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गुरुवार, 10 मार्च 2011

हिन्दुत्व का ‘असीम’ आतंक




सुभाष गाताडे सांप्रदायिकता और दलित समस्याओं पर नियमित समझौताहीन लेखन के लिये जाने जाते हैं। उनका लेखन एक राजनीतिक कार्यकर्ता और संबद्ध बुद्धिजीवी का लेखन है जो सत्ता प्रतिष्ठान के झूठ से नियमित टकराता रहता है। संघी आतंकवाद पर लिखा उनका यह लेख 'लोकसंघर्ष पत्रिका' के ताज़ा अंक से साभार लिया गया है।

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किसी ने छब्बीस साला उम्र के सुधाकरराव मराठा उर्फ सुधाकरराव प्रभुणे के बारे में सुना है ? एक कट्टर दक्षिणपंथी अपराधी जिसे पिछले दिनों मध्यप्रदेश पुलिस ने झांसी में गिरफ्तार किया और उसके कब्जे से एक कार, एक रिवाॅल्वर और पांच जिन्दा कारतूस बरामद किए। सुधाकर की गिरफ्तारी के पहले ही मध्यप्रदेश पुलिस उसके साथी शिवम् धाकड को उज्जैन में गिरफ्तार कर चुकी थी। वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों के मुताबिक सुधाकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक-आतंकवादी सुनील जोशी के सम्पर्क में रह चुका था, जिसकी 2007 में रहस्यमय परिस्थितियों में हत्या कर दी गयी थी। सुधाकर के बारे में जानकारी यहभी है कि उसने अपराध की दुनिया में तब प्रवेश किया जब वह उन्नीस साल का था।

गौरतलब है कि न पुलिस न ही मीडिया में इस कुख्यात अपराधी की गिरफ्तारी पर उत्तेजना दिखाई दी। आम तौर पर छोटे मोटे अपराधियों को पकड़ने पर प्रेस कान्फेरेन्स करनेवाली पुलिस भी लगभग खामोश ही रही। और मीडिया ने भी मौन बरतना जरूरी समझा। गिनेचुने अख़बारों को छोड़ दें तो मध्यप्रदेश के प्रिन्ट मीडिया ने भी यह ख़बर देना भी जरूरी नहीं समझा और यह इसके बावजूद कि उसकी गिरफ्तारी में उत्तर प्रदेश की पुलिस ने अहम भूमिका अदा की थी, जिन्होंने इस अपराधी को मध्य प्रदेश पुलिस को ‘सौंप’ दिया था। हिन्दी साप्ताहिक ‘लोक लहर’ द्वारा किए गए इस खुलासे पर भी हंगामा नहीं मचा कि अपनी गिरफ्तारी के वक्त सुधाकर के साथ संघ का कोई नेता था और जब सुधाकर को औपचारिक तौर पर गिरफ्तार किया गया तब संघ के इस नेता ने भोपाल में किसी वरिष्ठ पुलिस अधिकारी से बात की थी, जिसके चलते उसे वहीं छोड़ दिया गया। 

यह अकारण नहीं था कि अपनी गिरफ्तारी के तत्काल बाद दिए अपने पहले औपचारिक वक्तव्य में सुधाकरराव मराठा ने साफ कहा कि फरारी के इस कालखण्ड में वह लगातार संघ/भाजपा नेताओं के सम्पर्क में रहा, जो उसकी लगातार मदद करते रहे। सुधाकर ने किसी तपन भौमिक के नाम का भी उल्लेख किया जो संघ एवम भाजपा के बीच सेतु का काम करता है। एक बात जिसका उल्लेख जरूरी है वह यह कि सुधाकर मध्यप्रदेश के मालवा इलाके का रहनेवाला था जिसे हिन्दुत्ववादी शक्तियों का गढ़ समझा जाता है और देश के अलग अलग हिस्सों में हिन्दुत्व आतंकवाद की जो घटनाएं सामने आयी हैं, उसमें यहां के कई लोग शामिल रहे हैं। 

निश्चित ही इस मामले से जुड़े तमाम रोचक तथ्यों को देखते हुए पूरे मामले की उच्चस्तरीय जांच की जरूरत दिखती है ताकि यह जाना जा सके कि आखिर अल्पसंख्यक समुदाय के कई अग्रणियों की हत्या करनेवाले , या अन्तरधर्मीय शादी करनेवाले जोड़ों को प्रताडित करनेवाले इस अपराधी के साथ स्पेशल व्यवहार क्यों हुआ ?

सुधाकर द्वारा अंजाम दिए गए पांच हत्याओं के बारे में विवरण इस प्रकार है

  • चित्तोडगढ़ के जफर खान की हत्या जिसने सुधाकर की बहन ज्योति से शादी की थी
  • हनीफ शाह नामक गायक की हत्या जिसने हेमा भटनागर नामक युवती से विवाह किया था
  • मन्दसौर के गबरू पठान की हत्या जिसके भतीजे ने मन्दसौर के एक हिन्दू व्यापारी को मार डाला था
  • हिन्दुत्व एजेण्डा के तहत रतलाम के रमजानी शेरानी की हत्या
  • आर आर खान नामक कांग्रेसी नेता की हत्या

सुधाकरराव मराठा की गिरफ्तारी दरअसल संघ परिवार के अन्दर मौजूद श्रम विभाजन की नीति को उजागर करती है, जहां कुछ लोग शाखाओं में कवायद करते हैं और बाकियों को क्षमता एवं रूचि के अनुसार ‘हिन्दु राष्ट्र’ की स्थापना हेतु अध्यापन से लेकर अतिवाद के कामों में तैनात किया जाता है। फिर अतिवाद की शक्ल आपराधिक गतिविधियों में प्रगट हो या आतंकी घटनाओं में परिणत हो।

हर राज्य, हर शहर, हर कस्बे में ऐसे लोग मिल सकते हैं जो खुद अपराध की दुनिया में संलग्न हों मगर साथ ही साथ किसी दक्षिणपंथी संगठन के लिए भी काम करते हों। अपने तईं वे हमेशा ही इस बात से इन्कार करेंगे कि वह किसी संगठन से औपचारिक तौर पर जुड़े हुए हैं। और वे संगठन भी इस बात से हमेशा ही इन्कार करेंगे कि इन अपराधियों की वह सेवाएं लेते हैं। यह अलग बात है कि बिना किसी औपचारिक जुड़ाव के इन दक्षिणपंथी संगठनों की तरफ से कई सारे ‘गन्दे’ काम उन्हें ‘सौंपे (आउटसोर्स) किए जाते रहते हैं। फिर चाहे वह कर्नाटक में सक्रिय प्रसाद अट्टवार हों या हुबली बम धमाके में मुब्तिला अपराधी नागराज जाम्बागी हो, कंधमाल जिले के दंगों में सक्रिय अपराधी मनोज प्रधान हो या ग्राहम स्टीन्स की हत्या में आजीवन कैद की सज़ा काट रहा दारा सिंह हो। 

संवैधानिक एवं असंवैधानिक के बीच की धूमिल रेखा को मद्देनज़र रखते हुए तथा हिन्दुत्ववादी संगठनों द्वारा कायम किए गए आनुषंगिक संगठनों के विशाल तानेबाने को देखते हुए -जहां एक सिरा बिल्कुल संसदीय काम में संलिप्त दिखता है और दूसरा सिरा विशुद्ध अतिवादी हरकतों में मुब्तिला दिखता है। इसका ताजा प्रमाण राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता असीमानन्द की वह अपराधस्वीकृति है जो उसने मैजिस्टेªट के सामने दी।


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2.

 अपनी युवावस्था से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता रहे असीमानन्द का यह कबूलनामा, जिसके अन्तर्गत उसने अपने तमाम अपराधों को कबूला है और संघ के शीर्षस्थ नेताओं की सहभागिता के बारे में भी बताया है। पिछले दिनों पंचकुला की अदालत में असीमानन्द ने यह भी बताया कि गुजरात के मोडासा बम धमाके को भी संघ के कार्यकर्ताओं ने अंजाम दिया था। ध्यान रहे कि मालेगांव के 2008 के बम धमाके के दिन और लगभग उसी वक्त मोडासा के मुस्लिमबहुल इलाके में बम फटा था जिसमें दो निरपराध मारे गए थे। नांदेड बम धमाका, मालेगांव बम ब्लास्ट, अजमेर, मक्का मस्जिद बम धमाका, समझौता एक्स्प्रसेस में बम रखना आदि तमाम आतंकी काण्डों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं की संलिप्तता के पुख्ता प्रमाण अब जांच एजेंसियों के पास हैं और अगर मुल्क की कानूनी मशीनरी ने ठीक काम किया तो अन्दाज़ा लगाया जा सकता है कि संघ के तमाम शीर्षस्थ नेता सलाखों के पीछे पहुंच सकते हैं। 

अपनी कबूलनामे में भारत के राष्ट्रपति एवं पाकिस्तान के राष्ट्रपति को भेजे गए एकही किस्म के पत्र में असीमानन्द ने बताया है कि किस तरह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं ने योजना बना कर मालेगांव के 2006 एवं 2008 के बम धमाकों को, अजमेर शरीफ एवम मक्का मस्जिद के बम विस्फोटों को, समझौता एक्स्प्रेस के बम विस्फोट को अंजाम दिया। दरअसल असीमानन्द के इस बयान को नेट पर भी पढ़ा जा सकता है (www.tehelka.com)। अगर संघ के कार्यकर्ताओं से साबिका पड़े तो उनसे पहला सवाल यह पूछा जाना चाहिए कि आखिर अहिल्याबाई होलकर के कार्यों एवं बलिदानों से इन्दौर-मालवा इलाका रौशन रहा है, जिनके सामाजिक कार्यों की आज भी लोग तारीफ करते हैं, वह इलाका अचानक हिन्दुत्व आतंक की नर्सरी क्यों बन गया ? इसी से जुड़ा मसला है कि ऐसा क्यों हो रहा है कि भारत में आतंकी घटनाओं मंे जहां हिन्दुत्ववादी संगठनों के शामिल होने की बात सामने आती है, उसके अधिकतर सूत्रा इसी इलाके से जुड़े दिखते हैं। सोचने की बात है कि इन दिनों फरार चल रहा बम विशेषज्ञ रामजी कलासांगरा, संदीप डांगे हों, जिनके लिए 10 लाख का ईनाम सरकार ने घोषित किया हैं या 2002 से अलग अलग आतंकी घटनाओं मंे शामिल रहा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का प्रचारक सुनिल जोशी हो, या सुनिल जोशी की हत्या में शामिल रहे संघ के कार्यकर्ता हों, या देश में अलग अलग स्थानों पर आतंकी घटनाओं को अंजाम देने के लिए इस इलाके के विभिन्न स्थानों पर आयोजित की गयी मीटिंगे हों, आखिर इस इलाके का यह रूपान्तरण क्यों हुआ ? यह अकारण नहीं कि असीमानन्द के कबूलनामे में इस इलाके का और यहां के संघ के कई कार्यकर्ताओं का जिक्र बार बार आता है। 

इस बात पर भी कम लोगों ने गौर किया है कि संघ के सुप्रीमो मोहन भागवत ने खुद कुछ दिन पहले यह स्वीकृति दी थी कि कुछ अतिवादी हमारे यहां पल रहे थे, जिन्हें हमने निकाल दिया है ? लोगों से यह जाना जा सकता है कि क्या इसकी कोई फेहरिस्त संघ ने जारी की। तीसरा अहम सवाल उनसे यह पूछा जाना चाहिए कि जिस तरह असीमानन्द ने अपने अपराधों की स्वीकृति दी, उस किस्म की स्वीकृति देने का नैतिक साहस कितने संघ कार्यकर्ताओं के पास आज है या वे भी इन्द्रेश कुमार की तरह बच बच कर फिरने में ही यकीन रखते हैं ?

जाहिर सी बात है कि दिल्ली की अदालत में पिछले दिनों असीमानन्द नामक इस शख्स ने जो लिखित इकबालिया बयान दिया, उससे संघ परिवार का जो आतंकी चेहरा सामने आया है, उससे वे सभी लोग भी स्तब्ध हैं, जो हिन्दुत्व के विचारों के हिमायती बताए जाते हैं। 

साफ है कि अजमेर बम धमाके में राजस्थान आतंकवाद विरोधी दस्ते द्वारा दाखिल चार्जशीट में संघ के अन्य वरिष्ठ नेता इन्द्रेश कुमार का नाम आने के बाद उभरी परिस्थिति से निपटने में मुब्तिला संघ परिवारजनों ने शायद यह सपने में भी नहीं सोचा था कि संघ का अन्य पूर्णकालिक  कार्यकर्ता नब कुमार सरकार जिसे ‘स्वामी असीमानन्द’ के नाम से गुजरात के आदिवासीबहुल डांग जिले में काम करने के लिए भेजा गया था, वह देश के कई अहम बम धमाकों में संघ परिवार से जुड़े राष्ट्रव्यापी आतंकी मोडयूल की जानकारी सार्वजनिक करेगा और उन अपराधों में अपनी संलिप्तता को भी कबूल करेगा। मालूम हो कि नवम्बर माह के मध्य में असीमानन्द को हरिद्वार से गिरफ्तार किया गया था, जहां वह एक अन्य आश्रम में नाम बदल कर रह रहा था। 
दिल्ली के मेट्रोपाॅलिटन मैजिस्टेªट की अदालत में भारत के दण्ड विधान की धारा 164 सी के तहत दिए गए इस ‘कन्फेशन’ (अपराधस्वीकृति) को देने के पहले पदासीन मैजिस्टेªट दीपक डबास ने यह सुनिश्चित किया कि अभियुक्त किसी दबाव के तहत तो बयान नहीं दे रहा है। इसलिए 16 दिसम्बर को जब कन्फेशन देने का उसका इरादा जांच अधिकारी के मार्फत पता चला, तब मैजिस्टेªट ने असीमानन्द को दो दिन विचार करने के लिए भेजा ताकि वह ठीक से सोच कर आए। कन्फेशन देने के पहले असीमानन्द को यह स्पष्ट बताया गया कि अदालत में जब मुकदमा चलेगा तो इस बयान का उसके खिलाफ इस्तेमाल हो सकता है।

3.

असीमानन्द की अपराधस्वीकृति और इसमें संघ परिवार के वरिष्ठ नेताओं की सहभागिता के बारे में दिए गए बयान के बाद संघ परिवार में जबरदस्त हड़बड़ी मची है। चन्द रोज पहले ही संघ सुप्रीमो मोहन भागवत ने सफाई के अन्दाज में यह बयान भी दे दिया कि संघ के कुछ कार्यकर्ता अतिवादी हरकतों में शामिल थे, जिन्हें निकाल दिया गया है। दूसरी तरफ संघ परिवार ने 26 जनवरी से पूरे देश में एक अभियान चलाने का निर्णय लिया है, जो बजट सत्रा तक चलेगा। इस अभियान में संघ कार्यकर्ता घर घर जाकर यह बताने की कोशिश करेंगे कि यह सब ‘कांग्रेस का षडयंत्रा है तथा हिन्दू समाज को बदनाम करने की कोशिश है।’ वैसे बयान में स्वीकृति और कार्रवाई के स्तर पर विरोध, यह विरोधाभास संघ के उसी अन्तर्द्धद को उजागर करता है, जिसमें वह आतंकवाद के मसले पर खुद को फंसा पा रहा है।  

निश्चित ही असीमानन्द की अदालत के सामने की गयी अपराधस्वीकृति ने न केवल मालेगांव 2006, समझौता एक्स्प्रेस बम धमाका तथा अजमेर एवम मक्का मस्जिद बम धमाके में अब तक चली जांच को नए सिरेसे खोलने का रास्ता सुगम किया है बल्कि ऐसे अन्य आतंकी हमलों की जांच पर भी नयी रौशनी डाली है, जिनके कोई सुराग अभी नहीं ढूंढे जा सके थे। प्रश्न उठता है कि क्या अब असली कातिलों तक -आतंकी घटनाओं के असली मास्टरमाइंड - हिन्दुत्ववादी संगठनों के बड़े लीडरानों तक जांच की आंच पहुंच सकेगी। हमें नहीं भूलना चाहिए कि हेमन्त करकरे की अगुआई में जब मालेगांव 2008 के बम धमाके में जांच ने गति पकड़ी थी तब यह तथ्य भी उजागर हुआ था कि विश्व हिन्दु परिषद के लीडर भाई तोगड़िया ने भी कर्नल पुरोहित के साथ कई बैठकें की थीं।

सबसे पहले यह जरूरी होगा कि इन घटनाओं को अंजाम देने के नाम पर जिन मुस्लिम युवकों को पुलिस ने फर्जी थ्योरी बना कर जेल में डाल रखा है, उन्हंे तत्काल रिहा किया जाए और ऐसे सभी मुस्लिम युवक जिन्हें आतंकवाद के नाम पर फर्जी मुकदमों में फंसाया गया था, उनसे यह सरकार माफी मांगे। पिछले दिनों आस्टेªलिया सरकार ने भारतीय मूल के डाॅक्टर हनीफ को बिनाकारण बन्द किए जाने पर न केवल माफी मांगी थी और उन्हें मुआवजा भी दिया गया था। 

दूसरे असीमानन्द के कबूलनामे ने पुलिस एवम जांच एजेंसियों के साम्प्रदायिक स्वरूप को भी बुरी तरह उजागर किया है। जरूरत है कि ऐसे सभी अधिकारी जिन्होंने तथ्यों को तोड़ मरोड़ कर फर्जी मुकदमे कायम करने में बढ़ चढ़ कर भूमिका अदा की, उन पर कार्रवाई हो।

तीसरे, इस कबूलनामे से यह भी स्पष्ट होता है कि जनतंत्रा का प्रहरी बताए जानेवाले मीडिया ने भी बेहद पक्षपाती रवैया अख्तियार किया था। मीडिया का कोईभी बड़ा सम्पादक या पत्राकार इन आरोपों से बच नहीं सकता कि उन्होंने आतंकी घटनाओं के मामले में पुलिस एवम प्रशासन का प्रवक्ता बनने तक अपनी भूमिका को सीमित किया था और ‘इस्लामिक आतंकवाद’ के नाम पर समूचे समुदाय का आतंकवादीकरण करने में जनद्रोही भूमिका निभायी थी।

चैथे, यह कोई पहला मौका नहीं है कि संघ परिवार का हिंसक, साम्प्रदायिक एवम विनाशक राजनीति का चेहरा उजागर हुआ है। समझौता एक्स्प्रेस में उसके कार्यकर्ताओं की सहभागिता से बौखलाए संघ के सुप्रीमो से यह पूछा जाना चाहिए कि ऐसी आपराधिक कार्रवाइयों को अंजाम देकर न केवल उसने आतंकवाद विरोधी कार्रवाई को कमजोर किया है बल्कि पाकिस्तान के अतिवादी तबकों को -जो खुद आतंकी कार्रवाइयों में शामिल रहते हैं -नयी वैधता प्रदान की है।

पांचवे, असीमानन्द का कबूलनामा जहां संघ की जनद्रोही राजनीति के खिलाफ प्रशासनिक नकेल का रास्ता सुगम करता है, वहीं यह सेक्युलर ताकतों के सामने खड़ी विराट चुनौति को भी रेखांकित करता है। संघ एवम उसके विश्वदृष्टिकोण के खिलाफ संघर्ष को राजनीतिक तौर पर जीतने की जरूरत है और उसके लिए व्यापक जनान्दोलन ही एकमात्रा रास्ता है।

4.

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जानकारों के मुताबिक 1948 में महात्मा गांधी की हत्या में ‘परिवारजनों’ की संलिप्तता के आरोपों के बाद संघ को जिस संकट से गुजरना पड़ा था, उससे गम्भीर यह संकट है। अपनी सदस्यता सूची न रखनेवाले संघ ने उस वक्त तो यह सफाई देकर बचने की कोशिश की थी कि नथुराम गोडसे हमारा कार्यकर्ता नहीं था (यह अलग बात है कि फ्रण्टलाइन को दिए अपने साक्षात्कार में नथुराम के छोटे भाई गोपाल गोडसे ने यह स्पष्ट किया था कि अन्त तक वह तथा नथुराम दोनों संघ से जुड़े रहे थे) मगर अबकि बार जबकि परभणी, जालना, नांदेड, मालेगांव, तेनकासी, कानपुर, अजमेर, मक्का मस्जिद ’ हैदराबाद, समझौता एक्सप्रेस आदि तमाम आतंकी हमलों में संघ के कार्यकर्ताओं की सहभागिता के जो तथ्य सामने आ रहे हैं, उससे संघ के लिए बहुत मुश्किल साबित हो रहा है।

आतंकी/अपराधी घटनाओं में अपने कार्यकर्ताओं की संलिप्तता को लेकर संघ द्वारा दी जा रही सफाई निश्चित ही किसी के गले नहीं उतर रही है। वह उसके लिए बड़ा संकट है।

वैसे फौरी तौर पर उसके लिए सबसे बड़ी चुनौती उसके अपने कार्यकर्ता सुनिल जोशी की संघ के लोगों द्वारा की गयी हत्या है। मालूम हो कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं का आतंकी मोडयूल बनानेवाले और भोपाल से लेकर अजमेर, मक्का मस्जिद, समझौता एक्स्प्रेस आदि स्थानों पर बम विस्फोट करानेवाले सुनिल जोशी की हत्या दिसम्बर 2007 में हुई थी, जिस पर से परदा अभी उठ रहा है। पिछले दिनों सुनिल जोशी की हत्या के सबूत मिटाने में अपनी भूमिका निभाने के लिए देवास के पार्षद रामचरण पटेल को भी गिरफ्तार किया गया है। और भी कइयों के सलाखों के पीछे जाने की सम्भावना है। संघ के कार्यकर्ता दबी जुबान से ही यह पूछने की हिम्मत कर रहे हैं कि इन्द्रेशकुमार को बचाने के लिए संघ की पूरी मशीनरी जुट जाती है, मगर सुनिल जोशी की हत्या की जांच भी नहीं की जाती।

ध्यान रहे कि सुनिल जोशी की हत्या में संघ के उसके कार्यकर्ता ही नहीं बल्कि मध्यप्रदेश पुलिस महकमे के कई अधिकारी भी फंस सकते हैं, जिन्होंने कहीं से संकेत पाकर फाइल बन्द करा दी थी।

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