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गुरुवार, 23 जून 2011

इरोम शर्मिला के नाम एक कविता






















अपर्णा मनोज की यह कविता इरोम शर्मिला के लिए... उनके संघर्ष के समर्थन में

मुक्ति

अपनी मुक्ति के लिए
मुझे नहीं देखना था आकाश का विस्तार
नहीं गिनने थे तारे
नहीं देखनी थी अबाध नदी की धाराएं
या पर्वत की ऊंची होती चोटी.
न ही देखना था सागर का ज्वार .

मुझे देखनी थी सदियों पुरानी बोझिल दीवार
जिसके सूराखों को भेद सकते थे मेरे पंख एकमात्र .
मुझे तो बस यही देखना था
हवाओं के विरुद्ध जख्मों की गहरी उड़ान .

अपनी मुक्ति के लिए चाहती थी लिखना स्वतंत्र भाषा में
कि लिखूं घास और फैले वह अपनी तरह
लिखूं पेड़ तो छायाएं गिरें अपनी तरह
एक बच्चा भूरी मिट्टी , अपने जैसा
एक आदमी परती, खुरदरा खुद -सा

कविता ख़त्म होने से पहले लिखूं इस बार इन्कलाब और एक सबसे अलग नई औरत
जो लड़ सके भाषा में रहकर
फैसला करे नए शीर्षक का
और नए व्याकरण में जन्म ले सबसे खुला शब्द "आज़ादी "और "औरत "


3 टिप्‍पणियां:

  1. कविता सशक्त रूप से बयां करती है इरोम शर्मीला का इंकलाबी जीवन...

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  2. कविता बहुत खूबसूरती के साथ जीवन को उस की ऊँचाइयों तक ले जाने के उत्साह औऱ संघर्ष को बयान करती है।

    जवाब देंहटाएं

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