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बुधवार, 15 मई 2013

बेस्ट सेलर्स के बहाने कुछ जरूरी सवाल


किताबों के न बिकने के सतत प्रकाशकीय रुदन के बीच एक प्रकाशक का अपनी एक किताब को बेस्ट सेलर घोषित कर दो महीने के भीतर उस पर तीसरा आयोजन स्वागतेय तो है, लेकिन यह उल्लास कुछ सवाल खड़े करता है. उस कार्यक्रम की सूचना पर दीवानगी का यह हाल है कि एक प्रवासी कहानीकार ने यहाँ तक कह दिया कि हिंदी में तीस हज़ार से ज़्यादा कोई किताब बिकी ही नहीं है. प्रेमचंद की तमाम किताबों से लेकर आपका बंटी, राग दरबारी, नीला चाँद, मुझे चाँद चाहिए जैसी अनेक कृतियों के बारे में उनकी मालूमात संभव है, सूचना के स्तर पर भी न हो, खैर यह किसी की चिंता का विषय भी नहीं. इस सूचना को लेकर हुई व्यक्तिगत, अति-उल्लास या फिर भर्त्सनापूर्ण टिप्पणियों के आगे युवा आलोचक राकेश बिहारी की यह टिप्पणी कुछ ज़रूरी सवालों को तो उठाती ही है, साथ में एक बहस के लिए दरवाज़े भी खोलती है. जनपक्ष अपने पाठकों का इस बहस में भागीदारी का आह्वान करता है. 
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  • राकेश बिहारी



एक ऐसे समय में जब लिसी लेखक को यह ठीक-ठीक पता भी नहीं चल पाता कि उसके प्रकाशक ने उसकी किताब की कितनी प्रतियां छापी और बेची है, वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित ज्योति कुमारी के प्रथम कहानी-संग्रह ‘हस्ताक्षर तथा अन्य कहानियां’ की दो महीने में 1000 प्रतियां बिक जाना और उसके दूसरे संस्करण का प्रकाशित हो जाना हिन्दी साहित्य-जगत के लिये एक बड़ी, महत्वपूर्ण और स्वागत योग्य घटना है. इसके लिये ज्योति कुमारी और वाणी प्रकाशन दोनों को हृदय से बधाई दी जानी चाहिये.

भले ही इस स्तर पर दूसरे प्रकाशन गृहों द्वारा प्रचारित न किया गया हो पर किसी पुस्तक के कई-कई संस्करणों का प्रकाशित होना नई बात नहीं है. ज्योति कुमारी की किताब के दूसरे संस्करण के प्रकाशन को, राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित किस्सा कोताह (राजेश जोशी), मड़ंग गोरा नील कंठ हुआ (महुआ माजी), जुगनी (भावना शेखर), खाकी में इंसान (अशोक कुमार), भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित युवा कथाकारों यथा - शशि भूषण द्विवेदी, अल्पना मिश्र, कविता, पंखुरी सिन्हा, कुणाल सिंह, चन्दन पांडे, कुणाल सिंह, राकेश मिश्र, मनोज कुमार पांडे, प्रत्यक्षा आदि लेखकों के पहले-दूसरे कथा-संग्रहों, आधार प्रकाशन द्वारा प्रकाशित भरतीय उपन्यास और आधुनिकता (वैभव सिंह), कलिकथा वाया वाइपास (अलका सरावगी), शिल्पायन द्वारा प्रकाशित 1857 और नवजागरण के प्रश्न (प्रदीप सक्सेना), अनकही (जयश्री रॉय), हनिया तथा अन्य कहानियां (विवेक मिश्र), सामयिक प्रकाशन द्वारा प्रकाशित आवां (चित्रा मुद्गल), मिलजुल मन (मृदुला गर्ग), इतिहास गढ़ता समय (प्रियदर्शन) आदि पुस्तकों की परंपरा की अगली कड़ी के रूप में ही देखा जाना चाहिये. यदि यहां पुराने लेखकों की उन किताबों का जिक्र न भी किया जाये जिनके वर्षों से नए संस्करण होते रहे हैं तो भी, अनुपम मिश्र की किताब `आज भी खड़े हैं तालाब’का जिक्र जरूरी है जिसकी लाख से ज्यादा प्रतियां बिक चुकी हैं और जिसे लेखक द्वारा रायल्टी मुक्त कर दिये जाने के कारण लगभग सारे बड़े प्रकाशक छाप चुके हैं। 

विभिन्न प्रकाशन गृहों द्वारा प्रकाशित कई किताबों के एकाधिक संस्करण और दो महीने में एक किताब की एक हज़ार प्रतियों के बिक जाने के इस सुखद सच के सामानान्तर एक चिंताजनक सच यह भी है कि कई महत्वपूर्ण किताबों के ढाई-तीन सौ प्रतियों के संस्करण भी कई-कई वर्षों में नहीं बिक पाते हैं. किसी किताब के बहुत ज्यादा बिकने और किसी किताब के नहीं बिक पाने के बीच के फासले के पीछे आखिर क्या कारण हैं? मुझे लगता है, इस महत्वपूर्ण मौके पर बेस्ट सेलर्स की अवधारणा, या किन्हीं अवांतर प्रसंग आदि की चर्चा करने के बजाय इस प्रश्न पर विचार किया जाना ज्यादा जरूरी है कि किसी किताब के बिकने या न बिकने के क्या कारण हो सकते हैं. चूंकि तत्कालीन चर्चा ज्योति कुमारी की किताब की है, इसलिये मैं अपनी बात इसी सन्दर्भ के हवाले से करूंगा.

किसी किताब के बिकने के कारणों की पड़ताल करते हुये जो पहली बात ध्यान में आती है वह है किताब की गुणवत्ता. दो महीने में 1000
 प्रतियो के बिकने की सुखद सूचना जिस उत्सवधर्मिता के साथ हमारे बीच आई है क्या उसका अर्थ यह लगाया जाय कि ज्योति कुमारी की कहानियां कथात्मक रचनाशीलता और प्रतिभा का एक ऐसा विस्फोट है जिसे पाठकों ने हाथों हाथ लिया? इसे सच मान लेने में यह खतरा है कि इसका अर्थ यह निकलेगा कि वाणी प्रकाशन से प्रकाशित अन्य लेखकों की किताबें तुलनात्मक रूप से कम अच्छी हैं. इस तरह के निष्कर्ष निकालना न तो उचित होगा नही सर्वमान्य या बहुमान्य. तो फिर दूसरा प्रश्न यह उठता है कि क्या कम समय में इतनी बड़ी बिक्री का महत्वपूर्ण कारण किताब का विज्ञापन है? यदि हां तो इससे जुड़ा एक और प्रश्न मुझे परेशान करता है कि यदि विज्ञापन किसी किताब की बिक्री में इतनी बड़ी भूमिका निभाता है तो फिर प्रकाशक अपने सभी किताबों का उसी तरह विज्ञापन क्यों नहीं करते? हो सकता है, विज्ञापन की यह परम्परा हिन्दी साहित्य जगत के लिये एक नई शुरुआत हो. तो क्या यह उम्मीद रखी जाये कि अन्य पुस्तकों के भी इसी तरह विज्ञापन किये जायेंगे? इस पुस्तक के साथ आई अन्य किताबों के प्रचार-प्रसार, लोकार्पण-परिचर्चा आदि को देखते हुये ऐसी उम्मीद करने का कोई ठोस कारण नहीं दिखता. ऐसे में इस बड़ी बिक्री के जिस तीसरे कारण की तरफ ध्यान जाता है, वह है - इस पुस्तक के प्रकाशन से जुड़ी अवांतर प्रसंगों और विवादों का. यदि इस किताब की बिक्री का कारण यह है तो क्या यह माना जाये कि अब हिन्दी साहित्य की वे ही किताबें अच्छी मात्रा में बिकेंगी जिसके मूल में कोई विवाद होगा? कहने की जरूरत नहीं कि इस तरह के प्रश्न उत्साह को नहीं चिंता को जन्म देते हैं.

इन चिंताओं और उत्कंठाओं के बहाने हम फिर अपने मूल बिंदु पर आते हैं कि ज्योति कुमारी के किताबों की उत्साहवर्द्धक बिक्री का उत्सव जरूर मनाना चाहिये लेकिन यह इस बात पर भी सोचने का समय है कि किसी किताब के बिकने और न बिकने के क्या कारण हैं? इससे किसी को इंकार नहीं हो सकता कि विवाद या प्रायोजन सफलता के स्थाई कारण नहीं हो सकते, अत: आज जरूरत है पुस्तक की गुणवता और उसके विज्ञापन के मेल से बने एक ऐसी प्रविधि के खोज की ताकि बहुत बिकनेवाली किताबों और न बिक पानेवाली किताबों के बीच का फासला न्यूनतम हो सके. ‘बेस्ट सेलर्स’ की घोषणा, उसका सेलिब्रेशन, और दावा की गई बिक्री की संख्या के अनुरूप लेखकों को रॉयल्टी दिये जाने की इस शुरुआत को इसी महती दिशा में बढे एक छोटे कदम के रूप में देखा जाना चाहिये. हम उम्मीद करते हैं कि वाणी प्रकाशन ने दो महीने की बिक्री के आधार पर बेस्ट सेलर घोषित करने की जो परंपरा शुरु की है उसकी अगली कड़ियां हमें हर दूसरे महीने देखने को मिलेंगी. यह सिलसिला ऐसे ही चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब इस तरह के आयोजनों और उत्सवों की खबरें हमें दूसरे प्रकाशन गृहों से भी मिलने लगें

4 टिप्‍पणियां:

  1. तालाब खड़े नहीं है खरे हैं...

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    1. हिंदी में किसी पुस्तक के व्यावसायिक प्रकाशन-तंत्र का मूल प्रश्न यह है कि प्रकाशक कितनी प्रतियां छापना और बेचना चाहता है (सफेज में)य़ अक्सर जितनी प्रतियां छपतीं और बिकती हैं उनसे कम प्रतियां रिकॉर्ड में दर्ज की जाती हैं ताकि लेखक को रॉयल्टी कम दी जा सके। वरना कितनी ही नए समय की किताबें हैं, जो देश के सुदूर कोनों में भी पहुंचती हैं, लोग पढ़ते हैं, प्रतिक्रियाएं देते हैं और लेखक को उस अनुपात में प्रकाशक से न जानकारी मिलती है और न रॉयल्टी। पुस्तक की लोकप्रियता को जानने का अच्छा तरीका मुझे इस लेख में मिला है, उसे कॉपीराइट मुक्त कर देना ताकि कोई भी प्रकाशक उसे छापे और लोगों तक वे पहुंचें। वैसे यह भी सच है कि हिंदी में कविता-कहानी और उपन्यास आम तौर पर खरीद कर नहीं पढ़े जाते, उपहार में पाने की अपेक्षा रहती है, जब तक कि रचनाएं वाकई दमदार न हों। अब इसमें गड़बड़ी किसके स्तर पर है, यह बड़ी चर्चा का विषय है। रचनाकारों की किसी भी तरह से छपने और समीक्षित होने की हड़बड़ी भी नोटिस करने लायक है।

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  2. chaliye isi bahane is par charcha shru hui. baat awantar prasango par bhi honi hi chahiye ki jab bhi koi ladki likhti hai... use vivadit kyn banaya jata hai... matrei pushpa, mahua maji, joyshree rai etc... aur ab jyoti kumari... kya lekhikayein avantar prasangon se hi jani jayengi

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