(बाराबंकी से निकलने वाली पत्रिका लोकसंघर्ष ने पिछले महीने जब अपनी पत्रिका के बैक कवर के लिए मंटो पर एक नोट लिखने के लिए कहा तो दो-ढाई सौ शब्दों में मंटो जैसे लेखक के बारे में लिखना मुझे लगभग असंभव लगा. इतना प्रिय और इतना बड़ा लेखक...और दो-ढाई सौ शब्द! लेकिन इसके संपादक सुमन जी जिस लगन और पक्षधरता से यह पत्रिका निकालते हैं, उनके आग्रह को मैं हमेशा ही आदेश की तरह लेता हूँ. तो लिखा...)
सआदत हसन
मंटो अपने वक़्त से आगे के अफसानानिगार थे. इतना आगे कि उनकी मौत के बाद आधी सदी से
अधिक का वक़्त गुजर जाने के बाद भी आज तक शायद उन्हें ठीक से पहचाना जाना बाकी है. यह
हमारी भाषा की बदनसीबी ही हो सकती है कि मंटो जैसे लेखक की अंतर्राष्ट्रीय स्तर की ‘खोल दो’, ‘काली सलवार’, ‘बू’ और ‘टोबाटेक सिंह’ जैसी कहानियाँ
कस्बाई रेलवे स्टेशनों के सस्ते स्टालों में ‘मंटों
की बदनाम कहानियाँ’
शीर्षक से लुगदी के कागज़ और बेहद घटिया आवरण वाली किताबों में बेची जाती हैं. जीते
जी भी हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के तमाम एलीट लेखकों और आलोचकों के लिए वह दंगों, फ़िरकावाराना वारदात और वेश्याओं पर कहानियाँ लिखने
वाले सामान्य से साहित्यकार थे. बहुत कम लोग यह देख पाए थे कि वह, दरअसल
हिन्दी-उर्दू के तत्कालीन परिदृश्य के सारे पाखंड को छिन्न-भिन्न कर समाज का वह
बदरंग चेहरा दिखाने वाले रचनाकार थे, जिस तक शहर-ओ-गाँव की शरीफ गलियों में रहने
वाले जाते तो हैं, मगर दिन के उजाले में नहीं, रात के अँधेरे में.
अमृतसर की गलियों में
अपने पहले उस्ताद अब्दुल बारी से कम्यूनिज्म और शहर की जुए की फड़ों से लेकर तमाम
बदनाम गलियों में आवारागर्दी करते हुए ज़िंदगी की तल्ख़ हकीक़त सीखने वाले मंटो सही
अर्थों में एक बोहेमियन और विद्रोही लेखक थे. अमृतसर से लाहौर फिर बम्बई की फिल्मी
दुनिया और फिर बँटवारे के बाद पाकिस्तान तक के सफर में उन्होंने ज़िंदगी को
किताबों के भीतर भी देखा और बाहर भी. सच कहने की उनकी जिद ने उन्हें वह नज़र भी
बख्शी और कलम भी जिससे वह इस देखे-भोगे गए को उसकी पूरी तल्खी के साथ दर्ज कर सके.
साहित्य की चारदीवारी से बाहर रह गए लोग उनकी कहानियों के नायक बने.
बंटवारे के वक़्त जब
चारों ओर साम्प्रदायिकता का दैत्य अट्टाहास कर रहा था, तब मंटों उन गिने-चुने
कहानीकारों में से थे जो धर्म के नाम पर किये जा रहे इस खून-खराबे के असली चेहरे
देख पा रहे थे. स्त्री विमर्श के हालिया शोर-शराबे से बहुत पहले उन्होंने यह
साफ़-साफ़ देखा था कि नफ़रत का यह खेल सबसे पहले स्त्री देह पर खेला जाता है. इसीलिए
उनकी कहानियों में यह बहुत तल्खी के साथ और बहुत साफगोई से आता है, बिना किसी परदे
के. ज़ाहिर है कि कुलीन और मध्यवर्गीय परिवेश के लोगों की भवें टेढ़ी होतीं, ज़ाहिर
है कि काल्पनिक आदर्शों में जीने वालों को वह सब अश्लील लगता. लेकिन मंटो ने इसकी
कब परवाह की. उन्होंने नंगे सच लिखे और उसकी कीमत चुकाई. वह उस आदमी की तरह थे
जिसने राजा को नंगा देखा ही नहीं था, उसे नंगा कहने की हिम्मत भी की थी.
42 साल की कम उम्र में
उनका चले जाना दक्षिण एशियाई ही नहीं बल्कि दुनिया भर के साहित्य की एक अपूरणीय क्षति
थी. फिर भी कोई बीस साल के अपने लेखन काल में उन्होंने जितना कुछ लिखा, वह हमारी
धरोहर है जिसके आईने में इतिहास और वर्तमान के कई सफे बहुत साफ़-साफ़ पढ़े जा सकते
हैं. जन्मशताब्दी के इस वर्ष में अगर हम यह ज़रूरी काम कर सके तो यह मंटो के साथ हो
न हो अपनी अदबी विरासत के साथ एक बड़ा न्याय होगा.
मण्टो के पास एक कथा सुनाने का मँझा हुआ हुनर था और आअश्चर्यजंनक रूप से सहज ज़ुबान! छात्र जीवन मे मैने मण्टो की कहानियाँ उसी तरह से पढ़ ली थी जैसे सुरेन्द्र मोहन पाठक के उपन्यास पढ़ लिया करता था .जब कि जैनेन्द्र भीष्म साहनी और अग्येय (यहाँ तक कि प्रेम चन्द का भी) का फिक्शन भी मूड बना के ही पढ़ पाता था.मण्टो अपने टॉपिक के मास्टर थे .
जवाब देंहटाएंठीक यही मैं भी कह सकता हूँ अजेय भाई..मंटो के पास खुद को पढवा ले जाने का जो हुनर है...वह अद्वितीय है.
हटाएंमेरे चाचा ने दो - चार लप्पड़ मारा था जब उन्हें देखा कि "मंटो की बदनाम कहानियों " शीर्षक वाली किताब मेरे बैग की शोभा बढ़ा रही थी ! इस तरह मेरी मंटो से पहली मुठभेड़ हुई ! छुप छुप के उन्हें पढने का सिलसिला जारी ही रहा !
जवाब देंहटाएंहम तो हास्टल में आने के बाद ही ठीक से पढ़ पाए...
हटाएंसही ! हॉस्टेल पहुँचने से पहले हम समझते थे कि साह्त्य वही है जो शेक्स्पीयर, सुभद्राकुमारी चौहान , या टेगोर बड़ी हद प्रेम चन्द या बच्चन ने लिखा है . बाक़ी तो सारे चुटकुले और पॉर्नोग्राफी ही है . कभी कभी खुशी से पागल हो जाता हूँ कि हमारी पीढ़ी किस मूढ़ अँधेरेपन से झाँकने मे क़ामयाब हुई है !!और उम्मीद जगती है . सुबह होगी .
हटाएंपांचवें दशक के बाद आने वाले साहित्यकारों में अपंगो की बहुलता रही- जिसके कारणवश "कविता" की तरह ही "कहानी" की परिभाषा भी बदल दी गयी. बावजूद इसके कि 'एक कहानी रोज' जैसी रचनाएँ हुई (करनी पड़ीं), मंटो साहब कहानी लेखन के मूल से नहीं भटके. यही कारण है कि कहनी के दो प्रमुख बिदुओं में से (१) "अंत" के ना होते हुए भी (२) गति- उनकी रचनाओं को कहानी ही रहने देती है. उपरोक्त टिप्पणी इसका उदाहरण है.
जवाब देंहटाएंमंटो पर बहुत अच्छा लिखा गया लेख ! संक्षिप्त किन्तु सारगर्भित !
जवाब देंहटाएंनिश्चित रूप से मंटो विश्व के कुछ अप्रतिम अफसानानिगारों में से एक हैं. अपने समय से आगे की कोई भी रचना तमाम लोगो के दुराग्रहों का शिकार होती रही है. और अगर भारत जैसे रूढ़िवादी समाज की बात हो तो ऐसा होना स्वाभाविक ही है. फिर भी मंटो का जवाब नहीं. राजा को नंगा कहने का साहस रखने वाला लेखक ही कालजयी रचना लिख पाता है. आपने सारगर्भित आलेख में मंटो की जिन खूबियों की तरफ ध्यान आकृष्ट किया है वह काबिलेतारीफ है. बधाई.
जवाब देंहटाएंजिस तरह से मंटो ने अपने समय और अपनी दुनिया को डूबकर समझा था , काश यह दुनिया भी उसी तरह उसे डूबकर समझ पाती |...
जवाब देंहटाएंमंटो पर संक्षेप में ही किंतु संपूर्ण और सटीक दृष्टिपात। बधाई और आभार अशोक जी... मंटो की रचनाओं पर बात होनी चाहिए। इस नजरिये की सविस्तार पड़ताल होनी चाहिए कि ऐसे महत्वपूर्ण रचनाकार को क्या सोचकर आलोचना की चौहद्दी से लगभग बाहर रखा जाता रहा। उनकी एक-एक कहानी को पेश करते हुए यहां विमर्श आगे बढ़े तो कोई बात बने..
जवाब देंहटाएंमंटो पर संक्षेप में ही किंतु संपूर्ण और सटीक दृष्टिपात। बधाई और आभार अशोक जी... मंटो की रचनाओं पर बात होनी चाहिए। इस नजरिये की सविस्तार पड़ताल होनी चाहिए कि ऐसे महत्वपूर्ण रचनाकार को क्या सोचकर आलोचना की चौहद्दी से लगभग बाहर रखा जाता रहा। उनकी एक-एक कहानी को पेश करते हुए यहां विमर्श आगे बढ़े तो कोई बात बने..
जवाब देंहटाएंsadat hasan manto ki likh ne ki chaturayi bhot ajeeb si thi. aap kam shabdo me manto ke bare me batadiya hai.
जवाब देंहटाएंaap ke pas saadat hasan manto par samagri hoto muje bhejne ki kripa kare. my manto par shod kar raha hu, mera shod vishay hai " saadat hasan manto ki pramuk kahaniyon me vibhajan ki trasadi "
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