आज सुबह ए के हंगल साहब की मृत्यु की खबर कला-संस्कृति से जुड़े प्रतिबद्ध लोगों के साथ उनके अनगिनत प्रशंसकों के लिए भी हृदय-विदारक थी. उनकी फिल्मों के बारे में जानने वाले कम ही लोग वामपंथ और इप्टा के साथ उनकी गहरी सम्बद्धता के बारे में जानते हैं. अभी एक मित्र ने फोन करके बताया की भगत सिंह की फांसी के बाद जो पहली श्रद्धांजलि सभा हुई, उसे हंगल साहब ने ही आयोजित किया था. आजादी की लड़ाई में वर्षों जेलों में बिताने वाले हंगल साहब अपने जीवन के अंतिम क्षणों में भी इप्टा के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे. जनपक्ष की ओर से उन्हें श्रद्धांजलि और लाल सलाम. हमारे अनुरोध पर राजस्थान प्रलेसं के राज्य सचिव साथी प्रेमचंद गांधी ने यह स्मृति लेख लिखा है.
एक वैचारिक निष्ठावान कलाकार का अंतिम प्रयाण
मध्य प्रदेश साहित्य सम्मेलन द्वारा शिवपुरी में आयोजित नाटक रचना शिविर, मई 1983 में राजेन्द्र रघुवंशी व ए. के. हंगल |
(अवतार कृष्ण हंगल जन्म 1 फरवरी 1917 निधन 26 अगस्त, 2012)
बहुत
से लोगों की तरह मैंने भी हंगल साहब को बरसों तक ‘शोले’ के रहीम चाचा के तौर पर एक
शानदार अभिनेता के रूप में ही जाना। शोले के वक्त मैं बहुत छोटा था, करीब दस बरस
की उम्र रही होगी। बहुत से पिताओं की तरह मेरे पिता भी सिनेमा को खराब और बच्चों
को बिगाड़ने वाला माध्यम मानते थे। इसलिये मैंने ‘शोले’ फिल्म को देखकर नहीं
सुनकर जाना। उन दिनों इस फिल्म के एलपी रिकॉर्ड हर जगह बजते रहते थे और मेरे जैसे
अनेक लोग फिल्म का सुनकर आनंद लेते थे। जो लोग फिल्म देख चुके होते थे, वे
किरदारों का बहुत खूबसूरती से बयान करते थे। इमाम साहब यानी रहीम चाचा के रोल में
हंगल साहब की दर्द भरी आवाज़ एक ऐसी कशिश पैदा करती थी कि रोंगटे खड़े हो जाते थे।
बाद में जब फिल्म देखी तो ठाकुर, गब्बर के अलावा जो किरदार सबसे ज्यादा याद रहा
वह हंगल साहब का ही था। फिल्म के उस दृश्य को देखकर, जिसमें पोते की मृत्यु पर
हंगल साहब का लाजवाब किरदार खामोशी में एक बूढ़े की लाचारगी को बयान करता है, मैं अक्सर रोने को हो जाता था
और आंखें डबडबाने लगती थीं। ये हाल कुछ बरस पहले तक रहा, जब टीवी पर वही दृश्य
देखा। कोई कलाकार किसी दृश्य को इस कदर जीवंत कर सकता है, यह हंगल साहब जैसे
लाजवाब अभिनेता के ही बस की बात थी। बाद में कई फिल्मों में उनका अभिनय देखा और
हर बार लगा कि शायद वही होते हैं जो अपने किरदार के साथ पूरा न्याय करते हैं,
बाकी तो जैसे अपना रोल निभाते हैं। शायद ही कोई किरदार हो, जो उन्होंने लाउड या
अंडरटोन में निभाया हो। वे हिंदी सिनेमा की चली आ रही अभिनय परंपराओं में इस लिहाज
से अलग हैं कि सबका अपना कोई स्कूल या कि परंपरा रही है, लेकिन हंगल साहब का अपना
ही स्कूल रहा, जो किरदार के मुताबिक चलता है। बिल्कुल स्वाभाविक और कथा के
अनुरूप।
मुझे
हिंदी सिनेमा के चरित्र अभिनेताओं में वे इसीलिये सबसे जुदा लगते हैं। परदे पर
उनकी मौजूदगी का ही मतलब था एक बेहद स्वाभाविक किरदार का होना, जो अपने छोटे या
बड़े रोल के कारण नहीं, हंगल साहब की अदायगी के कारण अपनी अलग छाप छोड़ जाता है। कभी
सोचा नहीं था कि ऐसे लाजवाब अभिनेता से कोई मुलाकात भी होगी। लेकिन संयोग से हंगल
साहब के साथ एक नहीं कई यादगार मुलाकातें हुईं और बाद की कुछ मुलाकातें तो ऐसी
रहीं कि वे नाम और काम से भी जानने लगे थे। इन मुलाकातों से ही जाना कि वे किस कदर
वैचारिक तौर पर एक बेहद मजबूत वामपंथी कलाकार थे, जिनके लिए इप्टा और पार्टी का
मतलब पूरी जिंदगी था। ऐसे वैचारिक तौर पर प्रतिबद्ध लोग सिनेमा की दुनिया में इनसे
पहले मेरे ख़याल से क़ैफ़ी आज़मी और बलराज साहनी थे। और भी नाम हो सकते हैं, जो
तत्काल में याद नहीं आ रहे। वैचारिक निष्ठा किस तरह एक कलाकार को विशिष्ट बनाती
है यह आप इन तीन महान कलाकारों के माध्यम से समझ सकते हैं। श्रेष्ठ विचार जब
आपके जीवन का अंग बन जाता है तो वह आपकी कला में भी वह गहराई लाता है जो आपकी
वैचारिकी को कला के माध्यम से जनता तक ले जाती है। कलाकार जिन किरदारों को जीता
है वे जीवन से ही निकले होते हैं और जितना गहरा एक कलाकार का जीवन का अध्ययन होता
है उतनी ही गहराई उसकी कला में अभिव्यक्त होने लगती है।
इप्टा
के जयपुर में 1992 में हुए राष्ट्रीय सम्मेलन के अवसर पर हंगल साहब से पहली
मुलाकात हुई थी। इसी सम्मेलन में उन्हें इप्टा का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया
गया था, क्योंकि क़ैफ़ी आज़मी साहब की तबियत बहुत खराब रहने लगी थी। सम्मेलन से
पहले एक बैठक में इप्टा और प्रलेस के लोगों की साझा मुलाकात थी। बेहद ख़ुशमिजाज
और हमेशा मुस्कुराकर अभिवादन करने वाले हंगल साहब से हाथ मिलाकर यूं लगा था, जैसे
अपने ही विचार के एक बड़े हमसफ़र से दोस्ताना हो गया। सर्दियों की एक शाम थी,
जिसमें हंगल साहब की खास पसंद का रसरंजन कार्यक्रम था और फिर सामूहिक भोजन। सम्मेलन
के सिलसिले में सब लोगों को साथ लेकर चलने और बेहतरीन सम्मेलन करने की उनकी खास
हिदायतें थीं और मिलना-जुलना। बहुत से पत्रकार मित्र भी थे उस शाम। कुछेक महीने
बाद भव्य और ऐतिहासिक सम्मेलन हुआ। रवींद्र मंच पर उनके और क़ैफ़ी आज़मी, शबाना
आज़मी और कई बड़े कलाकरों के साथ फोटो खिंचावने के लिए लालायित आम लोगों की बहुत
बड़ी संख्या थी। मंच से हंगल साहब ने घोषणा कर दी कि हम आप सबके साथ फोटो
खिंचवाएंगे, लेकिन एक शर्त पर... और शर्त यह कि आप लोगों को हर फोटो के लिए पांच
या दस रुपये देने होंगे और ये रुपये इप्टा के कोष में जमा होंगे। लोगों ने हंगल
साहब के इतना कहते ही जोरदार तालियां बजाईं और देखते ही देखते हजारों रुपये इकट्ठे
हो गये। लोकप्रियता को जनता के बीच, जनता के काम के लिए किस तरह इस्तेमाल किया जा
सकता है, इसका यह विरल उदाहरण है। इसी सम्मेलन में उन्होंने यह भी घोषणा की थी
कि उनकी आत्मकथा राजस्थान पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस से प्रकाशित होगी, जिससे
प्राप्त पूरी आय वे इप्टा को देंगे। 1994 में यह आत्मकथा ‘पेशावर से बंबई तक’
प्रकाशित हुई। मूलत: अंग्रेजी में लिखी इस किताब की हिंदी प्रस्तुति को लेकर मेरी
कुछ आपत्तियां थीं जो मैंने हंगल साहब को और प्रकाशक दोनों को लिख भेजी थी, बल्कि
लाल स्याही से निशान लगाकर एक प्रति तो प्रकाशक को ही दी थी कि इस गलत संस्कृतनिष्ठ
भाषा को सुधारा जाये। मेरा मानना था कि जिस व्यक्ति का एक लंबा जीवन उर्दू और
मुसलमानों के बीच गुज़रा हो, जिसकी शिक्षा ही उर्दू में हुई हो, उसकी आत्मकथा में
‘पिताश्री’ और ‘यौवनोद्रेक’ जैसे शब्दों से भरी हिंदी बहुत बुरी लगती है। हंगल
साहब का एक ख़त भी मेरे पास आया था, जिसमें उन्होंने भी मेरी बात से सहमति व्यक्त
की थी और प्रकाशक ने भी अगले संस्करण में इसे सुधार कर प्रकाशित करने की बात कही
थी। मेरे खयाल से यह किताब आज भी उसी रूप में बिक रही है। मुझे नहीं पता कि किताब
से प्राप्त आय का क्या हुआ।
बहरहाल
इसके बाद इप्टा के सम्मेलनों में उनसे एकाध मुलाकातें हुईं। लेकिन एक यादगार
मुलाकात उनके अपने शहर कराची में हुई। यहीं से उन्होंने इप्टा और वामपंथ का दामन
थामा था जो आखिरी सांस तक जारी रहा। सज्जाद ज़हीर जन्मशताब्दी के अवसर पर कराची
में एक आमसभा कराची प्रेस क्लब में रखी गई थी। हम 25 लोग सड़क मार्ग से कमला
प्रसाद जी के नेतृत्व में गये थे। हंगल साहब, सीताराम येचुरी और राज बब्बर के
साथ बांग्लादेश कम्युनिस्ट पार्टी के कॉमरेड चौधरी भी उस आमसभा में थे। जलसा
कम्युनिस्ट पार्टी के 80 साल पूरे होने का भी था। कराची के लोगों को हंगल साहब
से कितना प्यार था, यह उस दिन मालूम हुआ। करीब दो तीन हजार लोग वहां मौजूद थे और
सबके सब जैसे हंगल साहब को ही सुनने आये थे। हंगल साहब ने अपने भाषण से कराची
वालों का दिल जीत लिया। उन्होंने कराची में अपनी युवावस्था में किये गये
आंदोलनों का जिक्र किया, खास तौर पर टेलरिंग वर्कर्स यूनियन और उस दौर में कम्युनिस्ट
पार्टी की गतिविधियों का। वहीं उनकी सज्जाद ज़हीर से मुलाकात हुई थी। कराची के
लोगों को उनका बेतकल्लुफी भरा भाषण बहुत अच्छा लगा। अगले दिन तमाम अखबारों में
उनका ही जिक्र था। अपने भाषण में पुराने कराची शहर की गलियां, सड़कें और इमारतें
वो यूं गिना रहे थे कि कराची वालों को ताज्जुब हो रहा था कि कोई शख्स 88 साल की
उम्र में 65 साल पहले के शहर को यूं याद कर रहा है जैसे अभी भी वहीं रह रहा हो। सच
में उनकी याददाश्त कमाल की थी। लगभग 77
साल की उम्र में प्रकाशित उनकी आत्मकथा से भी आप अंदाज लगा सकते हैं कि वे कितनी
गहराई से अपने बचपन की घटनाओं को याद करते हैं।
हंगल
साहब मूलत: कश्मीरी पंडित परिवार से थे। उनके पिता और दादा अंग्रेज सरकार की
बेहतरीन नौकरियों में कमिश्नर और न्यायाधीश जैसे पदों पर रहे। लेकिन हंगल साहब
ने परिवार की परंपरा से अलग दर्जी का पेशा चुना और इसके लिए इंग्लैंड से
प्रशिक्षित कारीगर से प्रशिक्षण लिया। उन्होंने अपनी पहली कश्मीर यात्रा का रोचक
वर्णन अपनी आत्मकथा में किया है। वहां वे शेख अब्दुल्लाह की तारीफ करते हुए कश्मीर
के बारे में जो बात कहते हैं वह बहुत महत्वपूर्ण है। ‘’बिना किसी गहराई में जाए
मैं कश्मीरी मूल का होने के कारण सिर्फ इतना कहना चाहता हूं कि कश्मीर घाटी में
जो कुछ आज हो रहा है, उसे देखकर मैं बहुत दुखी हूं। कभी-कभी मैं यह सोचने पर मजबूर
हो जो जाता हूं कि कश्मीर घाटी की यह हालत उसकी गहरी उपेक्षा और ग़लत नीतियों के
कारण हुई है।‘’
हंगल
साहब न केवल एक गहरे विचारशील कम्युनिस्ट थे, बल्कि प्राणपण से बेहद समर्पित
राष्ट्रभक्त भी थे। पेशावर में बचपन में जिस स्कूल में पढ़ते थे वहीं से उन्होंने
क्रांतिकारियों के आंदोलन में सहयोग करना शुरु कर दिया था। बाद में अंग्रेज सरकार
के सतत विरोध और श्रमिक व कम्युनिस्ट आंदोलन के कारण उन्हें कराची और हैदाराबाद
की जेलों में भी सजा भुगतनी पड़ी। लेकिन वे हर हाल में अपने विचारों पर
दृढ़प्रतिज्ञ रहे और यही उनकी सबसे बड़ी पूंजी रही। उनकी आत्मकथा से उनके जीवन के
ऐसे अनेक प्रसंगों का पता चलता है, जिनमें एक साधारण आदमी शायद हालात से समझौता कर
लेता लेकिन हंगल साहब ने जिंदगी में कोई समझौता कभी नहीं किया।
वे
इप्टा और सभी सांस्कृतिक व राजनैतिक आंदोलनों में नई पीढ़ी को आगे लाने के ही
नहीं नेतृत्व भी उनके हाथों में देने के प्रबल पक्षधर थे। उनसे मेरी आखिरी
मुलाकात मुंबई में सज्जाद ज़हीर जन्मशताब्दी समारोह के समापन के अवसर पर हुई
थी। मुंबई में तो उनसे सिर्फ औपचारिक मुलाकात ही हुई थी। लेकिन इससे पहले 2006 में
एक मुलाकात हैदराबाद में इप्टा और प्रलेस की संयुक्त कार्यशाला में हुई थी। वहां
भी वे लगातार इसी बात पर जोर दे रहे थे कि अब हम लोगों का काम नई पीढ़ी को
मार्गदर्शन देना भर रह गया है और एक सशक्त सांस्कृतिक आंदोलन के लिए ज़रूरी है
कि नये लोग आएं और आंदोलन को आगे ले जाएं। वहां एक दिन करीब आधे घंटे तक नितांत व्यक्तिगत
बातचीत में भी उन्होंने इस बात पर गहरा दुख व्यक्त किया था कि ये बूढ़े लोग सब
जगह अपना हक़ जमाये बैठे हैं, इनसे मुक्ति पाए बिना आंदोलन को आगे नहीं ले जाया जा
सकता। हालांकि वे खुद को कभी बूढा नहीं मानते थे और हमेशा बेहद चुस्त-दुरुस्त और
सजग नज़र आते थे।
वे
वैचारिक तौर पर किस हद तक वामपंथी राजनीति और विचार के प्रति गहरे निष्ठावान थे,
यह बात उनके ‘ओपन’ पत्रिका में अप्रेल, 2012 में प्रकाशित उनके आखिरी साक्षात्कार
से पता चलती है। इस साक्षात्कार में वे पटना में संपन्न कम्युनिस्ट पार्टी के
राष्ट्रीय सम्मेलन के बारे में पार्टी महासचिव से निरंतर संवाद करते हैं और
ताजातरीन हालचाल का ब्यौरा लेते रहते हैं। वे अपनी उम्र के आखिरी पड़ाव पर भी
अभिनय करते रहे। पिछले दिनों ही उन्होंने टीवी धारावाहिक ‘मधुबाला’ में अभिनय कर
साबित कर दिया था कि वे तमाम तरह की शारीरिक बाधाओं से ऊपर जाकर अपनी कला के प्रति
बेहद समर्पित कलाकार हैं। ऐसे निष्ठावान कलाकार का जाना एक बहुत बड़ा शून्य पैदा
करता है।
कामरेड हंगल को क्रांतिकारी नमन!
जवाब देंहटाएंकॉमरेड ए.के.हंगल ज़िन्दाबाद ।
जवाब देंहटाएं'शायद ही कोई किरदार हो, जो उन्होंने लाउड या अंडरटोन में निभाया हो। वे हिंदी सिनेमा की चली आ रही अभिनय परंपराओं में इस लिहाज से अलग हैं कि सबका अपना कोई स्कूल या कि परंपरा रही है, लेकिन हंगल साहब का अपना ही स्कूल रहा, जो किरदार के मुताबिक चलता है। बिल्कुल स्वाभाविक और कथा के अनुरूप..'
जवाब देंहटाएंमैं हेंगल साहब को सहज-अभिनय परंपरा में मोतीलालजी , बलराज साहनी साहब के साथ रखता हूँ ...किरदार को बगैर लाउड हुए संजिंदगी के साथ जीने वाले ..
मैंने उन्हें एक बार दिल्ली में एक कार्यक्रम में सुना था ...हालांकि उन्हें उस समय बिमारी घेरे थी लेकिन उनके कामरेडी तेवर सुन में अभिभूत हो गया था
आज प्रेमचंद भाई का ये सरल भाषा में बेहतरीन श्रद्धांजलि लेख पढकर आखें नम हो गई हैं ..
हेंगल साहब को मेरा लाल सलाम
bahut badiya lekh hai hangal sahab par.....ek rajnetik roop se pratibadh aur samarpit kalakar ka jeevan.kala aur vichardhara ke prti nazariya..aandolandharmita aur zindadili...ek shandaar aur bemisal vayaktitva....lekh ke liye lekhak ko aur hum tak pahunchane ke liye aapka abhar.
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जवाब देंहटाएंहंगल साहब को देखकर आश्चर्य होता था कि कैसे एक व्यक्ति इतनी उम्र में भी सक्रिय रह सकता है. शायद उनकी सक्रियता का कारण उनका जीवन को लेकर एक बड़ा उद्देश्य था, उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता थी, जो उनमें ऊर्जा भर देती थी. आज की पीढ़ी के युवाओं को उनसे सबक लेना चाहिए.
जवाब देंहटाएंहंगल साहब को हार्दिक श्रद्धांजलि !
बहुत उपयुक्त प्रेमचंद जी.
जवाब देंहटाएंआपके लेख के माध्यम से हंगल साहब के बारे मे बहुत कुछ जानने को मिला...धन्यवाद प्रेमचंद जी...अशोक जी आपको भी बहुत धन्यवाद...हंगल साहब को नमन और श्रद्धांजलि....
जवाब देंहटाएंप्रेमचंद गाँधी जी को बहुत बहुत आभार इस विस्तृत आलेख के लिए...
जवाब देंहटाएंहंगल साहब को नमन... भगवान उनकी आत्मा को शान्ति दे.....
आज सचमुच सन्नाटा पसर गया है..
जवाब देंहटाएंअलवर इप्टा ने एक मीटिंग कर हंगल साहिब को श्रधान्जली अर्पित की है..
एक मेहनत कश इन्सान ने अंतिम सांस ले ली है..
व्यक्तिगत मेरी भी बहुत बड़ी हानि है.. /
फैज़ अहमद के शब्दों को दोहरा लेते है..
" हम मेहनतकश जग वालों से जब अपना हिस्सा मांगेगे..
इक खेत नहीं इक देश नहीं हम सारी दुनिया मांगेगे ...
जो खून बहे जो बाग़ उजड़े जो गीत दिलों में क़त्ल हुए
हर कतरे का हर गूंचें का हर गीत का बदला मांगेगे..
जब सब सीधा हो जाएगा जब सब झगडे मिट जायेंगें
हम मेहनत से उपजावेंगे बस बाँट बराबर खायेंगें.."
लाल सलाम हंगल साहिब... /
lal salaam
जवाब देंहटाएंबेहद जानकारीपूर्ण आलेख ...श्रद्धांजलि हंगल साहब को !!...प्रेमचंद जी को हार्दिक बधाई और अशोक जी को शुक्रिया
जवाब देंहटाएंहंगल साहब जैसे प्रतिबद्ध और उम्दा इंसान का इस दुनिया से जाना हम सबके लिए एक बड़ी क्षति है ...आपका यह स्मृति लेख हंगल साहब के जीवन के कई पहलुओं को हमारे सामने लाता है ...उन्हें हमारी विनम्र श्रद्धान्जली और आपका इस लेख के लिए आभार
जवाब देंहटाएंप्रेम जी, यह बहुत संतुलित और अवसरानुकूल आलेख है. आपका आभार और हंगल साहब को लाल सलाम!
जवाब देंहटाएंकामरेड हंगल की याद में एक शानदार लेख ! साथी प्रेमचंद गाँधी का आभार ! मेरी श्रद्धांजलि और लाल सलाम !
जवाब देंहटाएंकामरेड हंगल के साथ एक पूरा युग समाप्त हो गया. आपने बहुत बढ़िया लिखा है संग्रहणीय है यह लेख. लाल सलाम ..||
जवाब देंहटाएंपढ़कर अच्छा लगा.
जवाब देंहटाएंएक सुधार का अनुरोध: ए. के. हंगल साहेब जयपुर में आयोजित इप्टा के राष्ट्रीय सम्मेलन में इप्टा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नहीं चुने गए थे. आवामी शायर व इप्टा के राष्ट्रीय अध्यक्ष कैफ़ी आजमी के आकस्मिक निधन के बाद ए. के. हंगल साहेब को इप्टा का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया था.