( अज्ञेय पर अजय सिंह का यह आलेख समकालीन जनमत के ताज़ा अंक में प्रकाशित हुआ है। उनकी सम्राज्यवाद सेवी भूमिका को भुलाकर उन्हें फिर से धो-पोंछ कर स्थापित होने की जो कोशिशें हो रही हैं उनमें पारंपरिक वाम विरोधियों के अलावा ख़ुद को वामपंथी कहने वाले भी शामिल हैं। अब यह जान बूझकर है या फिर अज्ञानता वश यह तो आप ही फ़ैसला कीजिये। अजय इस माहौल में उस स्मृतिभंग के ख़िलाफ़ एक ज़रूरी प्रतिकार दर्ज़ कराते हैं। यह लेख हम किस्तों में प्रकाशित करेंगे।)
द्वितीय विश्वयुद्ध होने के बाद, 1950 के आसपास , अमरीकी ख़ुफ़िया एजेंसी सी आई ए द्वारा संचालित व वित्तपोषित वाम-विरोधी, कम्यूनिस्ट विरोधी व समाजवाद विरोधी अंतर्राष्ट्रीय सांस्कृतिक अभियान 'कांग्रेस फ़ार कल्चरल फ्रीडम' के साथ अज्ञेय का गहरा वैचारिक और आर्थिक नाता-रिश्ता था।वह भारत में इस मुहिम के अगुआ लोगों में थे। साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में वाम- विरोधी, कम्यूनिस्ट विरोधी और समाजवाद विरोधी मुहिम चलाने के लिये 'कांग्रेस फ़ार कल्चरल फ़्रीडम' ने अज्ञेय को सारी सुविधायें मुहैया कराईं। इसी मुहिम के तहत उन्हीं दिनों इलाहाबाद में 'परिमल' नाम के साहित्यिक संगठन का गठन किया गया। चूंकि साहित्य के क्षेत्र में अज्ञेय एक बड़ा और जाना-माना नाम था, और उनका अच्छा-ख़ासा असर भी था, इसीलिये भारत में- और उनको ख़ासकर हिंदी-उर्दू पट्टी में - सी आई ए और 'कांग्रेस फ़ार कल्चरक फ़्रीडम' के लिये वह सर्वाधिक उपयुक्त व्यक्ति थे।
अज्ञेय अमरीका बराबर जाते रहे, यूरोप की सैर करते रहे, और अमरीका के पिछलग्गू देश जापान की यात्रा करते रहे। इन ख़र्चीली यात्राओं के लिये उन्हें धन कहां से, क्यों और कैसे उपलब्ध होता था, यह अलग जांच का विषय है।
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ऊपर से देखने पर लगेगा कि अज्ञेय कितनी नावों में न जाने कितनी बार सैर पर निकले होंगे। लेकिन गौर से देखिये , तो पता चलेगा कि उनकी एक ही नाव थी और सैर की दिशा भी एक ही थी। अमरीकी साम्राज्यवाद सत्ता प्रतिष्ठान के हित के साथ अज्ञेय ने अपने को लगभग पूरी तरह जोड़ लिया था। यह संबंध उनके जीवन के अंत (1987) तक बना रहा। हालांकि इस रिश्ते में कभी-कभी तनाव व अंतर्विरोध भी दिखाई दे जाते थे, लेकिन इसका समाधान इसी रिश्ते के अंदर हो जाता था। 1947 के बाद अज्ञेय का समूचा लेखन कर्म, वैचारिक सक्रियता और जीवन मर्म इसी प्रस्थान बिंदु से संचालित होता रहा। अज्ञेय के साहित्य और चिंतन पर विचार करते समय इस प्रस्थान बिंदु को ध्यान में रखा जाना चाहिये।
(क्रमशः ...)
बहुत अच्छे विषय पर है आपकी ये पोस्ट!
जवाब देंहटाएंnice
जवाब देंहटाएंजीवन के अंत (1897)
जवाब देंहटाएंtyping error?
अज्ञेय के जीवन के अंत का समय सही कर दें। शेष प्रतिक्रिया पूरा लेख आने के बाद।
जवाब देंहटाएं@रंगनाथ जी, स्वप्नदर्शी जी…भूल की ओर ध्यान दिलाने का आभार। सुधार कर दिया है।
जवाब देंहटाएंएक लेख केजीबी के ऐजेंटों पर भी हो जाये? जेएनयू में बहुत होते थे कभी। और बाबा नागार्जुन के खिलाफ अभियान चलाने वाले चीनी ऐजेंटों पर भी एक और हो जाये? चीनी ऐजेंटों को भी नौकरियां मिल गई यूनिवर्सिटियों में। भारत देश महान है यहां सब विदेशी ऐजेंटों की सुखसुविधा का पूरा ध्यान रखा जाता है न उन्हें साईबेरिया भेजा जाता है ना अबू गरेब। जिस नेहरू के चारण थे वामपंथी वो नेहरू भी सीआईए के ऐजेंटों का कुछ न बिगाड़ सका और जिस इंदिरा के आपातकाल ने क्रांतिकारियों को चेले बना दिया वो भी अमरिकी ऐजेंटों पर हाथ न डाल सकी? वाह!
जवाब देंहटाएंये सब दिल्ली के मुस्टंडों की पर्सनल एम्बीशन की लड़ाईयां थी आप क्यों कोल्ड वार वाला राग अलाप रहे हैं, अशोक भाई? जैसे हाफपैंटिये हरेक को आएसआई का एजेंट बताते हैं वैसे ही लालशर्टिये पहले हरेक को सीआईए का एजेंट बताते थे अब बीजेपी का। असद जैदी जैसे लोग हिन्दी को गाली निकालकर, उर्दू का रोना रो कर दुकान अंग्रेजी की लगाके बैठे हैं और अपना पेट अमरीकी पैसों से पाल रहे हैं। हिन्दी में 99% विदेश यात्राएं दिल्ली वाला करता है पैंट हाफ हो या शर्ट लाल उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। आजकल बीजेपी की सरकारों के विज्ञापन से जो ‘प्रगतिशील’ पत्रिकाएं निकल रही हैं वो क्या अपने को सेंसर नहीं करती? जिस राज्य से निकलती हैं उस राज्य की सरकार के खिलाफ़ कभी क्यों नहीं बोलती। और शीला दीक्षित ने जो टुकड़ा फेंका वो किस किस ‘धर्मनिरपेक्ष’ ने नहीं लिया? जाने दीजिये, जिस हमाम में सब नंगे हैं उसमें आप लाल लंगोटी पहनकर इतरायेंगे तो जगहंसाई ही करायेंगे, बाकी आपकी मर्जी।
गुलाग का समर्थन करते हैं चीन में नौजवानों के कत्लेआम पर चुप रहते हैं खुद देश में 84 में सिखों के कत्लेआम पर भी (हिन्दी में जितनी कवितायें-कहानियां अयोध्या और गुजरात पर हैं उसकी शतांश भी दिल्ली और पंजाब और कश्मीरी हिन्दुओं क्यों नहीं है?) और जब रूस अफगानिस्तान में टैंक लेकर घुसता है तो आप सोचते हैं अफगानियों को रूसी देवों को नमन करना चाहिये क्योंकि उन जाहिलों का उद्धार इसी तरह से हो सकता है।
पर होना जाना कुछ है नहीं क्योंकि जैसे ही लोकतांत्रिक सरकारें अपने विरोधियों के साथ कम्यूनिस्ट सरकारों जैसा बर्ताव करने लगेगी तो ये लोग आपातकाल की तरह बेशर्मी से सत्ता के तलुवे चाटने लगेंगे।
आप ने जो कहा है वह बहसतलब है लेकिन सवाल वही है कि यह सब बेनामी होकर ज़िम्मेदारियों से बचते हुए क्यों? अगर प्रोफ़ाईल नहीं तो भी नाम पता ही दीजिये। तभी इस पर कोई सार्थक बात संभव है।
जवाब देंहटाएंसवाल सी आई ए का एजेण्ट वाले मुहावरे का नहीं है भाई, जो लिंक मैने दिया है आप कांग्रेस फ़ार कल्चरल फ़्रीडम के बारे में साफ़ कहता है।
प्रिय भाई,
जवाब देंहटाएंउम्मीद करता हूँ कि आप समकालीन जनमत के इसी अंक में छपे प्रणय कृष्ण के लेख को भी जगह देंगे जो उन्होंने अजय के लेख के प्रत्युत्तर में लिखा है.
महेश वर्मा , अम्बिकापुर,छत्तीसगढ़.
महेश जी
जवाब देंहटाएंअगर एक बहस में मैने प्रस्तुति के लिये एक आलेख चुना है तो स्पष्टतः मैने अपना पक्ष चुना है। वैसे मैं उस बहस से बचकर यहां इसे एक स्वतंत्र लेख की तरह प्रस्तुत करना चाहता हूं। इसीलिये वह संदर्भ और उससे संबद्ध बातें नहीं दी थीं। ऐसा करने पर पिछले अंक में छपा प्रणय कृष्ण का लेख भी देना होता जिस पर यह प्रतिक्रिया आई। वह बहस यहां चलाने का कोई अर्थ नहीं है। जनमत का अपना ब्लाग है और वहां यह हो सकता है।
मैने यहां अजय जी का आलेख किन वज़ूहात से दिया है वह इन्ट्रो में स्पष्ट है। किसी भी आलोचना का स्वागत है।
अशोक जी, नेट पर काफी कम आ पाता हूँ. आज आपकी पुरानी पोस्ट देखीं तो यहाँ पहुंचा. बेनामी की टिपण्णी में असद ज़ैदी को लेकर जो लिखा गया है, उसका क्या अर्थ है और वो आपके लिए बहसतलब किस तरह है. हिंदी को गली देकर से क्या अर्थ लिया जाए. असद आखिर हिंदी के कवि-लेखक हैं और जो कुछ उन्होंने इस भाषा में लिखा है वो निश्चय ही गौरव का विषय है. अगर हिंदी के नाम पर पलने वाली अकादमियों, संस्थाओं और लेखकों के बड़े हिस्से के कोमन सेन्स पर हावी भाषाई साम्प्रदायिकता और उर्दू विरोध पर तीखी-जेनुईन टिप्पणियों के आधार पर यह कहा गया है तो कोई नयी बात नहीं है. रही बात अंग्रेजी की दूकान लगाकर बैठने का तो क्या यह उनके थ्री एसेज़ प्रकाशन का जिक्र है? इस प्रकाशन से निकली किताबों का आपको पाता ही होगा, उनकी प्रगतिशील और प्रतिबद्ध शोहरत ही अपने आप में माकूल जवाब है. फिर बहुत से हिंदी लेखक अंग्रेजी के अध्यापक हैं तो क्या यह गुनाह है? और अमेरिकी पैसा - क्या अंग्रेजी में वाम पक्षधर किताब छापने का मतलब अमेरिकी पैसा मिलना हो जाता है? सीधे-सीधे चरित्रहनन के मकसद से की गयी इस बकवास में क्या बहसतलब है?
जवाब देंहटाएंमै आपकी बात से पूरी सहमति जताता हूं। उस टिप्पणी में कुछ चीज़ें थीं जिन पर बात होनी चाहिये…और इस आपत्ति सहित तमाम बातें जो बिल्कुल बर्दाश्त नहीं की जा सकतीं परंतु जिस आदमी में अपना चेहरा दिखाने की हिम्मत न हो उससे बात क्या और असहमति क्या…मेरी टीप का सिर्फ़ इतना मतलब निकाला जाना चाहिये…
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