फुटपाथ के मल-मूत्र में डूबे हिस्से पर
अगर एक आदमी
अपने स्वप्न की गठरियां सजाता है
रात ढले
और चांदनी बिखरने लगती है
उससे फूटती उबकाई पर
और आखिरकार मुंह बाएं
सो जाता है वह
और यह दृश्य देख हम होश में हैं
तो तय है
कि हमें होश में रहने की बीमारी है
कौन डरता है यहां पागल हो जाने से
आपका एक अपना जब
आधी रात को
छोड जाता है आपको
भटकने को प्लेटफार्म पर
और चांद के धब्बे निहारते
आप बिता देते हैं बाकी रात
कौन डरता है यहां पागल हो जाने से
अगर एक लफंगा
हीरे की अंगूठी की चमक को
अपनी आंखों की चमक पर
तरजीह देता
इतराता है
अपने बिकाउ या सेलीब्रिटी हो जाने पर
कौन डरता है यहां पागल हो जाने से
लोग जब रहे नहीं
ना रहा दुख
ना रही भाषा
बस प्रत्याशा रह गयी
विज्ञापनों में कूकती
कौन डरता है यहां पागल हो जाने से।
बेहद संवेदनशील कविता है…
जवाब देंहटाएंक्या बात है , लाजवाब भाव दिखा आपके इस रचना में ।
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