एरिक हाब्सवाम का एक साक्षात्कार पिछले पांच दशकों से लंदन से निकल रही मार्क्सवादी विमर्श की बहुचर्चित पत्रिका ‘न्यू लेफ्ट रिव्यू’ के जनवरी–फरवरी 2010 के ताजा अंक में प्रकाशित हुआ है। 1991 में हाब्सवाम की प्रसिद्ध पुस्तक‘आत्यांतिकताओं का युग’ (एज आफ एक्सट्रीम्स) प्रकाशित हुई थी। उसके दो दशक बाद की दुनिया की परिस्थिति का बयान करते हुए अपने इस साक्षात्कार में हाब्सवाम ने शुरू में आज की दुनिया में उनके द्वारा लक्षित पांच परिवर्तनों को गिनाया है।
उसके बाद ही जब उनसे पूछा गया कि इनके अलावा इस दौरान और किन चीजों ने उन्हें अचम्भित किया तो उन्होंने तीन बातों का उल्लेख करते हुए कहा कि मैं आज तक उस नवअनुदार प्रकल्प के शुद्ध पागलपन पर अचंभित हूँ जिसने सिर्फ इस बात का झूठा दावा ही नहीं किया था कि भविष्य अमेरिका है,बल्कि उसने यह भी सोचा था कि इस लक्ष्य को हासिल करने के लिये उसने एक पूरी रणनीति और कार्यनीति तैयार कर ली है। जहां तक मुझे नजर आता है, तर्कसंगत अर्थ में, उनके पास कोई युक्तिपूर्ण रणनीति नहीं थी।
उन्होंने दूसरा, काफी मामूली लेकिन उल्लेखनीय आश्चर्य, जलदस्युओं की वापसी को बताया, जिसे हम काफी हद तक भूल चुके थे,यह नयी बात है। और इसी सिलसिले में उन्होंने और भी ज्यादा ‘स्थानीय’ जिस तीसरे आश्चर्य का जिक्र किया वह था, पश्चिम बंगाल में सीपीआई(एम) का पतन, जिसकी मैंने सचमुच उम्मीद नहीं की थी।
इसके साथ ही हाब्सवाम ने वे बातें कही जिन्हें ‘टेलीग्राफ’ ने खबर बनाया है कि सीपीआई (एम) के महासचिव प्रकाश करात ने मुझसे हाल में कहा कि पश्चिम बंगाल में वे खुद को संकट में तथा घिरा हुआ पाते हैं। स्थानीय चुनावों में नयी कांग्रेस के हाथों वे करारी शिकस्त देख पा रहे हैं। यह हाल तीस वर्षों तक एक राष्ट्रीय पार्टी के रूप में शासन करने के बाद है। किसानों से जमीन लेकर चलायी गयी औद्योगीकरण की नीति का काफी बुरा प्रभाव पड़ा है, और यह साफ तौर पर एक भूल थी।
अन्य सभी बची हुई वामपंथी सरकारों की तरह ही उन्हें भी आर्थिक विकास, जिसमें निजी विकास भी शामिल है, को मानना पड़ा और इसीलिये उन्हें एक मजबूत औद्योगिक आधार तैयार करना स्वाभाविक जान पड़ा, मैं इसे समझ सकता हूं। लेकिन मुझे यह किंचित आश्चर्यजनक लगता है कि इसका इतना नाटकीय परिणाम हो सकता है।
हाब्सवाम के 18 पृष्ठों के इस लंबे साक्षात्कार में पश्चिम बंगाल के सिलसिले में सिर्फ ये चंद लाइनें हैं, जहां की हाल के घटनाओं को अपने लिये आश्चर्यजनक मानते हुए भी उन्हें वे एक बहुत स्थानीय घटनाक्रम समझते हैं। हाब्सवाम के साक्षात्कार की इस छोटी सी ‘स्थानीय’ बात का एक स्थानीय अखबार में सुर्खी बन कर प्रकाशित होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। इसीबीच, प्रकाश करात ने एक बयान के जरिये हाब्सवाम के उक्त कुल कथन से अपनी असहमति व्यक्त कर दी है।
बहरहाल, यह एक भिन्न मसला है। हमारे लिये इस 92 वर्षीय इतिहासकार का साक्षात्कार दूसरे कई कारणों से काफी महत्वपूर्ण है, जिनकी हम यहां चर्चा करना चाहेंगे।
हाब्सवाम ने अपनी पुस्तक ‘आत्यांतिकताओं का युग : बीसवीं सदी 1914 से 1991’ में पहले विश्वयुद्ध से शुरू करके रूस की समाजवादी क्रांति, 1929 की महामंदी, उदारतावाद के अंत और तानाशाहियों के उदय, द्वितीय विश्वयुद्ध,उपनिवेशों का अंत, युद्धोत्तर तीव्र आर्थिक विकास का स्वर्णिम युग, फिर आर्थिक संकट, तीसरी दुनिया का उदय, युद्ध और क्रांतियां तथा समाजवाद का पराभव तक के पूरे घटनाक्रम को उसके आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और वैज्ञानिक तथा तकनीकी आयामों के साथ समेटा था। ‘न्यू लेफ्ट रिव्यू’ को दिये गये साक्षात्कार में वे इस पुस्तक में समेटे गये काल के बाद के दो दशकों पर बात कर रहे थे, जो गौर करने लायक महत्वपूर्ण बात है।
विगत बीस सालों में दुनिया के इतिहास में उन्हें कौन सी प्रमुख नयी बातें दिखाई देती हैं, इस सवाल के जवाब में हाब्सवाम ने पांच प्रमुख परिवर्तनों को गिनाया है। पहला, दुनिया का आर्थिक केंद्र उत्तर अतलांटिक से हट कर दक्षिण और पूर्व एशिया में आ गया है। इसकी शुरूआत सत्तर और अस्सी के दशक में जापान से हुई थी, लेकिन 90 के दशक में चीन के उदय से एक वास्तविक फर्क आया है।
दूसरा बड़ा परिवर्तन वे पूंजीवाद के विश्वव्यापी संकट को मानते है जिसकी वे भविष्यवाणी कर रहे थे लेकिन उसके बावजूद इसे सामने आने में लंबा समय लगा।
तीसरी बात यह कि 2001 के बाद अमेरिका ने दुनिया पर अपना जो एकछत्र प्रभुत्व कायम करने की कोशिश की थी, वह पूरे ढोल–धमाकों के साथ ध्वस्त होगयी है – उसकी विफलता साफ देखी जा सकती है।
चौथा, ब्रिक्स (ब्राजील, रूस, भारत, चीन) के रूप में विकासशील देशों के एक नये राजनीतिक गुट का उदय, जो उनकी किताब के लिखे जाने तक अस्तित्व में नहीं आया था।
और पांचवां परिवर्तन, दुनिया के बड़े हिस्से में सुव्यवस्थित ढंग से राज्य की सत्ता का क्षय और उसका कमजोर होना है। हाब्सवाम का कहना है कि इसे पहले देखा जा सकता था,लेकिन इधर यह जिस तेजी से हो रहा है,इसकी उन्होंने उम्मीद नहीं की थी।
इसीमें आगे इस सवाल पर कि वे आज के संकट की 1929 की महामंदी से कैसे तुलना करते हैं, हाब्सवाम ने जो मार्के की बातें कही उनकी ओर ध्यान दिलाना भी यहां हमारा अभीष्ट है। वे कहते हैं, 1929 बैंकों से शुरू नहीं हुआ था– बैंकों का उसके दो वर्ष बाद तक पतन नहीं हुआ था। बनिस्बत्, शेयर बाजार ने उत्पादन में गिरावट का श्रीगणेश किया। 1929 की तुलना में अभी की मंदी की कहीं ज्यादा तैयारियां की गयी थी। नवउदार तत्ववाद ने पूंजीवाद की क्रियाशीलता में जो भारी अस्थिरता पैदा कर दी है, उसे काफी पहले ही देख लिया जाना चाहिए था। 2008 तक इसने सिर्फ हाशिये के क्षेत्रों – 90के दशक में लातिन अमेरिका तथा 21वीं सदी के शुरू में दक्षिण पूर्व एशिया, रूस को प्रभावित किया था। प्रमुख देशों के लिये इसका मायने सिर्फ समय–समय पर शेयर बाजारों का गिरना था जिससे वे जल्द ही उबर जाते थे। हाब्सवाम के अनुसार 1998 में जब दीर्घ–मियादी पूंजी प्रबंधन की व्यवस्था का पतन हुआ तभी यह समझ लेना चाहिए था कि विकास का यह समूचा मॉडल ही कितना गलत है।
इसी सिलसिले में वे आगे कहते हैं कि आज की तुलना में 1929 की विश्व अर्थ–व्यवस्था कम वैश्विक थी। सोवियत संघ के अस्तित्व का मंदी पर कोई व्यवहारिक प्रभाव नहीं था, लेकिन एक गहरा विचारधारात्मक प्रभाव था – एक विकल्प था। 90 के दशक के बाद से हमने चीन और अन्य उदीयमान अर्थ–व्यवस्थाओं के उभार को देखा है जिनका दरअसल आज की मंदी पर व्यवहारिक प्रभाव है।... सचाई यह है कि उस समय भी जब नवउदारवाद अपनी समृद्धि का दावा कर रहा था, वास्तविक अभिवृद्धि मुख्य रूप से इन नव विकसित अर्थ–व्यवस्थाओं में–खास तौर पर चीन में – हो रही थी। मेरा पक्का मानना है कि यदि चीन न होता तो 2008 की गिरावट कहीं ज्यादा गंभीर होती।
आप इधर की प्रमुख पश्चिमी पत्रिकाओं, ‘द इकोनोमिस्ट’, ‘टाईम’ तथा ‘न्यूजवीक’ के अंकों को देखिये, चीन के साथ पश्चिम के नफरत और प्यार की पूरी कहानी साफ समझ में आजायेगी। चीन को अपनी बढ़ी हुई आर्थिक हैसियत का अनुमान है, अब वह पहले के किसी भी समय की तुलना में कहीं ज्यादा गहरे आत्म–विश्वास के साथ राजनीतिक मामलों में भी दखल देता है, यह बात पश्चिम के रणनीतिकारों और उनकी प्रवक्ता पत्रिकाओं को नागवार गुजर रही है। वे चीन पर अंकुश चाहते हैं। साथ ही अंतिम निष्कर्षों के तौर पर यह भी मानते हैं कि अमेरिका और चीन वैश्विक प्रभाव के मामले में सिफर् प्रतिद्वंद्वी नहीं हैं, वे परस्पर निर्भरशील अर्थ–व्यवस्थाएं भी है जिन्हें आपस में सहयोग से हर चीज का लाभ है। मतभेद यदि टकराहटों में बदल जाए तो किसी को भी फायदा नहीं है।
चीनी और अमेरिकी अर्थ–व्यवस्थाओं की यह कथित परस्पर–निर्भरशीलता दुनिया की परिस्थिति के बारे में अपने किस्म का एक अभिनव दृश्यपट प्रस्तुत करती है, जिसके सिर्फ आर्थिक नहीं बल्कि व्यापक सामाजिक,राजनीतिक और सांस्कृतिक आयामों की थाह पाना किसी भी प्रकार की विश्व–रणनीति के लिये जरूरी है। 1929 के वक्त का जिक्र करते हुए हाब्सवाम कहते हैं कि उस समय सोवियत संघ की उपस्थिति एक ‘विचारधारात्मक प्रभाव’ तथा‘विकल्प’ के तौर पर थी, जबकि आज का चीन विश्व अर्थ–व्यवस्था का एक प्रमुख कारक तत्व है। सचाई यह है कि हाल के अमेरिकी संकट में अगर किसी देश ने अमेरिका के लिये सबसे बड़े त्राणदाता की भूमिका अदा की तो वह चीन ही था। अमेरिकी सरकारी प्रतिभूतियों की खरीद के जरिये चीन अमेरिका को ऋण देने वाला आज सबसे बड़ा देश बन चुका है। चीन के प्रमुख अंग्रेजी सरकारी दैनिक ‘पीपुल्स डेली’ ने लिखा था कि चीन के हाथ में भारी मात्रा में अमेरिकी सरकारी प्रतिभूतियों के होने का अर्थ यह है कि वह कभी भी डालर की एक आरक्षित मुद्रा की हैसियत को खत्म कर सकता है। ऐसा कहने के बाद ही उसमें आगें यह भी कहा गया कि यह स्थिति वस्तुत: निश्चित परस्पर विनाश पर आधारित शीत युद्धकालीन गतिरोध का विदेशी मुद्रा संस्करण है। ओबामा के आर्थिक सलाहकार लारेंस समर्स ने किसी समय अमेरिका और उसके विदेशी कर्जदाताओं के संबंधों को ‘वित्तीय आतंक का संतुलन’ कह कर परिभाषित किया था। ‘पीपुल्स डेली’ की ‘निश्चित परस्पर विनाश पर आधारित शीत युद्धकालीन गतिरोध के विदेशी मुद्रा संस्करण ‘ की बात लारेंस समर्स के वित्तीय आतंक का संतुलन’ की पदावली को ही प्रतिध्वनित करती है।
मजे की बात यह भी है कि परस्पर निर्भरशीलता के इस गहरे अहसास के बावजूद सभ्यताओं के संघर्ष की नस्लवादी मानसिकता से पश्चिमी रणनीतिकार कभी मुक्त नहीं हो पाते हैं। चीन के इस नये उदय में उन्हें जो खतरे की घंटी सुनाई देती है, उसे ‘द इकोनोमिस्ट’ ने इस प्रकार लिखा हैं : ब्रिटिश साम्राज्य के स्थान पर दुनिया में अमेरिकी साम्राज्य का प्रभुत्व बिना किसी खून खराबे के कायम होगया क्योंकि दोनों की सांस्कृतिक और राजनीतिक विरासत एक थी। लेकिन जब जापान और जर्मनी ने सर उठाने की कोशिश की तब कैसा विनाशकारी विश्व युद्ध हुआ, इसे सभी जानते हैं। इसी प्रकार चीन की बढ़ती हुई समृद्धि और ताकत और भी ज्यादा उत्तेजनापूर्ण होंगे।
कुल मिला कर, हाब्सवाम ने मौजूदा विश्व के रूझानों के बारे में जो तमाम बातें कही है, उन सब पर ध्यान देने की जरूरत के बावजूद,वित्तीय संकट के समाधान में चीन और अमेरिका के प्रकट साझा हितों से जुड़े दुनिया के इस नये यथार्थ के तमाम प्रसंग काफी सजग और आलोचनात्मक दृष्टि की अपेक्षा रखते हैं।
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