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मंगलवार, 11 मई 2010

संस्कृति का विश्लेषण

संस्कृति बतौर संघर्ष-स्थल
के एन पणिक्कर
चित्र यहां से साभार
(यह आलेख-अंश कन्नूर विश्वविद्यालय, केरल में 28 से 30 दिसम्बर 2008 के दौरान हुए भारतीय इतिहास परिषद के 69 वें अधिवेशन में दिए गए अध्यक्षीय भाषण पर आधारित है और इकनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली, खण्ड XLIV, संख्या 7, 14-21 फरवरी 2009 में प्रकाशित मूल अंग्रेजी आलेख का अनुवाद है जिसे जनपक्ष के लिये अनुवादक भाई भारतभूषण तिवारी ने उपलब्ध कराया है)



"संस्कृति का विश्लेषण", क्लिफर्ड गर्ट्स के अनुसार, "सिद्धान्तों की खोज में रत प्रयोगात्मक विज्ञान न होकर अर्थ की तलाश करने वाला व्याख्यात्मक विज्ञान है" (गर्ट्स 1973: 5). संस्कृति के अर्थ की तलाश में "उन गतिविधियों के रूपों की समग्रता समाहित होती है जिनमें अथवा जिनके द्वारा मानवीय अस्तित्व स्वयं को सार्थक करता है". इसे ही अर्नेस्ट कसिरर 'संस्कृति का विज्ञान' कहते हैं (कसिरर 2002). संस्कृति के अर्थ की तलाश मनुष्य के सामाजिक अस्तित्व और अस्तित्वपरक परिस्थितियों का सामना करने के उसके प्रयासों के समानान्तर चलती है. संस्कृति की अवधारणा इसीलिए समाज द्वारा स्थापित नियंत्रणों पर निर्भर करती है. मगर इसके साथ ही संस्कृति का अर्थ समाज की संरचना में होने वाले बदलावों के साथ साथ निरंतर संशोधित और परिष्कृत होता रहता है. दूसरे शब्दों में, संस्कृति अपने चरित्र और व्यवहार में जड़ न होकर गतिशील है. अपने गतिशील चरित्र के कारण ही समय के साथ संस्कृति अलग अलग अर्थ धारण करती है. मेथ्यु अर्नाल्ड ने जिस समय संस्कृति को 'स्टडी ऑफ़ परफेक्शन' के तौर पर चिन्हित किया था, तब से अब तक संस्कृति के मानी काफी हद तक बदल चुके हैं. अर्नाल्ड की दृष्टि में 'संस्कृति, ज्ञान-प्राप्ति के वैज्ञानिक आवेग की शक्ति मात्र से ही नहीं, बल्कि सद्कर्म करने की नैतिक एवं सामाजिक इच्छाशक्ति से भी प्रवाहित होती है' (अर्नाल्ड 1932: 45). इस आदर्श और यूटोपियन भावना की जगह अब उन संकल्पनाओं ने ले ली है जो सामाजिक संवेदना और राजनैतिक ज्ञान से युक्त हैं. उदाहरणार्थ नोर्बर्ट एलिअस संकेत करते हैं कि " कुल्तुर की अवधारणा राष्ट्र की आत्म-चेतना का प्रतिबिम्ब है जिसे राजनैतिक एवं आध्यात्मिक अर्थों में लगातार अपनी सीमाओं को ढूंढ़ना एवं नए सिरे से स्थापित करना पड़ा और बार बार स्वयं से पूछना पड़ा: क्या है हमारी वास्तविक पहचान?" (एलिअस 1978: 5-6). कई लोग दावे के साथ कहेंगे कि इस प्रश्न का उत्तर संस्कृति में गर्भित है और यह व्यक्ति एवं समाज दोनों के लिए महत्त्वपूर्ण है.

एलिअस समाज की पहचान के निर्माण में संस्कृति की निर्णायक भूमिका की ओर ध्यान आकर्षित करते हैं. उनके अनुसार समाज और संस्कृति का सम्बन्ध सहजीवी है क्योंकि स्वयं के चरित्र को आकार देने में उन्होंने परस्पर एक दूसरे को प्रभावित किया है. यह सहजीवी सम्बन्ध ऐतिहासिक है क्योंकि सांस्कृतिक बनावटें,उत्पादन की शक्तियों के सन्दर्भ में, एक लम्बे अन्तराल में विकसित हुईं. समाज की पहचान की तलाश, विशेषकर सामाजिक परिवर्तनों के दौर में प्रगट होकर, सांस्कृतिक अतीत के गड़े मुर्दे उखाड़ कर उन्हें नए अभिप्राय प्रदान करती है. वैश्वीकरण के वर्तमान दौर की तरह भारतीय इतिहास में उपनिवेशवाद का दौर ऐसा ही समय था जिसमें अतीत केवल मोहक ही नहीं लगता था बल्कि प्रतिरोध की सम्भावना को भी बनाए रखता था. मसलन औपनिवेशिक भारत में त्रस्त हो चुके परम्परावादी सम्भ्रान्त वर्ग ने 'वापिस उद्गम की ओर' जाकर संस्कृति के अर्थ की पुनर्रचना और समाज में होने वाले परिवर्तनों से उपजी चुनौतियों का सामना करने के लिए उसकी पुनर्व्याख्या करनी चाही. परन्तु 'वापिस उद्गम की ओर' जाने के प्रयास ने ऐतिहासिक अनुभव के उस आवश्यक तत्त्व को नकारना चाहा जिसमें विभिन्न सांस्कृतिक धाराएँ आपस में मिलती हैं. इसी साहचर्य के परिणामस्वरूप सांस्कृतिक विविधता उपजी जो नित नए सांस्कृतिक प्रवाहों के मिश्रण से समृद्ध होती रही.

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