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सोमवार, 15 मार्च 2010

साहस

एक शाम

एक शाम
जब बैल आते हैं
हल से खुलने के बाद
नाद पर
हर पहचानी शाम की तरह
और शहर का बाबू
अपने उदास कमरे मे।

एक शाम
जब डाइनिंग टेबल पर
होती हैं बहसें
जनमत और जनतंत्र पर।

एक शाम
जब आंगन में पड़ा चूल्हा
उदास रोता है
और
एक शाम आती है
वीरान गांवों में
आतंक और चुप्पी के साथ।

साहस

सागर का तट
छोटा पड़ जाता है
जब फैलाता हूं अपनी बांहें
सिमट आता है सारा आकाश
पर
आ नहीं पाता
बांह की परिधि में
अंदर का साहस। राजूरंजन प्रसाद

9 टिप्‍पणियां:

  1. सिमट आता है सारा आकाश
    पर
    आ नहीं पाता
    बांह की परिधि में
    अंदर का साहस
    बहुत ही ओजपूर्ण कविता...

    जवाब देंहटाएं
  2. behtareen... inka blog "kaarwan" bhi main padhta hoon... shukriya.

    जवाब देंहटाएं
  3. सिमट आता है सारा आकाश
    पर
    आ नहीं पाता
    बांह की परिधि में
    अंदर का साहस।
    Bahut khoob!

    जवाब देंहटाएं
  4. दोनों कविता अच्छी..सोचने को विवश करती हैं

    जवाब देंहटाएं
  5. दोनों रचनायें अच्छी और सच्ची लगी । आभार

    गुलमोहर का फूल

    जवाब देंहटाएं
  6. हिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और बधाई
    कृपया अन्य ब्लॉगों को भी पढें और अपनी बहुमूल्य टिप्पणियां देनें का कष्ट करें

    जवाब देंहटाएं
  7. इस नए चिट्ठे के साथ हिंदी ब्‍लॉग जगत में आपका स्‍वागत है .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!

    जवाब देंहटाएं

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