तीन लेखकों द्वारा जारी प्रपत्र
भोपाल, 05 जुलाई 2012
सार्वजनिक साहित्यिक संस्थाओं का राजनैतिक रूपान्तरण और लेखकों की प्रतिरोधी भूमिका
पिछले एक दशक में मध्य प्रदेश के भारत भवन, साहित्य परिषद, उर्दू अकादमी और कला परिषद सहित कुछ संस्थानों से समय-समय पर, पृथक-पृथक कारणों से वामपंथी लेखक संगठनों तथा रचनाकारों द्वारा प्रत्यक्ष दूरी बना कर रखी गई है। कतिपय तात्कालिक कारण दूर हो जाने पर स्थिति यह है कि अनेक लोग जहाँ इन संस्थाओं, खासकर भारत भवन के आयोजनों में सीधी भागीदारी करने लगे हैं, वहीं गिने-चुने कुछ लेखकों ने इस दूरी को प्रखरता और दृढ़ता से बरकरार रखा है। इन लेखकों में से (भोपाल में रहनेवाले) पहले स्वर्गीय कमला प्रसाद जी के साथ और फिलहाल हम तीन यानी राजेश जोशी, कुमार अम्बुज और नीलेश रघुवंशी, लगातार इस मुद्दे पर विचार करते रहे हैं और अभी भी हमारा निष्कर्ष है कि इन संस्थानों में ‘रचनाकार के रूप में भागीदारी’ न करने की हमारे पास ठोस वजहें हैं। ये वजहें अनौपचारिक बातचीत में अन्य साथी लेखकों को बताई जाती रही हैं। लेकिन, अब जबकि कुछ महत्वपूर्ण, चर्चित वामपंथी लेखक या वामपंथी संगठनों से जुड़े रचनाकारों द्वारा भी इन संस्थाओं के आयोजनों में, बावजूद हमारे प्रदेश के एक प्रमुख लेखक संगठन की इस सलाह के, कि इन संस्थाओं में सीधी भागीदारी न की जाए, शिरकत शुरू कर दी है, तब हम अपना सकारण ‘स्टैण्ड’ यहाँ पुनर्विचार के बाद औपचारिक रूप से सार्वजनिक करना उचित समझते हैं।
सबसे प्रमुख और निर्णायक कारण है कि वर्तमान सरकार की अन्यथा स्पष्ट सांस्कृतिक नीतियों के चलते, इन संस्थानों का और साथ ही प्रदेश की मुक्तिबोध, प्रेमचंद और निराला सृजनपीठों का, वागर्थ, रंगमंडल आदि विभागों का, पिछले आठ-नौ वर्षों में सुनियोजित रूप से पराभव कर दिया गया है। जिसकी हद यह है कि इन संस्थाओं के न्यासियों, सचिवों, उपसचिव और अध्यक्ष पदों पर, जहाँ हमेशा ही हिन्दी साहित्य के सर्वमान्य और चर्चित लेखकों-कलाकारों की गरिमामय उपस्थिति रही, वहाँ अधिकांश जगहों पर ऐसे लोगोें की स्थापना की जाती रही है जो किसी भी प्रकार से हिन्दी साहित्य या कलाजगत के प्रतिनिधि हस्ताक्षर नहीं हैं। उनका हिन्दी साहित्य की प्रखर, तेजस्वी और उस धारा से जो निराला, प्रेमचंद, मुक्तिबोध (जिनके नाम पर सृजनपीठ हैं) से निसृत होती है, कोई संबंध नहीं बनता है। उनका हिन्दी साहित्य की विशाल परम्परा एवं समकालीन कला-साहित्य से गंभीर परिचय तक नहीं है, जिनकी हिन्दी साहित्य और वैश्विक साहित्य की समझ स्पष्ट रूप से संदिग्ध है। उनमें से अधिकांश की एकमात्र योग्यता सिर्फ यह है कि उनका वर्तमान सरकार की मूल राजनैतिक पार्टी या उनके तथाकथित सांस्कृतिक अनुषंग संगठनों से लगभग सीधा जुड़ाव, सक्रियता और समर्थन है।
हमारा विरोध किसी राजनैतिक अनुशंसा से उतना नहीं है क्योंकि व्यवस्था में इन पदों पर पहले भी राजनैतिक अनुशंसाओं से लोग नामित किए जाते रहे हैं लेकिन वे सब असंदिग्ध रूप से हमारे समकालीन साहित्य के मान्य, समादृत हस्ताक्षर रहे हैं। कुछ नाम हम स्मरण कराना चाहते हैं कि इन जगहों पर किस स्तर के सर्जक रहे हैंः सर्वश्री त्रिलोचन शास्त्री, शमशेर बहादुर सिंह, स्वामीनाथन, बव कारंत, हरिशंकर परसाई, नरेश मेहता, मन्नू भंडारी, कृष्णा सोबती, विनोद कुमार शुक्ल, हबीब तनवीर, मंजीत बाबा, शानी, केदारनाथ सिंह, सोमदत्त, निर्मल वर्मा, प्रभाकर श्रोत्रिय, विजय मोहन सिंह, आग्नेय, भगवत रावत, कृष्ण बलदेव वैद, कमलेश, दूधनाथ सिंह, प्रभात त्रिपाठी, उदय प्रकाश, मंगलेश डबराल, सुरेन्द्र राजन, फजल ताबिश, अशोक वाजपेयी, आफाक अहमद, सुदीप बैनर्जी, कमलेशदत्त त्रिपाठी, श्रीनिवास रथ, मंजूर एहतेशाम, रमेशचंद्र शाह, हरिनारायण व्यास, दिलीप चित्रे, नरेश सक्सेना, कमला प्रसाद, मनोहर वर्मा, धु्रव शुक्ल आदि। जाहिर है एवं हमारा स्पष्ट मत है कि यहाँ प्रश्न राजनैतिक पक्षधरता का न होकर, वामपंथी अथवा दक्षिणपंथी पदावलियों से भी बाहर, व्यापक रूप से उन लोगों की वर्तमान उपस्थिति से है जिनमें से अधिकांश की कोई साहित्यिक पहचान नहीं है, कोई साहित्यिक कद नहीं है। उनका हमारी साहित्यिक परंपरा, लेखकीय अस्मिता और समकालीनता से भी कोई संबंध नहीं बैठाया जा सकता। उन्होंने संस्थाओं से प्रकाशित अनेक, अन्यथा प्रतिष्ठित पत्रिकाओं की साहित्यिक संभावना, वैभव और प्रतिष्ठा को भी गंभीर क्षति पहुँचा दी है।
वर्तमान में इन संस्थाओं को जिस तरह से पदावनत, पतित और गरिमाहीन कर दिया गया है, वह अस्वीकार्य है। इसके साक्ष्य पिछले कुछ वर्षों में म प्र संस्कृति विभाग द्वारा दिए जानेवाले अखिल भारतीय और प्रादेशिक स्तर पर पुरस्कृत लेखकों की सूची तथा कृतियों के स्तर पर भी सहज ही देखे जा सकते हैं।
इसके चलते वे सब लेखक, जो किसी राज्य की साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्थाओं की श्रेष्ठता, सर्जनात्मक हस्तक्षेप और वातावरण निर्मिति में भूमिका देखना चाहते हैं, वर्तमान परिदृश्य के समर्थक, सहयोगी या हिस्सेदार कैसे बने रह सकते हैं। यह इन महत्वपूर्ण संस्थाओं का, जो जनता की निधि से ही संचालित हैं, ऐसा अविवेकी लेकिन सजग राजनैतिक रूपान्तरण है, दुर्भाग्य से जिसका हिन्दी साहित्य और कला की उत्कृष्ट परम्परा से किसी तरह का सरोकार नहीं। यह समूचे साहित्य और सर्जना के उस पर्यावरण को प्रदूषित और न्यून करने की कवायद है जो अन्यथा लोगों को विचारवान, गतिशील, जिज्ञासु और परिवर्तनमूलक बनाती है, उन्हें मनुष्यता के विराट फलक से परिचित कराती है और किसी समाज की सांस्कृतिक विरासत को नया करते हुए, अग्रगामी बनाती है। समूची मानवता के लिए वह दुर्लभ स्वप्न देखती है और वैसा अप्रतिम रचाव करती है जो सर्जनात्मकता के माध्यम से ही संभव है।
हम मानते हैं कि इन चुनौतीपूर्ण और साहित्य-कला की गरिमा को नष्ट करनेवाली परिस्थितियों के बीच उन सब लेखकों को प्रतिरोध की ‘पोजीशन’ लेनी चाहिए जो इन सार्वजनिक संस्थाओं के इस तरह के अवमूल्यन के प्रति जरा भी चिंतित हैं। हम जानते हैं कि इधर कुछ महत्वपूर्ण लेखकों ने, अपनी तरह के तर्क प्रस्तुत करते हुए संदर्भित आयोजनों में भागीदारी की है। हमारी निगाह में उन्होंने इन पतनशील संस्थाओं को सुमान्य लेखकों की ओर से वह अवांछित, किंचित और तात्कालिक वैधता दी है जिसे वे अन्यथा अपनी सीमित गतिविधियों, दृष्टि, वैचारिकता और मेधा के कारण अर्जित करने में सक्षम नहीं हैं। इस भागीदारी से इन लेखकों ने प्रदेश के राजनैतिक-सांस्कृतिक कायांतरण में जाने-अनजाने ही अपना सहयोग, अपना तर्क और समर्थन दे दिया। साथ ही, एक दुविधापूर्ण और भ्रामक संदेश भी दिया, जिससे दूसरे लेखक भी प्रेरित हो सकते हैं। उनके उदाहरण की ओट में अपना औचित्य प्रतिपादित कर सकते हैं कि एक कहावत का सहारा लेकर कहें तोः ‘जब सोने में ही जंग लगने लगेगी तो फिर लोहा क्या करेगा।’
और अंत में हमारे तमाम उन सम्माननीय मित्रों के प्रति कुछ शब्द जो इन संस्थानों में पदों पर आते हैं अथवा नौकरी कर रहे हैं और सुसंयोगवश समकालीन कला-साहित्य संसार में जिनकी उपस्थिति का भी आदर है। हम जानते हैं कि उनका समय-समय पर बुलावा हमारे प्रति प्रेम, सदभावना और कार्यक्रमों की स्तरीय साहित्यिक चिंता से भरा हो सकता है किंतु क्या वे इस विराट और प्रत्यक्ष पराभव से निरपेक्ष रह सकते हैं। यदि वे स्वयं लेखक भी हैं तो उनसे अपेक्षा भी कुछ बढ़ जाती है क्योंकि यह दीर्घकालिक, गहरी सांस्कृतिक हानि है। इसके दूरगामी और बहुआयामी दुष्परिणाम हैं। किसी हस्तक्षेप के बजाय, वे इसका बेहद सतही, कामचलाऊ और तात्कालिक आयोजनधर्मी, व्यक्तिगत मैत्रीपूर्ण हल खोजते हैं। तमाम सदाशयता और समझ के बावजूद यह विरूपताओं को ढँकने की हास्यास्पद कोशिश है। यहाँ याद कर सकते हैं कि पहले कुछ पदाधिकारी ऐसा दखल संभव करते रहे हैं कि विभिन्न पदों पर नामित या चयनित लोगों से संस्थाओं का भी स्तर बना रहे, उनका मान सुरक्षित रहे। तंत्र में उनकी सीमाएँ और असमर्थताएँ अपनी जगह हैं लेकिन दुर्भाग्यवश हम नहीं जानते कि इन संस्थाओं में पदस्थ हमारे वर्तमान मित्रों ने, अपनी उपस्थिति का लाभ लेकर प्रतिरोध की दिशा में क्या पहल और दखल मुमकिन की है।
मध्य प्रदेश शासन की इन सांस्कृतिक नीतियों और कार्यकलापों के परिप्रेक्ष्य में, इस पूरे परिदृश्य के पतनशील राजनीतिक रूपान्तरण को रोकने के लिए एक सामूहिक कोशिश जरूरी है। हम हमारे चेतनासंपन्न वरिष्ठ और युवा लेखकों से अपेक्षा करते हैं कि वे इस पूरे दृश्य पर विचार करें। यद्यपि हमारे अनेक लेखक-संस्कृतिकर्मी भोपाल और भोपाल से बाहर भी, इन परिस्थितियों और पराभव के प्रति सजग हैं और अपनी भूमिका का यथाशक्ति निर्वहन कर रहे हैं लेकिन हम चाहते हैं कि साहित्य-कला-संस्कृति में काम कर रहे सभी विवेकवान रचनाकार-कलाकर्मी एक सामूहिक प्रतिरोध की कार्यवाही के लिए न केवल सुझाव दें बल्कि पहलकदमी भी करें।
राजेश जोशी कुमार अम्बुज नीलेश रघुवंशी
विशेष अनुरोधचूंकि कि इस वक्तव्य को प्रसारित करने की हमारी अपनी निजी सीमाएँ हैं, इसलिए सभी साथियों, पत्रकारों, संपादकों और ब्लागर्स से हमारा अनुरोध है कि वे इसे अपने-अपने माध्यम से अधिकतम लोगों तक पहुंचाने में सहयोग करें। यह अपने मूल रूप में प्रकाशनार्थ है।
साहित्यिक संस्थानों मे गैर साहित्यिक कर क्या रहे हैं ? इनमे से हर कोई किसी न किसी पहुंचे हुए का भाई-भतीजा ही होगा ! लाभ का कोई भी पद इनसे नहीं बचेगा ,चाहे संस्था ही बर्बाद हो जाए ! मर रहा है सब कुछ इन भूखे जबड़ों के बीच !! छिः !!
जवाब देंहटाएंआपके वक्तव्य से सहमत होते हुए भी मेरा ये मानना है की सियापा करने से कुछ नहीं होने वाला.आपको विरोध करना है तो सामने आइये.केवल भारत भवन का मंच ही देश की जन संस्कृति का सरंक्षक नहीं है. संस्कृति की रक्षा वहां होगी जहाँ आप-हम और हमारा जन होगा.लम्बे समय तक यहाँ हम थे,अब ये हैं.देखते हैं की बिना सरकारी सरक्षण के हम जन संस्कृति की रक्षा कर सकते हैं.या नहीं?
जवाब देंहटाएंयह देखकर हैरानी हो रही है कि कुमार अंबुज तो स्वयं प्रगतिशील लेखक संघ में सक्रिय रहे हैं और राजेश भाई भी। लेकिन इन दोनों को ही यह चिंता व्यक्तिगत रूप से सामने आकर व्यक्त करनी पड़ रही है। क्या इस तरह के प्रतिरोध के लिए अब प्रगतिशील लेखक संघ जैसा संगठन भी नहीं बचा है। निश्चित ही भारत भवन जैसी संस्थाओं में जो घट रहा है उससे कहीं अधिक त्रासदी की बात यह होगी कि हमारे पास कोई अपना संगठन नहीं है।
जवाब देंहटाएंयह पोस्ट देखी। दिक्कत यह है कि जब अशोक वाजपेयी थे तब भी एक समुदाय भारत भवन को संस्कृति का अजायबघर कह रहा था। वे नहीं है तब भाजपा शासन काल में भी यह हाल है जिसका बयान यह वक्तव्य करता है। सवाल केवल मध्यप्रदेश के साहित्यिक सांस्कृतिक संस्थानों के सम्मान को बचाने का नहीं है, दूसरे प्रदेशों में क्या हो रहा है, यह भी देखने का है। इन लेखकों से छत्तीसगढ का हाल छिपा है क्या। उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान का क्या हाल है। वहॉं तो म.प्र. जैसा स्वर्णयुग कभी नहीं रहा न लेखकों कवियों की इतनी समादृत सूची जो मप्र के साहित्यिक सांस्कृतिक संस्थानों में रही है। कभी अखिलेश जैसे लोग हिंदी संस्थान से जुड़े भी तो जल्दी ही उस घुटन से बाहर आ गए। एक अरसे तक वहॉं बाल्यकाल चलता रहा। बाल साहित्यकारों की बन आई। पीछे माया सरकार ने सारे पुरस्कार ही बंद कर दिए इससे जो साहित्यिक लीलाऍं चल भी रही थीं, वे बंद हो गयीं। दिल्ली की हिंदी अकादमी के बारे में अरण्य रोदन चल ही रहा है। लोग कह रहे हैं पता नहीं कैसे कैसे अज्ञातकुलशील वहॉं पहुँच गए हैं। अशोक चक्रधर को लेकर रुदन हुआ। राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, का क्या हाल है, हम जानना ही नही चाहते। बिहार की हिंदी ग्रंथ अकादमी व राष्ट्रभाषा परिषद का पहले जैसा ही बुरा हाल है। ये सब हिंदी प्रदेश हैं जहॉं के संस्थान रुग्ण इकाइयों में बदल गए हैं। कुछ दिन पहले वर्धा स्थित विविके बारे में भी कुछ लोगों ने दुष्प्रचार छेड़ा। यह सब है तो चिंताजनक लेकिन केवल अपना अपना छत्र मुकुट बचाने के लिए जो लोग विरोध में उतर आए हैं, उससे आगे बढ़ कर वे यह मॉंग करें कि समस्त हिंदी प्रदेशों के साहित्यिक सांस्कृतिक संस्थानों की गरिमा को बहाल किया जाए, उसकी विश्वसनीयता लौटायी जाए। बिना इस बड़े प्रयत्न के यह सारी आवाजें ‘हुआ हुआ’ में बदल जाऍंगी।
जवाब देंहटाएंमध्यप्रदेश के लेखकों ने कम से कम अपना प्रतिरोध दर्ज कियाा इसी तरह दूसरे प्रांतों के लेखकों को भी अपने यहां के संस्थानो की दशा पर सवाल उठाना चाहिएा यह सम्भव नहीं कि राजेश जोशी और कुमार अंबुज तथा नीलेश रघुवंशी अपने प्रांतो के साथ सभी प्रांतो के लिए प्रतिरोध की मुहिम छेडंेा इस तरह की मांग करना प्रतिरोध् के किसी मूर्त प्रयास को अमूर्त बना देना हैा
हटाएंअशोक , इस पोस्ट में जो बातें कही गयी हैं उनसे मेरी सहमति है | इस विरोध को लेखक संघठनों के माध्यम से आना चाहिए था पर ऐसा हुआ नहीं , इस मनसा को भी समझना होगा | ये तीनों ही साथी अगर इस दिशा में सोचते तो ऐसा हो सकता था|और अब भी अगर हो सकता है तो इस दिशा में आगे बढ़ना चाहिए |राजेश जोशी जी का एक फोटो मैंने तुम्हारी वाल पर शेयर किया है , यह क्या है ? हम नुक्ता में तो जायेंगे पर पंगत में नहीं बैठेंगे ,इसका क्या मतलब है ? जो आ रहे हैं उन्हें सुनने जाने का क्या हश्र होता है,इस फोटो को देखकर समझ में आता है |जाने की इस सदासयता को इस मासूमियत को भी समझने की ज़रूरत है |
हटाएंसोना नकली रहा होगा . तभी ज़ंग लगा . लोहे को खुश होना चाहिए कि जिसे वह सोना समझ रहा था वह भी वह उस का अपना भाई निकला. शुक्र मनाना चाहिए कि च्लो भाईयों का मुलम्मा छूट रहा रहा है. एक दिन सभी भाई संगठित हो कर कविताअएं लिखेंगे .
जवाब देंहटाएंmail par prapt Rajesh Joshi ji ka patra
जवाब देंहटाएंप्रिय मित्रो,
मुझे ज्ञात हुआ है कि भारत भवन में युवा-3 के अवसर पर दीप जलाते हुए मेरी
एक तस्वीर किसी मित्र ने अपनी फेस बुक पर लगाई है। मैं इस तस्वीर को नहीं
देख पाया हूँ। ऐसी कुछ और तस्वीरें भी भविष्य में कुछ 'हितचिंतकों'
द्वारा प्रसारित और प्रचारित की जा सकती हैं। मसलन युवा तीन में युवा
रचनाकारों को गुलदस्ता देते हुए। एक वरिष्ठ कथाकार को रचनापाठ के समय
गुलदस्ता देते हुए । एक प्रदर्शनी के बाद आयोजित भोज में कुछ खाते हुए
आदि। ये सारे चित्र देखने को मिल सकते हैं। इनमें कुछ भी झूठ नहीं।
जब कुछ रचनाकार मित्रों ने भारत भवन में हिस्सेदारी नहीं करने का निर्णय
स्व विवेक से लिया था तब इस बाबत भी चर्चा हुई थी कि दर्शक या श्रोता की
तरह हमें वहाँ जाना चाहिये या नहीं ? कई महत्वपूर्ण रचनाकार हिस्सेदारी
करने हेतु वहाँ आते रहे हैं, और अभी भी आ रहे हैं। स्वर्गीय कमला प्रसाद
जी के साथ हुई इस चर्चा में यह तय पाया गया था कि क्योंकि भारत भवन का
बहिष्कार करने का कोई निर्णय संगठनों या लेखकों द्वारा नहीं लिया गया है
अतः अपनी रूचि और अपनी सुविधा के हिसाब से हम महत्वपूर्ण कार्यक्रमों में
एक श्रोता या दर्शक की हैसियत से जायेंगे। हम ऐसा समय समय पर करते भी
रहे। मैं युवा-3 में एक दर्शक के रूप में ही वहाँ गया था और युवा
रचनाकारों के रचनापाठ तथा एक वरिष्ठ कथाकार के रचनापाठ में भी बतौर एक
श्रोता उपस्थित था।
युवा-3 का उदघाटन संभवतः श्री रमेशचन्द्र शाह ने किया था। जैसा कि होता
है, उद्घाटक दीप की एक या दो बाती जलाकर मोमबत्ती दूसरे लेखक की ओर बढ़ा
देता है। ऐसा ही वह अवसर था अचानक मुझे पुकार कर मोमबत्ती मुझे दे दी
गयी। इसी तरह युवा और वरिष्ठ रचनाकार के पाठ के समय अचानक ही मुझसे कहा
गया कि आप रचनाकार को गुलदस्ता दे दें। सौजन्यतावश मैंने ऐसे समय में
इससे इन्कार नहीं किया। यदि ऐसे समय में मैं इंकार करता तो जाहिर है कि
इससे उपस्थिति रचनाकारों का अपमान होता। वे लेखक अंतत: हमारी अपनी
बिरादरी के लोग हैं। मैं अपने युवा या समकालीन या वरिष्ठ रचनाकार का कभी
भी अपमान नहीं करता बल्कि मैं यह भी बर्दाश्त नहीं कर सकता कि मेरी
उपस्थिति में कोई किसी दूसरे रचनाकार का बेवजह अपमान करे। रचनाकार की
विचारधारा चाहे कुछ भी हो।
इस प्रकरण ने शासन के संस्कृति विभाग और उसके कर्ताधर्ताओं की संकीर्ण
मानसिकता को उजागर कर दिया है। बहुत दिनों से हम सौजन्यतावश और अपने
रचनाकारों के प्रति सृहदयता और आदर के कारण, भारत भवन या अन्य अकादमियों
के कार्यक्रमों में अपने महत्वपूर्ण रचनाकारों को सुनने के लिये एक
श्रोता की तरह उपस्थित होते रहे हैं। इस प्रकरण ने ये रास्ते बंद कर दिये
हैं। मैं इस प्रकरण में शामिल सभी मित्रों को धन्यवाद देता हूँ कि
उन्होंने मुझे अब मन मसोसकर श्रोता या दर्शक होने के संकट से भी उबार
दिया है।
प्रिय भाई, आपको बार बार वक्तव्य में उठाये मूल मुद्दों से अलग भटकाने की
कोशिश की जायेगी। ऐसी अश्लील और भद्दी कोशिशें ही इस बात का साक्ष्य हैं
कि वक्तव्य के बिंदुओं का कोई जवाब सरकार के संस्कृति विभाग या उसके
समर्थकों और ढिंढोरचियों के पास नहीं है। इन संस्थाओं से यह लड़ाई महज आज
चालू नहीं हुई है, समय समय पर पहले भी इन संस्थाओं के गैरजन्तान्त्रिक
स्वरूप और इनमें सांस्कृतिक कार्यकलापों के नाम पर होने वाली अनेक
जनविरोधी विचारों से लैस गतिविधियों का पहले भी विरोध हुआ है और वह विरोध
सिर्फ भोपाल या मध्यप्रदेश के स्तर पर नहीं सारे देश के रचनाकारों
कलाकारों द्वारा किया गया है।
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इसी क्रम में, साथी कुमार अम्बुज के भारत भवन में ‘रचनापाठ की काफी
पुरानी तस्वीरों' को इस समय लगाने के पीछे क्या मंतव्य है, इसे समझा जा
सकता है। जबकि ऐसे दौर आते रहे हैं कि मुद्दों पर आधारित प्रतिरोध और
विरोध समाप्त हुआ तो व्यापक लेखक समुदाय द्वारा सहज भागीदारी, सार्वजनिक
और सांगठनिक निर्णयों के तहत की ही गई। उसका यहाँ स्मरण कराए जाने की
मंशा शरारतन है और उसका कोई विपथगामी संदर्भ नहीं बनता है।
बहरहाल, हमारे अग्रजों, साथियों द्वारा दिए गए सुझावों, सलाहों और अन्य
प्रतिक्रियाओं को ध्यान में रखकर, इस प्रतिरोध को आगे बढ़ाकर कुछ और
बिंदुओं को समाहित करते हुए एक वक्तव्य और जारी किया जाएगा जिसे आपको
पृथक से प्रेषित करेंगे। साथियो, इंतजार करें और भरोसा भी। हमारा
‘स्टैण्ड’ स्पष्ट है और उस पर हम कायम हैं।
आपका,
राजेश जोशी
भोपाल, 10.7.2012
adbhut ! is masoom jawaab se abhibhoot hoon. !!
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