अंधश्रद्धा के खिलाफ संघर्षरत एक संग्रामी की शहादत
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‘‘जिन्दगी जीने के दो ही तरीके मुमकिन हैं। पहला यही कि कोई भी चमत्कार नहीं।
दूसरा, सबकुछ चमत्कार ही है।’’
- अलबर्ट आइनस्टाइन
लब्जों की यह खासियत समझी जाती है कि वे पूरी चिकित्सकीय
निर्लिप्तता के साथ ग्राही/ग्रहणकर्ता के पास पहुंचते हैं। यह ग्राही पर निर्भर
करता है कि वह उनके मायने ढंूढने की कोशिश करे। बीस अगस्त की अलसुबह पुणे की सड़क
पर अंधश्रद्धा विरोधी आन्दोलन के अग्रणी कार्यकर्ता डा नरेन्द्र दाभोलकर की हुई
सुनियोजित हत्या की ख़बर से उपजे दुख एवं सदमे से उबरना उन तमाम लोगों के लिए
अभीभी मुश्किल जान पड़ रहा है,
जो अपने अपने स्तर पर प्रगति एवं न्याय के संघर्ष में मुब्तिला हैं।
पुणे के निवासियों के एक बड़े हिस्से के लिए मुला मुठा नदी
के किनारे बना आंेकारेश्वर मंदिर वह जगह हुआ करती रही है जहां लोग अपने अन्तिम
संस्कार के लिए ले लाए जाते रहे हैं। इसे विचित्रा संयोग कहा जाएगा कि उसी मन्दिर
के ऊपर बने पूल से अल सुबह गुजरते हुए डा नरेन्द्र दाभोलकर ने अपनी झंझावाती
जिन्दगी की चन्द आखरी सांसें लीं। एक जुम्बिश ठहर गयी, एक
जुस्तजू अधबीच थम गयी। मोटरसाइकिल पर सवार हत्यारे नौजवानों द्वारा दागी गयी चार
गोलियों में से दो उनके सिर के पिछले हिस्से में लगी थी और वह वहीं खून से लथपथ
गिर गए थे।
अपनी मृत्यु के एक दिन पहले शाम के वक्त मराठी भाषा के
सहयाद्री टीवी चैनल पर उपस्थित होकर वह जातिपंचायतों की भूमिका पर अपनी राय प्रगट
कर रहे थे। उस वक्त किसे यह गुमान हो सकता था कि उन्हें ‘सजीव’ अर्थात
लाइव सुनने का यह आखरी अवसर होनेवाला है। यह पैनल चर्चा नासिक जिले की एक विचलित
करनेवाली घटना की पृष्ठभूमि में आयोजित की गयी थी, जहां किसी कुम्हारकर नामक
व्यक्ति द्वारा अपनी जाति पंचायत के आदेश पर अपनी बेटी का गला घोंटने की घटना
सामने आयी थी। वजह थी उसका अपनी जाति से बाहर जाकर किसी युवक से प्रेमविवाह। चर्चा
में हिस्सेदारी करते हुए डा दाभोलकर बता रहे थे कि किस तरह उन्होंने हाल के दिनों
में अन्तरजातीय विवाह को बढ़ावा देने के लिए सम्मेलन का आयोजन किया था और इसी मसले
पर घोषणापत्र भी तैयार किया था।
एक बहुआयामी व्यक्ति - प्रशिक्षण से डाक्टरी चिकित्सक, अपनी
रूचि के हिसाब से देखें तो लेखक-सम्पादक एवं वक्ता और एक आवश्यकता की वजह से एक
आन्दोलनकारी, यह कहना अनुचित नहीं होगा कि पूरे मुल्क के तर्कशील आन्दोलन के लिए वह एक
अद्भुत मिसाल थे और अपने संगठन एवं उसकी 200 से अधिक शाखाओं के जरिए सूबा महाराष्ट्र, कर्नाटक एवं गोवा में
जनजागृति के काम में लगे थे। बहुत कम लोग जानते थे कि अपने स्कूल-कालेज के दिनों
में वह जानेमाने कब्बडी के खिलाड़ी थे,
जिन्होंने भारतीय टीम के लिए मेडल भी जीते थे। हालांकि
उन्होंने अपने सामाजिक जीवन की शुरूआत डाक्टरी प्रैक्टिस से की थी, मगर
जल्द ही वह डा बाबा आढाव द्वारा संचालित ‘एक गांव, एक जलाशय (पाणवठा)’
नामक मुहिम से जुड़ गए थे। विगत दो दशक से अधिक समय से वह
अंधश्रद्धा के खिलाफ मुहिम में मुब्तिला थे।
डा दाभोलकर की प्रचण्ड लोकप्रियता का अन्दाज़ा इस बात से
लगाया जा सकता है कि उनके मौत की ख़बर सुनते ही महाराष्ट्र के तमाम हिस्सों में
स्वतःस्फूर्त प्रदर्शन हुए, और उनके गृहनगर सातारा में तो जुलूस में शामिल हजारों की
तादाद ने जिन्दगी के सत्तरवें बसन्त की तरफ बढ़ रहे अपने नगर के इस प्रिय एवं
सम्मानित व्यक्ति को अपनी आदरांजलि दे दी। 21 अगस्त को पुणे शहर में सभी पार्टियों के संयुक्त आवाहन पर बन्द का आयोजन किया
गया।
राजनेताओं से लेकर सामाजिक कार्यकर्ताओं तक सभी ने डाॅक्टर
दाभोलकर को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की है। उन्हें किस हद तक विरोध का सामना करना
पड़ता था इस बात का अन्दाज़ा इस तरह लगाया जा सकता है कि विगत अठारह साल से
महाराष्ट्र विधानसभा के सामने एक बिल लम्बित पड़ा रहा है जिसका फोकस जादूटोना
करनेवाले या काला जादू करनेवाली ताकतों पर रोक लगाना है। रूढिवादी हिस्से के विरोध
को देखते हुए इस बिल में आस्था क्या है या अंधआस्था किसे कहेंगे इसको परिभाषित
करने से बचा गया था और सूबे में व्यापक पैमाने पर व्यवहार में रहनेवाली
अंधश्रद्धाओं को निशाने पर रखा गया था। ऐसी गतिविधियां संज्ञेय एवं गैरजमानती
अपराध के तौर पर दर्ज हों,
ऐसे अपराधों की जांच के लिए या उन पर निगरानी रखने के लिए
जांच अधिकारी नियुक्त करने की बात भी इसमें की गयी थी।
‘महाराष्ट्र प्रीवेन्शन एण्ड इरेडिकेशन आफ हयूमन सैक्रिफाइस एण्ड अदर इनहयूमन
इविल प्रैक्टिसेस एण्ड ब्लैक मैजिक’
शीर्षक इस बिल का हिन्दु अतिवादी संगठनों ने लगातार विरोध
किया है, पिछले दो साल से वारकरी समुदाय के लोगों ने भी विरोध के सुर में सुर मिलाया
है। और इन्हीं का हवाला देते हुए इस अन्तराल में सूबे में सत्तासीन सरकारों ने इस
बिल को पारित नहीं होने दिया है। आप इसे डा दाभोलकर की हत्या से उपजे जनाक्रोश का
नतीजा कह सकते हैं या सरकार द्वारा अपनी झेंप मिटाने के लिए की गयी कार्रवाई कह
सकते हैं कि कि इस दुखद घटना के महज एक दिन बाद महाराष्ट्र सरकार के कैबिनेट में
इस बिल को लेकर एक अध्यादेश लाने का निर्णय लिया गया है।
निःस्सन्देह उनकी हत्या के पीछे एक सुनियोजित साजिश की बू
आती है। आखिर किसने ऐसे शख्स की हत्या की होगी जिसने महाराष्ट्र की समाजसुधारकों
की - ज्योतिबा फुले,
महादेव गोविन्द रानडे या गोपाल हरि आगरकर - विस्मृत हो चली
परम्परा को नवजीवन देने की कोशिश की थी ?
कई सारी सम्भावनाएं हैं। यह सही है कि उनके कोई निजी दुश्मन
नहीं थे मगर अंधश्रद्धा के खिलाफ उनके अनवरत संघर्ष ने ऐसे तमाम लोगों को उनके
खिलाफ खड़ा किया था,
जिनको उन्होंने बेपर्द किया था। तयशुदा बात है कि ऐसे लोग
कारस्तानियों में लगे होंगे। राजनीति में सक्रिय यथास्थितिवादी शक्तियों के लिए भी
उनके काम से परेशानी थी। पुलिस ने कहा कि वह इन आरोपों की भी पड़ताल करेगी कि इसके
पीछे सनातन संस्था और हिन्दू जनजागृति समिति जैसी अतिवादी संस्थाओं का हाथ तो नहीं
है, जिसके सदस्य महाराष्ट्र एवं गोवा में आतंकी घटनाओं में शामिल पाए गए हैं। इस
बात को रेखांकित करना ही होगा कि कई भाषाओं में प्रकाशित अपने अख़बार ‘सनातन
प्रभात’ के जरिए इन संस्थाओं ने डा दाभोलकर के खिलाफ जबरदस्त मुहिम चला रखी थी, इतनाही
नहीं उन्होंने दाभोलकर के ऐसे फोटो भी प्रकाशित किए थे, जिसे
लाल रंग से क्रास किया गया था,
जिसमें उनकी सांकेतिक समाप्ति की तरफ इशारा था।
डा दाभोलकर को दी अपनी श्रद्धांजलि में लेखक एवं राजनीतिक
विश्लेषक आनन्द तेलतुम्बडे लिखते हैं कि ((http://www.countercurrents.org/teltumbde230813.htm)
‘..दाभोलकर की हत्या के बाद
भी सनातन संस्था ने उनके प्रति अपनी घृणा के भाव को छिपाया नहीं बल्कि अगले ही दिन
जबकि पूरा राज्य दुख एवं सदमे में था,
उन्होंने अपने मुखपत्रा में लिखा कि यह ईश्वर की कृपा थी कि
दाभोलकर की मृत्यु ऐसे हुई। गीता को उदधृत करते हुए लिखा गया कि जो जनमा है, उसकी
मृत्यु निश्चित है,
जन्म एवं मृत्यु हरेक की नियति के हिसाब से होते हैं। हरेक
को अपने कर्म का फल मिलता है। बिस्तर पर पड़े पड़े बीमारी से मरने के बजाय, डा
दाभोलकर की जो मृत्यु हुई वह ईश्वर की ही कृपा थी।’..इतनाही नहीं इस हत्या से
अपने सम्बन्ध से इन्कार करने के लिए बुलायी गयी प्रेस कान्फेरेन्स में उन्हें यह
कहने में भी संकोच नहीं हुआ कि वह दाभोलकर की लाल रंग से क्राॅस की गयी तस्वीर की
तरह कई अन्यों की तस्वीरें भी प्रकाशित करेंगे। कहने का तात्पर्य कि जो दाभोलकर की
राह चलेगा उन्हें वह नष्ट करेंगे।’
ऐसा नहीं था कि डा दाभोलकर को इस बात का अन्दाजा नहीं था कि
ऐसी ताकतें किस हद तक जा सकती हैं। उनके परिवार के सदस्यों के मुताबिक उन्हें
अक्सर धमकियां मिलती थीं,
लेकिन उन्होंने पुलिस सुरक्षा लेने से हमेशा इन्कार किया।
उनके बेटे हामिद ने कहा कि ‘‘वे कहते थे कि उनका संघर्ष अज्ञान की समाप्ति के लिए है और उससे लड़ने के लिए
उन्हें हथियारों की जरूरत नहीं है।’’
उनके भाई ने अश्रुपूरित नयनों से बताया कि जब हम लोग उनसे
पुलिस सुरक्षा लेने का आग्रह करते थे,
तो वह कहते थे कि ‘अगर मैंने सुरक्षा ली तो वे लोग मेरे साथियों पर हमला करेंगे। और यह मैं कभी
बरदाश्त नहंीं कर सकता। जो होना है मेरे साथ हो।’’
विभिन्न बाबाओं के खिलाफ एवं साध्वियों के खिलाफ भी
उन्होंने ‘महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति’
के बैनरतले आन्दोलन चलाया था। एक किशोरी के साथ कथित
बलात्कार के आरोपों के चलते इन दिनों सूर्खियां बटोर रहे आसाराम बापू ने पिछले
दिनों होली के मौके पर नागपुर में अपने शिष्यों के साथ होली के कार्यक्रम का आयोजन
किया था। काफी समय से सूखा झेल रहे महाराष्ट्र में इस कार्यक्रम के लिए लाखों लीटर
पीने के पानी के टैंकरों का इन्तजाम किया गया था। समिति के बैनरतले डा दाभोलकर ने
इस कार्यक्रम को चुनौती दी और अन्ततः यह कार्यक्रम नहीं हो सका। चर्चित निर्मल
बाबा के खिलाफ भी डा दाभोलकर ने पिछले दिनों अपना मोर्चा खोला था। यू टयूब पर आप
चाहें तो डा दाभोलकर के भाषण को सुन सकते हैं निर्मल बाबा: शोध आणि बोध। यह वही निर्मल
बाबा हैं जिनका कार्यक्रम एक साथ 40 विभिन्न चैनलों पर चलता है जहां लोगों को उनकी समस्याओं के समाधान के नाम पर
ईश्वरीय कृपा की सौगात दी जाती है। उनकी समागम बैठकों में 2000 रूपए
के टिकट भी लगते हैं।
वर्ष 2008 में डा दाभोलकर एवं अभिनेता एवं समाजकर्मी डा श्रीराम लागू ने ज्योतिषियों के
लिए एक प्रश्नमालिका तैयार की और कहा कि अगर उन्होंने तर्कशीलता की परीक्षा पास की
तो उन्हें पुरस्कार मिल सकता है। अभी तक इस पर दांवा ठोकने के लिए कोई आगे नहीं
आया। वर्ष 2000 में अपने संगठन की पहल पर उन्होंने राज्य के सैकड़ो महिलाओं की रैली अहमदनगर
जिले के शनि शिंगणापुर मन्दिर तक निकाली जिसमें महिलाओं के लिए प्रवेश वर्जित था।
न केवल रूढिवादी तत्वों ने बल्कि शिवसेना एवं भाजपा के कार्यकर्ताओं ने परम्परा
एवं आस्था की दुहाई देते हुए महिलाओं के प्रवेश को रोकना चाहा, उनकी
गिरफ्तारियां भी हुईं और फिर मामला मुंबई की उच्च अदालत पहुंचा और सुनने में आया
है कि मामला पूरा होने के करीब है।
अपने एक आलेख ‘
रैशनेलिटी मिशन फार सक्सेस इन लाइफ’ में
जिसमें ‘उनका मकसद आवश्यक बदलाव के लिए लोगों को प्रेरित करना है’ उन्होंने
लिखा था:
'परम्पराओं, रस्मोरिवाज और मन को विस्मित कर देनेवाली प्रक्रियाओं से बनी युगों पुरानी अंधश्रद्धाओं की पूर्ति के लिए पैसा, श्रम और व्यक्ति एवं समाज का समय भी लगता है। आधुनिक समाज ऐसे मूल्यवान संसाधनों को बरबाद नहीं कर सकता। दरअसल अंधश्रद्धाएं इस बात को सुनिश्चित करती हैं कि गरीब एवं वंचित लोग अपने हालात में यथावत बने रहें और उन्हें अपने विपन्न करनेवाले हालात से बाहर आने का मौका तक न मिले। आइए हम प्रतिज्ञा लें कि हम ऐसी किसी अंधश्रद्धा को स्थान नहीं देगें और अपने बहुमूल्य संसाधनों को बरबाद नहीं करेंगे। उत्सवों पर करदाताओं का पैसा बरबाद करनेवाली, कुम्भमेला से लेकर मंदिरों/मस्जिदों/गिरजाघरों के रखरखाव के लिए पैसा व्यय करनेवाली सरकारों का हम विरोध करेंगे और यह मांग करेंगे कि पानी, उर्जा, कम्युनिकेशन, यातायात, स्वास्थ्यसेवा, प्रायमरी शिक्षा और अन्य कल्याणकारी एवं विकाससम्बन्धी गतिविधियों के लिए वह इस फण्ड का आवण्टन करें।'
उनके जीवन की एक अन्य कम उल्लेखित उपलब्धि रही है, विगत
अठारह साल से उन्होंने किया ‘साधना’ नामक साप्ताहिक का सम्पादन,
जिसने अपनी स्थापना के 65 साल हाल ही में पूरे किए।
जानकार बताते हैं कि जब उन्होंने सम्पादक का जिम्म सम्भाला तो सानेगुरूजी जैसे
स्वतंत्राता सेनानी एवं समाजसुधारक द्वारा स्थापित यह पत्रिका काफी कठिन दौर से
गुजर रही थी, मगर उनके सम्पादन ने इस परिदृश्य को बदल दिया और आज भी यह पत्रिका तमाम
परिवर्तनकामी ताकतों के विचारों के लिए मंच प्रदान करती है।
ठीक ही कहा गया है कि डा दाभोलकर की असामयिक मौत देश के
तर्कवादी आन्दोलन के लिए गहरा झटका है। देश में दक्षिणपंथी ताकतों के उभार के चलते
पहले से ही तमाम चुनौतियों का सामना कर रहे इस आन्दोलन ने अपने एक सेनानी को खोया
है। मगर अतिवादी ताकतों के हाथ उनकी मौत दरअसल उन सभी के लिए एक झटका कही जा सकती
है जो देश में एक प्रगतिशील बदलाव लाने की उम्मीद रखते हैं। अब यह देखना होगा कि
उनकी मृत्यु से उपजे प्रचण्ड दुख एवं गुस्से को ऐसी तमाम ताकतें मिल कर किस तरह एक
नयी संकल्पशक्ति में तब्दील कर पाती हैं ताकि अज्ञान, अतार्किकता
एवं प्रतिक्रिया की जिन ताकतों के खिलाफ लड़ने में डा दाभोलकर ने मृत्यु का वरण
किया, वह मशाल आगे भी जलती रहे।
प्रतिक्रियावादी तत्व भले ही डा दाभोलकर को मारने में सफल
हुए हों, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जिस तरह से उनकी हत्या हुई है उसने तमाम नए
लोगों को भी दिमागी गुलामी के खिलाफ जारी इस व्यापक मुहिम से जोड़ा भी है। यह अकारण
नहीं कि महाराष्ट्र के विभिन्न स्थानों पर हुई रैलियों में तमाम बैनरों, पोस्टरों
में एक छोटेसे पोस्टर ने तमाम लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया था जिस पर लिखा
था ‘आम्ही सगले दाभोलकर’
(हम सब दाभोलकर)।
- जादू टोना विरोधी विधेयक में यह माना जाएगा अपराध
- भूत भगाने के नाम पर किसी को मारना या पीटना, पर किसी तरह का मंत्र पढ़ने पर पाबन्दी नहीं होगी।
- चमत्कार के नाम पर दूसरों को धोखा देना या पैसा लेना
- किसी की जिन्दगी को खतरे में डाल कर अघोरी तरीके का इस्तेमाल करना
- भानामती, करणी, जारणमरण, गुप्तधन के नाम से अमानवीय काम करना या नरबलि देना
- दैवी शक्ति का दावा होने के नाम पर डर फैलाना
- पिछले जन्म में पत्नी, प्रेमिका या प्रेमी होने का दावा कर या बच्चा होने का आश्वासन देकर संबंध बनाना
- उंगली से आपरेशन का दावा करना
- गर्भवती महिलाओं के लिंग परिवर्तन का दावा करना
- भूत पिशाच का आवाहन करते हुए डर फैलाना
- कुत्ता, बिच्छू, सांप काटने पर दवा देने से मना करके मंत्रा द्वारा ठीक करने का दावा करना
- मतिमंद व्यक्ति में अलौकिक शक्ति का दावा कर उस व्यक्ति का
इस्तेमाल धंधे या व्यवसाय के लिए करना
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सुभाष गाताडे
जाने माने लेखक और प्रतिबद्ध सामाजिक कार्यकर्ता , अंग्रेजी में दो किताबें और हिन्दी में एक किताब प्रकाशित. कुछ अनुवाद भी. हिंदी, अंग्रेजी के अलावा मराठी में भी लेखन. 'न्यू सोशलिस्ट इनिशिएटिव' से सम्बद्ध.
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समयांतर के सितम्बर-२०१३ अंक से साभार
श्रद्धांजलि !!
जवाब देंहटाएंशर्मनाक है डा. दाभोलकर की हत्या.
विचार-तर्कसम्मत विकसित समाज के सपने को साकार करने के लिये ही वे अंधविश्वास की परंपराओं को जड़ से मिटाने के लिये संघर्ष करते आये.अपने समाज और जीवन में फैली ऐसी तमाम विसंगतियों के लिये अपने-अपने स्तर पर विरोध ही सच्ची श्रद्धांजलि होगी...
विवेक एवं साहस से लबरेज़ नायक की कथा ! इनके काम और शहादत से जुड़ी इतनी सारी जानकारियां, एक जगह, उपलब्ध कराता यह लेख हमारे ज़रूरी कार्यभारों को चिह्नित करता है. तकलीफ़ की बात यह है कि सनातन संस्था का प्रवक्ता हर दिन टीवी पर दिख जाता है, कई चैनलों पर, असंत के प्रकरण में. इस संस्था के खिलाफ़ अभियान छेड़ा जाना चाहिए.
जवाब देंहटाएंshradhanjali,ek samaj sevak,yugdhrishta ko........
जवाब देंहटाएंpragatisheelata ke mahanayak ko salam
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