न तो हुसैन को किसी परिचय की दरकार है न तस्लीमा को।
पिछले दिनों जब हुसैन साहब ने क़तर की नागरिकता स्वीकार की तो जो तूफ़ान चाय के प्याले में आया उसमें सबसे बड़ी बात यह रही कि हुसैन के ख़िलाफ़ ज़हर उगलने वालों को तस्लीमा की याद बहुत आयी। सब हुंकार रहे थे कि हुसैन के समर्थक तस्लीमा के वक़्त कहां थे! मानों ये हुंकार लगाने वाले तो तस्लीमा के साथ हैं लेकिन जो हुसैन के साथ हैं वे सिर्फ़ इसी बात की वज़ह से तस्लीमा के ख़िलाफ़ हैं। वैसे इस आग को हवा तस्लीमा के उस लेख से भी मिली जिसमें उन्होंने अपनी तुलना हुसैन या फिर रश्दी से किये जाने पर सख़्त एतराज़ जताया था।
लेकिन क्या वास्तव में हुसैन का समर्थन आपको तस्लीमा का विरोधी बना देता है? कम से कम हमें तो ऐसा नहीं लगता। तस्लीमा सहित लोगों का आरोप है कि हुसैन अपनी लड़ाई ख़ुद नहीं लड़ते, वे नास्तिक नहीं आस्थावान हैं, उन्हें सुविधायें मिलीं हैं और वे बाज़ार के हिस्सा हैं। यह एक हद तक सच भी है। लेकिन क्या अभिव्यक्ति की आज़ादी के हित में लड़ने के लिये हमें कलाकार का पार्टी कार्ड देखना होगा? क्या एक अंतर्मुखी और संकोची कलाकार को अपनी अभिव्यक्ति का अधिकार नहीं है? क्या एक नब्बे साल के वृद्ध और एक युवा से समान संघर्ष क्षमता की उम्मीद उचित है? क्या तमाम जनपक्षधर लोग किसी कलाकार का साथ इसलिये नहीं देंगे कि वह उन्हीं की तरह नास्तिक नहीं है? क्या यह एक तरह की तानाशाही नहीं है? हमारा मानना है कि हुसैन की पक्षधरता अभिव्यक्ति के व्यापक अधिकार और लोकतांत्रिक मूल्यों कि रक्षा से जुड़ी है। आप उनसे सहमत या असहमत हो सकते हैं पर इसकी अभिव्यक्ति उन पर हमले कर के या फिर उनकी तस्वीरें फाड़कर नहीं होनी चाहिये। अगर देश के संविधान में आस्था देशभक्ति का प्रमाण है तो कोर्ट के स्पष्ट फैसले के बाद उनके ख़िलाफ़ घटिया आक्षेप लगाने वाले क्या कहे जाने चाहिये। कोर्ट के फ़ैसले के बारे में विस्तार से जानने के लिये पढ़िये रवि कुमार रावतभाटा की पोस्ट
हमारा स्पष्ट मानना है कि इन्हीं आधारों पर तस्लीमा को भी अभिव्यक्ति की पूरी आज़ादी मिलनी ही चाहिये। एक लेखक और कार्यकर्ता के तौर पर उनका संघर्ष अनुकरणीय है। इस्लाम और हिन्दुत्व दोनों के कट्टरपंथ पर जिस तुर्शी से उन्होंने हमला किया है वह कुछ अतियों और बड़बोलेपन के बावज़ूद शानदार है और हम उसे सलाम करते हैं लेकिन साथ ही उन्हें हिन्दू कट्टर्पंथियों के अपना मुहरा बनाये जाने की कोशिशों पर सावधान भी करना चाहते हैं। उनके साहित्यिक लेखन का स्तर उनके इस जुझारुपन पर कोई नकारात्मक प्रभाव नहीं डालता और इस आधार पर उनके संघर्षों को नकारा नहीं जा सकता। इसीलिये उनके भारत से निष्काषन को हम सही नहीं मानते।
दुनिया के इस दूसरे बड़े लोकतंत्र में अलग-अलग विचारों के लोगों को अपनी अभिव्यक्तियों तथा असहमतियों के साथ रहने का अधिकार होना ही चाहिये।
सहमत हूं आपसे…यह ब्लाग निश्चित रूप से प्रगतिशील चेतना का संवाहक बनेगा। अजय कुमार
जवाब देंहटाएंसहमति,असहमति कहीं भी हो सकती है...विरोध जताने को भी सब स्वतंत्र हैं लेकिन जो तस्वीर आपने लगायी है....विरोध का यह ढंग कभी भी स्वीकार्य नहीं हो सकता..
जवाब देंहटाएंjamakar likhaa hai. jaaree rakhe
जवाब देंहटाएंrgards manik
अभिव्यक्ति की आजादी मौलिक अधिकार है। उस की रक्षा होनी ही चाहिए।
जवाब देंहटाएंदिनेश जी से सहमत।
जवाब देंहटाएंजनपक्ष की यह संयुक्त पहल अच्छी लगी,बातों को एकजुटता और तकत के साथ रखना आज जरूरी हो गया है
जवाब देंहटाएंआपत्ति तब होती है जब गैर-जरूरी तौर पर तसलीमा को हल्का और हुसैन को महान बताया जाता है। दोनों की तुलना करना ठीक नहीं है। कोई तुलना करने पर ही उतारू हो जाए तो मैं सदैव लेखक के साथ रहुंगा।
जवाब देंहटाएंअभिव्यक्ति की आज़ादी क्या है पहले यह जानलें--------यदि यह कुछ भी कहने-लिखने की आज़ादी है तो फ़िर हम आतन्कवादी साहित्य, देश व समाज-विरोधी साहित्य व अभिव्यक्ति को क्यों रोकते हैं, फ़िर सामाजिकता-असामाजिकता में क्या अन्तर है...
जवाब देंहटाएं---अभिव्यक्ति की आज़ादी तभी तक है,जब तक देश-समाज में सम्मिलित अन्य तबकों,व समाज के संरचना को ठेस नहीं पहुंचती...
----आप तभी तक आज़ाद हैं जब तक आप अन्य की आज़ादी का हनन नहीं करते..
---इस प्रकार हुसैन व तस्लीमा निश्चय ही अभिव्यक्ति की आज़ादी में नहीं आते..
यह तय करने का अधिकार आपको किसने दिया हैं? क्या कानून आपकी 'भावनाओं' के अनुरूप काम करेगा?
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