मौलाना कल्वे ज़व्वाद, भूमण्डलीकरण समर्थक अमीर किसानों के अमीर नेता शरद जोशी और योगी आदित्यनाथ के बाद अब दिल्ली के मौलाना बुख़ारी भी महिला आरक्षण बिल के ख़िलाफ़ सामने आ गये हैं। उनका कहना है कि औरतों को राजनीति या कोई भी दूसरा पेशा पर्दानशीं होके ही अपनाना चाहिये। कल मुलायम सिंह भी कह चुके हैं कि औरतों को आरक्षण की कोई ज़रूरत नहीं है। लालू यादव तथा दूसरे समाजवादी आरक्षण के भीतर आरक्षण की बात कर रहे हैं…लेकिन यह भी संख्या बल कम होने की मज़बूरी ही लगती है क्योंकि पहले कभी भी इस मुद्दे पर वे गंभीर दिखाई नहीं दिये। आश्चर्य तो यह कि कल यहां ग्वालियर में एक आयोजन में कुछ आधुनिक महिलाओं ने भी कहा कि हमें भीख नहीं चाहिये।
आरक्षण को लेकर भीख, बैसाखी जैसी तमाम शब्दावलियां अक्सर ही उपयोग की जाती हैं। लेकिन यह सुविधाप्राप्त वर्ग द्वारा आविष्कृत एक भ्रष्ट शब्दावली है। आरक्षण न तो भीख है न वैसाखी यह सदियों से सामाजिक-आर्थिक संरचना में वंचित रहे समुदायों - जैसे दलित, पिछड़ों, आदिवासियों और महिलाओं का अधिकार है।
वैसे अगर इमानदारी से देखें तो समाज में आरक्षण हमेशा से रहा है। पुजारी का पद सवर्ण ब्राह्मण पुरुष, राजा का पद सवर्ण क्षत्रिय पुरुष, सेनापति का पद सवर्ण क्षत्रिय पुरुष, न्यायधीश का पद सवर्ण ब्राहमण पुरुष और चौकीदार जैसे तमाम हेय समझे जाने वाले पद दलित पुरुषों के लिये आरक्षित था। इस अमानवीय तथा ग़ैरबराबरी वाली व्यवस्था के कारण एक तरफ़ सवर्ण कहे जाने वाली जातियां हमेशा वर्चस्वशाली पदों पर काबिज़ रहीं तो दलित कहे जाने वाली जातियां हमेशा से ही सामाजार्थिक जीवन के निचले पायदान पर ही रहीं। अम्बेडकर ने इसी अपरिवर्तनीयता की तुलना बिना सीढ़ी वाली बहुमंजिली इमारत से की थी।
अब अगर देखें तो सभी जातियों की औरतों के लिये तो बस घर, हरम और वैश्यालय ही आरक्षित किये गये थे। सामाजिक-आर्थिक जीवन में तो उनका कोई स्थान था ही नहीं। उनमें से बहुतायत के लिये तो किसी भी तरह की शिक्षा भी वर्जित थी। ऐसे में उनसे हुए अन्याय की तो कोई सीमा ही नहीं। जितने घटिया विशेषण औरतों को दिये जाते हैं वे सब उन्हीं परिस्थितियों और पितृसत्तात्मक मानसिकता के चलते हैं।
ऐसे में सच तो यह है कि औरतों को न केवल संसद अपितु सभी प्रकार की नौकरियों में 50 प्रतिशत आरक्षण मिलना ही चाहिये। लेकिन उसी पितृसत्तात्मक मानसिकता के कारण धर्मगुरु और नेता इसका विरोध करेंगे ही। लेकिन ज़रूरी यह है कि प्रगतिशील जनवादी विचारों को मानने वाले सारे लोग पूर्वाग्रह छोड़ इसके साथ आयें।
अगर आपके पास इतिहास बोध नही है तो महिलाओं के क्या हर किसी के आरक्षन का विरोध किया जायेगा ।मुश्किल तो यह है कि नियामक भी वही हैं और मुंसिफ भी वही है । इतिहास से अपने पक्ष में सारी तर्क ढूँढ लेना भी इन लोगों के लिये आसान है । इनके पास स्त्री और दलित के लिये सिर्फ दया है । अधिकार जैसी बात तो शायद इनके लिये सोचना भी मुश्किल है । आरक्षन का अर्थ भी इतना संकुचित कर दिया गया है और उसको सही सही परिभाषित नही किया गया है । जब तक यह सही नही होगा तब तक इसके अलग अलग पाठ किये जाते रहेंगे तदनुसार लोग अपने विचारों में विभाजित दिखाई देंगे ।
जवाब देंहटाएंसदियों से समानता के आड़े आते फासलों को मिटाने के लिए आरक्षण उचित कदम है मैं इसके पक्ष में हूँ किन्तु साथ ही योग्यता और काबलियत के भी...
जवाब देंहटाएंबहुत ही सटीक लेख.....कई पढ़ी लिखी आधुनिक महिलायें भी महिला आरक्षण के विरोध में हैं. पर वे गहरे जाकर इसके मूल में देखने की कोशिश नहीं कर रहीं. योग्यता , सर्वोपरि है पर योग्य होने के अवसर तो मिलें. अगर वे हमेशा दमित ही रहेंगी फिर बराबरी में आकर सामना कैसे कर पाएंगी?...आरक्षण बस समकक्ष आकर खड़े होने का अवसर प्रदान करता है...पुरुषों से आगे निकल जाने में कोई सहायता नहीं करता.
जवाब देंहटाएंफिर भी ५०% तो कुछ ज्यादा ही कह दिया, बन्धु.....कौन करेगा इसका समर्थन ???