सुनील गंगोपाध्याय की मृत्यु के बाद बांग्ला के सबसे वरिष्ठ कवि शंख घोष का यह लेख आनंदबाजार पत्रिका के 26 अक्तूबर के अंक में प्रकाशित हुआ है। वरिष्ठ लेखक अरुण माहेश्वरी ने जनपक्ष के लिए इसका अनुवाद किया है.
किस प्रकार जी रहे थे*
- शंख घोष
वे कैसे जी रहे थे, नये समय के पाठक अब इसे सिर्फ उनकी कविता के जरिये जानेंगे।
नये दिनों की कविता कैसी हो सकती है, इसके बारे में नौजवान सुनील को एक बार ठीक पचास साल पहले उनके तभी बने मित्र ऐलेन गिन्सबर्ग ने कुछ बातें लिखी थी। तब अपने ‘हाउल’ से पूरी दुनिया को मुग्ध करने वाले गिन्सबर्ग कोलकाता-वाराणसी के बीच घूमते रहते थे, ‘कृत्तिबास’ˡ के कवियों के साथ एकाकार हो गये थे। उन्हीं दिनों सुनील को उन्होंने लिखा, तुम जो अनुभव करते हो, उसे उसी प्रकार कहते जाना ही आज की कविता का काम है, जहां होगी तुम्हारी तमाम स्वीकारोक्तियां, सभी प्रकार के असंतोष, सभी प्रकार के आवेग। ‘तुम्हारा क्या होना चाहिए’ की बिना परवाह किए आज कविता यह जानना चाहती है कि तुम निखालिस क्या हो।
सुनील खुद से वैसी ही एक दिशा में बढ़ना चाहता था, फिर भी लगता है उस चीज ने उनकी बची हुई द्विधाओं को भी तोड़ देने में मदद की थी। तभी ‘अकेला और हम कुछलोग’ का कवि एक झटके में ‘मैं इस तरह जिंदा हूं’ के वृत्तांत के साथ सामने आया। और, यह वृत्तांत सिर्फ उसकी एक किताब के शीर्षक तक ही सीमित नहीं रहा, यही उसकी शुरू से अंत तक की सारी कविताओं का एक आम परिचय बन गया। उसकी कविता उसके जीने का एक धारावाहिक बयान है। ऐसे ही, नये समय की भाषा में वे यह बयान करते चले जाते हैं जिसमें अनेक पाठक अपनी आत्म-छवि को देखते है, जिसे खुद से वे देख नहीं पायें थे या शायद देखना नहीं चाहते थे। इसप्रकार, आत्मस्वीकृतियों के जरिये सुनील एक बड़े पाठक समाज की स्वीकृति को तैयार कर पाये थे।
मैं कैसे जी रहा हूं, इसे देखने में आदमी सिर्फ मैं में ही अटक कर रह जाता है, ऐसा नहीं है। हमारे जीने के अंदर जहां हमारी खुद की रोजमर्रे की बातें हैं, वहीं हमारे चारों ओर के लोग, चारों ओर की धरती भी है। वह भी तो मेरा ही अनुभव है, मेरे जीने का ही। तभी भूमध्य सागर के ऊपर से उड़ रहे हवाई जहाज के अंदर अपनी भूख से उपजी चीख के साथ ही जाग उठते हैं सारी दुनिया के भूखें, तभी ‘पीछे जलता हुआ यूरोप, आगे भस्मीभूत काली प्राच्यभूमि’ देखे जा सकते हैं। तभी चे ग्वारा की मौत आकर अपराधी बना सकती है मुझे, तभी सड़क के किनारे पड़ी उपेक्षिता को देख कर किसी को अपनी दाई मां की याद आ सकती है, स्वभूमि के प्रति भाव-विल प्रेम में तभी कहा जा सकता है ‘यदि निर्वासित करो, मैं होठों पर अंगूरी लगाऊंगा/मैं जहर खाकर मर जाऊंगा’, क्योंकि विषादभरे प्रकाश की इस बांग्लादेश की भूमि को छोड़ मैं कहां जाऊंगा। जबकि सब मिला कर इस देश को, इस धरती को इतना प्यार करने वाला इंसान, अनेक बार खंडित या गलत ढंग से चिन्हित कर दिया जाता है एक निहायत व्यक्ति-केंद्रित रूप में, अतिकामुक इंसान के तौर पर, या निहायत रवीन्द्र-विद्वेषी कवि के रूप में।
अलग अलग कुछ पंक्तियां जरूर इस प्रकार की गलतफहमी का कारण बनती है। जैसे एक बार, भारी शोर मचा था ‘तीन जोड़ा लातों की चोट से रवीन्द्ररचनावली पैर-पोंछने पर लोटने लगी’ की तरह की बात को लेकर। तब बहुतों को लगा था, यह तो ‘ईश्वरद्रोह’ है। खाट पर कुछ किताबें पड़ी थी, संयोग से रवीन्द्ररचनावली ही थी, सो रहे तीन दोस्तों के पैर से लग कर वे जमीन पर गिर गयी, बस इतनी सी बात थी। लेकिन इस घटना को कविता में न लाने से क्या बिगड़ जाता? कुछ नहीं बिगड़ता, सिर्फ घटना का बयान नहीं होता, यह बिंब नहीं मिलता। अंदर ही अंदर रवीन्द्र-विद्वेष के बिना क्या कोई वह लाईन लिख सकता था? ऐसा सवाल करने पर उसे इसी इंसान के और एक कथन को बता देना चाहिए : ‘कई दिनों से मन भारी आनंद से भरा हुआ है। सिर्फ रवीन्द्रनाथ की कविता पढ़ रहा हूं।’
इसका अर्थ यह नहीं है कि यह कवि, या और कवि कविता की दुनिया में रवीन्द्रनाथ से काफी दूरी रखना नहीं चाहते थे। निश्चित तौर पर चाहते थे, कई प्रकार से इस दूरी को बनाये रखना चाहते थे। सुनील गंगोपाध्याय के लिये यह दूरी ‘मैं कैसे जी रहा हूं’ के अहसास की तरह ही थी। रवीन्द्रनाथ ने एक प्रबंध में एकबार ‘जैसे होना अच्छा है’ से ‘जैसा होता आया है’ की ओर जाने की बात लिखी थी। रवीन्द्रनाथ की संपूर्ण जीवनानुभूतियां और साहित्यानुभूतियां इसी ढर्रे पर टिकी हुई थी। और, गिन्सबर्ग की सलाह कि ‘what should be’
leads one astray इसके ठीक विपरीत थी। यह विपरीत ही सुनील के ‘मैं कैसे जी रहा हूं’ का तर्क था। इसीलिये रवीन्द्रनाथ की कविता को पढ़ कर कुछ दिन मन प्रसन्न रहने पर भी अपने सृजन के क्षण में उसे उस दुनिया से काफी दूर ही रहना पड़ता है।
सुदूर उस दुनिया में, छोटी मासी के वक्ष में मुंह छिपा कर रोते समय वय:संधि के उस काल के सबसे पहले यौन-आनंद की निहायत स्वाभाविक अनुभूति को व्यक्त करने पर इस कवि को एक दिन कितना नहीं धिक्कारा गया था। इसमें शक नहीं कि तीव्र कामुकता उसकी कविता का एक बड़ा संबल था। लेकिन वह वहीं अटके नहीं रह जाते, इसे पार करते हुए प्रेम की दुनिया के एक व्यापक क्षेत्र में अपनी कविता को ले जाते हैं, उसे हम बहुत बार भूल जाते हैं, भूल जाते हैं एक करुण प्रेमी के विल चेहरे को। जहां पहुंच कर कहा जा सकता है ‘आ रे लड़की, स्वर्ग के बगीचे में भाग-दौड़ करें’। सुनील गंगोपाध्याय की कविता में प्रेम वही स्वर्ग का बगीचा है। नीरा के प्रेमी के रूप में वे जनप्रिय है, और उनका वह परिचय झूठा नहीं है। लेकिन सिर्फ नीरा नहीं, सिर्फ नारी नहीं, सुनील की कविता में प्रेम फैला हुआ है देश के प्रत्येक बिंदु के लिये, प्रत्येक आदमी के लिये। जैसे निजी जीवन में, उसी प्रकार कविता में, यह प्रेम ही उसकी सबसे बड़ी शक्ति, सबसे बड़ा परिचय है। किसी सीमित दायरे में बंधा हुआ प्रेम नहीं, सर्वात्म, सर्वत्र व्याप्त प्रेम।
और इस प्रेम की बात करने के लिये सुनील जिस भाषा, जिस शैली का प्रयोग करते हैं, उससे कविता और गद्य की दुनिया का फासला धीरे-धीरे कम होता जाता है। इस फासले को पूरी तरह से खत्म कर देना ही उनके कविजीवन का एक प्रमुख काम था। आज से लगभग पैतालीस साल पहले की एक निर्जन दोपहरी में किसी मित्र से उन्होंने नयी कविता के रास्ते की खोज की बात की थी। तब अमेरिका के आहेइयो शहर में साल भर के प्रवास के बाद वे लौटे थे, समकालीन विश्वकविता से गहरे परिचय के साथ। तब कहा था: लिरिक का रास्ता अब हमारा रास्ता नहीं है, आज कविता एक अलग गद्य-पथ पर चलेगी। तभी से कम से कम उनकी अपनी कविता उसी रास्ते पर, अति-रहस्य की माया को छोड़ कर, चलने की इच्छा रखती रही।
गद्य-पद्य सब एकाकार होगये, जीवन और सृजन एकाकार होगये, जगा रहता है सिर्फ एक सच, अपने स्वाभाविक रूप में। उनके जीवन-व्यवहार की स्वच्छंदता और आत्म-प्रेरणा उनकी कविता अथवा उनके गतिशील गद्य में अपनी छाप छोड़ जाती है। यह सब पाठक की आंखों के सामने किसी स्वच्छंद जलधारा की तरह बहते चले जाते हैं। किसी समय उस जल में पहाड़ से छलांग लगा कर गिरने की शक्ति थी, उसके बाद धीरे-धीरे वह एक मंथर मृदुल बहाव की ओर बढ़ता गया। तीक्ष्ण पीड़ा गहन वेदना हो गयी।
उसी वेदना के साथ चला गया आज सब-कुछ देखने-चाहने, सब-कुछ को छूने की इच्छा रखने वाला वह प्रेमी इंसान। प्रेम के हीरे के गहने के साथ जिसका जन्म हुआ था, उसका इसप्रकार अचानक चले जाना जैसे पक्षी की आंख में किरकिरी की अस्वाभाविकता को देखते देखते चले जाना है। अब यमुना का हाथ पकड़ कर स्वर्ग के बगीचे में भाग-दौड़ करने का समय है।
1 -‘कृत्तिबास’ - सुनील गंगोपाध्याय, आनंद बागची और दीपक मजुमदार के संपादन में 1953 में निकाली गयी विद्रोही तेवर की बांग्ला कविता की व्यवस्था-विरोधी त्रैमासिक पत्रिका, जिसने आधुनिक बांग्ला कविता को काफी गहराई से प्रभावित किया था।
सुनील गंगोपाध्याय के व्यक्तित्व और कविताओं पर सुन्दर आलेख.वह सिर्फ लेखन में नहीं, जीवन में भी अपने मूल्यों को जीते थे.नौकरानी के साथ एक ही मेज पर खाना खाने का सहस उन्ही में था.सेई समय(वे दिन)उपन्यास में उन्होंने जवानी में बेरोजगारी के फक्कड दिनों को कुछ दोस्तों के साथ मिलकर गुजारने का बेबाकी से चित्रण किया है.
जवाब देंहटाएं.'...हमारे जीने के अंदर जहां हमारी खुद की रोजमर्रे की बातें हैं, वहीं हमारे चारोंओर के लोग, चारों ओर की धरती भी है। वह भी तो मेरा ही अनुभव है, मेरे जीने का ......
जवाब देंहटाएंउसका इस प्रकार अचानक चले जाना जैसे पक्षी की आंख में किरकिरी कीअस्वाभाविकता को देखते देखते चले जाना है। ...'
.प्रवाहमय , उम्दा व बेबाक लेख ...बढ़िया चित्र उकेरा है
शंख घोष बाबू ने सच के आईने में सुनील दा की कविता को देखा है... बांग्ला में मुझे सुनील दा की निजी अभिव्यक्ति ने हमेशा ही आकर्षित किया है। रूढि़यों को तोड़ना ही नहीं, परंपरा का सम्मान भी वे बहुत करते हैं... लेकिन नवाचार को बांग्ला समाज में सुनील दा के रूप में स्वीकार किया जाना भी कम नहीं है... बेहतरीन अनुवाद है...
जवाब देंहटाएंसुन्दर आलेख सुनील गंगोपाध्याय के बारे में और उनकी कविता के बारे में रोचक जानकारी देता है ! अशोक जी का आभार !
जवाब देंहटाएंसुनील दा की कविताओं पर एक आधिकारिक एवं समीचीन टिप्पणी की है शंख घोष बाबू ने। इस लेख से सुनील दा के समूचे काव्य-दर्शन की स्पष्ट झलक मिलती है। इस अच्छे अनूदित लेख के लिए अरुण माहेश्वरी जी को हार्दिक धन्यवाद और इसे पढ़ाने के लिए अशोक भाई को भी।
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