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सोमवार, 31 दिसंबर 2012

औरतों को लेकर मिथक : थोड़ी हकीकत ज्यादा फसाना

युवा पत्रकार पूजा सिंह का यह लेख 'तहलका' के ताज़ा 'महिला विशेषांक' में है. स्त्रियों को लेकर जिस तरह के पूर्वाग्रह और सहजबोध (common sense) समाज में बनाए जाते हैं उनका मुहतोड़ जवाब देता यह लेख एक आधुनिक महिला के जीवन के प्रति दृष्टिकोण से भी परिचित कराता है.






औरत व आदमी भले ही एक दूसरे के पूरक हों लेकिन उनके स्वभाव में विरोधाभासों की कोई कमी नहीं है। शायद उनके स्वभाव के अंतर को देखकर ही यह कहा गया होगा कि मेन आर फ्राम मार्स एंड वुमेन आर फ्राम वीनस। यही वजह है कि उनके बीच एक दूसरे को लेकर मिथक भी बड़ी संख्या में मौजूद हैं। आइए जानते हैं पांच ऐसी ही बातों को जो महिलाओं के बारे में सच होने का भ्रम फैलाती हैं लेकिन दरअसल हकीकत से कोसों दूर हैं



घोड़े पर आएगा बांका राजकुमार


बेड़ा गर्क हो इन हिंदी फिल्मों का जिन्होंने लोगों के मन में यह मुगालता डाल दिया है कि बचपन से ही हम घोड़े पर सवार होकर हमें लेने आने वाले राजकुमार के हसीं खयालों में खो जाती हैं. नहीं जी नहीं दरअसल ऐसा कुछ भी नहीं है.
अव्वल तो पैदा होते ही शादी के सपने नहीं बुनने लगतीं हमारे जिम्मे और भी तो काम हैं करने को. पता नहीं ऐसी कहावतें किस वक्त जन्मीं होंगी. उस दौर में शायद लड़कियों के पास सज संवर का विवाह की प्रतीक्षा करने के अलावा दूसरा कोई काम होता ही नहीं होगा. लेकिन अब तो दूसरा वक्त है. हम ओलंपिक्स से लेकर स्पेस तक अपने झंडे गाड़ रहे हैं. ऐसे में यह बात कुछ उटडेटेड सी लगती है. इसलिए हे लड़कों प्लीज, बनठन के टशन में हमारे आगे पीछे घूमना बंद करो यार.

एक और बात हां, हम चाहती हैं कि हमारा साथी बांका छबीला हो लेकिन इसका यह मतलब कतई नहीं है कि वह हर जगह हमारी कमर के इर्दगिर्द हाथ डालकर हमें प्रोटेक्ट करता फिरे. कसम से बहुत इरिटेटिंग लगता है ऐसा बिहैवियर. अगर वह अपने अपोनेंट का ताकत से नहीं बल्कि अपने विट और ह्यूमर से हरा दे तो यह हमारे लिए ज्यादा खुशी की बात होगी.


माफ कीजिए यह सोशल सर्विस नहीं है


सजना है मुझे सजना के लिए...सौदागर फिल्म के इस गाने ने तो जीना मुहाल कर रखा है. नहीं नहीं वैसे गाना अच्छा है, हम भी अक्सर गुनगुनाते हैं लेकिन इसे सुनते सुनते लोगों को ऐसा लगने लगा है मानों हमारे सजने संवरने का बस एक ही मकसद है- अपने सो कॉल्ड प्रियतम को रिझाना. अरे जनाब और भी गम हैं जमाने में सजने संवरने के सिवा! रवींद्र जैन साहब आपने न जाने कौन से जन्म की दुश्मनी निकाली है यह गीत लिखकर? आपको इसे लिखने की प्रेरणा कहां से मिली ये तो पता नहीं लेकिन यह जरूर बता दें कि हमारे बारे में यह धारणा एकदम गलत है. नो डाउट हमें सजना और संवरना अच्छा लगता है लेकिन यह किसी दूसरे के लिए नहीं होता बल्कि हमारी अपनी खुशी के लिए होता है. आपके मन में यह सवाल नहीं आता कभी कि लड़के किसलिए सजते हैं? जी हां हम भी ठीक उसी वजह से सजते-संवरते हैं यानी खुद अच्छा महसूस करने और अपना आत्मविश्वास बढ़ाने के लिए. हां अगर कोई सजने-संवरने की तारीफ करे तो हमें अच्छा लगता है. लेकिन वह तो सबको अच्छा लगता है न फिर चाहे वह लड़का हो या लड़की, बूढ़ा हो या जवान? तो भगवान के लिए आपलोग हमारे सजने को सोशल सर्विस समझना बंद कर दीजिए.


वैसे तो को-एड संस्थान हमारे व्यक्तित्व के विकास में बहुत मायने रखते हैं लेकिन मुसीबतें यहां भी पीछा नहीं छोड़तीं. लड़कों को यह बात समझाना कितना मुश्किल है कि उनसे दो मिनट हंस कर बात कर लेने का यह मतलब नहीं है कि हम उनमें इंटरेस्टेड हैं या उनकी तरफ आकर्षित हैं. उनका भी कुसूर नहीं है कुसूर तो हमारी सोसाइटी का है जो बचपन से ही लड़कों के जेहन में यह बात डाल देती है कि लड़की हंसी तो फंसी. अमां यार, हम भी तुम्हारी तरह इंसान ही हैं. कोई बात अच्छी लगती है तो हंस देते हैं, बुरी लगती है तो दुखी होते हैं या रोकर मन हल्का कर लेते हैं. आपको ऐसा क्यों लगता है कि हम फंसने के लिए तैयार बैठे हैं.

टॉप जॉब के लिए परफेक्ट हैं हम

यह मिथक पूरी तरह पुरुषों द्वारा अपने पक्ष में गढ़ा गया है कि महिलाएं नर्म स्वभाव और कम आक्रामकता के चलते किसी भी संस्थान में शीर्ष पद को नहीं संभाल सकती हैं क्योंकि वहां तमाम तरह के साम, दाम, दंड भेद और आक्रामकता की आवश्यकता होती है. यह कहने में भी गुरेज नहीं किया जाना चाहिए कि यह एक तरह से लैंगिक भेदभाव भरी टिप्पणी है. एक के बाद एक विभिन्न शोधों से यह बात सामने आ चुकी है कि महिलाएं शीर्ष पद संभालने के मामले में पुरुषों से कतई कमतर नहीं होती हैं. बल्कि बचपन से ही घरेलू जिम्मेदारियां संभाल रही महिलाओं में प्रबंधन की क्षमता पुरुषों के मुकाबले अधिक होती है. नैसर्गिक रूप से मौजूद विनम्रता उनको अपने सहयोगियों और कर्मचारियों का भरोसा जीतने में मदद करती हैं और वे उनको साथ लेकर आगे बढ़ती हैं. प्राय: ऐसे उदाहरण दिए जाते हैं कि चूंकि महिलाओं को परिवार और करियर के दो मोर्चो पर जूझना पड़ता है इसलिए वे करियर को लेकर गंभीर नहीं होती हैं. लेकिन ऐसा हरगिज नहीं है. इस बात को एक दूसरे पहलू से देखें तो तस्वीर ज्यादा साफ नजर आती है. अगर कोई महिला पारिवारिक जिम्मेदारियां संभालते हुए भी अपने करियर को आगे बढ़ा रही है तो इससे साफ जाहिर होता है कि वे करियर को लेकर गंभीर होने के कारण ही दोहरी मेहनत कर रही हैं. इन औरतों की करियर को लेकर प्रतिबद्घता पर भला कैसे शक किया जा सकता है? क्या इंदिरा नूई, चंदा कोचर, मेग व्हिटमैन और ऐसे ही तमाम उदाहरण इस बात को साबित करने के लिए पर्याप्त नहीं है कि महिलाएं करियर को बहुत सधे हुए तरीके से आगे बढ़ा सकती है.



न औरतों से दुश्मनी न शॉपिंग से प्रेम


अगर आपको भी लगता है कि औरत ही औरत की दुश्मन होती है तो मेरी आपसे विनम्र प्रार्थना है कि प्लीज एकता कपूर के सीरियल्स देखना बंद कर दीजिए.
दूसरी बात यह मानना बंद कीजिए ही तमाम महिलाएं शॉपिंग की दीवानी होती हैं। आपको सच जानना हो तो टीवी सीरियल्स की दुनिया से बाहर निकल उस समाज के बंद दरवाजों के पीछे झांकिए जहां कदम कदम पर मर्दवादी ताले पड़े हुए हैं. आपको जाने कितनी औरतें चहारदीवारी में बंद एक दूसरे का सहारा बनती नजर आएंगी. ईष्र्या, द्वेष और षडयंत्र की जिस दुनिया की कल्पना हम महिलाओं के आपसी रिश्तों में करते हैं वह दुनिया महिला या पुरुष से इतर हर किसी के लिए एक समान विद्यमान है. कृपया इसे औरतों के लिए सीमित न करें. लोगों को लगता है कि शॉपिंग करके हमें जीवन की तमाम खुशियों मिल जाती हैं लेकिन हकीकत ऐसी नहीं है. हां, यह टाइम पास करने का जरिया हो सकता है लेकिन यह हमारी खुशियों की चाबी नहीं है. पुरुषों की तरह हमें भी नई जगहों पर जाना, एडवेंचरस कामों में हिस्सा लेना, जीवन में नए प्रयोग करना पसंद है लेकिन पता नहीं कब और कैसे यह बात फैक्ट की तरह स्थापित हो गई कि हमें केवल शॉपिंग करना ही भाता है, वह दरअसल शौक नहीं हमारी मजबूरी है. आखिर कितने ऐसे पुरुष हैं जिनको यह पता होगा कि उनके घर में कौन सी चीज घटी हुई है. किराने से लेकर पति के कपड़ों तक ज्यादातर चीजें खरीदने का जिम्मा जब वाइफ पर होगा तो यह उसका शौक हुआ या मजबूरी? हां यह जरूर है कि जब मजबूरी में इतना कुछ करेंगे तो थोड़ा बहुत तो अपने शौक के लिए भी करना बनता है.



न पैसे से प्यार न ही बातूनी हैं हम...


यह बात एकदम बकवास है कि हम लड़कियां बहुत कैलकुलेटिव होती हैं. और उसी लड़के से शादी करना पसंद करती हैं, जिसकी इनकम अच्छी खासी हो. अगर मेरा होने वाला पति मुझसे ऐसा कुछ कहता है तो मेरा जवाब यही होगा कि देखो यार, मुझे इस बात से कोई मतलब नहीं है कि तुम कितना कमाते हो, या हमारी पहली डेट पर तुमने कितनी महंगी कमीज या घड़ी पहन रखी थी. एक बात साफ-साफ समझ लो यह जो तुम रोज रोज मेरे सामने पैसे के किस्से उछालते रहते हो न कि यह प्रॉपर्टी इतने की है, वह गाड़ी या मोबाइल उतने का है. जब तुम रुपये-पैसे के आंकड़ों का जिक्र करते हो न तो मेरे सिर पर वे कंकड़ की तरह बरसते हैं. मेरे लिए इतना काफी है कि हम दोनों वक्त अच्छा खाना खाएं, ठीकठाक कपड़े पहनें और एक दूसरे के साथ थोड़ा क्वालिटी टाइम बिताएं. अगर हमारे बीच स्नेह नहीं होगा, एक दूसरे को लेकर चिंता और फिक्र नहीं होगी, आपसी सम्मान नहीं होगा तो ये रुपये पैसे भला किस काम आएंगे पार्टनर?

मजाक में ही सही लेकिन बोलने के मामले में अक्सर महिलाओं की तुलना टेप रिकॉर्डर से कर दी जाती है. कहा जाता है कि वे एक बार बोलना शुरू कर देती हैं तो फिर बंद ही नहीं होतीं. लेकिन आपने कभी यह सोचा है हमें इतना अधिक बोलना क्यों पड़ता है? क्योंकि आप हमें सुनना ही नहीं चाहते. ईमानदारी से जरा दिल पर हाथ रखकर कहिए न आखिरी बार कब आपने हमारी बात को तवज्जो देकर सुना था और उस पर अपनी राय दी थी. नहीं आपके पास उसके लिए वक्त नहीं है, आप दिन भर ऑफिस में या काम पर व्यस्त रहते हैं और लौटने पर अगर हम दिल की कोई भी बात शेयर करना चाहें तो आपके पास रेडीमेड जवाब होता है-यार काम से थक कर आया हूं दिमाग मत चाटो. अब आप ही बताइए ऐसे में हमारे पास किसी तरह अपनी बात कहने के अलावा क्या दूसरा कोई चारा बचता है? नहीं.


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पूजा सिंह 

भोपाल से पत्रकारिता की पढ़ाई के बाद दैनिक भास्कर, नेटवर्क-१८, इंडो-एशियन न्यूज सर्विस में काम किया.  इन दिनों तहलका में वरिष्ठ उप सम्पादक.

18 टिप्‍पणियां:

  1. बात में दम है और उससे भी ज्‍यादा कहने के तरीके में...

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  2. बढ़िया ! मैंने अपने अन्दर के मर्द को थोड़ा और गहरे उतर कर फील किया , और उसे थोड़ा सा और डाईल्यूट किया . बीते चन्द दिनों की शर्मिन्दगी पर काबू पाया . ऐसे लेख देते रहिये .

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  3. tahalka ka yah ank bahut hi sangrahniy hai.sabhi lekho ko badhai.puja se main bilkul sahmat hun.kalawanti singh , ranchi,jharkhand.

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  4. लेख अच्छा है पूजा जी पर विनम्रता के साथ कहना चाहूँगा कि आप ये बात खुद पर भी लागू करें और थोड़ा नया सोचें और लिखें।आप दूसरों के भ्रम दूर करना चाहती हैं लेकिन खुद आपके भ्रमों का इलाज क्या है?आपको अभी भी ये भ्रम है कि पुरुष महिलाओं के बारे में ये भ्रम रखते हैं?खैर इसमें आपका भी दोष नहीं है वो क्या है न कि कुछ समझदार किस्म के लोगों ने पुरुषों के 'भ्रम दूर करने' के नाम पर ऐसी फालतू की बातों को दोहराया ही इतनी बार है कि कुछ लोगों को सच लगने लगी हैं।पर इतना बता दूँ कि पुरुषों के भी बहुत से वर्ग है सभी एक तरीके से नहीं सोचते।हाँ कुछ ऐसे भी हैं जो महिलाओं के बारे में ऐसे भ्रम रखते है लेकिन सभी नहीं ठीक वैसे ही जैसे एक वर्ग महिलाओं और लड़कियों का भी है जिन पर वही बातें लागू होती हैं जिन्हें आप भ्रम ....ओह सॉरी पुरुषों का भ्रम कह रही हैं।वैसे अभी ये सब बातें करना कुछ सही नहीं लग रहा।

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  5. हाँ कुछ लोग हैं जो महिलाओं को पारंपरिक भूमिका में ही देखना चाहते है इसलिए ये बातें दोहराते रहते हैं लेकिन मन ही मन सच्चाई तो वो भी जानते ही हैं और बाकी तो बदलाव को देख ही रहे हैं।

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  6. ऊपर से आपको ये भ्रम भी है कि पुरुष एकता कपूर के सीरियल्स देखते हैं??...लाहौल विला कूवत!

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  7. bahut sundar , sahi arthon men mithakon se door jeene vali aaj kee peedhee kee soch par prakash dala hai. samajh aa jaye to nari ko sahi dhang se samajhane keliye paryapt hai.

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  8. जैसे जैसे औरतों की सोच बदल रही है तो क्या पुरुषों की नहीं बदल रही है ...एकतरफ़ा लेख !

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  9. रोचक आलेख। हालांकि सब पुरुष ऐसा नहीं सोचते। :)

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  10. एक बात को सही दिखने के लिए दुसरे पक्ष को गलत साबित करना हमेशा आवश्यक नहीं होता ...

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  11. बढ़िया लेख है। पूजा को पहले भी पढ़ा है। तब भी रोक था उन्होंने पास।

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  12. badiya likha hai aapne.....par mera man na hai hai ki kuch galat logon ki vajah se sabhi galat nahi ho jate....
    kahin par male galat hote hai kahin par female.....
    actually mera to sochna hai male female se jyada hame accha insan banne par jor dena chahiye...agar hum acche insan ban gaye to dusron ko dukh pahunchane ka khayal hi nahi aayega......

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  13. badiya likha hai aapne.....par mera man na hai hai ki kuch galat logon ki vajah se sabhi galat nahi ho jate....
    kahin par male galat hote hai kahin par female.....
    actually mera to sochna hai male female se jyada hame accha insan banne par jor dena chahiye...agar hum acche insan ban gaye to dusron ko dukh pahunchane ka khayal hi nahi aayega......

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  14. अद्भुत अहसास...सुन्दर प्रस्तुति बहुत ही अच्छा लिखा आपने .बहुत ही सुन्दर रचना.बहुत बधाई आपको . और कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये.

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स्वागत है समर्थन का और आलोचनाओं का भी…