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गुरुवार, 25 नवंबर 2010

हिंसा इतिहास की दाई है

राशिद अली के लेख 'इतिहास की ढलान' का पहला हिस्सा जनपक्ष पर कुछ दिन पहले दिया गया था। प्रस्तुत है इसका दूसरा हिस्सा। इसमे राशिद प्रियंवद की किताब 'भारत विभाजन की अंतःकथा' के बहाने विभाजन के त्रासद यथार्थ, भारतीय राष्ट्रवाद तथा आज के मार्क्सवाद पर कुछ ज़रूरी टिप्पणियाँ करते हैं। 


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   एक ऐसे समय में जब ‘विचारधारा और इतिहास के अंत’ से लेकर ‘सभ्यताओं के संघर्ष’ का मुक्त आकाशीय रंगमंच तैयार खड़ा है तब आज भी हमें नेपथ्य में कुछ कोलाहल सा सुनाई पड़ता है। कुछ लोग खड़े होते हैं ‘इतिहास के अंत’ का सिरा पकड़े हुएए ‘अंत’ को आरंभ की ओर ढ़केलते हुए और तथाकथित सभ्यताओं का जोसेफ कॉनरैड की ही भाषा में तिरस्कार करते हुए। हार्ट ऑफ डार्कनेस यानी अंधेरे के दिल का सीना चीरते हुए जब ये पात्र हमारे सामने आते हैं तो मरे हुए इतिहास में भी जान आ जाती है।  प्रियंवद एक ऐसे ही पात्र हैं जो इतिहास को कभी भी इति का हास्य नहीं बनने देतेण् नोम चोमस्की की भाषा में कहें तो वे इतिहास को कभी भी ‘भविष्य के गड्ढे’ में नहीं ढ़केलते। इतिहास को उसी प्रतिबद्धता के साथ लिखते हैं जैसा कभी नागार्जुन ने कहा था..आबद्ध हूंए संबद्ध हूंए प्रतिबद्ध हूंए अनुगामी समाज के लिए। सही भी है। भारत विभाजन कोई ‘मिडनाइट चिल्ड्रेन’ जैसा कोई दस्तावेज तो नहीं, जहां जलियांवाला बाग मे जनरल डायर की पाशविक बर्बरता के बाद भी सलमान रश्दी के पात्र आदम अजीज के नाक में खुजली हो रही हो। विभाजन एक ऐसी घटना थी जो ष’आउशवित्ज’ के कॉसेंट्रेशन कैम्प से कम भयावह नहीं थी।

ऐतिहासिक भूल

भारत विभाजन की अंतःकथा . प्रियंवद अपनी इस पुस्तक की शुरुआत करते हैं सम्राट अशोक के एक प्रसिद्ध शिलालेख से, जिसमें राजा की सदिच्छा है कि लोग परस्पर मेलजोल से रहें, दूसरे संप्रदाय की निंदा न करें और एक दूसरे के धर्म को ध्यान देकर सुनेण। पता नहीं कि प्रियंवद की सदिच्छा है या प्रियदर्शी अशोक की? अगर ऐसा होता तो फ्रैंज़ फैनो यह कभी नहीं कहते कि हिंसा इतिहास की दाई है। खुद सम्राट अशोक बौद्ध धर्म अपनाने से पहले काफी हिंसक रहे थे। कलिंग के जनसंहार के बाद उनका मन द्रवित हो गया। अब तक के ज्ञात इतिहास में ऐसा ही लिखा है, यानी अशोक ईरान के नौशेरवां और यमन के हातिम की तरह हो गए। लेखक यहां मानों कबीर के प्रेम.पीड़ा की अनुभूति मे खो गया लगता है।

प्रेम न बारी ऊपजै प्रेम न हाट बिकाय
राजा.परजा जेहि रूचै सीस देइ ले जाय!!

पर राजा तो राजा होता है। वह राजा इसीलिए होता है क्योंकि राज करने के लिए प्रजा होती है। राजा और प्रजा का मेल कैसा? रूसो के ‘जेनेरल विल’ के महान रहस्योद्घाटन से पहले प्रजा राजा के साथ एक अलिखित आचार मे बंधी होती थी और राजा हमेशा चाणक्य नीति से बंधा होता था। पता नहीं अशोक का मन कितना द्रवित हुआ, पर कलिंग के जनसंहार के बाद जब माफी मांगने की बारी आई तो उन्होंने कंधार में एक शिलालेख बनवा दिया। कहां कलिंग और कहां कंधार! भौगोलिक दूरी समय की दूरी में बदल गई और आज हम सम्राट अशोक को एक महान प्रजापालक राजा के रूप में जानते हैं। चलिए माना कि बौद्ध धर्म में कुछ ऐसा है कि सम्राट अशोक का दिल पिघल गया होगा। पर आज श्रीलंका में तो बौद्ध धर्म की ही छाया है, फिर तमिल हिंदुओं का जनसंहार क्यों? अक्सर इतिहासकार यही गलती करते हैं। लेकिन यहां प्रियंवद का संदर्भ दूसरा है। अशोक के शिलालेख के बाद वे किंग लियर को उद्धरित करते हैं जो विभाजन के उत्तरदायी लोगों का एक जबरदस्त चरित्र चित्रण है और जो बस इतिहास की विडंबनाओं को ही चिंहित करता है। किंग लियर ने कहा था. ‘मै ऐसे काम करुंगा जो मै अभी तक नहीं जानता क्या हैं, लेकिन वे धरती का आतंक होंगे।‘ अरस्तू के कैथारसिस से ओत.प्रोत शेक्सपियर के इस दुखांत से दर्शकों को कितना रस मिलता होगा पर शेक्सपियर ने यह भी कहा था कि दुनिया एक स्टेज है और हम सब इसके पात्र। जरा सोचिए रक्तबीज रूपी न जाने कितने किंग लियर इस धरती पर पैदा हुए हैं।

विभाजन को लेकर खुद प्रियंवद भी यही कहते हैं ‘विभाजन समस्त नाट्य तत्वों से भरपूर एक विराट त्रासद नाट्यकृति है। त्रासद इसलिए कि आश्चर्यजनक रूप से, इस विभाजन का कारण न तो कोई बाहरी आक्रमण था, न गृहयुद्ध, न उत्पादन या पूंजी या बाजार की आर्थिक विवशताएं और न ही कोई प्राकृतिक प्रकोप। प्रत्यक्ष रूप  से यह करोड़ों मनुष्यों का, संवैधानिक रूप से अपना प्रतिनिधित्व करने वाले नेताओं के माध्यम से स्वेच्छा से चुना हुआ ‘काल को खंडित करने वाला निर्णय’ था। यहां लेखक पहले से ही चीजों को लेकर काफी आश्वस्त नजर आता है। यहां दो बहुत ही महत्वपूर्ण बातें हैं जिसकी लेखक ने आगे विस्तार से चर्चा की है। पहली यह कि विभाजन संवैधानिक रूप से अपना प्रतिनिधित्व करने वाले नेताओं के माध्यम से स्वेच्छा से चुना हुआ निर्णय था। अगर विभाजन के समय के नेताओं की उम्र देखें तो लगभग तमाम नेताओं की उम्र साठ पार कर गई थी। इस उम्र मे जल्दबाजी लाजमी थी क्योंकि वे ब्रिटिश साम्राज्य से लड़ते लड़ते थक चुके थे और उन्हें नए देश की हुकूमत में हिस्सा चाहिए था। पर इसमे पिसी अविभाजित देश की जनता जो अपनी जड़ता, निरीहता और असहायता में ‘हैमलिन के बांसुरी वादक के पीछे चलने वाले मंत्रमुग्ध चूहों’ की तरह अपने नेताओं का अंधानुगमन करती रही। दूसरी बात है काल को खंडित करने वाले निर्णय के बारे में। पर किस काल को खंडित करने वाला निर्णय था यह? कुछ मामलों में लेखक ने भी जल्दबाजी से काम लिया है। वे चर्चिल की भविष्यवाणी से अभिभूत नजर आते हैं कि ‘भारत आजाद होने के बाद टुकड़ों मे बंट जाएगा।‘ लेखक के अनुसार, इसी विघटन में निर्वासन का दर्द छुपा हुआ है चाहे वह विभाजन हो या बांग्लादेश या फिर कश्मीर के हिंदू। आगे लेखक यह भी कहता है कि ‘पाकिस्तान जब तक अपने जन्म के वैचारिक आधार इस्लाम की शरण लेता रहेगा, भारत के हिंदुवादी बनने का आत्मघाती मार्ग खुला रहेगा।‘ समस्या यहीं है। यह सही है कि पाकिस्तान की लड़ाई संपन्न धनी उच्चवर्गीय मुसलमान के हितों की लड़ाई थी, मेहनतकश गरीब मुसलमानों की नहीं। पर अगर यह लड़ाई मेहनतकश गरीब मुसलमानों की होती तो क्या पाकिस्तान बनने का औचित्य सही था? लेखक यहां खामोश है और मै यही सवाल उठाना चाहता हूं। यह तो अल्लामा इकबाल की तरह मुसलमानों को एक ही झुंड में हांकने वाली बात हो जाएगी।

एक ही सफ में खड़े हो गए महमूदो अयाज़
न कोई बंदा रहा और न बंदा नवाज़!!

सारा का सारा मामला ही राष्ट्र की अवधारणा से जुड़कर गड्मड हो गया है। राष्ट्र के सामने किसी और अस्मिता की बिसात कहां! पर यहां एक सवाल काबिले गौर है। अगर भारत एक राष्ट्र के रूप में अंग्रेजों के चंगुल में था तो क्या भारत का कोई चंगुल नहीं? ईस्ट इंडिया कंपनी की तरह ही आज भारत की अनेक कंपनियां उड़ीसा, छत्तीसगढ़, झाड़खंड समेत अफ्रीका के कई देशों में अपनी अंग्रेजियत का परिचय दे रही हैं। भारत के अंदर आज भी दबी कुचली अनेक राष्ट्रीयताएं हैं जो भारत जैसे ‘संपन्न’ राष्ट्र से लोहा ले रही हैं। ठीक इसी तरह पाकिस्तान के अंदर भी राष्ट्रीयताएं अंदर ही अंदर सुलग रही हैं। हिंदुस्तान की एक बड़ी आबादी उस समय बहुत खुश होगी जब पाकिस्तान से बांग्लादेश अलग हुआ होगा। पर विडंबना यही है कि पाकिस्तान से वह हमेशा ही अलग था भौगोलिक और सांस्कृतिक दोनों ही दृष्टि से। वह बृहत भारत का भी हिस्सा नहीं था। सिर्फ पश्चिम बंगाल के करीब था। जो लोग विभाजन के लिए जिम्मेदार थे उन्होंने न सिर्फ इतिहास के साथ छल किया, बल्कि भूगोल को भी ठग लिया। इतिहास की ‘महाठगनी’ ने इतिहास के एक महा प्रपंच को एक भौगोलिक शक्ल दे दी। आज ऐसी ही स्थिति कश्मीर की भी है। विभाजन के समय जब पूरे भारत और पाकिस्तान में खून की नालियां बह रही थीं, वहीं कश्मीर दो टूटते हुए देशों की मूर्खता पर कहकहे लगा रहा था। कश्मीर के सौहार्द को विभाजन ने भी विचलित नहीं किया। पर आज वही कश्मीर दो विभाजित देशों की सामरिक शक्तियों का हलाहल पीने को बाध्य है।

यहां कश्मीर का जिक्र क्यों? यह इसलिए क्योंकि प्रियंवद ने खुद ही निर्वासन के दर्द में कश्मीरी हिंदुओं को जगह दी है। लेकिन यह बात आईने की तरह साफ है कि कश्मीरी हिंदुओं को मुसलमानों ने निर्वासित नहीं किया, बल्कि यह घोर रूप  से भारत की सांप्रदायिक नीति का हिस्सा थी। हां कुछ मामलों मे अपवाद जरुर रहे होंगे। वर्ना अपनी कश्मीरियत को बचाने वाले वहां के लोग मुसलमान ही कहां थे। तसव्वुफ और भक्ति की ब्यार में ये लोग हिंदू और मुसलमान की श्रेणी से बहुत आगे निकल गए थे। पर आदिगुरु शंकराचार्य की तरह जगमोहन वहां गए और पूरें के पूरे काल को ही खंडित कर आए।

लेखक ने जो सबसे विस्फोटक बात कही है वह है ‘पाकिस्तान जब तक अपने जन्म के वैचारिक आधार इस्लाम की शरण लेता रहेगा, भारत के हिंदुवादी बनने का आत्मघाती मार्ग खुला रहेगा।‘ यह एक खतरनाक संकेत है, जो कहीं से तर्कसंगत नहीं है, भारत के हिंदूवादी होने के लिए पाकिस्तान का इस्लामी होना जरुरी नहीं है। पाकिस्तान बनने से बहुत पहले एशिया और अफ्रीका मे कई सारे इस्लामी राष्ट्रों का निर्माण हो चुका था। उधर नेपाल भी अरसे से हिंदू राष्ट्र था। जबतक दुनिया मे अस्मिताएं रहेंगी, अस्मिताओं के आधार पर राष्ट्र बनते और बिगड़ते रहेंगे। खालिस्तान की मांग को तर्कहीन और बुरा कह देने और आम जनता पर सैन्य शक्ति का परिक्षण कर देने मात्र से ही समस्या का समाधान नहीं होगा। इसके लिए जो सबसे जरुरी है कि किसी भी राष्ट्र के इतिहास को उसकी निरंतरता से काटा जाए। इसी निरंतरता से सनातनी प्रवृत्तियों का उदय होता है, जो बाद में हिंसक संप्रदायवाद का शक्ल धारण कर लेती है। फिर यह प्रश्न भावी पीढ़ियों के लिए छोड़ दिया जाता है कि विभाजन क्यों हुआ।

मार्क्स ने कहा था कि दार्शनिकों ने संसार की व्याख्या कई तरह से की है पर सवाल आखिरकार इसे बदलने का है। पर बदलाव हो तो कैसे ह,ए जब बदलाव स्वयं ही दर्शनों की व्याख्याओं पर टिका हो? मार्क्स ने आदर्शवाद से उपजे तमाम दर्शनों को भौतिकवाद की कसौटी पर परखने की कोशिश की थी। आज मार्क्सवादियों ने भौतिकवाद को ही आदर्शवाद के खांचे में डाल दिया है। ‘आर्यसमाज’ के नंदी बैल की तरह ही ये लोग भी ‘वेद’ की ओर कूच करते जा रहे हैं। ऊपर से तुर्रा यह.

ये दाग़ दाग़ उजाला ये शबगज़ीदा सहर
था इंतज़ार जिसका ये वो सहर तो नहीं

यहां मै भौतिकवाद की चर्चा इसलिए कर रहा हूं क्योंकि यही वह दर्शन है जो अस्मिताओं के सवाल को बेहतर ढ़ंग से समझने मे सक्षम है। देरिदा के ‘डिकंस्ट्रशन’ से बहुत पहले ही द्वंद्वात्मक भौतिकवाद ने बाकी दर्शनों का मर्सिया पढ़ डाला था। बचपन में उत्सुकता के चांद.तारों, पृथ्वी.आकाश और असंख्य जीवों की उत्पत्ति को समझने से पहले ही बच्चा अल्लाह या ईश्वर की शरण में चला जाता है। सबसे पहले इंसान की आजादी यहीं छिनती है और फिर दासता का फलक इतना बड़ा हो जाता है कि दार्शनिकों को भी सबसे हास्यप्रद दुखांत लिखना पड़ता है..नो एक्जिट! शायद रूसो भी ठीक कहते थे कि आदमी पैदा तो स्वतंत्र ही हुए थे पर दुनिया में आकर वह बेड़ियों मे जकड़ गया। इतिहास की उम्र भले ही काफी लंबी होती है, पर यह बिल्कुल हमारे जीवन जैसा है। कभी भिन्नाता हुआ तो कभी कुलबुलाता हुआ। कभी बिलबिलाता हुआ तो कभी छटपटाता हुआ। मुझे तो संघ परिवार पर कभी.कभी दया आती है कि ये लोग इतिहास के पुर्नलेखन को लेकर इतने उतावले क्यों हैं। इतिहास का पुर्नलेखन पहले ही इतना हो चुका है कि अब गुंजाइश ही नहीं बची। हम सिर्फ शब्दों से काम चला सकते हैं।

इतिहास लेखन की सबसे बड़ी कमजोरी यही रही है कि यह अतीत मे इतिहास टटोलने की कोशिश करता है न कि भविष्य में। इसके केंद्र में, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से, राष्ट्रवादी या गैर राष्ट्रवादी ढ़ंग से, एक गौरवशाली परंपरा है जबकि इतिहास में सबसे ज्यादा महत्व ‘गौरवशाली अनिश्चिंतता’ को दिया जाना चाहिए था।

1 टिप्पणी:

  1. लम्बी कविता "पुरातत्ववेत्ता " से यह अंश टिप्पणी के रूप में

    फिर भी खत्म नहीं होती ज़िम्मेदारियाँ
    कि उलझा हुआ है स्थिर और चलित का समीकरण
    अभी कटघरे में खड़ा है इतिहास
    जिस पर अजीब से आरोप हैं
    कि उसने चुराए हैं शास्त्रों से कुछ शब्द
    कुछ मिथक छीन लिए हैं गाथाओं से
    तथ्य उठा लाया वह मुँह अंधेरे
    जब यह दुनिया अज्ञान का कंबल ओढ़े सो रही थी

    शायद उसे फिर लिखे जाने की सज़ा मिले
    सौंप दी जाए कलम फिर इतिहासकारों के हाथ में
    भाषा लिपि और शिल्प जुगाड़ दे कम्प्यूटर
    पुरातत्ववेताओं को तथ्य जुटाने का आदेश मिले

    प्रश्न यह नहीं कि यह उनका कार्यक्षेत्र है या नहीं
    और इस तरह इतिहास में सीधे सीधे हस्तक्षेप में
    और सभ्यता और संस्कृति और परम्परा सब पर
    अपने ढंग से कहने में
    जोखिम है या नहीं

    यह बात अलग है कि ख़तरे वहाँ भी हैं
    जहाँ वे होते हुए भी नहीं दिखाई देते
    और आँख मूँद लेने का अर्थ विश्वास नहीं

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