भारतीय दर्शन परम्परा – एक
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(भारतीय दर्शन पर कुछ बात करने से पहले मैं
पिछले आलेख पर मिली प्रतिक्रियाओं के बारे में कुछ बात करना चाहूँगा. यह पूरी
आलेखमाला युवा मित्रों से संवाद के लिए लिखी जा रही है. ज़ाहिर है यह बहुत गंभीर या
विस्तृत नहीं है. यह भी कि मैं दर्शन का कोई आधिकारिक विद्वान नहीं. बस संगठनों
में काम करते हुए और थोड़ा-बहुत पढ़ते-लिखते जो सीखा-समझा है, वही आप लोगों से
बांटना चाहता हूँ. इसमें न तो कोई नई प्रस्थापना है, न ही कोई नयी विवेचना. मैंने
बस तमाम किताबों में उपलब्ध प्रस्थापनाओं को एक जगह संकलित कर नए पाठक के लिए
अध्ययन को आसान बनाने का प्रयास किया है. )
भारतीय दर्शन को लेकर आम समझ यही है कि भारतीय दर्शन परम्परा
मूलतः आध्यात्मिक दर्शन की परम्परा है. आम बातचीत में ऐसा प्रदर्शित किया जाता है
कि भारतीय परम्परा तो आध्यात्मिक रही और आज पश्चिम से भौतिकवाद यहाँ आ गया है और
उसी ने सब गडबड किया है. श्रीनिवास सरदेसाई कहते हैं, “भारतीय दर्शन यानि वेदांत और वेदांत यानि
भारतीय दर्शन, यह समीकरण वेदांत के प्रायः सभी समर्थकों द्वारा प्रस्तुत किया जाता
है, जनमानस पर इस मत की गहरी छाप है. और यह सच है कि ऐतिहासिक दृष्टि से वेदांत इस
देश का सर्वाधिक व्यापक और प्रतिष्ठित दर्शन है. परन्तु सर्वाधिक व्यापक एवं
प्रतिष्ठित दर्शन का अर्थ एकमेव दर्शन नहीं है.”[i] वाल्टर रूबेन ने भारत में दर्शन का स्पष्ट
प्रारम्भ छान्दोग्य उपनिषद में उद्दालक आरुणि के पुद्गल-जीववाद से माना है और उनके
अनुसार ‘उसका भौतिकवाद, जो बहुत आदिम है, उस मान्यता
का, जिसे देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय ने लोकायत में “प्रागैतिहासिक इहलोक परायणता’ कहा है, और जो कबायली युगों की विशेषता रही थी, पहला क्रमबद्ध
निरूपण है. उद्दालक लगभग 600 ईसापूर्व हुए थे जबकि भारत में लौहयुगीन राज्यों का
प्रारम्भ हो रहा था. उसके भौतिकवाद के विरूद्ध याज्ञवलक्य ने तत्काल ही कर्म,
संसार और मोक्ष के सिद्धांत के साथ-साथ भारत के सबसे प्राचीन प्रत्ययवाद का
सिद्धांत दिया. इस प्रकार दर्शन के इन दो मुख्य संप्रदायों के बीच संघर्ष का सूत्रपात
हुआ.[ii] के दामोदरन, जैसा कि हम आगे देखेंगे इसे और
पीछे ऋग्वेदकालीन ऋषि बृहस्पति (लगभग 1520
ईसा पूर्व)[iii] तक ले
जाते हैं. डा राधाकृष्णन ने भी, जो खुद जाहिर तौर पर आध्यात्मिक दर्शन प्रणाली के
दार्शनिक थे, अपनी प्रसिद्ध किताब ‘हिस्ट्री आफ फिलासफी’ में लिखा है कि – “भौतिकवाद उतना
ही पुराना है, जितना दर्शन. यह बुद्ध के पहले के समय में भी मौजूद था. इसके बीजाणु
ऋग्वेद के सूक्तों में मिलते हैं.[iv]
स्पष्ट है कि भारतीय दार्शनिक परम्परा में आरम्भ से ही भाववाद
और भौतिकवाद, दोनों ही उपस्थित रहे. असल में दुनिया की हर सभ्यता की तरह भारतीय
उपमहाद्वीप में भी कोई एक चिंतन परम्परा नहीं रही. अगर ज्ञान-विज्ञान की विधिवत
शुरुआत हम वैदिक काल से ही मान लें (क्योंकि इसके पहले कि सिंधु सभ्यता की लिपि अब
तक पढ़ी नहीं गयी है तो उस काल के विश्वासों और ज्ञान-विज्ञान के स्वरूप के बारे में
कोई निश्चित बात कर पाना संभव नहीं) तो देखेंगे कि एक तरफ कर्मकांडो और दैवी चमत्कारों
को मानने वाले थे तो दूसरी तरफ उसे पाखण्ड बताने वाले. इन्हें दो दार्शनिक
प्रणालियों के आपसी संघर्ष या वाद-विवाद ही मान लेना और इस पूरी बहस को एक बौद्धिक
बहस में तब्दील करना सही नहीं होगा. जैसा कि मैंने पहले अध्याय में भी कहा कि
दर्शन किसी शून्य में से नहीं उपजता. इसे अनिवार्य रूप से उस समय की
सामाजिक-आर्थिक दृष्टि से देखना होगा. बकौल कार्ल मार्क्स ‘अस्तित्व के भौतिक साधनों का स्वरूप
सामाजिक, राजनीतिक एवं बौद्धिक जीवन की सम्पूर्ण प्रक्रिया को प्रभावित करता है.
मनुष्यों की चेतना उनके अस्तित्व को निर्धारित नहीं करती वरन उनका सामाजिक
अस्तित्व है जो उनकी चेतना को निर्धारित करता है”[v] इसका मतलब क्या हुआ? सीधी सी बात है कि एक
व्यक्ति या फिर व्यक्तियों का एक समूह जो कुछ सोचता-समझता है, जो उसका कामन सेंस
होता है, उसके जो विश्वास होते हैं या इन सब को मिलाकर जो उसकी चेतना बनती है वह
सीधे-सीधे जिंदगी के उन हालात पर निर्भर करती है, जिसमें वह जी रहा होता है. ऐसा
नहीं होता कि उसे यह सब जन्म के पहले ही मिल गया हो और फिर वह उसी के हिसाब से जिंदगी
जी रहा हो. तो भारतीय दर्शन के बारे में भी यही सही है.
भारत में वैदिक प्राकृतिक धर्म के उदय के साथ ही ब्राह्मण
पुरोहितों का वर्चस्व स्थापित होने लगा. चार वर्णों वाली व्यवस्था जैसे-जैसे जड़
जमाने लगी, समाज के अंदर एक स्पष्ट बंटवारा दिखने लगा. एक तरफ ब्राह्मण पुरोहित और
क्षत्रिय राजा थे जो अपने कर्मकांडों और चमत्कारों की भूल-भुलैया में जनता को
भटकाकर अपना वर्चस्व बनाए रखना चाहते थे तो दूसरी तरफ इसका मोल चुकाने वाली आम
जनता. आज भी वेदों को लेकर हमारे मन में एक अतिरिक्त श्रद्धाभाव रहता है. लेकिन
असल में ‘आज हमारे बीच बच रही पशु-पालक जातियों के
गीतों और आलापों की भांति ये वैदिक सूक्त भी दिन-प्रतिदिन की अभिलाषाओं की
अभिव्यक्ति मात्र हैं – पशुओं की
अभिलाषा, वर्षा की अभिलाषा, विजय की अभिलाषा, स्वास्थ्य की अभिलाषा, संतान की
अभिलाषा.[vi] इन्हीं वेदों को ईश्वर द्वारा रचित बताकर ब्राह्मणों ने
अपने लिए विशेषाधिकार सुरक्षित कर लिया था. मनुस्मृति में कहा गया कि – ‘ब्राह्मण चूंकि वेदों का अधिकारी है, अतः उसे समस्त सृष्टि के
प्रभु होने का अधिकार है’. इसी आधार पर
ब्राह्मणों ने स्वयं को पूरी तरह से शारीरिक श्रम से मुक्त कर लिया. राजा को ईश्वर
की इच्छा का मूर्त रूप घोषित कर दिया गया और इस तरह उसे पूरी तरह निरंकुश बना दिया
गया. भौतिक परिस्थितियाँ दर्शन को किस कदर प्रभावित करती हैं इसका एक उदाहरण हमें
राहुल सांकृत्यायन की दर्शन-दिग्दर्शन में मिलता है जब वह बताते हैं कि ‘ऋगवेद के पुराने मन्त्रों में यद्यपि इंद्र,
सोम, वरुण की महिमा ज्यादा गई गई है, किन्तु उस वक्त किसी एक देवता को सर्वेसर्वा
मानने का ख्याल नहीं था....किन्तु जब हम ऋग्वेद के सबसे पीछे के मन्त्रों (दशम
मंडल) तक पहुँचते हैं, तो वहाँ बहुदेववाद से एक देववाद की ओर प्रगति देखते हैं.
सभी जातियों के देव लोक में उनके अपने समाज का प्रतिबिम्ब होता है. जहाँ आरम्भ काल
में देवता, पितृसत्ता को समाज के नेता पितरों की भांति छोटे-बड़े शासक थे, वहाँ आगे
नियंत्रित सामंत या राजा बनते हुए अंत में निरंकुश राजा बन जाते हैं. प्रजा के
अधिकार जब बहुत कम रह गए, और राजा सर्वेसर्वा बन गया, उसी समय (600-500 ईसा पूर्व)
“देव” राजा का पर्यायवाची शब्द बना.[vii] वर्चस्वशाली
वर्ग के इन दोनों प्रतिनिधियों के बीच स्वाभाविक रूप से तालमेल था. ब्राह्मण
पुरोहितों ने राजा को पूरी निरंकुशता से राज्य करने का प्रमाणपत्र दिया तो राजा ने
ब्राह्मणों के विशेषाधिकारों की रक्षा की. शेष जनता को ‘कर्म करो और फल की चिंता न करो’ का झुनझुना पकड़ा दिया गया. पुनर्जन्म का
सिद्धांत इसमें बड़ा मददगार था, लोगों से कहा गया कि आज जो दुःख या सुख भोग रहे
हैं, उसके जिम्मेदार उनके पूर्वजन्म के कर्म हैं. अगर वे इस जन्म में अपना ‘धर्म’ सही तरीके से निभाएंगे तो ईश्वर उन्हें अगले जन्म में ही नहीं,
ऊपर स्वर्ग में भी सुख देगा, नहीं निभाएंगे तो अगला जन्म तो बिगडेगा ही, साथ में
ऊपर भी नर्क की आग में जलना होगा. और सबका
धर्म अलग-अलग था, ब्राह्मण का धर्म पूजा-पाठ था, क्षत्रिय का युद्ध और राज्य ,
वैश्य का व्यापार तो शूद्र का सेवा. इन
सभी को अपने धर्म के अनुसार कर्म करते जाना था और फिर उसी के हिसाब से उनके सुख और
दुःख निर्धारित होने थे. इसे ही ‘कर्म का सिद्धांत कहा गया’. यही वह कर्म था जिसके लिए गीता में कहा गया कि – ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेसु कदाचन’ अर्थात सिर्फ कर्म पर तुम्हारा अधिकार है,
फल पर कतई नहीं. फल पर अधिकार तो ईश्वर का था, वह आज दे, स्वर्ग में दे, अगले जन्म
में दे या उसके बाद दे. ज़ाहिर है कि पूरी तरह शारीरिक श्रम से मुक्त हो ब्राह्मण
वर्ग को वह अवकाश मिला जिससे वह कला, विज्ञान, व्याकरण, ज्योतिष और ऐसे
ज्ञान-विज्ञान के तमाम क्षेत्रों में नए सृजन कर सका. इस तरह उसने अपनी बौद्धिक
श्रेष्ठता स्थापित की. ब्राह्मण होने का अर्थ ही विद्वान होना स्थापित कर दिया
गया. आखिर जिनका धर्म सिर्फ सेवा था, जिन्हें पढ़ने-लिखने का अधिकार भी नहीं था, वे
विद्वान बनते भी तो कैसे? इस तरह से शूद्रों के साथ अन्याय और उनके श्रम के शोषण
के माध्यम से उच्च वर्णों ने अपनी भौतिक सुख-सुविधाएँ जुटाईं – आध्यात्म के सहारे!
लेकिन यह गोरखधंधा अनंत काल तक नहीं चल सकता था. दस्तकारी के
विकास के साथ समाज में नए वर्गों का उदय हुआ. उत्पादन की नयी तकनीकों के साथ
व्यापार में भारी वृद्धि हुई और अब ब्राह्मणों की व्यवस्था इसमें बाधा बनने लगी
थी. उन निर्धारित कर्मों और नियमों को मानते हुए उत्पादन और व्यापार का विस्तार
संभव नहीं था तो लाजिम है कि इसका विरोध होता. ऐसे में ब्राह्मणवाद और उसके
कर्मकांडों पर हमला करने वाले चिंतकों का उदय हुआ जो अपने मूल में भौतिकवादी थे.
इसके बाद का इतिहास इन दर्शनों के आपसी संघर्ष का इतिहास है, जो ज़ाहिर तौर पर
पुराने वर्चस्वशाली वर्ग और नए उभरते वर्गों का इतिहास है. अगले अध्याय में हम
भारतीय दर्शन की कुछ भौतिकवादी प्रणालियों के बारे में विस्तार से बात करेंगे.
लेकिन यहाँ यह मान लेना कि वेदों में सिर्फ आध्यात्म की शिक्षा
है, उचित नहीं होगा. यहाँ मैंने पहले ही डा राधाकृष्णन के हवाले से बताया है कि
ऋग्वेद में भौतिकवाद के बीजाणु थे. के दामोदरन बताते हैं कि ऋग्वेद के बृहस्पति
भारतीय भौतिकवाद के प्रथम प्रणेता माने जाते हैं. उन्होंने ही सर्वप्रथम पदार्थ को
परम सत्य घोषित किया था. वह और उनके शिष्य ईश्वर के अस्तित्व से भी इंकार करते थे.
वे आत्मा की अमरता और मृत्यु के बाद के जीवन की अवधारणा के भी विरोधी थे[viii] इसी सन्दर्भ में उन्होंने बृहस्पति के शिष्य
धिषण और भृगु (जिनके बारे में ‘का रहीम हरि
को भयो, जो भृगु मारहिं लात’ वाला दोहा
है) का भी जिक्र करते हैं. इसी किताब में एम हिरियाना का एक लंबा उद्धरण है जो
ऋग्वेद के कुछ ऐसे सूक्तों का जिक्र करता है जिनमें सर्वोच्च वैदिक देवता इंद्र और
पुरोहितों पर सवाल खड़े किये गए हैं.[ix] वेदों के
अलावा उपनिषदों में तो जगह-जगह ऐसे विचार मिलते हैं. छान्दोग्य उपनिषद (700 ईसा
पूर्व) में वैसे तो कर्मकांडों की भरपूर प्रशंसा है, लेकिन ‘प्रथम अध्याय के अंत में दाल-रोटी के लिए ‘हावु-हावु’ (सामगान का आलाप) करने वाले पुरोहितों का एक दिलचस्प मजाक किया
गया है. बक दालभ्य – जिसका दूसरा
नाम ग्लाब मैत्रेय भी था – कोई ऋषि था.
वह वेद पाठ के लिए किसी एकांत स्थान में रह रहा था; उस समय एक सफ़ेद कुत्ता वहाँ
प्रकट हुआ. फिर कुछ और कुत्ते आ गए और उन्होंने सफ़ेद कुत्ते से कहा कि हम भूखे
हैं, तुम साम गाओ, शायद इससे हमें कुछ भोजन मिल जाए. सफ़ेद कुत्ते ने दूसरे दिन आने
के लिए कहा. दालभ्य ने कुत्तों की बात सुनी थी. वह भी सफ़ेद कुत्ते के सामगान को
सुनने के लिए उत्सुक था. दूसरे दिन उसने देखा कि कुत्ते आगे-पीछे एक की पूँछ दूसरे
के मुंह में लिए बैठकर गा रहे थे – हि! ओम् खावें, ओम् पीएं, ओम् देव हमें भोजन दें. हे अन्नदेव!
हमारे लिए अन्न लाओ, हमारे लिए इसे लाओ, ओम्. इस मजाक में दरअसल, सामगायक पुरोहित
पेट के लिए यग्य के वक़्त जो एक के पीछे एक दूसरे का वस्त्र पकड़े हुए सामवेद का
गायन करते थे, उसी की नक़ल उतारी गयी है.[x] बाद के
उपनिषदों में तो इन कर्मकांडों का उपहास और भौतिकवादी विचारों का ताप और तीखा है. मुंडक
उपनिषद में लिखा है – ‘यग्य रूपी ये बेड़े कमजोर हैं. जो मूर्ख से
अच्छा कहकर अभिनन्दन लेते हैं, वे फिर-फिर बुढ़ापे और मृत्यु को प्राप्त होते हैं.
अज्ञान के भीतर विद्यमान खुद को पंडित समझने वाले वे मूर्ख अंधे द्वारा अपने पीछे
अन्धों को चलाने वाले की ही तरह दुःख पाते हैं.”[xi] यही नहीं वे ‘ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद,
शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद और ज्योतिष को कमतर ज्ञान (अपरा) घोषित करते
हैं”[xii] श्वसनवेद घोषणा करता है कि ‘न तो कोई अवतार है, न ईश्वर है, न स्वर्ग है
और न नरक है. सभी परम्परागत धार्मिक साहित्य अहंकारी मूर्खों की करतूत है.’[xiii]
स्पष्ट है कि हमारी परम्परा कोई एकांगी परम्परा नहीं. लेकिन
चूंकि सत्ता वर्ग हमेशा चार वर्णों वाली व्यवस्था का हामी रहा तो उसके लिए इन
कर्मकांडों और इनके पोषक दर्शनों को संरक्षण देना लाजिमी था. भौतिकवाद हमेशा ही
विरोध का दर्शन रहा और तमाम अपमान तथा उत्पीडन के बावजूद हमारे प्राचीन
विद्रोहियों ने लगातार इसका परचम उठाये रखा. अगले अध्याय में ऐसी ही कुछ दार्शनिक
प्रणालियों पर थोड़ी विस्तार से चर्चा
होगी.
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इस श्रृंखला के पिछले आलेख
सन्दर्भ :
[i]
देखें,
भारतीय दर्शन – वैचारिक और सामाजिक संघर्ष, पेज -33, श्रीनिवास सरदेसाई, पहला
संस्करण- 2009, संवाद प्रकाशन, मुंबई-मेरठ
[ii]
देखें,
देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय की पुस्तक ‘भारतीय दर्शन –सरल
परिचय’ की वाल्टर रूबेन द्वारा लिखी भूमिका, पेज-9, पेपरबैक
संस्करण-2004, राजकमल प्रकाशन-दिल्ली
[iii]
देखें,
दर्शन-दिग्दर्शन, राहुल सांकृत्यायन, पेज-262, वर्ष-2000, किताब महल प्रकाशन,
इलाहाबाद
[iv]
देखें,
हिस्ट्री आफ फिलासफी, खंड 1पेज 377, यहाँ के दामोदरन की किताब ‘भारतीय
चिंतन परम्परा’ से उद्धृत
[v]
देखें,
राजनैतिक अर्थशास्त्र की आलोचना, कार्ल मार्क्स
[vi]
देखें,
लोकायत, देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय, पेज – 529, वर्ष-1959, पीपुल्स
पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली
[vii]
देखें,
दर्शन-दिग्दर्शन, राहुल सांकृत्यायन, पेज-266, वर्ष-2000, किताब महल प्रकाशन,
इलाहाबाद
[viii]
देखें,
‘भारतीय
चिंतन परम्परा’, के दामोदरन, पेज-93, वर्ष- 2001, पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस
(हिन्दी अनुवाद)
[ix]
देखें,
के दामोदरन की पूर्वोद्धरित किताब, पेज-94
[x]
देखें,
राहुल सांकृत्यायन, वही,पेज -303
[xi]
देखें,
वही, पेज -327
[xii]
देखें,
वही, पेज-327
[xiii]
देखें,
के दामोदरन की पूर्वोद्धरित किताब, पेज-95
prashansaneey
जवाब देंहटाएंप्रशंसनीय प्रयास.
जवाब देंहटाएंएक जरूरी कॉलम.इसे जारी रखना चाहिए.
हटाएंआपने अपनी पत्रिका में इसे नियमित कालम की तरह स्थान दे कर एक अनुशासन बना दिया...उम्मीद है इसे नियमित भी कर पाऊँगा और किताब के रूप में ला भी पाऊँगा.
हटाएंविचारित्तेजक लेख ! भारतीय दर्शन कभी भी एकांगी नहीं रहा ! पूर्णतया सहमत ! परस्पर टकराहट वाले सिद्धांतों की उत्पत्ति तो होती ही रही है ! वेदों , उपनिषदों और गीता के भी दर्शन की एकांगी समीक्षा उचित नहीं ! लेख में चार्वाक का भी जिक्र होता तो बात और जमती ! मेरी घड़ी की सुई आकर अटकती है कि-- इन तमाम दर्शन की व्याख्याओं के उपलब्द्ध होते हुए भी मनुस्मृति जैसा हलके दर्जे का कानून (दर्शन तो नहीं मानता मैं इसे ) भारतीय समाज पर प्रभुत्त्व जमा लेता , ये बड़े ही आश्चर्य की बात है ! अशोक जी को बधाई, उन्होंने सोचने लायक सामग्री मुहैया कराई !
जवाब देंहटाएंविचारोत्तेजक लेख ! भारतीय दर्शन कभी भी एकांगी नहीं रहा ! पूर्णतया सहमत ! परस्पर टकराहट वाले सिद्धांतों की उत्पत्ति तो होती ही रही है ! वेदों , उपनिषदों और गीता के भी दर्शन की एकांगी समीक्षा उचित नहीं ! लेख में चार्वाक का भी जिक्र होता तो बात और जमती ! मेरी घड़ी की सुई आकर अटकती है कि-- इन तमाम दर्शन की व्याख्याओं के उपलब्द्ध होते हुए भी मनुस्मृति जैसा हलके दर्जे का कानून (दर्शन तो नहीं मानता मैं इसे ) भारतीय समाज पर प्रभुत्त्व जमा लेता , ये बड़े ही आश्चर्य की बात है ! अशोक जी को बधाई, उन्होंने सोचने लायक सामग्री मुहैया कराई !
जवाब देंहटाएंसंतोष भाई, भारतीय दर्शन पर यह पहला खंड है. अगले खंड में भारत के भौतिकवादी दर्शनों पर विस्तार से लिखूंगा तो चार्वाक के बिना काम कहाँ चलना है?
हटाएंएक जरूरी कॉलम.इसे जारी रखना चाहिए.
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंढेरो जानकारियों के साथ एक के बाद एक नए लेख आप हमारे सामने परोस रहे है ..वाकई मजा आ रहा है | आपका प्रयास सराहनीय है |आपको बधाई के साथ ही चार्वाक दर्शन का जिक्र करती हुई भारतीय दर्शन की दूसरी किस्त और लेखमाला की पांचवी किस्त का बेसब्री से इन्तजार है |
जवाब देंहटाएंइसी के इर्द-गिर्द दखल की स्टडी सर्किल भी राखी जा सकती है आशीष
हटाएंहाँ बिलकुल ...इस बार की स्टडी सर्किल इसी विषय पर करना तय करते है |
हटाएंअच्छे लेख के लिए साधुवाद...सारे उद्धरण सही तरह से पिरोये गए हैं...आप का कहना एकदम सच है कि दर्शन किसी शुन्य से नहीं उभरता...हर मत का अपना महत्व है..ये बात सभी मताव्लाम्बियों को समझना चाहिए...आप के अगले लेख कि प्रतीक्षा रहेगी...शुभ कामनाये
जवाब देंहटाएंशुक्रिया विवेक भाई.
हटाएंअच्छे लेख के लिए साधुवाद...सारे उद्धरण सही तरह से पिरोये गए हैं...आप का कहना एकदम सच है कि दर्शन किसी शुन्य से नहीं उभरता...हर मत का अपना महत्व है..ये बात सभी मताव्लाम्बियों को समझना चाहिए...आप के अगले लेख कि प्रतीक्षा रहेगी...शुभ कामनाये
जवाब देंहटाएंकाम का काम है .करते चलिए.
जवाब देंहटाएंएक अलग और महत्वपूर्ण काम .... अगली कड़ियों की प्रतीक्षा है ...
जवाब देंहटाएंसचमुच बढ़िया लेख ! संक्षिप्त श्रंखलाबद्ध धर्म विचार केपी सुंदरता से प्रस्तुत किया !
जवाब देंहटाएंइसे जारी रखें ! बधाई !
बहुत ही बढ़िया सार्थक संग्रहनीय प्रस्तुति ..आभार
जवाब देंहटाएंTouche. Great arguments. Keep up the good effort.
जवाब देंहटाएंAlso visit my website : as seen here