मंगलवार, 30 नवंबर 2010

'सब राजा के होते हैं और राजा किसी का नहीं होता।'

राशिद अली के विचारोत्तेजक लेख 'इतिहास का ढलान' का पहला भाग 'दरअसल ग़ल्ती इतिहास की नहीं' और दूसरा भाग 'हिंसा इतिहास की दाई है' आप पढ़ चुके हैं। प्रस्तुत है उसका तीसरा भाग और अंतिम भाग।



इसी कड़ी मे वैभव सिंह की पुस्तक इतिहास और राष्ट्रवाद को ले लीजिए. हिंदी नवजागरण के संदर्भ में लिखे इतिहास के इस पूरक पाठ से यह तो पता चलता है कि लेखक ने कितनी मेहनत की है. पर पढ़ने के बाद ऐसा लगता है मानों लेखक ने अभी सिर्फ सामग्रियां जुटाई हैं. इतिहास का पूरक पाठ कहीं पीछे छूट गया है. आम हिंदी लेखकों के साथ यही दिक्कत हैं. वे अक्सर विद्वानों की आदरता के वैभव में खो जाते हैं. पर ऐसे समय में जब शब्द ही नहीं बच पा रहे तो वैभव का काम काफी सराहनीय दिखता है. उन्होंने भारत के इतिहास को लेकर ढ़ेर सारी प्रवृत्तियों का एकजा किया हैण. पुस्तक की शुरुआत होती है-- ओमप्रकाश केजरीवाल की उस विवादास्पद पंक्ति से कि अट्ठारवीं सदी में भारत के पास केवल उसका अतीत था, इतिहास नहीं. आम इतिहासकारों की तरह लेखक भी इसका खंडन करते हैं और ले देकर कल्हण के 'पौराणिक द्वार' पर खड़े हो जाते हैं। आगे वे राजतरंगिनी के बारे में इतिहासकार सतीश चंद्र को उद्धरित करते हैं 'भारत में जिन्हें कभी कभी इतिहास पुराण कहा जाता है, वे इतिहास लेखन की देशी परंपराओं के सूचक हैं। इस परंपरा में न केवल राजाओं की वंश विषयक सारणियां और स्पष्ट ऐतिहासिक आंकड़े थे, बल्कि उनमें एक खास इतिहास दर्शन भी मौजूद था। कल्हण द्वारा बारहवीं सदी में संस्कृत मे लिखा गया कश्मीर का इतिहास राजतरंगिनी ऐतिहासिक विश्लेषण में स्पष्टता और परिपक्वता का प्रदर्शन करता है और भारत में इतिहास लेखन की लंबी परंपरा के ही विकास का संकेत देता है। यहां वैभव बिना किसी आलोचना के ही सतीश चंद्र की ऐतिहासिक दृष्टि को पचा गए। बात रही राजतरंगिनी की तो यह आरंभ ही होती है ब्रहमांडोत्पत्ति के वैदिक सिद्धांत से, ''तब सत्य और असत्य कुछ भी नहीं था। वायुमंडल भी नहीं था और न ही आकाशण। इतना अथाह गहरा जल क्या था? जब विरित्रासुर ने पानी और सूर्य पर कब्जा कर लिया था तो इंद्र ने उसे अपने वज्र से मारा था और अन्य असुरों का भी चुन चुनकर संहार किया था।'' कश्मीर के राजाओं की वंशावलियों में लिपटी राजतरंगिनी इतिहास को लाखों साल पीछे ढ़केल देती है और आज हम इसे साम्राज्यवादी इतिहासकारों को जवाब देने के लिए ऐतिहासिक स्रोत के रूप में आगे करते हैं। मुझे कल्हण की राजतरंगिनी और फिरदौसी के शाहनामा में इसके अलावा और कोई फर्क नजर नहीं आता कि एक को महाकाव्य का दर्जा मिला और दूसरे को 'प्रामाणिक इतिहास' का। दोनों का लेखन काल भी लगभग एक ही समय का है। इतिहास की एक और विडंबना देखिए कि जिस महमूद गजनवी को इतिहासकार ''सोमनाथ के लुटेरे'' के रूप में देखते हैं, उसी के आदेश पर फिरदौसी ने ईरान के बादशाहों का 'इतिहास' लिखा,

बसी रंज बुरदम दर ईं साले सी
अजम जिंदा करदम बेदुन पारसी

(इन तीस सालों में मैने लाखों तकलीफें सहीं लेकिन फारसी के माध्यम से मैने पूरब के इतिहास को जिंदा कर दिया)

महमूद गजनवी और फिरदौसी दोनों ही मुसलमान थे और ईरान के जिन बादशाहों का 'इतिहास' फिरदौसी ने लिखा वे सब के सब पारसी धर्म के मानने वाले थे। यह एक अजब संयोग है कि ''एक ही परंपरा वाले आर्य प्रजाति के राजाओं और बादशाहों का इतिहास एक ही परिवार की अलग अलग भाषाओं में लगभग एक ही काल में लिखा गया'' अगर मान लिया जाए कि राजतरंगिनी भारत के इतिहास लेखन की लंबी परंपरा का ही दस्तावेज है तो हम इसमे से वस्तुनिष्ठ इतिहास की कसौटी पर किन किन चीजों को लेंगे और कौन कौन सी चीजें छांटेंगे। राजतरंगिनी में तो यह भी लिखा है कि 'कश्मीर को केवल अध्यात्म से ही जीता जा सकता है, सैन्य बल से नहीं'। आज अगर हम कश्मीर की मौजूदा हालत पर नजर डालें तो यह कितना क्रूर मजाक लगता है। वहां का इतिहास तो जिंदा है, पर वहां के रहने वाले लोग गायब हो चुके हैं। सिर्फ लापता लोगों का कब्रिस्तान बचा है। क्या उत्तरआधुनिकतावाद में यकीन रखने वाले लोग 'टेक्स्ट' से निकलकर और वहां के कब्रिस्तान में जाकर 'अनुपस्थित की उपस्थिति' को इस अर्थ में भी इस्तेमाल करेंगे?

यहां वैभव खुद इतिहास निर्माण में अतीत के पुराने मिथकों का सहारा ले रहे हैं हालांकि जब वे मैक्समुलर के इतिहास दृष्टि की चर्चा करते हैं, तो बजाप्ता इसका खंडन करते हुए कहते हैं 'इतिहास के बारे में काव्यात्मक अतिश्योक्तियां इतिहास की कठोर तथ्यपरकता व वस्तुनिष्ठता का निषेध करती हैं।' एक तरफ वैभव सिंह हैं तो दूसरी ओर रामधारी सिंह महाकवि महोदय कहते हैं कि 'यह महल साहित्य और दर्शन का है। इतिहास की हैसियत यहां किराएदार की है। इतिहासकार का सत्य नए अनुसंधानों से खंडित हो जाता हैए लेकिन कल्पना से प्रस्तुत चित्र कभी खंडित नहीं होते।' अब समस्या यह है कि दोनों ही लेखक पेशेवर इतिहासकार नहीं हैं, लेकिन इतिहास को लेकर उनके ठीक अलग विचार हैं। संस्कृति के चार अध्याय में दिनकर ने भारत की 'गौरवशाली परंपरा' का ऐसा महिमामंडन किया है कि अगर इतिहास की कम जानकारी रखने वाला कोई व्यक्ति इसे पढ़ ले तो उसे परंपरा का लकवा मार जाए। समस्या न काव्यात्मक अतिश्योक्ति की हैए न ही इतिहास की तथ्यपरकता की। समस्या कुछ और ही है। अगर तुलसी और कबीर के काव्यों का सहारा लें तो ऐतिहासिक निरंतरता की गांठ खुलने लगेगी और यह तय हो जाएगा कि इतिहास का भविष्य क्या है और भविष्य का इतिहास कैसे लिखा जाना चाहिए। कबीर ने कहा था 'दसरथ के घर ब्रहमा न जन्मे, ई छलम माया कीन्हां।' कहां थी कबीर की कोई इतिहास दृष्टि? वे तो महज अपने समकालीन समाज की उथल पुथल का जायजा ले रहे थे। उस समय यह कह देना कि राम दशरथ के पुत्र नहीं थे, बहुत बड़ी बात थी। अगर इतिहासकार इस कविता को इतिहास में जगह दे देते, तो आज राम के जन्म की बात ही नहीं होती और बाबरी मस्जिद गिरने से बच जाती। काश कि इतिहास इस तरह के 'कंजेक्चर्स' पर भी चलता। पर ऐसा नहीं हुआ। इसके बदले तुलसी का रामचरित मानस जनमानस की भावनाओं मे अंकुरित होने लगा। पिछले चार सौ सालों से तुलसी की चारपाईयां इतिहास को मृत्युशैय्या पर लिटाकर उसका मातम मना रही हैं, 'मंगल भवन अमंगल हारी.द्रवहूं सो दसरथ अजिर बिहारी।' तुलसीदास यह तो बताते हैं कि राम दशरथ के घर ही पैदा हुए, पर यह कहीं नहीं कहते कि दशरथ का घर ही बाबरी मस्जिद थी। वह तो भला हो हमारे इतिहासकारों का कि आज कबीर के दोहे प्रेमचंद के फटे जूते की तरह अभिजात वर्ग को आह्लादित करने की सामग्री भर बनकर रह गए हैं। यह ठीक वैसे ही है जैसे मंडल के समय वामपंथियों का एक बड़ा तबका रातों रात वर्ग संघर्ष की बेड़ियां तोड़ मनुस्मृति के प्रातःगान की स्तुति करने लगा। फुकूयामा को इतिहास का अंत लिखने की जरुरत नहीं थी। अंत तो तभी हो जाता है, जब इंसान सोचना छोड़ देता है। मार्क्स ने यह भी लिखा था कि जानवरों मे भी चेतना होती है, लेकिन इसे लेकर वे आश्वस्त नहीं हो पाते। तो क्या हमारा पूरा का पूरा समाज ही 'एनिमल फार्म' है?


प्रियंवद भारत विभाजन को ऐतिहासिक प्रक्रिया के रूप में तब से देखते हैं, जब मुगल साम्राज्य ढ़लान पर लुढ़क रहा था यानी औरंगजेब की मृत्यु हो चुकी थी और औरंगजेब ने मुगल साम्राज्य अपने तीन पुत्रों में बांट दिया था। इस बात को लेकर प्रियंवद ने यह निष्कर्ष निकाला कि 'देश के विभाजन का यह पहला अभिलेखीय प्रमाण व सोचा समझा प्रयास है।' पहला अभिलेखीय प्रमाण तो ठीक है पर मुगल साम्राज्य देश तो नहीं था। किसका देश? क्या हम उसे आज के हिंदुस्तान के रूप में देखें? इतिहासकार यही भूल तो करते हैं। राष्ट्र की अवधारणा को आधुनिक मानते हुए भी प्राचीन और मध्य काल को उसी चश्मे से देखने लगते हैं। तब तो ऐतिहासिक निरंतरता में आस्था रखने वाले वे लोग भी गलत नहीं होंगे जो पुराण में इतिहास ढ़ूंढ़ते हैं,

उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेष्चैव दक्षिणम
वर्शं तदभारतं नाम भारती यत्र संततिः!!
(वायु पुराण)

इस बात को पहले के इतिहासकार भी लिख चुके हैं कि जिस तरह औरंगजेब ने 'भारत विभाजन' की कामना की थी, ठीक वैसे ही पाकिस्तान की भी कल्पना पहले पहल अल्लामा इकबाल के भाषण में प्रकट हुई, जब वे मुस्लिम लीग के सभापति हुए थे। अगर विभाजन की कड़ी ढ़ूंढ़नी ही है तो इतिहास मुगल काल से भी पीछे चला जाएगा, जब राजाओं ने अपने अपने पुत्रों में अपने राज्य की सीमाएं बांटी थीं। अभिलेखीय प्रमाण से क्या होता है। सारा का सारा महाभारत काल ऐसे प्रसंगों से भरा है।

इसके बाद प्रियंवद मुहम्मदशाह रंगीले के संदर्भ में कहते हैं, 'मुहम्मदशाह एक तमाशा बनकर रह गया। देश वस्तुतः कुछ सरदार या फिर किस्सागो, रम्माल, रंडियां और हिजड़े चला रहे थे।' यह बात सौ फीसदी सही है लेकिन जिसे वे चला रहे थे वह मुगल साम्राज्य था। नादिरशाह ने भी जब मुगल साम्राज्य पर हमला किया था, तो एक राजा की हैसियत से। उस समय तक संप्रभू राष्ट्र नहीं होते थे। अगर नादिरशाह को आक्रमणकारी और मुहम्मदशाह को इस 'देश' का नागरिक मान लें तो यह बस इतिहास के प्रति अन्याय होगा। लेखक के अनुसार, 'अगर मुहम्मदशाह ने नादिरशाह के प्रति रूखा रवैया नहीं अपनाया होता तो वह अफगानिस्तान के बाहर से ही लौट जाता। उसका यह व्यवहार वैसा ही था जैसा कि राणा सांगा ने बाबर के साथ किया था' आखिर राणा सांगा ने किया क्या था? यह एक महत्वपूर्ण सवाल है। इतिहास का यही वह 'प्रस्थान बिंदु' है जहां से इतिहासकारों की श्रेणियां बंट जाती हैं। राणा सांगा की सलाह पर बाबर ने लोदी वंश पर हमला किया और उससे भी बड़ा हमला किया राणा सांगा की खाम.ख्याली पर। राणा यही सोचते थे कि लोदी को हराकर और थोड़ा.बहुत लूटपाट कर बाबर वापस लौट जाएगा। पर ऐसा नहीं हुआ। नतीजतन अगले साल ही खानवा की लड़ाई हुई और राणा सांगा को मुंह की खानी पड़ी। बाबर का यूं दिल्ली पर बैठ जाना इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण घटनाओं में एक है। इसने भावी इतिहास की दिशा भी तय कर दी। बाबर के विदेश नीति की तुलना मैकियावेली के शासन पद्धति से करते हुए ई एम फोसर्टर ने एक बड़ी ही दिलचस्प बात लिखी है, 'जब मैकियावेली अपने प्रिंस के लिए सामग्रियां जुटा रहे थे, तो एक लुटेरा बालक मध्य एशिया में अपनी फतह का झंडा लहराता चला जा रहा था।' बाबर को लुटेरा घोषित करने के बाद फोसर्टर कहते हैं, 'शायद जीवन का त्याग करने के अलावा बाबर की जिंदगी में भारतीयता का और कोई अंश नहीं था।' यह बात उन्होंने हुमायुं के बीमार पड़ जाने के बाद बाबर के खुदा से दुआ करने के संदर्भ में लिखी है। ठीक यही बात मैक्समुलर ने भी कही थी, 'मुस्लिम शासन के आतंक और डर के विवरणों को पढ़ने के बाद मुझे इस बात से हैरत होती है कि कैसे हिंदुओं में गुण और सत्यवादिता बची रह सकती है।' इन लेखकों को उद्धरित करने के पीछे मेरा सिर्फ इतना मकसद है कि ये अन्य यूरोपीय लोगों की तरह नहीं थे। भारत को 'संपेरों का देश' नहीं कहते थे। तभी भी इतिहास दृष्टि में कोई फर्क नहीं था। एशिया और अफ्रीका उनके साहित्य के लिए बस 'सृजनात्मक प्रक्रिया' का काम करते थे।

मजे की बात यह है कि फोसर्टर जब भ्रमण को आए थे तो अपने अनुभवों को उन्होंने उपन्यास की शक्ल दे दी..ए पैसेज टू इंडिया। यह टाइटल उन्होंने वाल्ट विटमैन की कविता 'पैसेज टू इंडिया' से लिया था जिसमें कहा गया था कि 'इस बेजान सी धरती पर एक दिन सबकुछ ठीक हो जाएगा। ईश्वर की सच्ची संतान इसे ठीक कर देगी।' यहां ईश्वर की सच्ची संतान कौन है? शायद रुडयार्ड किपलिंग!!! उनकी कविता व्हाइटमैन्स बर्डन में गोरों का काम ही यही था।

ए पैसेज टू इंडिया का नायक एक मुसलमान है। ए पैसेज टू इंग्लैंड के लेखक नीरद सी चौधरी को इस बात से बहुत ही आपत्ति थी। उनके विचार में इस उपन्यास का नायक किसी हिंदू को होना चाहिए था। लेकिन किस हिंदू को? उस हिंदू को जिसे वे ग्रीक माइथोलॉजी का हवाला देकर 'सूअर' जैसे शब्दों से नवाजते हैं या उस वैदिक हिंदू को जिसका वे महिमामंडन करते हैं। उनके लिए तो पूरा भारत बस कांटीनेंट ऑफ सिर्स ही तो था।

भारतीय इतिहास लेखन की मूल कमजोरी यह भी है कि यह इतिहास के कुछ पात्रों को देवता बना देता है और कुछ को असुर। अशोक, खुसरो, अकबर, विवेकानंद, महात्मा गांधी देवताओं की श्रेणी में आते हैं, जबकि जयचंद, औरंगजेब, गोरी, गजनवी इत्यादि विलेन बने हुए हैं। इतना पारदर्शी तो शीशा भी नहीं होता, जितना यहां का इतिहास है। पर सवाल यह है कि क्या अमीर खुसरो की कृतियों मे सांप्रदायिकता की बू नहीं आती? क्या औरंगजेब मस्जिदें नहीं तुड़वाता था? शिवप्रसाद सितारेहिंद के इतिहासलेखन का हवाला देते हुए वैभव लिखते हैं कि 'अकबर जैसे सहिष्णु और उदार व्यक्ति की प्रशंसा से समन्वयवादी दृष्टि नहीं, बल्कि इतिहास की सांप्रदायिक दृष्टि ही मजबूत होती है।'

दूसरी बात यह कि इतिहास लिखने के क्रम में धर्म को उसकी पूरी समग्रता में देखा गया है जबकि एक ऐतिहासिक प्रक्रिया के साथ सारे धर्मों का विकास ruptures मे में हुआ है। यह कोई हिंदू और मुस्लिम संस्कृति के समन्वय की बात नहीं है। धर्म चाहे हिंदू हो या इस्लाम, आज के विस्तार से बहुत पहले एक खास भौगोलिक और सामाजिक परिवेश में पैदा हुए, कई बार नष्ट हुए और फिर से पैदा हो गए। राजा किसी धर्म का प्रचार नहीं करते थे, बल्कि अपने राज्य का विस्तार करने के लिए धर्म का इस्तेमाल करते थे। बाबर ने भी यही किया था। ये साहब खुद शराब पीते थे और जब किसी जंग में इनके सिपाहियों के पैर उखड़ते थे तो खुद भी शराब से तौबा कर लेते थे और मजहब का नाम लेकर अपने सिपाहियों में एक नया जुनून पैदा कर देते थे। अब सिपाही तो सिपाही ठहरे। बादशाह के हुक्म के आगे उनकी बिसात कहां। वैसे भी हमारी ही तरह इन सिपाहियों के भी घर.परिवार होंगे, जिनसे बिछड़ने का दुख उन्हें हमेशा सालता होगा। अपने परिवार से मिलने की हड़बड़ी में अपने दुश्मनों पर टूट पड़ते होंगे। इन लोगों का धर्म कितना कमजोर था और आज के इतिहासकार उन्हें 'इस्लामी आताताई' कहते हैं। ठीक वैसे ही बाबर और इब्राहीम लोदी के धर्म में कितनी समानता थी? अब हुमायूं को लीजिए। शेरशाह ने जब इन्हें जिलावतन किया तो ईरान जाकर शिया बन गए। इतिहास में कितने ऐसे उदाहरण मिलते हैं कि बाप का संप्रदाय कुछ और, बेटे का कुछ और और पोते का कुछ और! वैसे ही निजामुद्दीन औलिया और गियासुद्दीन तुगलक ही धर्म के मामले में कितने करीब थे? दोनों के ही धर्मों की 'दिल्ली' बहुत दूर थी। बेचारा गियासुद्दीन पहला मुस्लिम शासक होगा जो किसी 'हिंदु ऋषि' के नहीं, बल्कि एक मुसलमान सूफी के श्राप का शिकार हुआ होगा। 'हनूज दिल्ली दूर अस्त' . फारसी भाषा में निजामुद्दीन द्वारा दिया गया यह श्राप आज मुहावरे में बदल चुका है, और इसका इस्तेमाल लखनऊ के रहने वाले लोग भी उसी शिद्दत से करते हैं, जितना लाहौर के। तो क्या भाषा में 'केंद्र' सचमुच विस्थापित हो जाता है जैसा कि देरीदा कहते हैं। समय कितना उलट फेर कर सकता है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि चंगेज खान के वंशज कालांतर में बौद्ध, इस्लाम और इसाई तीनों ही धर्मों के अनुयायी बन गए अर्थात्.

''हम हुए तुम हुए कि 'मीर' हुए
एक ही जुल्फ के असीर हुए''

इतिहासकार मानते हैं कि औरंगजेब की हिंदू नीतियों की वजह से ही देश में विभाजन का फूट पड़ा. हैरत की बात है कि यह वही राजा था जिसकी उंगलियां फुरसत के वक्त वीणा पर थिरकने लगती थीं और जब वह मर रहा था तो यही उंगलियां तस्बीह के दानों पर थीं। तब कैसे एक 'कट्टर सुन्नी मुसलमान' की खुदा के यहां होगी, जिस मजहब में संगीत हराम है। तब तो शेख अहमद सरहिंदी की रूह जरुर कुलबुला रही होगी क्योंकि अक्सर इतिहासकार औरंगजेब को उन्हीं का वंशज बताते हैं। कुछ लोग यह मानते हैं कि अगर दारा शिकोह सत्ता पर काबिज होता तो आज भारत का इतिहास कुछ और ही होता! मान लीजिए कि 'भारत' में अगर मुसलमान ही न आए होते तो क्या होता? कैसा होता भारत का इतिहास? प्राच्यविद् भारत की अनुशंसा कैसे करते? यह एक ऐसा होमवर्क है जिसे हम सब को पूरा करना चाहिए। कम से कम दिलचस्पी की वजह से बच्चे क्लास में बोर नहीं होंगे। मेरे ख्याल से अगर मुसलमान न आए होते तब भी पाकिस्तान (किसी और नाम से) जरुर बनता। हो सकता है कश्मीर (जैसे तिब्बत) के बौद्ध धर्मावलंबी एक अलग कश्मीर की मांग कर रहे होते। हो सकता है जर्मनी से फिलिस्तीन भागने के बजाए वहां के यहूदी भारत आ गए होते और गुजरात में मुसलमानों के बदले पारसियों का कत्ले आम हुआ होता। कुछ भी हो सकता है क्योंकि ज्यादातर इतिहास तो इन्हीं conjectures पर ही लिखा गया है।

इतिहासकारों का यह भी मानना है कि सांप्रदायिकता एक विचारधारा के रूप में ब्रिटिश काल में प्रस्फुटित हुई। इसके लिए वे अंग्रेजी नीतियों को जिम्मेवार ठहराते हैं और इसे साम्राज्यवादी षडयंत्र मानते हैं। पर इतिहासकार ब्रिटिश काल के पहले के कलह को किस रूप में देखते हैं? अगर यह कलह न होती तो मध्यकाल में नानक पंथ कभी नहीं उपजता और गुरु गोविंद सिंह के समय तक सिक्ख धर्म में परिवर्तित नहीं होता। सीधी सी बात है जब दो संस्कृतियां आपस में मिलती हैं, तो समंवय के साथ साथ टकराव की स्थिति भी उत्पन्न होती है। राष्ट्रवादी इतिहासकार इसे 'हिंदू सभ्यता पर अतिक्रमण' के रूप में देखते हैं, वहीं प्रगतिशील इतिहासकार इस बात पर कन्नी काटने लगते हैं। इस बात से कौन इंकार कर सकता है कि कुछ मुस्लिम शासकों ने हिंदुओं पर जजिया लगाया था और उन पर ढ़ेर सारी पाबंदियां आयद कर दी थीं, मसलन हिंदू खुलेआम बुतपरस्ती नहीं कर सकते थे, मुसलमानों के कब्रिस्तान के पास दाह.संस्कार नहीं कर सकते थे, मुसलमानों का पहनावा नहीं अपना सकते थे, अपने किसी मृतक के लिए ऊंची आवाज में शोक प्रकट नहीं कर सकते थे। ये सारी बातें सिलसिलेवार ढ़ंग से शेख हमदानी ने अपनी किताब जखीरतुल मुल्क में लिख दी हैं। हैरत की बात है कि ये सारी पाबंदियां वैसी ही थीं जो ब्राहम्णों ने शूद्रों के लिए जारी की थी। जैसा कि रेमंड विलियम्स ने लिखा है कि 'इतिहास की कोई एक धारा नहीं होती।, उसी तर्ज पर एक तरफ तो मुस्लिम शासक हिंदुओं पर जुल्म ढ़ा रहे थे, वहीं 'निम्न जाति' के लोग ब्राहम्णों से तंग आकर इस्लाम अपना रहे थे। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि मुसलमानों के अंदर तारीखनवीसी का जो भाव था वह हिंदू इतिहासकारों की तरह ही जेम्स मिल के उपयोगितावादी दर्शन से प्रेरित थाण् दूसरे शब्दों में कहा जाए तो यह शुद्ध रूप से anachoronism।नी कालदोष था। कहां जियाउद्दीन बर्नी और कहां जेम्स मिल! बादशाहों की खैरात पर लिखे गए इतिहास में बादशाह के धर्म का महिमामंडन आखिर क्यों न होगा। तीसरी महत्वपूर्ण बात यह कि उस समय के कट्टर मुस्लिम उलेमा सिर्फ हिंदुओं के खिलाफ नहीं थे बल्कि शिया और सूफी मत के लोगों को भी उसी कहर भरी नजर से देखते थे। अगर ऐसा नहीं होता तो शायद 'अनल हक' की आवाज सूली पर नहीं चढ़ी होती और आज पाकिस्तान में शियाओं की (बाबरी) मस्जिदों पर फिदायीन हमले नहीं होते। चौथी बात यह कि मुसलमानों के अंदर गुलाम रखने का एक बड़ा ही संगीन रिवाज था। इन गुलामों का हाल रोमन साम्राज्य के गुलामों जैसा तो नहीं था लेकिन गुलाम तो गुलाम ठहरे। इतिहास का एक और बड़ा उलट.फेर देखिए कि सल्तनत काल में गुलाम वंश का आधिपत्य हो गया और गुलामी से अपने करियर की शुरुआत करने वाले कुतुबुद्दीन ऐबक, इल्तुतमिश और बलबन 'कुलीनता' के चेहरे पर कालिख मलते हुए बादशाह बन बैठे। पर ऐसा नहीं था कि गुलामों के राजा बन जाने से उस समय का 'समाजवाद' आ गया हो। जैसा कि रमाशंकर विद्रोही कहते है कि 'सब राजा के होते हैं और राजा किसी का नहीं होता।' ठीक ऐसा ही हुआ।

इतिहास की 'प्रयोगशाला' में मैं इन बातों का जिक्र इसलिए कर रहा हूं क्योंकि मध्यकाल कोई आदर्श काल नहीं था और न ही प्राचीनकाल। सिर्फ ब्रिटिश काल पर ही दोष मढ़ देने से कुछ नहीं होगा। सांप्रदायिकता विचारधारा के तौर पर न सही, पर मध्यकाल में थी तो जरुर। चलिए सहूलियत के लिए हम इसे संप्रदायवाद कह लेते हैं। यहां सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हमें राजा और रियाया में फर्क करना होगा।

कितना अदभुत संयोग है कि एक तरफ मुहम्मद गौरी ने पृथ्वीराज चौहान को मारकर उससे सत्ता छीन ली वहीं दूसरी तरफ लगभग साठ सालों बाद हलाकू ने बगदाद पर चढ़ाई कर अब्बासी खलीफा अल मुसतकीम का कत्ल कर दिया। अब कातिल कौन और मकतूल कौन? डी डी कोशांबी ने कितना सच कहा था कि 'इतिहास का स्वर्णकाल अतीत में नहीं, बल्कि भविष्य में होता है।'

विभाजन की कड़ी को तलाशते हुए जब प्रियंवद 1857 में घुसते हैं तो उनकी यह घुसपैठ सचमुच 'इतिहासतिमिरनाशक' बन जाती है। वे 1857 के विद्रोह को उसी नजरिए से नहीं देखते जैसा आम इतिहासकार करते हैं। उन्होंने सावरकर और शाह वलीउल्लाह को एक ही कटघड़े में खड़ा कर दिया हैए 'वलीउल्लाह व मुसलमानों के लिए स्वधर्म या स्वराज की एकरुपता और उद्देश्य वही थे जो सावरकर के लिए थे। अगर 1857 में अंग्रेज हार गए होते तो किसका स्वधर्म जीतता? हिंदू का या मुसलमान का?' यह प्रश्न अपने आप में काफी है इस बात को स्थापित करने के लिए कि उस समय के समाज में हिंदू.मुस्लिम के बीच गहरी खाई थी। ऐसा नहीं था कि ईस्ट इंडिया कंपनी के बाद हुकूमत के सीधे मल्का.ए.विक्टोरिया के हाथों में चले जाने के बाद अंग्रेजों को अक्ल आई हो कि भारत में अंग्रेजी राज की निरंतरता बनाए रखने के लिए हिंदू.मुसलमान की विभाजन रेखा खींचनी शुरु कर देनी चाहिए। जैसा कि लेखक का नजरिया है कि इतिहास के इसी पड़ाव पर सांप्रदायिक दरार पड़नी शुरु हो गई थी। अगर ऐसा था तो अतीत के कलह का कोई मतलब नहीं था। वैसे भी अगर विद्रोह के तात्कालिक कारण पर नजर डालें तो यह 'सुअर और गाय की चर्बी' वाला मामला था। दोनों समुदाय अंग्रेजों से अपना धर्म बचा रहे थे, न कि किसी सांप्रदायिक सौहार्द की वजह से साथ आए थे। लेखक ने आगे उन इतिहासकारों की विवेचनाओं का खंडन किया है, जो इस विद्रोह को जनक्रांति का दर्जा देते हैं। सावरकर की जितनी लीपा.पोती हो सकती थी उन्होंने की है, प्रसिद्ध 'मार्क्सवादी' इतिहासकार रामविलास शर्मा के नजरिए को भी नहीं बख्शा है। रामविलास शर्मा पता नहीं कहां से इस निष्कर्ष पर पहुंच जाते हैं कि यह विद्रोह सामंतवाद विरोधी था और इसमें फ्रांस, रूस और चीन की तरह ही जनता की दमित इच्छाएं हिलोड़े मार रही थीं। लेखक ने सही सवाल उठाया है कि जिस विद्रोह का नेतृत्व सामंत कर रहे थे, वह सामंतवाद विरोधी कैसे हो गया। क्या सम्राट अशोक की तरह ही इन रजवाड़ों के अंदर कोई वैचारिक हृदय परिवर्तन हो गया था? ऐसा तो मार्क्स ने भी नहीं कहा था। पर लेखक ने मार्क्स के बारे में जो बात कही है वह थोड़ी भ्रामक है। माना कि मार्क्स ने अंग्रेजों को हिंदुस्तानियों से श्रेष्ठ बताया था पर उनका संदर्भ पूरी तरह से आर्थिक था न कि सभ्यताई। पूंजीवाद उनके विश्लेषण में एक प्रगतिशील व्यवस्था की भूमिका के रूप में थी, साथ ही पूंजीवाद की आलोचना भी। दिक्कत बाद के मार्क्सवादी आलोचकों के साथ है। पता नहीं वे कब आर्थिक विश्लेषण करने लगते हैं और कब सभ्यताई (यहां संदर्भ रामविलास शर्मा जी के आर्यों को भारत का ही घोषित करने से है)। ऐसे इतिहासकार तो अल्लामा इकबाल को भी प्रगतिशील कवि घोषित कर सकते हैं, क्योंकि उनके कुछ शेरो से क्रांतिकारिता झलकती है..

जिस खेत से दहकां को मयस्सर न हो रोटी
उस खेत के हर खोशाए गंदुम को जला दो।

भारत का विभाजन हो और इकबाल का जिक्र न होए यह कैसे हो सकता है. नीत्शे के सुपरमैन का प्रभाव उनपर भी उतना ही था जितना आजकल के बच्चों पर वर्चुअल सुपरमैन का. मिल्लत और कौम उनके लिए एक ही चीज बन गई थी। उनके पहले के अवतार को इतिहासकार राष्ट्रवाद के आईने में देखते हैं और बाद के अवतार को सांप्रदायिकता की चाशनी में। पर हिंदुस्तान हो या पाकिस्तान, राष्ट्रवाद तो एक ही चीज है। धर्म इसमें अशोक स्तम्भ की तरह गड़ा होता है। प्रियंवद ने लिखा है कि 'लाजपत राय ने इकबाल से 6 साल पहले वही बात कही जिसे कहने पर इकबाल को पाकिस्तान का वैचारिक जन्मदाता कहा जाता है।' एक रोचक तथ्य यह भी कि पाकिस्तान के कथित 'वैचारिक जनक' यानी इकबाल और 'भौतिक जनक' यानी जिन्ना दोनों ही दो पीढ़ी पहले हिंदू थे। क्या घालमेल है इतिहास का। वही जिन्ना यह कहते थे कि 'किसी मुसलमान के लिए, चाहे वह किसी देश का हो, यह संभव नहीं है कि दूसरे मुसलमान के विरुद्ध खड़ा हो सके।' जिन्ना या उनके 'भूत' यह क्यों भूल जाते हैं कि मुसलमान कोई homogenous ने समुदाय नहीं है। बंगाल, केरल और तमिलनाडु के मुसलमानों की सोच वैसे ही बदलती है जैसे भाषा। उत्तर भारत के मुसलमानों के लिए उर्दू का पिछड़ापन एक मुद्दा हो सकता थाए लेकिन केरल या बंगाल के मुसलमानों के लिए यह वैसा ही मामला था जैसे यूरोप में बारिश का होना। पर इन सबके बाद भी विभाजन हुआ। अगर जिन्ना को अविभाजित भारत का प्रधानमंत्री बना दिया जाता तो जिन्ना कितने कौमपरस्त होते?

मुझे समस्या पाकिस्तान के बनने से नहीं है। पाकिस्तान और हिंदुस्तान तो रोज बनते हैं। सरहद तो दूर, इंसान और इंसान के बीच का विभाजन। काल का विभाजन। एक विभाजन खुदा और अल्लाह का भी। अल्लाह के मानने वाले खुदा से सिर्फ इसलिए दूर होते जा रहे हैं, क्योंकि खुदा फारसी का शब्द है। क्या कसूर था वली दक्कनी का जो औरंगजेब के समय में पैदा हुए और मरे 2003 को गुजरात के जनसंहार में। कितने आराम से सोए थे वो कि अचानक उनकी कब्र पर सड़क बन गई। 1744 से 2003 . काफी लंबी है तारकोल की यह सड़क।

लिया है जब सूं मोहन ने तरीका खुदनुमाई का
चढ़ा है आरसी पर तब से रंग हैरत फिजाई का
(वली दक्कनी)

और क्या कसूर था उनका जो 14.15 अगस्त 1947 को पैदा भी हुए और फौरन धार्मिक ढ़ंग से मार दिए गए। इसका जिम्मेदार कौन था? मेरे ख्याल से नेहरु, जिन्ना, इकबाल या पटेल कतई नहीं थे। इस महात्रासदी का सारा श्रेय जाता है, इतिहास की निरंतरता को। अगर यह निरंतरता बनी रही तो किंग लियर भी कम नहीं होंगे। सर्व धर्म वर्जयते..यही हमारा नारा होना चाहिए ताकि भावी इतिहास में इतिहास के किसी पात्र को शर्मिंदा न होने पड़े और कोई धर्मों के समन्वय की बात न कर सके।

हिंदुत्व और बौद्ध धर्म के एकीकरण की वकालत करने वाले विवेकानंद को आशा भी नहीं थी कि कालांतर में अंबेडकर मनुस्मृति का ही दाह.संस्कार कर देंगे और उनकी एक आवाज पर लाखों दलित बौद्ध धर्म की शरण में चले जाएंगे। अगर हम दिनकर की रश्मिरथी को हेगेल की ऐतिहासिक दृष्टि पर तौलें तो सचमुच 'इतिहास कितना अदृश्य हो चलता है।' विडंबना देखिए कि अंबेडकर ने जिस वैदिक भाषा में लिखी मनुस्मृति को जलायाए आज उसी भाषा (संस्कृत) में बुद्धं शरणं गच्छामि लाखों करोड़ों उत्पीड़ितों की आवाज बनती जा रही है। 'धर्म संस्थापना' का गीता.दर्शन ऐतिहासिक कारणों से धर्मांतरण में बदल रहा है। विवेकानंद के शब्दों को हथियार बनाकर हम इसे लाख चाहे 'राइस क्रिश्चियन' कह लें, पर सिर्फ चावल के बदले में ही लोग अन्य धर्मों को ही नहीं अपना रहे हैं। विभाजन रेखा खिंची हुई है जिसके ठोस राजनैतिक और आर्थिक कारण हैं और इसका नमूना अक्सर कंधमाल में देखने को मिल जाता है। एक 'लोकतांत्रिक' देश में बड़े ही 'लोकतांत्रिक' ढ़ंग से धर्मोन्माद का 'भीड़.तंत्र' खड़ा किया जाता है और बड़े ही धार्मिक ढ़ंग से उन लोगों का भक्षण किया जाता है जो या तो गिनती में कम होते हैं या जिन्हें अल्पसंख्यक होने का संवैधानिक आधार मिला हुआ है। यह भीड़तंत्र वर्ग की मार्क्सवादी अवधारणा से भी परे है। इसमे लोकतांत्रिक ढ़ंग से चुने हुए नेता भी शामिल हैं और निम्न वर्ग के लोग भी हैं जो किसी इसाई महिला के अस्तित्व पर तथाकथित पांच हजार साल के सभ्यता की दुहाई देकर कालिख पोत देते हैं। मध्यवर्ग जो अक्सर निम्न वर्ग और नेताओं को हेय दृश्टि से देखता है और राजनीति के प्रति उदासीन रवैया रखता है, वह भी इस 'बहती गंगा' में हाथ साफ कर देता है। यहां सभी लोग भूखे आदमी हैं। धर्म से लेकर 'चावल' तक की भूख। पर विवेकानंद की इस बात का ही क्या किया जाय..'भूखे आदमी को तत्वमीमांसा का उपदेश देना उसका अपमान करना है।' तब हमें नजीर का कोई नज़ीर नहीं मिलता

यां आदमी पे जान को वारे है आदमी
और आदमी पे तेग को मारे है आदमी
पगड़ी भी आदमी की उतारे है आदमी
चिल्ला के आदमी को पुकारे है आदमी
जो सुन के दौड़ता है सो वह भी है आदमी

3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ज़रूरी और बढ़िया लेख (तीनों).
    एक एक बात से सहमत हूँ, ऐसा बहुत कम होता है.

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  2. लेखक ने बहुत दिलचस्प सवाल उठाए हैं!मगर थोड़ा गड्ड-मड्ड भी हुआ है, बात का विकास कम होता है और सन्दर्भ ज़्यादा आते हैं। भले भी लगते हैं वे मगर कभी-कभी खटकते भी हैं।
    प्रियंवद या किसी अन्य की आलोचना के ज़रिये के बिना अगर यही बातें स्वतंत्र रूप से रखी जाय तो और बेहतर होगा, ऐसा मुझे लगता है।

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  3. आपका लेख पढ़ने के बाद मुझे मार्क्स के सन्दर्भ पर कुछ शंका हुई तो वापस मूल पाठ पर जा कर देखा तो मामला उतना सीधा नहीं है जितना कि आपने बताया है, मार्क्स भारतीय समाज को (अर्थव्यवस्था से अलग) एक पिछड़ा हुआ समाज मानते हैं और इस समाज के बदलाव में इंगलैंड की एक प्रगतिशील भूमिका देखते हैं:

    "England has to fulfill a double mission in India: one destructive, the other regenerating the annihilation of old Asiatic society, and the laying the material foundations of Western society in Asia."

    मूल लेख यहाँ पर है: http://www.marxists.org/archive/marx/works/1853/07/22.htm

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