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सोमवार, 15 मार्च 2010

गुड खाएं और सैम संग गुलगुले भी

( सैमसंग पुरस्कार मुद्दे पर यह आलेख भाई कुमार मुकुल के ब्लाग कारवां से साभार)



नामवर सिंह का कथन है-‘नेहरू की दृष्टि में संस्कृति एक ‘एलीटिस्ट’ अवधारणा थी और उन्होंने रवींद्रनाथ की परंपरा में ही भद्रवर्गोचित अकादमियों की स्थापना की।’ अब भद्र वर्ग अंकल सैम के संग गुलगुले खाए या टाटा बिड़ला संग, कोउ नृप होहीं हमैं का हानि...। सब जानते हुए नामवर ही कहां परहेज कर सके। अब तमाशा हो रहा है, सब लगे हुए हैं, निष्ठा की तुक बिष्ठा से मिलाने में। गुड़ की तुक गुलगुले, से कुल्हड़ की हुल्लड़ से, जहां जो मिल जाये बिना हर्रे फिटकरी के रंग चोखा करते चलिए।

जब सैमसुंग पुरस्कार की बात सुनी तो इस अदने से कवि पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुयी, अब कोई ज्ञान को पीठ दिखा रहा, कोई सैम के चरण चूम रहा तो अपन को क्या...। अपन कहां मैटर करता है...। अपन सैमसंग या ज्ञानपीठ के लिए तो पढता लिखता नहीं। पर तार्किक तौर पर जब युवा लेखक जमात ने विरोध करने की ठानी तो लगा कि यह सही ही है। पहले विरोध की जगह ओबेराय होटल थी फिर हम साहित्य अकादमी परिसर के बाहर जमा हुए। अब राजकिशोर जी की बहस इसी पर है कि हमारे सर क्यों नहीं फूटे। पहली तो भैया हम वहां सिर फोडवाने गये नहीं थे,हमारा उद्देश्य था अपनी बातों को लोगों तक ले जाना, हमने वहां पर्चे बांटे ,उपस्थित लेखकों ने अपनी बातें रखीं फिर हम वापिस आ गये। हां पुलिस वहां थी हमसे तिगुनी संख्यां में, चूंकि धारा 144 लागू थी 26 जनवरी की तैयारी के तहत। पुलिस वालों को हमारे भाषणों में ना काम की चीजें मिलीं ना नुकसान की, सो वे घूम घाम कर चले गए। अब इतनी सी बात पर आपको परीलोक हो आने का मन हो या किसी पूर्व पुलिस अधिकारी के हरम का मुआयना करने का, आपको कौन रोक सकता है...। एक तो हरम आपकी नजरों के सामने अस्तित्व में आया है और यह कहां की बात हुयी कि वहां जाकर आप अप्रसन्न हों तो यह का्रंतिकारी काम हुआ और प्रसन्न हों तो गलाजत का ...। भईआ हरम में जाने की जरूरत ही क्या है...। फिर हबीब तनवीर भी उसी हरम थे ...।

अब राजकिशोर जी का कहना है कि सामसुंग का चुंकि मानववाद से कुछ लेना देना नहीं है इसलिए उसे टैगोर के नाम का इस्तेमाल करने से बचना चाहिए था। सैमसुंग को बचाने की यह निराली अदा कुछ समझ में नहीं आयी। जिसका मानववाद से संबंध ही नहीं हो उसके दिमाग में यह नेक ख्याल लाने के भोले ख्याल पर तरस ही खाया जा सकता है। राजकिशोर इससे पहले लिखते हैं कि सामसुंग और अकादेमी को पुरस्कार देना ही था तो बीच में टैगोर जैसे महान लेखक को नहीं लाना चाहिए था। आखिर , बीच में किसी घटिया लेखक को ही क्यों लाना चाहिए था। मतलब राजकिशोर जी को अकादेमी और सैमसुंग के मिलन पर आपत्ती नहीं, उन्हें टैगोर के नाम को धूमिल करने पर रोष है। एक ओर राजकिशोर अकादेमी के तौर तरीके को घटिया बताते हैं दूसरी ओर उसे सलाह देते हैं कि एक व्यावसायिक कंपनी के चक्कर में उसे नहीं पडना चाहिए था। जब वह घटिया है तो फिर उसके चक्करों का इतना चक्कर क्यों लगाना है...छोडिए उसे। पर राजकिशोर जी की चिंता है कि अकादेमी ने सैमसुंग से घटिया लेखकों को पुरस्कृत करवा कर उसे ब्लैकहोल में फेंक दिया है। तो राजकिशोर जी की मूल चिंता सैमसुंग के होल में जाने की है। अब क्या करेंगे राजकिशोर भी, इसी कागज रंगने की नौकरी है सो रंगना तो है...।

मूलतः राजकिशोर जी की चिंताएं दूसरी हैं उन्हें दुख है कि तीन दशकों से मार्क्सवाद हिंदी की आफिशियल विचारधारा क्यों बनी है ...। वे लिखते हैं कि पंद्रह हजार के पुरस्कारों के लिए लोग कुत्तों की तरह भागते हैं। यह कौन सी भाषा है राजकिशोर जी। वैसे आदमी कोयल की तरह गाता है सिंह की तरह ताकतवर होना चाहता है बैल की तरह मजबूत होना चाहता है तो लालची वह कुत्ते की तरह ही होगा... इस पर रोष कैसा...। आदमी के आदमी की तरह होने की बात कभी दिमाग में आती ही नहीं...। वैसे लेखक तो ऐसे भी हैं जो पुरस्कार की राशि देकर भी उसे अपने नाम से करने से नहीं चूकते।

अब जहां तक गुड गुलगुले और परहेज की बात है तो गुड गुलगुला नहीं है। मुहावरे हमेशा सीधी सादी जनता को चुप कराने के लिए गढे जाते हैं। गुड खाने वाला गुलगुले से परहेज करेगा ही। अब किसी को चिकनाई से परहेज हो तो आपका क्या जाता है। अब कहिए कि हरी मिर्च खाते हैं तो लाल भी खाइए अब इस अंतर को समझना हो तो पाइल्स के मारे बंदों के पास जाइए।

अब शंभुनाथ जी कि चिंता है कि यह विरोध विलासी है तो भइया असली विरोध आप जताइए ना, आप गुड गुलगुले दोनों खा रहे हैं, अब बेचारा परहेजी कहां तक विरोध करे। उसकी इतनी चिंता ही क्यों। अब यह क्या बात हुयी कि कोई कुछ करना चाहे तो आप लगिए सवाल करने कि आपने यह क्यों नहीं किया। कि बहुराष्ट्रीय का हमला नजर आ रहा राष्ट्रीय का घपला नहीं दीखता। कुछ दीख तो रहा है, पहले वह भी कहां दीखता था। आप क्यों केवल देखने वालो को देखने में लगे हैं। कुछ दिखा डालिए आप भी।

साहित्य अकादमी और सर्वोत्कृष्टता का मसला भी जमता नहीं। अकादेमी उत्कृष्टता की कसौटी कहां है। वह प्रचार की कसौटी है बस। इस मुल्क में दर्जनों सर्वोत्कृष्ट हमेशा एक साथ रहते हैं,सबको पुरस्कृत करना कब किसके लिए संभव है, फिर वे शायद उत्कृष्ट काम कर भी ना सकें।

कुलमिलाकर हमें सचेत हो जाना चाहिए इस सैमसुंगी हमले से। बच्चन की कविता की पैरोडी करते हुए कहें तो-

   तुम बाजार समझ पाओगे...

   तोड मरोड मृदु लतिकांए

   नोच खसोट कुसुम कलिकाएं

   जाता है न्यूयार्क दिशा को

   इसका गान समझ पाओगे...।
 
-- कुमार मुकुल ( आज समाज में प्रकाशित)

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