अपनी इस टिप्पणी की ओर मैं पाठकों का विशेष तौर पर ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं , क्योंकि सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक सवालों पर हवाई अथवा जुनूनी ढंग से चर्चा करने की बीमारी से मुक्ति की आज सख्त जरूरत है। यह सच है कि विकास के नये-नये मॉडल की तलाश में ही राजनीति का सौन्दर्य है। ‘वाशिंगटन सम्मति’ की तरह का ‘सर्व-सम्मतवाद’ राजनीति के सौन्दर्यशास्त्र के लिये दलदल की तरह है क्योंकि यह नयी संभावनाओं को नकारता है। लेकिन हर बात हर चीज और हर जगह पर एक ही तरह से लागू नहीं होती। कार्ल मार्क्स ने सामाजिक इतिहास के मंजिल-दर-मंजिल विकास के सत्य को उजागर किया था और समृद्धि तथा प्रचुरता की एक मंजिल पर साम्यवादी समाज की वैज्ञानिक परिकल्पना पेश की थी। तथापि, इसका अर्थ यह कत्तई नहीं था कि यह पूरी प्रक्रिया कोई स्वत:स्फूर्त प्रक्रिया होगी, इसमें मनुष्य के कुछ करने की अर्थात हस्तक्षेप करने की गुंजाइश नहीं होगी। उन्होंने वर्ग-संघर्ष को इतिहास की चालक-शक्ति बताते हुए मनुष्य को ही उसके चालक के स्थान पर बैठाया था। जीवन में दुर्घटनाओं की तरह ही इतिहास में संकट के अनंत नाटकीय रूपों को भी वे समान रूप से महत्व देते थे। और सच कहा जाए तो नाना परिस्थिति में नाना रूपों में प्रगट होने वाला वर्ग-संघर्ष ही राजनीति के समूचे सौंदर्यशास्त्र का प्रमुख उत्स है।भारतीय समाज के जटिल ताने-बाने में जाति, धर्म, भाषा, प्रदेश, क्षेत्र की तरह के दो-चार नहीं असंख्य विषय है जिन पर क्षणिक अथवा दीर्घस्थायी उत्तेजना पैदा करके राजनीतिक लाभ उठाये जा सकते हैं, फिर भी आर्थिक विकास का प्रश्न पूरी तरह से ऐसे राजनीतिक प्रकल्पों से निर्णित नहीं हो सकता। अंततोगत्वा इतिहास का व्यापक संदर्भ अर्थात मंजिल-दर-मंजिल विकास का सत्य ही निर्णायक साबित होता है। अब तक का अनुभव भी यही बताता है कि राजनीतिक क्रांतियों और प्रति-क्रांतियों अथवा अन्य सामाजिक-आर्थिक गतिविधियोंके जरिये किसी मंजिल तक पहुंचने या उसे पार करने की गति को तेज या धीमा जरूर किया जा सकता है, लेकिन लांघा नहीं जा सकता है। इसे और ज्यादा ठोस रूप में समझने के लिये समाजवादी क्रांति के बाद रूस में ‘नयी आर्थिक नीति’ के नाम पर किये गये लेनिन के प्रयोगों और आजतक कम्युनिस्ट पार्टी और वामपंथियों द्वारा शासित चीन, वियतनाम तथा दूसरे देशों में किये जारहे प्रयोगों को भी देखा जा सकता है। कोई भी प्रगतिशील राजनीतिक दल, जो सामजिक-विकास की प्रक्रिया को तेज करने के लक्ष्य के साथ कम करता है, वह इतिहास की इन शिक्षाओं की अवहेलना नहीं कर सकता है। उसे हर कदम पर खुद के कार्यक्रमों को अद्यतन करते रहना होता है। यहीं पर मार्क्स की बातों के उन उद्धरणों की सारवत्ता है, जिनके साथ इस टिप्पणी का अंत किया गया है। तभी मार्क्स के इन कथनों के मर्म को समझा जा सकता है कि उन सैद्धांतिक जड़सूत्रों या अतिसूक्ष्म व्यवहारिक प्रश्नों पर थोथी बहस करने से हाथ कुछ भी नहीं लगेगा जो सभ्य संसार के हर भाग में बहुत पहले ही तय होचुके हैं और औद्योगिक दृष्टि से अधिक विकसित देश कम विकसित देश को सिर्फ उसके अपने भविष्य का बिंब ही दिखलाता है। तभी, पश्चिम बंगाल में वाममोर्चा सरकार के दुखांत के पीछे की ‘सामाजिक आवश्यकता’ की सचाई को भी सही ढंग से व्याख्यायित किया जा सकता है। और तभी, आज के तृणमूल-शासन की नियति को जान कर संघर्ष की सही दिशा को तय किया जा सकता है और समाज के भविष्य का धारक-वाहक बनने की वास्तविक साख पैदा की जा सकती है।
पश्चिम बंगाल के बहाने
पश्चिम बंगाल की आज की दशा देख कर सचमुच काफी आश्चर्य होता है। कहावत है कि जैसा स्वामी वैसा दास। इसीप्रकार, कहा जा सकता है कि संसदीय जनतंत्र में जैसा शासन वैसा ही प्रतिपक्ष।
अभी सिर्फ 16 महीने बीते हैं जब वाममोर्चा सरकार के लंबे 34 साल के शासन का, बल्कि एक क्रांतिकारी नाटक का पटाक्षेप हुआ था। यह कोई मामूली घटना नहीं थी। यदि वाममोर्चा का यह लंबा शासन अपने आप में एक इतिहास था तो इस शासन का पतन भी कम ऐतिहासिक नहीं कहलायेगा। वाममोर्चा सरकार के अवसान को सिर्फ ममता बनर्जी और उनकी टोली की करामात समझना या इसे वाममोर्चा के नेताओं और कार्यकर्ताओं के कुछ भटकावों और कदाचारों का परिणाम मानना इसकी गंभीरता को कम करना और इसके ऐतिहासिक सार को अनदेखा करने जैसा होगा।
लंबे चौतीस वर्षों तक चले एक मताग्रही शासन का ऐसा अंत, वर्गीय शक्तियों के संतुलन में ऐसी उथल-पुथल तभी संभव होती है जब इसकी सामाजिक आवश्यकता पैदा होजाती है, अर्थात उसके तहत निर्मित संस्थाएं जीर्ण हो कर समाज की नयी जरूरतों का वहन करने और उन्हें पूरा करने में अपनी असमर्थता साबित कर चुकी होती है। पश्चिम बंगाल में भूमि सुधार और स्थानीय स्वशासी संस्थाओं के विकास के जरिये सत्ता के विकेंद्रीकरण की शासन की नीतियों की दोनों टांगें थकने लगी थी। ’90 तक आते-आते इस प्रकार के सांस्थानिक परिवर्तन के काम पूरे हो चुके थे। तब से लगभग दो दशक तक एक लंबी और थकानभरी निरुद्देश्य यात्रा में इसकी सांसें फूल रही थी। ‘दलतंत्र‘ की असाध्य बीमारी ने राज्य की जनतांत्रिक संस्थाओं को ही नहीं, पार्टी के प्राण-तत्व, उसके सभी जन-संगठनों को भी खोखला करना शुरू कर दिया था।
तभी 1991 का युगांतर और संचार के पंखों पर सवार विकास की नयी-नयी जरूरतों ने समाज के सभी स्तरों पर तेजी से पैर फैलाने शुरू किये। वाममोर्चा ने इन नयी जरूरतों की धड़कनों को महसूस किया था। 1994 की नयी औद्योगिक नीति तैयार हुई, मैकेंजी रिपोर्ट की तरह कृषि क्षेत्र में नये प्रयोगों पर चर्चा शुरू हुई। औद्योगीकरण और शहरीकरण की जरूरतों के अनुरूप भू हदबंदी के बारे में नया विधेयक तैयार करके विधानसभा में पेश भी होगया। ‘बेहतर वाममोर्चा’ के नारे के साथ औद्योगीकरण और शहरीकरण के कार्यक्रमों को जोड़ने की कोशिश भी की गयी। लेकिन यह सब जैसे वाममोर्चा की तासीर के ही विरुद्ध था। केंद्र की उदारतावादी नीतियों के साथ नागरिक जीवन के नये सवाल गड्ड-मड्ड दिखाई देने लगे। शंकित मन से ऐसे नये क्षेत्रों में आगे बढ़ने में उसके पैर कांपने लगे। सामाजिक जरूरतों का जितना भी दबाव क्यों न हो, वाममोर्चा अपनी मूल रंगत को नहीं बदल सकता था। भारत की एक प्रांतीय सरकार द्वारा उदार आर्थिक नीतियों के अश्वमेघ घोड़े की रास को पकड़ने की कोशिश उसे दफ्ती की तलवार भांज रहे डान क्विगजोट के स्तर तक लेगयी, फिर भी उसके वश में कुछ नहीं था। कोई माने या न माने, यह सच है कि टाटा ने सिंगूर प्रकल्प को त्याग कर एक बार के लिये वाममोर्चा को पूरी तरह से ‘पूंजीपति-परस्त’ साबित होजाने की पाप-ग्रंथि से राहत दिलाई थी। और, दुविधा के इन्हीं बिंदुओं पर ममता बनर्जी के तेज आक्रमणों ने उसे धर दबोचा। वाममोर्चा ने अपने शत्रु का डट कर मुकाबला नहीं किया बल्कि शत्रु के हर बार आगे बढ़ने पर वह पीछे भी हट गया। इसका अर्थ यह नहीं है कि डट कर लड़ने से वाममोर्चा की पराजय को रोका जा सकता था, लेकिन डट कर लड़ने के बाद होने वाली पराजय का सहज ढंग से प्राप्त विजय की तरह ही क्रांतिकारी महत्व होता है। अंतिम वाममोर्चा सरकार की दशा करुण थी।
दरअसल वाममोर्चा की लगभग एक अस्थि-कुंड वाली सूरत एक अरसे से व्यापक तिरस्कार और वितृष्णा को जन्म दे रही थी। 2009 के पंचायत चुनाव के समय ही इसके साफ संकेत मिल गये थे। संभलने के लिये आगे के अढ़ाई साल आग लगने पर आपात स्थिति की हड़बड़ी और बदहवासी के साल साबित हुए। देखते-देखते, असहाय आंखों के सामने भारतीय जनतंत्र की यह अग्रिम चौकी ढह गयी। मई 2011 के चुनाव में वाममोर्चा चारो खाने चित्त होगया। वाम मोर्चा अपनी पंगुता के नीतिगत कारणों से मुक्त नहीं हो पाया, नयी सामाजिक आवश्यकताओं से उसके तार नहीं जुड़ पायें।
पश्चिम बंगाल में वाममोर्चा की पराजय के इन सोलह महीनों बाद, आज जब हम तृणमूल कांग्रेस सरकार की नीतियों और कार्य-पद्धति को देखते है, तभी हमें ‘जैसा स्वामी वैसा दास’ या ‘जैसा शासन वैसा प्रतिपक्ष’ वाली कहावत याद आती है, जिससे हमने इस टिप्पणी का प्रारंभ किया है। पश्चिम बंगाल की राजनीति की यह विडंबना ही है कि वाम मोर्चा ही नहीं, भारी परिवर्तन की लहर पर सवार होकर वाम मोर्चा को सत्ता से हटाने वाली पार्टी को भी इस परिवर्तन के पीछे काम कर रही सामाजिक आवश्यकताओं का कोई अहसास नहीं है। वे इसे एक व्यक्ति का करिश्मा, सिर्फ उसके ‘भगीरथ प्रयत्नों’ का परिणाम मान रहे हैं। वाममोर्चा की पराजय से सीखने के बजाय उसके 34 वर्षों तक सत्ता पर बने रहने के गुर को हासिल करने की फिराक में वे उन सिद्धियों की प्राप्ति में उतावले हो रहे हैं, जिन्हें बौद्धिक हलकों में ‘दलतंत्र’ कह कर कोसा जाता है, लेकिन जो वास्तव में ठहरे हुए पानी का कीचड़ था। वाम मोर्चा की नीतिगत पंगुता, नागरिक समाज की जरूरतों और जनतांत्रिक नैतिकताओं के प्रति उदासीनता भी इस कीचड़ में शामिल है। मजे की बात यह है कि पश्चिम बंगाल का नया शासक दल इसी कीचड़ को अपनी नयी सिद्धि की भभूत समझ कर उसमें लोट-पोट रहा है। वामपंथ को उसी के सिक्के से मात देने में उन्मादित हो उठा है।
कांग्रेस दल के साथ उसका जो गठबंधन चुनावी गणित के लिहाज से उसके लिये सबसे बड़ा वरदान साबित हुआ था, अपनी नयी, वामपंथी प्रकार की पहचान की तलाश में उसने सबसे पहले इसी गठबंधन को तोड़ डाला। कतिपय वामपंथी हलकों में चले आरहे इस विश्वास को कि परमाणविक संधि के बजाय दूसरे किसी प्रत्यक्ष जन-हितकारी दिखाई देने वाले सवाल पर उन्होंने यूपीए -1 से अपना समर्थन वापस लिया होता तो इससे उन्हें काफी लाभ होता, तृणमूल कांग्रेस ने अपने लिये इतिहास की सबसे बड़ी शिक्षा मान लिया। अब तक जीवन के बाकी सभी क्षेत्रों में विदेशी निवेश से कोई परहेज न करने वाली नेत्री की महिषासुरमर्दनी से भारतमाता बनने की राजनीतिक महत्वाकांक्षा ने खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश के मसले को सबसे मुफीद मौका समझा और वामपंथ की ‘भूल’ से सीखते हुए सही मुद्दे पर वार करके बाजार लूट लेने का फैसला कर लिया।
इस सारी उत्तेजना में जो बात पूरी तरह से भुला दी गयी, वह उन सामाजिक-ऐतिहासिक आवश्यकताओं की बात है जिनकी वजह से वाममोर्चा के 34 साल के शासन का अंत लाजिमी जान पड़ता था। और यही वजह है कि बुद्धिजीवियों का वह तबका जो सत्ता से वाममोर्चा के हटने में जीवन की नयी संभावनाओं का उन्मोचन देख रहा था आज अपने को ठगा गया पाता है। वह देख रहा है कि तृणमूल सरकार वामपंथ के उसी पिटे हुए रास्ते पर चलने पर उतारू है जिससे मुक्त होने की यहां के वामपंथियों ने अपने शासन के दिनों में ही असफल कोशिश की थी।
पश्चिम बंगाल को भारत के अन्य भागों की तरह ही फौरन निवेश चाहिए। अधिक से अधिक निवेश। कृषि के क्षेत्र में भी और उद्योगों में भी। नये-नये उद्योग और पुराने उद्योगों का पुनर्नवीकरण इसकी एक फौरी सामाजिक जरूरत है। सभी स्तरों पर उत्पादन और वितरण का आधुनिकीकरण जीवन-मरण का प्रश्न है। इसे किसी भी प्रकार के कोरे सैद्धांतिक वितंडा के नाम पर स्थगित नहीं रखा जा सकता। फिर वह वितंडा खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश का वितंडा ही क्यों न हो। अभी से निवेश और विकास के अभाव से पैदा होने वाली तमाम प्रकार की सामाजिक बुराइयां यहां प्रत्यक्ष होने लगी है। देखते ही देखते औरतों पर जुल्म के मामले में पश्चिम बंगाल आज राष्ट्रीय तालिका के शीर्ष पर है। कानून और व्यवस्था का मसला यहां की राजनीति का आज एक प्रमुख मसला है। आज (1 अक्तूबर) ही कोलकाता में सीपीआई(एम) की एक महासभा का प्रमुख नारा था - हिंसा रोको, सरकार चलाओ। भारी बहुमत से चुनी गयी पार्टी से ‘सरकार चलाने’ की मांग की जारही है! ‘परिवर्तन’ की मुहिम आज दुर्घटनाग्रस्त दिखाई दे रही है। यह इसलिये नहीं है कि ममता बनर्जी और उनके स्तवकों की भीड़ ने मिल कर उनकी ‘क्रांति’ को उस चान के पास पहुंचा दिया जिससे टकरा कर वह दुर्घटनाग्रस्त होगयी है। बल्कि इसकी वजह परिवर्तन के पीछे की सामाजिक आवश्यकताओं की नग्न अवहेलना है।
एक बार बुद्धदेव भट्टाचार्य ने इंडोनेशिया के सलीम ग्रुप के निवेश के बारे में उठे विवाद के समय कहा था, रुपया रुपया होता है, उसका एक ही रंग होता है। पाब्लो नेरुदा की एक कविता ‘रंगून 1927’ की पंक्तियां हैं: मेरी प्रिया, जिसे मैं नहीं जानता था।/मैं उसकी बगल में उसकी ओर/देखे बिना जा बैठा,/क्योंकि मैं अकेला था,/और मुझे नदियों या गोधुली/या पंखों या द्रव्य या चांदों की जरूरत नहीं थी-/मुझे एक औरत की जरूरत थी। ...मैं उससे प्यार करना और प्यार नहीं करना चाहता था,/...उसके लिये मैं, बिना सोचे-समझे, दहकने लगा।
पश्चिम बंगाल की मौजूदा दशा को देखते हुए गोखले की बात कि ‘बंगाल जो आज सोचता है, भारत उसे कल सोचेगा’ एक कोरा व्यंग्य जान पड़ती है। कार्ल मार्क्स की शब्दावली में उन सैद्धांतिक जड़सूत्रों या अतिसूक्ष्म व्यवहारिक प्रश्नों पर थोथी बहस करने से हाथ कुछ भी नहीं लगेगा जो सभ्य संसार के हर भाग में बहुत पहले ही तय होचुके हैं। मार्क्स ने ‘पूंजी’ की भूमिका में लिखा था कि औद्योगिक दृष्टि से अधिक विकसित देश कम विकसित देश को सिर्फ उसके अपने भविष्य का बिंब ही दिखलाता है। इसलिये भविष्य कौन बता रहा है, इसे समझने में चूक का कोई मतलब नहीं है। अन्य सभी देशों की तरह, हमें भी न सिर्फ पूंजीवादी उत्पादन के विकास से ही, बल्कि इस विकास की अपूर्णता से भी कष्ट भोगना पड़ रहा है। आधुनिक बुराइयों के साथ-साथ उत्पादन की कालातीत विधियों के निष्क्रिय रूप से अभी तक बचे रहने से जनित और सामाजिक तथा राजनीतिक असंगतियों के अपने अनिवार्य सिलसिले समेत विरासत में मिली बेशुमार बुराइयां हमें कुचल रही है। हमें न केवल जीवित बल्कि मृत चीजें भी सता रही है। [मुरदे जिंदों को जकड़े हुए हैं!](कार्ल मार्क्स, ‘पूंजी’ के पहले संस्करण की भूमिका से)
01.10.2012
bahut bebaak....
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