बीते साल के अंतिम दिन जब सारी दुनिया नए साल का जश्न मना रही थी...तभी शान्तिमोय रे की किताब "फ्रीडम मूवमेंट एंड इन्डियन मुस्लिम" का अनुवाद करते समय नोट किया गया एक तथ्य मुझे तंग कर रहा था...वह दिन संन्यासी-फकीर आंदोलन के नायक मजनूशाह के शहादत का भी दिन था. पर जश्न के माहौल में उन्हें कौन याद करता...चलिए दो-चार दिन बाद ही सही.
सन्यासियों और फकीरों का विद्रोह (1763-1800)
1764 में बक्सर के युद्ध
के बाद बंगाल, बिहार और उड़ीसा में ब्रिटिश शासन की स्थापना ने भारत की निर्मम
लूट-खसोट का रास्ता खोल दिया. यह आधुनिक समय के इतिहास में अभूतपूर्व था. इतिहास
में यह जानकारी आम है कि कैसे किसानों की व्यापक बहुसंख्या और पुराने ज़मींदारों
में से कुछ को अपने जीवन रक्षा के लिए संघर्ष करने को जंगलों में खदेड़ दिया गया.
इस क्रूर आक्रमणकारी के खिलाफ विद्रोह का पहला झंडा (1763) में फकीरों के एक दल के नेता
मजनू शाह और सन्यासियों के एक दल के नेता भवानी पाठक द्वारा फहराया गया. यह 1800 तक चला.[i]
ये फकीर और संन्यासी
मुख्यतः धार्मिक संप्रदायों से, जैसे मुसलामानों में मदारिया और हिंदुओं में साईबा
पंथ से ताल्लुक रखते थे. वे ‘हिन्दुस्तान के यायावर’ कहे जाते थे. वे पूरे इलाके
में उचित तरीके से संगठित नहीं थे.[ii]
लेकिन वे उत्पीड़ित किसानों को उनकी आजादी, संस्कृति और धर्म के लिए संघर्ष के
आदर्श से मंजूशाह और उनके सेनापति चेराघली और भवानी पाठक, देवी चौधरानी, कृपानाथ,
नुरुल मोहम्मद, पीताम्बर आदि के सामूहिक नेतृत्व में सफलतापूर्वक पूरे बिहार और
बंगाल में प्रेरित कर सके.[iii]
खासतौर पर मजनू शाह की
भूमिका बहुत महत्वपूर्ण थी. वह एक असाधारण योग्यता वाले संगठनकर्ता थे, एक महान
सेनानायक जो अपने से श्रेष्ठ ब्रिटिश फौजों से बेहद मुश्किल हालात में लड़े.
उन्होंने मेकेंजी के नेतृत्व वाली ब्रिटिश सेनाओं को कई बार पराजित किया.
एक अन्य युद्ध में कमांडर
कीथ पराजित हुआ और मारा गया. (1769)[iv]
फरवरी 1771 में
मजनू शाह लेफ्टिनेंट टेलर की सेना को झाँसा
देकर महास्थानगढ़ के जंगलों में अपने किले में स्वयं को सुरक्षित कर लिया. वहाँ से
वह ब्रिटिश राज के खिलाफ असंतुष्ट किसानों और शिल्पकारों को संगठित करने के लिए
चुपचाप बिहार निकल गए. यहाँ तक कि उन्होंने नातौर की रानी भबानी को मिल-जुल कर
फिरंगियों को देश के बाहर करने के लिए आग्रहपूर्ण अपील भी की. लेकिन उसका कोई असर
नहीं हुआ.
14 नवंबर 1776
मजनू शाह ने
अंग्रेज सेना को एक करारी शिकस्त दी. इस युद्ध में सैकड़ों अंग्रेज मारे गए और
लेफ्टिनेंट राबर्टसन बुरी तरह से घायल हुआ.[v]
लेकिन सन्यासियों और फकीरों की आपसी अनबन ने मंजूशाह के सामने एक गंभीर संकट खड़ा
कर दिया. इसके बावजूद उन्होंने इन मतभेदों
को सुलझाने की भरपूर कोशिश की और अपनी सेना को पुनर्गठित करने के लिए उसने पूर्णिया से लेकर जमालपुर पूरे उत्तरी बंगाल
में तक चक्कर लगाया.[vi]
२९ दिसंबर १७८६ को मंजूशाह
बागुरा जिले के मुंगरा गाँव में अचानक लेफ्टिनेंट ब्रेनन की सेना को झटका देने के
लिए प्रकट हुए.
मजनू शाह घायल हुए लेकिन हाथों में खुली तलवार लिए वह अपने घोड़े को आगे
बढाते रहे और किसी तरह से बच निकले. लेकिन इस बार वह एक अंजान गाँव मक्खनपुर में
इस घाव से हार गए. इस तरह अठारहवीं सदी के संन्यासी और फकीर आंदोलन के सबसे बड़े
नायक का अंत हुआ.[vii] उनकी मृत्यु के बाद आजादी का
संघर्ष उनके भाई और शिष्य मूसा शाह द्वारा आगे बढ़ाया गया.
बाद में भवानी पाठक और
देवी चौधरानी के १७८७ के शानदार प्रयासों को
मजनूशाह के अन्य शिष्यों फेरागुल शाह
और चेरागाली शाह की सहायता मिली. मेमनसिंह और रंगपुर के पास कई लड़ाइयों की शृंखला
में उन्होंने कंपनी की सेना को भारी क्षति पहुँचाई. रमजानी शाह और ज़हूरी शाह के
नेतृत्व में एक दूसरी टुकड़ी ब्रिटिश सेना का सामना करने आसाम गयी. लेकिन यहाँ फिर
एक बार अंदरूनी कलह के कारण उनकी हार हुई.[viii]
अंतिम दौर में शोभन अली,
अमुदी शाह और मोतीउल्ला ने अपनी सेना के पुनर्गठन का अंतिम प्रयास किया. लेकिन वे
हार गए और शोभन अली १७९७ में वहाँ से पलायित हो गए.[ix]
१७९९ में शोभन अली ने नेगु
शाह, बुद्धू शाह और इमाम शाह की सहायता से भूखे और शोषित किसानों को संगठित करने
और अपना आधार विस्तृत करने के सामूहिक प्रयास किये.[x]
१७९९ से १८०० के बीच
उन्होंने बोगुरा के घने जंगलों के बीच अपना आधार स्थापित किया. लेकिन जल्दी ही वे
आधुनिक हथियारों से सुसज्जित ब्रिटिश सेना द्वारा घेर लिए गए और फिरंगियों के
खिलाफ पहले विद्रोह का अंत हो गया.[xi]
अपनी असफलता के बावजूद फकीरों और सन्यासियों
का विद्रोह उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के भावी स्वतंत्रता संग्रामों, खासतौर पर
वहाबी और अग्नियुग के क्रांतिकारियों पर
जिन्हें आतंकवादी कहा जाता है, अमिट प्रभाव डाल गया.
- इस विद्रोह पर एक गंभीर विवेचन यहाँ
[i]
मेमरी आफ वारेन हेस्टिंग्स, ग्लेग़
[ii]
मोहम्मद हुसैन फौरी, देबीस्थान; जी एच
खान, सियर उल मुत्तखेरिम
[iii]
ग्लेग, वही
[iv]
रेनेल का जर्नल, फरवरी 1766
[v]
बोगरा के कलेक्टर को राबर्टसन का खत, १४
नवंबर १७७६
[vi]
बोर्ड आफ रेवेन्यू, कैनल, १४ मार्च, १७८०
[vii]
जैमिनी घोष, संन्यासी एंड फकीर रेडर्स,
पेज-२०८
[viii]
रंगपुर जिले के बारे में ग्लेजियर की
रिपोर्ट, पेज ४१
[ix]
३१ अक्तूबर, १७९९ को न्यायालय को लिखा गया
जूडिशियल जनरल का पत्र
[x]
गवर्नर जनरल को दीनापुर के मजिस्ट्रेट का
२० फरवरी १८०० को लिखा पत्र
[xi]
लेस्टर हचिंसन, द एम्पायर आफ द नवाब्स,
पेज ९२