई का आलेख यहाँ पढ़ें
४ - वरिष्ठ कहानीकार बटरोही का आलेख यहाँ पढ़ें
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१- प्रभात रंजन का सवाल - आप गौरव के साथ हैं या कौरव के?
२ - गौरव सोलंकी द्वारा ज्ञानपीठ को भेजा पत्र यहाँ पढ़ें
३ - जनादेश पर छपा हिमांशु बाजपेई का आलेख यहाँ पढ़ें
४ - वरिष्ठ कहानीकार बटरोही का आलेख यहाँ पढ़ें
अच्छा लगता है कि कोई नौजवान एक नौजवान के गौरव के साथ बोल रहा है .नहीं तो कितने ही नौजवानों की ज्ञान -पीठ आज कल ऐसी झुकी दिखती है कि सख्त अफ़सोस होता है .
जवाब देंहटाएंजहां व्यवस्था है वहाँ सड़ांध तो है ही ! गौरव ने जो आरोप लगाए हैं वे सही ही होने चाहिए ! कम से कम मुझे तो कोई संदेह नहीं ! हालांकि यह नही पता चल पाया कि उन लोगों ने किस इरादे से किताब नहीं छापी ! अश्लीलता का जो आरोप लगाया गया वह पर्याप्त नहीं लगता ,कोई और गहरी वजह जरूर है इसके पीछे ! यहाँ जो स्पष्टीकरण आया है गौरव की ऑरसे वह मुझे सहज और स्वाभाविक और ईमानदारी से लिखा लग रहा है ! हमें गौरव का साथ देना चाहिए , भले ही यह प्रकरण इतिहास में दर्ज होकर रह जाए ! मेरी शुभकामनाये गौरव के साथ हैं !
जवाब देंहटाएंयह आलेख भी पढ़ा और गौरव का पत्र भी...यही सोच रही हूँ कि कहीं कोई साफ सुथरी दुनिया भी बची है क्या?
जवाब देंहटाएंगौरव सोलंकी के इस जबाब से बहुत सारी बाते साफ़ होती है | निश्चित तौर पर ज्ञानपीठ का यह निर्णय मनमाना और एकतरफा है ..| लेखक और प्रकाशक के बीच जिस तरह के रिश्ते आज बनते चले गए हैं , उसमे ऐसी ही दुर्भाग्यपूर्ण घटनाये घटेंगी ...| एक लेखक , जो अपनी कलम से दुनिया को बदलने का सपना देखता है , क्यों एक अदने से प्रकाशक के सामने घुटने टेक देता है | और जब वह उसी से नहीं लड़ सकता , तब उसके लिखे से दुनिया कैसे बदल सकती है , या दुनिया को बदने की प्रेरणा कैसे मिल सकती है ..? ये कुछ सवाल है , जो इस घटना के आलोक में आज हमें मथ रहे हैं ...| मुझे लगता है , कि यह एक बेहतर अवसर है , जब हम ऐसे सवालों का उत्तर तलाशे , बजाय इसके कि किसने क्या कहा ...?..
जवाब देंहटाएंगौरव की बातों से सहमत हूँ.... कुछ लोग पूरी ज़िन्दगी उसी भ्रष्ठ सिस्टम का हिस्सा बने रहते हैं.... बाकी बातों को अगर एक तरफ भी रख दो तब भी 3-4 साल बाद ही सही, आवाज़ उठाने वाला निसंदेह बेहतर है.
जवाब देंहटाएंलेखकीय स्वतन्त्रता एवं स्वाभिमान की रक्षा हेतु 'गौरव सोलंकी जी' का कदम सराहनीय एवं स्तुतय है,अनुकरणीय और भी ज़्यादा।
जवाब देंहटाएंमैंने गौरव सोलंकी का तहलका में छपा पत्र भी पढ़ा है. गौरव ने जो सवाल उठाए हैं, उनके जवाब मिलने चाहिए. ये कोई अनजानी बात नहीं है कि साहित्य और मीडिया के मठाधीश और संस्थाएं नए लेखकों को रीढ़विहीन बनाए रखना चाहती हैं, ताकि अपने मतलब के हिसाब से उनका इस्तेमाल कर सकें. ऐसे में अगर एक युवा लेखक इनके विरूद्ध आवाज उठाता है (चाहे वजह कोई भी हो, जैसा कि कुछ लोगों ने बताने की कोशिश की है) तो भी. गौरव की आवाज को दरकिनार करने का मतलब उस व्यवस्था का हिस्सा हो जाना है, जिसे मठाधीश बनाए-चलाए रखना चाहते हैं
जवाब देंहटाएंजहाँ कहीं हम व्यवस्था के अंग बनकर रहे होते हैं ,अगर आप उनके हाँ में हाँ मिलते रहे तक सब ठीक चलता रहेगा .कहीं आपने अपने अस्तित्व को बचाने की कोशिश की ...आप पर सवाल उठाये जाने लगेंगे .आरोप -प्रत्यारोप का दौर शुरू हो जायेगा। वही सब आपके साथ भी हो रहा है .. आपकी कहानी को लेकर ज्ञानपीठ का दोहरापन वाकई आश्चर्यजनक है ...(हालांकि ग्यारहवी ए कहानी को लेकर मेरी अपनी आपत्तियां हैं )..मठाधीशों के खिलाफ आवाज उठाना बड़ी बात है .वह भी इस मौकापरस्त समय में ..मेरी शुभकामनायें आपके साथ हैं .
जवाब देंहटाएंगौरव तुम्हारे इस लेख से ही पता चलता है कि तुम कितने झूठे हो, अजीब बात है कि मेरा अपमान हुआ और मुझे ही नहीं मालूम? आपसी हंसी मजाक को तुम्हारे जैसा स्वाभिमानी(?) ही अपमान समझ सकता है. तुम बहुत अच्छे और कल्पनाशील कहानीकार हो. जो चीज घटती ही नहीं उसे भी घटित कर देते हो, शाबाश.
जवाब देंहटाएंगौरव आपको पक्ष और विरोध दोनों मिलेंगे। आपका सत्य आपके साथ बना रहे, बचा रहे, इसकी शुभकामनाएँ।
जवाब देंहटाएंइस समय में बहुत कुछ प्रायोजित है। और ज्ञानपीठ इसमें अकेले नहीं है। तद्भव का पिछला अंक 'आख्यान पर एकाग्र' आया था। उसमें एक समीक्षक ने पचीस सालों की हिन्दी कहानी का जायजा लेते हुए कुणाल सिंह पर सात पाराग्राफ खर्च किए थे, और चन्दन पाण्डेय के लिए सात पंक्तियाँ। हमें मालूम है कि यह नपना बहुत ठोस नहीं है इन लेखकों को आँकने के लिए। लेकिन, जब एक पत्रिका इस तरह का रवैया अपनाती है, तो..... नंगे तो कई हैं....
gourav ki batoN me imandari lag rahi he. ek yuva lekhak jab kisi politics ka shikar hota he to yah bahut taklifdeh he.
जवाब देंहटाएंहमनें ये एक टिप्पणी गौरव के "India Against Corruption in Literature" Facebook community पर भेजी थी पर उन्होंने अप्रूव नहीं की। PDF के लिए ये लिंक देखें -
जवाब देंहटाएंpatra
आशा है प्रबुद्ध जन इसे पढ़्कर राय बनाएंगे।