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शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010

रघुवीर सहाय की तीन और कविताएं

9 दिसम्‍बर को रघुवीर सहाय जी का जन्‍मदिन था। कल भाई अशोक ने रघुवीर जी की कुछ कविताएं लगाईं थीं। मैं कविता कोश के सौजन्‍य से तीन और कविताएं यहां प्रस्‍तुत कर रहा हूं। कहते हैं कि कवि अपने समय से आगे की बात भी सोचता है। रघुवीर जी इसी माह की 30 तारीख को 1990 में इस दुनिया से चले गए। उनकी ये कविताएं हमारे समय को परिभाषित करती हुई इस बात को साबित करती हैं। - राजेश उत्‍साही


राष्ट्रगीत में भला कौन वह
भारत-भाग्य-विधाता है
फटा सुथन्ना पहने जिसका
गुन हरचरना गाता है।
मखमल टमटम बल्लम तुरही
पगड़ी छत्र चंवर के साथ
तोप छुड़ाकर ढोल बजाकर
जय-जय कौन कराता है।
पूरब-पश्चिम से आते हैं
नंगे-बूचे नरकंकाल

सिंहासन पर बैठा ,उनके
तमगे कौन लगाता है।
कौन-कौन है वह जन-गण-मन
अधिनायक वह महाबली
डरा हुआ मन बेमन जिसका
बाजा रोज बजाता है।



हँसो हँसो जल्दी हँसो

हँसो तुम पर निगाह रखी जा रही जा रही है
हँसो अपने पर न हँसना क्योंकि उसकी कड़वाहट पकड़ ली जाएगी
और तुम मारे जाओगे
ऐसे हँसो कि बहुत खुश न मालूम हो
वरना शक होगा कि यह शख़्स शर्म में शामिल नहीं
और मारे जाओगे

हँसते हँसते किसी को जानने मत दो किस पर हँसते हो
सब को मानने दो कि तुम सब की तरह परास्त होकर
एक अपनापे की हँसी हँसते हो
जैसे सब हँसते हैं बोलने के बजाए

जितनी देर ऊँचा गोल गुंबद गूँजता रहे, उतनी देर
तुम बोल सकते हो अपने से
गूँज थमते थमते फिर हँसना
क्योंकि तुम चुप मिले तो प्रतिवाद के जुर्म में फँसे
अंत में हँसे तो तुम पर सब हँसेंगे और तुम बच जाओगे

हँसो पर चुटकलों से बचो
उनमें शब्द हैं
कहीं उनमें अर्थ न हो जो किसी ने सौ साल साल पहले दिए हों

बेहतर है कि जब कोई बात करो तब हँसो
ताकि किसी बात का कोई मतलब न रहे
और ऐसे मौकों पर हँसो
जो कि अनिवार्य हों
जैसे ग़रीब पर किसी ताक़तवर की मार
जहाँ कोई कुछ कर नहीं सकता
उस ग़रीब के सिवाय
और वह भी अकसर हँसता है

हँसो हँसो जल्दी हँसो
इसके पहले कि वह चले जाएँ
उनसे हाथ मिलाते हुए
नज़रें नीची किए
उसको याद दिलाते हुए हँसो
कि तुम कल भी हँसे थे !


आने वाला खतरा

इस लज्जित और पराजित युग में
कहीं से ले आओ वह दिमाग़
जो ख़ुशामद आदतन नहीं करता

कहीं से ले आओ निर्धनता
जो अपने बदले में कुछ नहीं माँगती
और उसे एक बार आँख से आँख मिलाने दो
जल्दी कर डालो कि फलने फूलने वाले हैं लोग

औरतें पिएँगी आदमी खाएँगे
एक दिन इसी तरह आएगा
कि किसी की कोई राय न रह जाएगी
क्रोध होगा पर विरोध न होगा
अर्जियों के सिवाय
खतरा होगा खतरे की घंटी होगी
और उसे बादशाह बजाएगा।

गुरुवार, 9 दिसंबर 2010

रघुवीर सहाय के जन्मदिन पर

(आज रघुवीर सहाय का जन्मदिन है...इस अवसर पर उनकी कुछ स्त्री और प्रेम विषयक कवितायें )
औरत की ज़िंदगी 
कई कोठरियाँ थीं कतार में
उनमें किसी में एक औरत ले जाई गई
थोड़ी देर बाद उसका रोना सुनाई दिया

उसी रोने से हमें जाननी थी एक पूरी कथा
उसके बचपन से जवानी तक की कथा


चढ़ती स्त्री
बच्चा गोद में लिए
चलती बस में
चढ़ती स्त्री


और मुझमें कुछ दूर घिसटता जाता हुआ।

पढ़िए गीता
पढ़िए गीता
बनिए सीता
फिर इन सब में लगा पलीता
किसी मूर्ख की हो परिणीता
निज घर-बार बसाइये।


होंय कँटीली
आँखें गीली
लकड़ी सीली, तबियत ढीली
घर की सबसे बड़ी पतीली
भरकर भात पसाइये।


हम दोनों

(बट्टू जी के लिए)

हम दोनों अभी तक चलते-फिरते हैं
लोगबाग़ आते हैं हमारे पास
हम भी मिलते-जुलते रहते हैं
एक हौल बैठ गया है मगर मन में
कि यह सब बेकार है
हममें से किसी को न जाने कब
जाना पड़ जा सकता है
हम दोनों अकेले रह जाने को
तैयार नहीं।

(बट्टू जी यानी कवि-पत्नी विमलेश्वरी सहाय)

नारी 
नारी बिचारी है
पुरूष की मारी है
तन से क्षुधित है
मन से मुदित है
लपककर झपककर
अन्त में चित है

जब मैं तुम्हे


जब मैं तुम्हारी दया अंगीकार करता हूँ
किस तरह मन इतना अकेला हो जाता है?


सारे संसार की मेरी वह चेतना
निश्चय ही तुम में लीन हो जाती होगी।


तुम उस का क्या करती हो मेरी लाडली--
--अ‍पनी व्यथा के संकोच से मुक्त होकर
जब मैं तुम्हे प्यार करता हूँ।