एक शाम
एक शाम
जब बैल आते हैं
हल से खुलने के बाद
नाद पर
हर पहचानी शाम की तरह
और शहर का बाबू
अपने उदास कमरे मे।
एक शाम
जब डाइनिंग टेबल पर
होती हैं बहसें
जनमत और जनतंत्र पर।
एक शाम
जब आंगन में पड़ा चूल्हा
उदास रोता है
और
एक शाम आती है
वीरान गांवों में
आतंक और चुप्पी के साथ।
साहस
सागर का तट
छोटा पड़ जाता है
जब फैलाता हूं अपनी बांहें
सिमट आता है सारा आकाश
पर
आ नहीं पाता
बांह की परिधि में
अंदर का साहस। राजूरंजन प्रसाद
साहस रचना दिल में उतर गई.
जवाब देंहटाएंसिमट आता है सारा आकाश
जवाब देंहटाएंपर
आ नहीं पाता
बांह की परिधि में
अंदर का साहस
बहुत ही ओजपूर्ण कविता...
behtareen... inka blog "kaarwan" bhi main padhta hoon... shukriya.
जवाब देंहटाएंसिमट आता है सारा आकाश
जवाब देंहटाएंपर
आ नहीं पाता
बांह की परिधि में
अंदर का साहस।
Bahut khoob!
दोनों कविता अच्छी..सोचने को विवश करती हैं
जवाब देंहटाएंदोनों रचनायें अच्छी और सच्ची लगी । आभार
जवाब देंहटाएंगुलमोहर का फूल
हिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और बधाई
जवाब देंहटाएंकृपया अन्य ब्लॉगों को भी पढें और अपनी बहुमूल्य टिप्पणियां देनें का कष्ट करें
kaarva kumar mukul ka blog hai
जवाब देंहटाएंraju jika nahi
इस नए चिट्ठे के साथ हिंदी ब्लॉग जगत में आपका स्वागत है .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!
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