( अंतर्राष्ट्रीय कम्यूनिस्ट आंदोलन के इतिहास में चीन और रूस दृष्टिकोणों का आपसी मतभेद बेहद रोचक अध्याय है…उस दौर को समझने के लिये भी और आगे के रास्ते की तलाश के लिये भी। इसी विषय पर (विजय प्रसाद की पुस्तक 'दि डार्कर नेशन्स : अ पीपुल्स हिस्ट्री ऑफ़ दि थर्ड वर्ल्ड' के एक अध्याय बाली: डेथ ऑफ़ दि कम्युनिस्ट्स का अंश यहां प्रस्तुत है जिसे उपलब्ध कराया है हमारे नियमित लेखक भाई भारतभूषण तिवारी जी ने)
गठबन्धनों और क्रांति के सवाल पर मॉस्को और बीजिंग के बीच सैद्धांतिक एकमत बिलकुल न था. विवाद कई मुद्दों पर छिड़ते थे. एक विचार पद्धति के अनुसार हर समाज के लिए यह ज़रूरी था कि वह पहले अपने घरेलू उद्योग का विकास करे, और उसके बाद अर्थात उत्पादन के साधन सुस्थापित हो जाने पर ही नैतिक रूप से जड़ हो चुके बुर्जुआ वर्ग पर सर्वहारा काबू पा सकता है. इस दृष्टिकोण का मानना था कि इतिहास को अवस्थाओं में आगे बढ़ना होगा, किसी समाज के सामंती अवस्था से पूंजीवादी अवस्था में प्रवेश कर जाने पर ही समाजवाद की ओर अवस्थांतर संभव होगा. एक अन्य विरोधी विचार का कहना था कि जिस प्रकार सांवले राष्ट्रों को स्थायी परवशता की अवस्था में रखा गया था, पूंजीवादी समाजों के तौर पर विकसित हो पाना उनके लिए असंभव होगा. विपरीत परिस्थितियों में भी राष्ट्रीय बुर्जुआ पूंजीवादी समाज विकसित करने में सक्षम होगा ऐसी उम्मीद करना अव्यवहारिक है. इसलिए साम्यवादियों को सत्ता हथिया कर, नए राज्य को अंतर्राष्ट्रीय पूँजी से अलग रखकर, देश को प्रयत्नपूर्वक इन अवस्थाओं से ले जाना होगा. चीन में लू शाओ-ची ने जहाँ 'अवस्थावादी' (stagist) नज़रिया सामने रखा, वहीं लिन बियाओ ने 'अबाधित क्रांति' का दृष्टिकोण अपनाया. मॉस्को में और अन्यत्र भी ऐसे मतभेद प्रकट हुए.
इन बहसों से परे, साठ के दशक तक मॉस्को और बीजिंग दोनों ने ऐसे सिद्धांत प्रस्तुत किये जिन्होंने बुर्जुआ लोकतांत्रिक शक्तियों के साथ साम्यवादी गठबन्धनों पर स्वीकृति की मुहर लगा दी. 1960 में सोवियत संघ ने राष्ट्रीय लोकतांत्रिक राज्य की अवधारणा सामने रखी जिसका तात्पर्य तीसरी दुनिया के अंतर्गत उभरे गैर-साम्यवादी राष्ट्रीय मुक्ति राज्यों से था. ये राज्य समाजवाद के अपने अलग -अलग संस्करणों (अरब समाजवाद, अफ़्रीकी समाजवाद, नासकोम) के आधार पर शासन करते थे. बीजिंग ने नव लोकतंत्र का सिद्धांत प्रतिपादित किया, जिसमें साम्राज्यवाद के विरुद्ध चार वर्गों (सर्वहारा, खेतिहर, निम्न-मध्य वर्ग अर्थात Petty Bourgeoisie और घरेलू पूंजीपति) का गठजोड़ खड़ा होकर समाजवाद की दिशा में देश का विकास करेगा. इन वर्गों की अगुवाई कम्युनिस्ट पार्टी करेगी जो विकास दर बढाने के लिए पूंजीवाद का विकास और समाजवाद की ओर अवस्थांतर करेंगे. इसलिए मॉस्को और बीजिंग दोनों ने सांवले राष्ट्रों के साम्यवादियों को राष्ट्रीय बुर्जुआ के लिए गुंजाइश रखने का निर्देश दिया; अर्थात उन्हें 'राष्ट्रीय लोकतांत्रिक मोर्चों' में काम करके भविष्य के समाजवादी अवस्थांतर के लिए ज़मीन तैयार करनी होगी.
राष्ट्रीय लोकतांत्रिक राज्य एवं नव लोकतंत्र की संकल्पनाओं से मॉस्को और बीजिंग को गैर-साम्यवादी शासन व्यवस्थाओं और राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलनों को गैर-औद्योगिक विश्व के लिए पर्याप्त मान लेने का अवसर मिला. मॉस्को और बीजिंग के बीच के टकराव की वजह से गठबंधन तैयार करने में विवेक की कमी को और बल मिला. राष्ट्रीय लोकतांत्रिक मोर्चों को बढ़ावा देने के आगे साम्यवाद का विकास लगभग गौण हो गया था. सामाजिक उत्पादन का आधार बदलने हेतु शोषित और अन्य वर्गों को संगठित करने वाली उभरती हुई कम्युनिस्ट पार्टियों के मुकाबले समाजवाद की माला जपने वाले और राज्य पर नियंत्रण वाले राष्ट्रीय लोकतांत्रिक नेताओं को इस विश्लेषण पद्धति के आधार पर सोवियत संघ और चीन ने शायद ज्यादा समर्थन दिया. नासिर का मिस्र, क़ासिम का इराक़, बूमदियन का अल्जीरिया, इंदिरा गाँधी का भारत, ने विन का बर्मा, सेकू तूरे का गिनी, अयूब खान का पाकिस्तान और मोदिबो केईता का माली, सोवियत संघ और चीन के कृपापात्र बन गए बावजूदइसके कि इनमें से अधिकतर नेताओं ने अपनी स्थानीय कम्युनिस्ट पार्टियों का दमन किया.
साठ के दशक की शुरुआत तक एशिया, अफ्रीका और अरब देशों में (किसी गैर-साम्यवादी राज्य में स्थित) तीन सबसे बड़ी कम्युनिस्ट पार्टियाँ थीं क्रमशः इंडोनेशिया की पीकेआई, सूडान की अल-शुयुई अल-सूडानी (एससीपी) और इराक़ी कम्युनिस्ट पार्टी (आईसीपी). इन पार्टियों को अपने-अपने समाजों के बड़े हिस्से का सम्मान और आदर प्राप्त था और ट्रेड यूनियनों, महिला संघों और युवा संगठनों जैसे महत्त्वपूर्ण जन-संगठनों पर भी उनका नियंत्रण था. उसके बाद एक और दशक पूरा होते होते ये कम्युनिस्ट पार्टियाँ बर्बाद हो गईं जब राष्ट्रीय बुर्जुआ ने (अमेरिका से मिली सहायता के साथ-साथ बीजिंग और मॉस्को के इस तरफ से आँखें मूँद लेने से) उनका उन्मूलन करने हेतु सेना को बैरकों से बाहर निकाला. सोवियत संघ और चीन ने इनमें से किसी एक भी अवसर पर कठोर रुख अपनाया होता तो इस बात से अन्य जगहों के साम्यवादियों को अपना काम जारी रखने का हौसला मिलता. ऐसा होने की बजाय इस चुप्पी से डरकर साम्यवादियों ने उन्हीं राजनीतिक शक्तियों से गठबंधन किया जो उनका इस्तेमाल करके उन्हें नष्ट कर देना चाहती थीं.
यह किताब हम जरूर पढ़ेंगे। इसे किसी ने भारत में भी छापा है ?
जवाब देंहटाएंएक महत्वपूर्ण आलेख!
जवाब देंहटाएंअच्छी पोस्ट
जवाब देंहटाएंभाई रंगनाथ जी,
जवाब देंहटाएंभारत में लेफ्टवर्ड ने यह पुस्तक The Darker Nations: A Biography of the Short-Lived Third World नाम से छापी है. लिंक नीचे दे रहा हूँ.
http://leftword.com/bookdetails.php?BkId=194&type=PB
धन्यवाद।
जवाब देंहटाएं