एक और अनेक, यानी व्यक्ति और जगत, या आत्मा और पदार्थ- की भारतीय प्राचीन मनीषियों की व्याख्या वाला जीवन दर्शन गांधी को जिस दृष्टा की ओर बढ़ाता है उसमें निष्काम कर्म की अवधारणा उनके मानस का प्रतिबिम्ब बनकर ही ''स्वराज" के रूप में प्रकट होती है। गांधी के विचारों का उत्स यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय ईशावास्योपनिषद से होता हुआ अपने विकास और विस्तार में दिखाई देती गीता के दर्शन का ही पुनर्पाठ है। कोई भिन्नता है भी तो यही कि गांधी एक ही साथ पदार्थ और आत्मा की यकीनी पर दृढ़ दिखाई देते हैं। विज्ञानसम्मत व्याख्याओं से पदार्थ की जटिल बुनावट को समझने वाली अवधारणा जो अणु, परमाणु और न्यूट्रान, इलैक्ट्रान जैसी सूक्ष्मता को परिभाषित करने में सक्षम है, गांधी उस पर केन्द्रित दिखाई नहीं देते। बल्कि उससे परहेज करते हैं। इस परहेज या इंकार के बिन्दु आस्तिक और नास्तिक के रूप में प्रकट होते हैं। विज्ञानवादी व्याख्याओं को नास्तिक मानने की जिद गांधी के भीतर इतनी दृढ़ है कि गांधी का स्वराज जो अपनी अवधारणा में जहां एक ओर साम्यवादी समाज व्यवस्था के स्वरूप को ग्रहण करता है वहीं आध्यात्मिकता की अवधारणाओं से समृद्ध-प्रत्येक मनुष्य को अपने कर्तव्यबोध में स्वत: बांधने वाली सत्ता-ईश के कारण, एक यूटोपिया में बदल जाता है। प्रकृति की घटनाओं को कार्यकारण संबंध से परिभाषित करने की बजाय गांधी उसके नियंत्रण और क्रियान्वयन को उसी ईश के द्वारा निर्धारित मानने की जिद के साथ दिखाई देते हैं। राजनैतिक गुलामी के बरक्स आध्यात्मिक गुलामी के विरोध में फूटे भारतीय पुनर्जागरण का प्रभाव गांधी को महात्मा में बदल देता है। पाप कर्म से मुक्ति ही गांधी का स्वराज है। वे स्वीकारते हैं कि जब तक इस तरह की मुक्ति प्राप्त नहीं होती तब तक अशान्ति ही मुझे प्रिय रहेगी। स्वंय को आधुनिक, न्यायप्रिय, ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ मानने वाले योरोपिय विचार ने तमाम उपनिवेशों के जनमानस को जाहिल और असभ्य माना, इसमें कोई दो राय नहीं। धार्मिक सर्वोच्चता और सांस्कृतिक उत्कृष्टता के झूठे दंभ ने उन्हें उपनिवेशों की स्थानीय सभ्यता और संस्कृति को भी जाहिल समझा, कोई असहमति नहीं। लेकिन उनके लूट-तंत्र वाले शासन जो राजनैतिक गुलामी की ओर धकेलने वाला रहा, की मुखालफत को धार्मिक और सांस्कृतिक श्रेष्ठता से एक मुकाम तक पहुंचाया जा सकता था, इसमें एतराज है। भारतीय पुनर्जारण में यह विचार एक मुख्य कारक रहा। भारतीय धर्म और संस्कृति की सर्वोच्चता को स्थापित करने के वास्ते ही गांधी भी उन्हीं पुनर्जागरणीय तत्वों से निष्काम कर्म की अवधारणाओं वाले गीता के अनुयायी बने रहते हैं। हां, गाधी की खूबी इस बात में है कि पुनर्जागरण के दूसरे महात्माओं की तरह जो आध्यात्मिकता की चरम ऊंचाईयों को पाने के लिए समाज से तटस्थता बनाते हुए गुफा, कंदराओं में दुबक जाने की आत्मकेन्द्रित मानसिकता के हिमायती रहे, वे उस परम ईश्वर की प्राप्ति के लिए जन के बीच गए। जीवन की हलचल में शामिल तमाम चर और अचर में उन्होंने उस ईश की उपस्थिति को महसूस किया और सम्पूर्ण जनमानस को भी वैसा ही व्यवहार करने के लिए प्रेरित करने के वास्ते खुद को नैतिक और दृढ़ बना कर उन सिद्धांतों को अमल में लाने की एक ऐसी कोशिश की जो सोचने को मजबूर करती है कि गांधी जिन मूल्यों और स्थापनाओं पर यकीन करते थे और जिसके लिए वे जिद की हद तक प्रत्यनशील थे क्या वे आज के इस दौर को परिभाषित करने में प्रासंगिक हैं या उनकी प्रासंगिकता का सवाल उठाना ही नहीं चाहिए। गांधी के यहां एक ही सवाल पर समय विशेष के हिसाब से आने वाले तर्कों का गांधी के आदर्शों से क्या लेना देना है, यह सवाल भी महत्वपूर्ण है। गांधी जहां एक ही वक्त में पूंजीवाद के उभार के बाद आए लोकतांत्रिक अधिकारों की बात करते हुए दिखाई देते हैं वहीं दूसरे ही क्षण कानून के राज से उनकी असहमतियां जिस पुराकालीन सामंती व्यवस्था के साथ दिखाई देने लगती हैं, उनका राज क्या है ? खुद चरखे और चश्में रूपी यंत्रों का इस्तेमाल करने वाले गांधी मशीनों के विरूद्ध दिखाई देने लगते हैं, यह मत भिन्नता भर है या इसके पीछे कोई सचमुच ऐसा तर्क है जो वर्तमान साम्राज्यवादी मूल्यों की स्थापनाओं में जुटी उपभोक्ता संस्कृतिक की मुखालफत का आधार बन सकता है ? किसी एक मुद्दे पर गांधी यदि बहुत प्रगतिशील दिख रहे हों तो जरूरी नहीं कि उसी मुद्दे पर कहीं दूसरी जगह गांधी को ऐसे तर्कों के साथ भी देखा न जा सकता हो जिसे घ्ाोर दक्षिणपंथी न भी कहा जाए तो उसे प्रगतिशील तो नहीं ही माना जा सकता।
एक ही विषय पर गांधी के विचारों की मतभिन्नता कोई सुस्पष्ट संकेत करने की बजाय बेहद जटिल मानस वाले गांधी का चित्र प्रस्तुत करती है। ''हिन्द स्वराज" को पढ़ने के बाद तो यह कहना ही पड़ रहा है कि गांधी को किसी एक बात के लिए अपने पक्ष या विपक्ष में कोट करना एक जोखिम को उठाना ही है। हिन्द स्वराज सभ्यताओं के संघर्ष की कथा कहते हुए पूंजीवादी सभ्यता के दुर्गणों को उसके शोषणकारी रूप में पाते हुए समाज के विकास में उसे पूरी तरह अक्षम पाता है लेकिन औद्योगिकरण की मुखालफत करते हुए एक अदृश्य आवेग में किसी अनजानी सभ्यता को स्मृतियों में दबाए चलता है। हिन्दुस्तानी सभ्यता का वह न जाने कौन सा चेहरा है जिस पर हिन्द स्वराज केन्द्रित है, उसका ठीक-ठीक अंदाज नहीं लगता। हां एक असंतोष है जो वर्तमान (उस समय भी) स्थितियों को अस्वीकार की दृष्टि से देखता है। यह असंतोष उस सभ्यता से भी है जो सामंती वर्चस्व के लिए ब्रिटिश सेना की मद्द लेने को आमादा थी। लेकिन उसे सामंती ढांचे में विस्तारवादी नीति के हिसाब से व्याख्यायित करने की बजाय धर्म आधारित सामाजिक बंटवारे को उनके बीच के मतभेद के रूप में गुलामी का कारण मानता है -
'' उस वक्त हिन्दू-मुसलमानों के बीच बैर था। कम्पनी को उससे मौका मिला। इस तरह हमने कम्पनी के लिए ऐसे संजोग पैदा किये, जिससे हिन्दुस्तान पर उसका अधिकार हो जाए। "
इतिहास की यह व्याख्या तो उन तथ्यों पर भी खरी नहीं उतरती जब मुसलमान शासकों के बीच ही आपसी सिर-फुटोवल थी तो फिर इसे उस युद्ध से ही कैसे सिद्ध किया जाए जो सम्पूर्ण भारत पर ब्रिटिशों के कब्जे का सबसे आखिरी युद्ध ही कहा सकता है- 1815 का खलंगा का युद्ध। देहरादून स्थित खलंगा के किले पर जो युद्ध लड़ा गया वह तो एक ओर गढ़वाल के चंद राजा और दूसरी ओर उस गोरखा सेना के साथ लड़ा गया जो अभी हाल-हाल तक भी नेपाल को हिन्दू राष्ट्र बनाए रहा। न तो खलंगा का युद्ध हिन्दू मुस्लिम शासकों के बीच का युद्ध था जिसमें अंग्रेजों ने अपनी सेना को भाड़े पर एक पक्ष के साथ लड़ने में मद्द की और न ही पश्चिम भारत और अन्य भारत के बहुत से रजवाड़ों के बीच की लड़ाइयां हिन्दू-मुस्लिम बंटवारे की वजह रही। तिब्बत के व्यापारिक मार्ग पर कब्जा और राज्य विस्तार की सामंती समझ ने हिन्दू धर्मावलम्बी, नेपाली-गोरखा फौज को 1790 में कुमांऊ और 1803 में गढ़वाल पर कब्जा करने को उकसाया। बिना इस बात की परवाह किए कि गोरखा फौज हिन्दू धर्मावलम्बी है, गढ़वाल के तत्कालीन शासक सुदर्शन शाह ने अंग्रेजों से गोरखा फौज के विरुद्ध मद्द ली। अंग्रेज चालाक थे। तिब्बत की पश्मिना ऊन और कस्तूरी उनकी भी आंखों में धंसी हुई थी। अपने व्यपार को सुचारु रूप से चलाने और मुनाफे पर पूरा नियंत्रण कायम करने के लिए जिस सैन्यबल की जरूरत थी, उसे वे जुटाते गए थे और जुटाई गई फौज केे दम पर सहयोगी बनकर ही वे सम्पूर्ण भारत को धीरे-धीरे अपने कब्जे में करते गए। लेकिन धर्म आधारित नैतिक आदर्शो की समझ के चलते गांधी ऐतिहासिक तथ्यों से परहेज करते हुए भारतीय गुलामी की जो व्याख्या करते हैं वे अतार्किक हो जाती है। इतिहास की सही समझ ही भविष्य के सपनों को आकार देने और उनके फलीभूत होने की समझ दे सकती है, इससे कोई इंकार कर सकता है क्या ? लेकिन हिन्द स्वराज के मार्फत इस सवाल का जवाब पाना असंभव ही बना रहता है। यह अलग बात है कि अन्य स्रोतों से भी गांधी से साक्षात्कार करने के बाद पूरी तरह से ऐसा भी नहीं कहा जा सकता कि भारत के जनमानस की गुलामी के लिए गांधी सिर्फ और सिर्फ धर्म आधारित व्याख्या को ही प्रमुख मानते हों। व्यापारिक हितों के लिए दुनिया पर कब्जा करने की अंग्रेजी मानसिकता का ज्ञान भी उनके यहां ढेरों स्रोतों में परिलक्षित होता है। पर वे सभी तर्क तो गांधी उस खास स्थिति को व्याख्यायित करने लिए ही दे रहे होते है जिनका जवाब ईश्वरिय व्यवस्था की स्थापना वाले सिद्धांतों के आधार पर देना संभव न हो पा रहा होता है।
दरअसल गांधी का स्वराज ज्यादा ठगों के बीच कम ठगों का स्वराज है और इन कम ठगों के प्रति नफरत के दम पर नहीं बस खुद को उसी ईश की सत्ता के अधीन मानते हुए ही मुखालफत का अहिंसक विरोध जो नैतिक दृढ़ता पर खड़ा हो, वे उसी की हिमायत करते चलते हैं।
''आप धर्म पर गलत आरोप लगाते हैं। पाखंड तो सब धर्मों में है। जहां सूरज है वहां अंधेरा रहता ही है। परछाई हर एक चीज को साथ जुड़ी रहती है। धार्मिक ठगों को आप दुनियावी ठगों से अच्छे पाएंगे। सभ्यता में जो पाखंड हैं, मैं आपको बता चुका हूं, वैसा पाखंड धर्म में मैंने कभी नहीं देखा।"
अहिंसा गांधी का धर्म नहीं, बल्कि उस धर्म को स्थापित करने की रणनीति है जो मानवीय समाज को नैतिक आदर्शों से विकसित होते हुए एक ईश की सत्ता मानने को प्रेरित करने वाली है - उनके सम्पूर्ण व्यक्तित्व में उस ईश के प्रति प्रेम और दृढ़ता इसी लिए कई बार बहुत नादान सी दिखाई देती है तो कई बार उसे चालाकी माना जा रहा होता है। लेकिन स्पष्टत: देखा जा सकता है कि भारत की गुलाम जनता की मुक्ति के लिए गांधी असंतोष फैलाने में यकीन करते थे, जो उनका सकारात्मक पक्ष भी है। अशान्ति के स्वरूप पर की गई उनकी व्याख्या यहां उल्लेखनीय है-
''अशान्ति असल में असंतोष है। उसे आजकल हम 'अनरेस्ट" कहते हैं। कांग्रेस के जमाने में वह 'डिस्कंटेंट" कहलाता था। मि0 ह्यूम हमेशा कहते थे कि हिन्दुस्तान में असंतोष फैलाने की जरूरत है। यह असंतोष बहुत उपयोगी चीज है। जब तक आदमी अपनी चालू हालत में खुश रहता है, तब तक उसमें से निकलने के लिए उसे समझाना मुश्किल है। इसलिए हर एक सुधार के पहले असंतोष ही होना चाहिए। चालू चीज से ऊब जाने पर ही उसे फेंक देने को मन करता है।"
हिन्द स्वराज सामाजिक सरोकारों से भरे करमचंद गांधी की ऐसी पुस्तक है जिसमें भविष्य के गांधी की दृढ़ताएं ज्यादा व्यवहारिक होकर दिखाई देती हैं। आरम्भिक दृष्टिकोण भी दक्षिण अफ्रिका में किए जा चुके प्रयोगों के अनुभवों का सैद्धान्तिकरण है। गांधी की व्याख्या उनके द्वारा की गई कार्रवाइयों को राजनैतिक मानकर की जाएगी तो निश्चित ही गड़बड़ पैदा होगी। मामला सहमति या असहमति का नहीं है। बल्कि तर्कपूर्ण रहते हुए तो असहमति ही ज्यादा उभरेंगी। क्योंकि राजनैतिक अर्थों में ही नहीं गैर-राजनैतिक अर्थों में भी गांधी अराजकता की हद तक कुतर्की नजर आते हैं। लेकिन उन कुतर्कों के पीछे जो मूल भावना है, जिसमें स्वराज की कल्पना साकार होती है, तो कुतर्क करता हुआ गांधी प्रिय भी लगता है। ईमानदारी, कर्तव्यबोध और नैतिक साहस को जुटा कर अन्याय का विरोध करने की ताकत का मूल भाव गांधी के जिस स्वराज की कल्पना करता है, उसके प्रति आम जन की सहज स्वीकार्यता ने ही गांधी को एक सामान्य मनुष्य से उस महात्मा तक पहुंचाया है जिसके लिए कवियों और मनीषियों को कहना पड़ा- चल पड़े जिधर दो पग, कोटी पग उसी ओर।
वर्तमान सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक परिस्थितियों का अध्ययन किसी को भी न तो गांधी से पूरा सहमत होने की स्थितियां पैदा करता है और न ही गांधी से पूरी तरह से असहमत हो कर किनारा करने देता है। किसी भी मुद्दे पर गांधी की व्याख्यायें यूं तर्क के आधार पर असहमति के ही द्वार खोलती है। यानी सहमति कम असहमति ही ज्यादा होती है। असहमतियों के आधार तार्किक होते हैं और सहमतियां गांधी के व्यवहार और दृढ़ता से। हिन्द स्वराज को पढ़ने के बाद तो असहमतियां और प्रबल हुईं हैं लेकिन असहमतियों के आधार पर गांधी के भीतर मौजूद अतार्किकता को देख पाने और सहमति के दरवाजों को खोल कर भीतर घुस पाने की कुंजी भी हासिल की जा सकती है। सहमतियों तक पहुंचने पर असहमतियां उतनी बिखरी-बिखरी भी नहीं रह पाती हैं, कुछ व्यवस्थित खांचों में दिखाई देती हैं। सहमतियों के वे बिन्दू समकालीन राजनीति की भ्रष्टता और लम्पटता को ज्यादा करीब से देखने का अवसर भी देते हैं। पर समग्रता में गांधी को किसी भी एक सवाल पर उर्द्धत करना ऐसे जोखिम को ही उठाना है जिसमें बदलावों के गैर-गांधीयन तरह से जारी संघर्षों से असहमत होना पहली शर्त हो जाता है, जबकि यह अपने आप में सच है कि अन्याय और अत्याचार के मजबूत और ताकतवर शासन के विरुद्ध गांधी के स्वराज को पाने के लिए भी गांधीयन तरह से जारी संघर्षों पर भी सत्ता की निर्ममता को आए दिन देख रहे होते हैं। स्पष्ट है कि गांधी के मुकाम, स्वराज की कल्पना भी संघर्ष के गांधीयन रास्ते से असंभव ही बनी रहने वाली है। समाज के बदलावों को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देख और जानकर ही किसी आंदोलन के स्वरूप और संघर्ष की रणनीति पर बात की जा सकती है। गांधी के यहां आंदोलन का मतलब जिस दार्शनिक सत्य को प्राप्त करना है वह समाज विकास के ऐतिहासिक चरणों वाली वैज्ञानिक व्याख्या को स्वीकार न करना ही नहीं बल्कि उसका अतार्किक विरोध ही ज्यादा है।
''हर नश्वर पदार्थ में ईश भरा है, ऐसा समझकर उसमें रस लिया, तो वही पदार्थ अमृत बना रहेगा। जिन-जिन पदार्थों का तू पदार्थ की तरह से, उनका रस त्यागकर, और उनमें निवास करने वाले ईश के रस पान का आस्वादन कर। ईश से मिलना सीख।" ईशावास्योपनिषद पर गुजराती लेखक उमा शंकर जोशी की यह व्याख्या गांधी के उस मानस को समझने में मद्दगार है जिसमें सम्पूर्ण जीव जगत ही नहीं बल्कि तमाम उपभोग की वस्तुओं से भी गांधी के लगाव और दूरियों को समझा जा सकता है। गांधी का यह ईश ही तमाम उपभोक्तावादी वस्तुओं में है, जीवन के कार्य-व्यापार में है और यहां तक कि शिक्षा ग्रहण करने और दूसरों को शिक्षित करने में भी है। वह राज-काज में भी है तो कानून और न्याय प्रणाली में भी मौजूद है। इसीलिए आकारहीन है। वह न तो किसी एक आकार को पूरी तरह से स्वीकारने के साथ है न उससे पूर्व के आकार को पूरी तरह से नकारने के साथ। इसीलिए कई बार वह घोर दक्षिणपंथि दिखाई देते हैं तो कई बार बहुत आधुनिक। वासना रहित, भोग लोभवृत्ति रहित, निष्काम भाव से कर्म करते हुए जगत की समस्त वस्तुओं में ईश्वर की कामना ही गांधी का स्वराज है। अपने पाठक से तर्क करते हुए गांधी का पात्र-सम्पादक स्पष्ट रूप से ईश की प्राप्ति को ही अन्तिम सत्य के रूप्ा में रखता है। वस्तुओं के परिग्रह की वृत्ति ऐसे ही ढीली पड़ेगी, मानता है। गीधवृत्ति नहीं रहेगी, फिर वस्तुओं के लिए, धन के लिए भागदौड़ कहां रह जाएगी ? इसी को परिभाषित करता है। त्यागपूर्वक भोग करते हुए ही सृष्टि के स्वामी ईश को पाया जा सकता है, व्याख्यायित करता है। वासना और लोभवृत्ति से प्रेरित कार्य गांधी के यहां पाप का पर्याय है। अपनी आत्मकथा सत्य के साथ मेरे प्रयोग में वे स्वीकारते हैं कि जब तक पाप कर्म से मुक्ति प्राप्त नहीं होती तब तक अशान्ति मुझे प्रिय रहेगी। पाप कर्म से मुक्ति ही गांधी का स्वराज है।
निष्काम कर्म के गूढ़ ज्ञान से भरी गीता-ईशावास्योपनिषद गांधी की प्रिय पुस्तक है। निष्काम कर्म के दर्शनों से भरा ईशावास्योपनिषद का विस्तार ही गीता का सार तत्व है। उमा शंकर जोशी द्वारा लिखी ईशावास्योपनिषद की व्याख्याओं को पढ़ते हुए गांधी आश्चर्यजनक रूप से याद आने लगते हैं। गांधी की पुस्तक ''हिन्द स्वराज" वैसे ही सवालों, जो उपनिषद में ऋषि द्वारा साधक को संबोधित हैं या गीता में कृष्ण द्वारा अर्जुन को संबोधित है, को एक सम्पादक द्वारा अपने पाठक को दिए जा रहे जवाब हैं। उन्हीं सवालों की व्यवाहारिक व्याख्या गांधी के यहां स्वराज की अवधारणा बनती है। करमचंद गांधी के महात्मा गांधी बनने का दर्शन उसी सार और उसके लिए नैतिक दृढ़ता में निहित है।
''आपत्ति-काल में मनुष्य को जो वस्तु बचाती है, उसका उस समय उसे भान न होता है, न ज्ञान। नास्तिक बच जाने पर कहता है कि मैं संयोगवश बच गया। आस्तिक ऐसे अवसर पर कहेगा कि मुझे ईश्वर ने बचाया। परिणाम के उपरांत वह यह अनुमान कर लेगा कि धर्मों के अभ्यास से, संयम से ईश्वर उसके हृदय में प्रकट होता है। ऐसा मानने का उसे अधिकार है, पर बचते समय वह नहीं जानता कि उसे उसका संयम बचाता है या कौन बचाता है।" सत्य के साथ मेरे प्रयोग।
धर्म और ईश्वर गांधी के यहां एक दूसरे के प्ार्याय हैं। ईश्वर ही धर्म है और धर्म पर यकीन ही ईश्वर पर यकीन है।
''मैंने देखा है कि जब सारी आशा जवाब दे देती है, कुछ करते-धरते नहीं बनता, तब कहीं न कहीं से मदद आ पहुंचती है। स्तुति, उपासना, प्रार्थना ये वहम नहीं हैं, बल्कि हमारा खाना-पीना, चलना-बैठना, आदि जितना सत्य है उसमें भी ये चीजें अधिक सत्य हैं। यह कहने में अतिश्योक्ति नहीं कि यही सत्य है, और सब मिथ्या है।''
''हिन्द स्वराज" के मार्फत यदि समकालीन भारतीय राजनीति का विश्लेषण करते हुए गांधी को समझना चाहे तो सबसे पहले उन सक्रिय भारतीय राजनैतिक धाराओं को पहचानना जरूरी है जो समाज व्यवस्था के वर्तमान स्वरूप्ा को अपने-अपने तरह से व्याख्यायित कर रही है। दरअसल समाज को देखने की यह भिन्नता ही सामाजिक बदलाव की राह को तय करने का रास्ता है और उस रास्ते में विभेद के चलते ही जन के बीच एकता की दीवार भी डगमगाती हुई होती है। पूंजीवादी लोकतंत्र पर यकीन और खुशहाली की शासकीय भाषा बोलने वाली राजनीति के लिए इस तरह के समाजिक विश्लेषण की शायद ही कोई उपयोगिता बची हो। वहां तो सांख्यिकी आंकड़ों वाला वह विश्लेषण ही काफी है जिसमें सकल घरेलू उत्पाद की भाषा में और विदेशी पूंजी निवेश की शब्दावली में जो कुछ भी है उसके मायने एकदम स्पष्ट है कि विरोध की कोई भाषा आतंकवादी कार्रवाई है। विरोध में उठने वाले जनआंदोलन के पक्ष में होना आतंकवाद को प्रश्रय देना ही है। जातीय, क्षेत्रीय, धार्मिक और भाषायी विभेद पैदा करने वाली किसी भी कार्रवाई से यहां स्पष्टतौर पर मतभेद रखते हुए सिर्फ और सिर्फ मनुष्यता की खुशहाली का सपने संजोए होने वाली लामबंदियों का ही पक्ष है। स्पष्ट है कि मुसीबतों की मार झेलते परेशान लोगों को सकारात्मक कार्रवाईयों के लिए एकजुट होते देख उनमें विभेद पैदा करने में ऐसी संकीर्ण कार्रवाईयां ही शासक वर्ग का हथियार होती रही हैं। यथास्थितिवाद को कायम रखने वाली ऐसी मानसिकता में गांधी का महिमामण्डन सबसे सरल और कर्मकाण्डीय ही है। साल के कुछ दिनों को श्राद्धपक्ष की तरह मनाते हुए गांधीयन विचार धारा के पुरोहितों को भी धन्य कर देने वाली व्यवस्था का रुप हिन्द स्वराज की प्रसंगिकता पर सेमीनार और व्याख्यानों की श्रृखंला खड़ा कर देने वाला है। इस रूप में गांधी की प्रासंगिकता व्यवस्था में स्पष्ट बनी हुई है। दूसरे स्तर पर वे वैचारिक कार्रवाईयां है जिनमें सामाजिक बदलाव की तीव्र आकांक्षा है और जो भारतीय सामाजिक व्यवस्था को दुनिया में होने वाले बदलावों के साथ ही रेखांकित करने पर यकीन करती है। सामाजिक बदलाव के आंदोलन की रणनीति भी उन्हीं विश्लेषणों के आधार पर संभव है, ऐसा मानने वाली इन धाराओं में भी मतभेद तो हैं ही पर वे मतभेद भारतीय आजादी के बाद स्थापित होती गई व्यवस्था को अपने-अपने तरह से परिभाषित करने के कारण ही हैं। समाज के बदलाव के विभिन्न ऐतिहासिक चरणों में वहां कोई मतभेद नहीं जैसे कि गांधी के यहां दिखाई देते हैं। ऐसी धाराओं के लिए गांधी की रणनीति पूरी तरह से अप्रसांगिक ही हो जाती है। सामंतवाद के बरक्स पूंजीवाद, ऐसी धाराओं के आधार पर समाज के विकास में एक आगे बढ़ा हुआ कदम है। लिहाजा पूंजीवाद शोषण और समाज निर्माण में उसकी विसंगतियां, जो साम्राज्यवादी स्थितियों की ओर उन्मुख है के आधार पर यदि गांधी का विश्लेषण करें तो 'हिन्द स्वराज" का पाठ उनके लिए भी जरूरी हो जाता है।
सम्राज्यवादी शोषण के नतीजों और सामंती सरोकारों के विरूद्ध गांधी की प्रासंगिकता हिन्द स्वराज के मार्फत व्याख्यायित की जाए तो पाएंगे कि साम्राज्यवादी उपभोक्ता संस्कृति के विरूद्ध गांधी की नैतिकता, दृढ़ता और त्यागपूर्वक उपभोग करने की समझदारी जिस दृढ़ता की मांग करती है वह उल्लेखनीय है। लेकिन सामंती सरोकारों में पोषित संस्कृति की जड़ता के विरूद्ध गांधी का दया करूणा वाला पाठ, जिसमें व्यक्ति के बदलाव की प्रक्रिया मुख्य है, अधूरा ही नहीं बल्कि भ्रमित करता हुआ ही पाठ है। देख सकते हैं कि वैश्विक स्तर पर ही नहीं बल्कि भारतीय इतिहास के संदर्भ में भी सामंती जड़ता के अंधकारमय युग से मुक्ति की कोई भी पहल दया, करूणा से संभव न हुई है। उसके शोषणकारी और अमानवीय रूप की ही झलक ज्यादा तीव्र रही है। धर्मग्रंथों की अतार्किक व्याख्याओं और कर्मकाण्डों की अंधविश्वासी गतिविधियों में मानवीय गरिमा की स्थापना को गहरा आघात पहुंचाया गया है। इस निर्ममता के विरूद्ध गांधी की दया, करूणा वाली अवधारणा सामाजिक बदलाव की गतिविधियों में अपनी सीमा के साथ है। हां, खुद को वर्गच्यूत करने वाले गांधीयन आदर्शो को यदि स्वीकारा जाए तो गांधी की प्रासंगिकता को उनकी उल्लेखनीय खूबी के साथ स्वीकारा जा सकता है।
इस किताब की एक और समीक्षा यहां क्लिक करके पढ़ सकते हैं।
प्रसंगवश हिंद स्वराज पर इन दिनों खूब पढ़ने को मिला. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं ने विशेषांक भी निकाले. विजय ने इस पोस्ट में हिंद स्वराज को गीता व उपनिषेद के संदर्भ में खंगाला है जो अंत तक आते-आते वर्तमान संदर्भों की पड़ताल में जाता है. पहली बधाई स्वीकार करे.
जवाब देंहटाएंसंतुलित मूल्यांकन...
जवाब देंहटाएंहिंद स्वराज पर आपका आलेख इस बहाने गांधीवाद की अच्छी पड़ताल करता है। फिर भी मै यह कहुंगा कि इसमें आपने पुस्तक समीक्षा की जगह गांधीवाद की समीक्षा ही की है। असल में मुझे यह किताब गांधी की सबसे अन्पालिश्ड वैचारिक प्रस्तुति लगती है जिसमें उनका पुनरुत्थानवादी रूप अपनी पूरी वीभत्सता के साथ दिखता है।
जवाब देंहटाएंmera gyan alp hai..is liye samiksha ka saar puri tarah se samjh nahi aaya..haan aapki kalam sashkt hai :)
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