जाने माने अर्थशास्त्री प्रोफ़ेसर गिरीश मिश्र की नई किताब ‘बाज़ार-अतीत और वर्तमान’ की समयांतर में लिखी समीक्षा आप सब के लिए
बाज़ार को लेकर साहित्य और समाज, दोनों में जितनी बहस आज है, शायद पहले कभी नहीं थी. नब्बे के दशक में भूमंडलीकरण और उदारीकरण की संरचनात्मक समायोजन वाली नई आर्थिक नीतियों के लागू होने के बाद से जिस तरह से बाज़ार में नई-नई उपभोक्ता वस्तुओं का एकदम से आगमन हुआ और इस नई आर्थिक व्यवस्था के फलस्वरूप जन्में एक नए मध्यवर्ग के बीच उपभोक्तावाद ने जिस तरह से जड़ें पसारी, यह वैकल्पिक व्यवस्था का स्वप्न देखने वाले लोगों के लिए भौंचक कर देने वाली परिस्थितियाँ थीं. सोवियत रूस के विघटन के बाद पहले से ही अवसन्नता कि स्थिति में पड़े हुए बौद्धिक वर्ग के लिए यह परिघटना एक आघात से कम न थी. वैसे भी खासतौर पर हिन्दी के साहित्यिक वाम के एक बड़े हिस्से के बीच वामपंथ को लेकर जो समझदारी रही वह किसी वैज्ञानिक समझदारी की जगह वंचित-शोषित वर्ग के प्रति एक भावनात्मक लगाव और पक्षधरता के कारण ही थी, आज भी है. यह कोई अस्वाभाविक बात नहीं थी, एक हद तक इसके सकारात्मक पहलू भी हैं, लेकिन कई बार वामपंथ के औजारों की सही समझ के अभाव में केवल भावनात्मक पक्षधरता ऐसे सूत्रों में अनुदित होती है कि वह उन्हीं उद्देश्यों के विरुद्ध काम करने लगती है, जिनके साथ होने का वह दावा कर रही होती है. बहुचर्चित कहानी ‘बाज़ार में रामधन’ इसका एक बड़ा उदाहरण है. उदारीकरण की नई नीतियों को लेकर अक्सर ऐसी चीजें देखी जाती हैं. इन्हें आज़ादी के बाद लागू की गयी नीतियों और माडलों की तार्किक परिणिति की तरह देखने की जगह एक बिलकुल नई परिघटना की तरह देखा गया. नेहरूवादी समाजवाद को, जो अपने मूल में राजकीय पूंजीवाद का ही एक माडल था, शुरू से ही तमाम लोगों द्वारा ‘समाजवादी’ माडल की तरह देखा गया, जिनमें खुद को वाम कहने वाले साहित्यकार ही नहीं राजनीतिक कार्यकर्ता और नेता भी शामिल थे. तो नब्बे के दशक के बाद के समय में उस पुराने राजकीय पूंजीवाद को एक तरह की नास्टेल्जिया से याद किया जाना (जो कमोबेश अब भी ज़ारी है) और प्रत्यक्ष दिखाई दे रहे ‘शत्रु’ – बाज़ार के खिलाफ जंग का एलान कर दिया गया. ‘बाज़ार के खिलाफ’ लिखी गयी कविताओं से लेकर कहानियों, उपन्यासों और लेखों का एक जखीरा आज हमारे सामने है. एक ऐसे शब्द – बाजारवाद- के खिलाफ यह छायायुद्ध लगातार लड़ा जा रहा है, जो असल में कहीं है ही नहीं, जो असल में ‘पूंजीवाद’ की जगह बड़ी चतुराई से पूँजीवाद के सिद्धांतकारों द्वारा पेश किये गए शब्द ‘बाजार प्रणाली’ (market system) का भ्रष्ट अनुवाद है. इस शब्द की लोकप्रियता का यह आलम है कि एक आलेख में मेरे द्वारा लिखे गए “बाज़ार की ताकतों’ को एक वरिष्ठ संपादक ने, जो एक वरिष्ठ साहित्यकार भी हैं, ‘बाजारवाद’ में तब्दील कर पूरे वाक्य को हास्यास्पद बना दिया था. वरिष्ठ अर्थशास्त्री और विश्व साहित्य के गंभीर अध्येता प्रोफ़ेसर गिरीश मिश्र की सद्य-प्रकाशित पुस्तक ‘बाज़ार-अतीत और वर्तमान’ ऐसे संभ्रम के माहौल में बहुत सारे धुंध और जाले साफ़ करती है. वह न केवल इस शब्द के पीछे छुपी साजिश को सामने लेकर आता है, बल्कि पूंजीवादी अर्थशास्त्रियों द्वारा प्रस्तावित “उपभोक्ता की सार्वभौमिकता” के दावे को भी प्रश्नांकित करता है. साथ ही वह बाजार की उत्पति से लेकर उत्पादन संबंधों में बदलाव के साथ-साथ आई इसकी भूमिका की विस्तार से जांच-पड़ताल करते हैं.
जिस पहली और सबसे ज़रूरी बात वह
आरम्भ करते हैं वह यह कि बाज़ार न तो पूंजीवाद के दौर की पैदाइश हैं न ही पूंजीवाद
के साथ समाप्त हो जायेंगे. ‘बाज़ार का उद्भव’ नामक अध्याय
में वह उन सामाजिक-आर्थिक स्थितियों का विस्तार से वर्णन करते हैं. प्राक-आधुनिक
समाजों में वस्तु-विनिमय (barter-system) की जगह मुद्रा के उदय की व्याख्या करते
हुए वह मुर्गियों और बकरी के बीच के विनिमय की दिलचस्प दिक्कतों वर्णन करते हुए वह
प्राक-मुद्रा के उदय के बारे में बताते हैं. पश्चिम के साथ भारत में बाज़ार के उदय
और विकास का निर्धारण करने के लिए वह अथर्ववेद, पाणिनी और कौटिल्य अर्थशास्त्र के
उद्धरण देते हुए सिद्ध करते हैं कि 500 ई.पूर्व में ही व्यापार न केवल स्थानीय
अपितु आयात-निर्यात संबंधी व्यापक स्तर पर भी शुरू हो चुका था. सामाजिक-आर्थिक
व्यवस्था के विकास के साथ-साथ व्यापार की पूरी व्यवस्था की संरचना और स्वरूप में
भी बदलाव आया. बाणभट्ट की हर्षचरितम के उद्धरणों के सहारे वह बताते हैं कि - इस
दौर तक व्यापार में मुनाफाखोरी जैसी प्रवृति भी आ गयी थी. इस दौर में ‘वणिज
तस्कर’ जैसे शब्द का प्रयोग मिलता है जिससे यह रेखांकित करने का
प्रयास किया गया है कि चोर बने बिना धनवान वणिक होना मुश्किल है. साथ ही वह यह
महत्वपूर्ण तथ्य भी रेखांकित करते हैं कि ‘बाज़ार को राज्य द्वारा नियंत्रित
रखने की परिघटना हजारों वर्ष पुरानी है’. अगले अध्याय में वह ‘पूंजीवाद
के पहले भारत में विनिमय’ की विवेचना करते हुए वह तीन निष्कर्षों
पर पहुँचते हैं, “पहला – बाज़ार निरंतर विकसित और विस्तृत होता
रहा, दूसरा- उत्पादन का मूल उद्देश्य उपभोग को विविधतापूर्ण बनाना था न कि मुनाफ़ा
कमाना और तीसरा – बाज़ार सख्ती से ग्राम समुदाय और तत्कालीन प्रशासनिक व्यवस्था
के अधीन था, जहाँ कीमतों, वस्तुओं की गुणवत्ता और मापतौल पर राज्य या समाज की
निगाह निरंतर बनी रहती थी. गडबडी करने वालों पर सख्त कार्यवाही होती थी.” इसी
दौर में योरप के बाजारों की संरचना की विवेचना करते हुए इस निष्कर्ष पर पहुंचते
हैं कि सामंतवाद के पतन तक आई समस्त आर्थिक प्रणालियों के लिए ‘यह
प्रस्थापना सही थी कि पारस्परिकता, पुनर्वितरण और पारिवारिकता के सिद्धांत मूलाधार
बने रहे’. हालांकि वह इस तथ्य को रेखांकित नहीं कर पाए हैं कि इस दौर
में खासतौर से भारत जैसे समाज में, जहाँ जाति जैसी उत्पीडक सामाजिक संरचना के
कारण स्वनिर्भर गाँवों में उत्पादक खुद
अपने उत्पाद का उपभोग कर पाने के लिए आज़ाद नहीं था, बाज़ार ने एक हद तक मुक्तिदाता
की भूमिका भी निभाई, यहाँ ग़ालिब का वह शेर याद किया जा सकता है – ‘और
ले जायेंगे बाज़ार से गर टूट गया/ जाम-ए-जम से मेरा जाम-ए-सिफ़ाल अच्छा है.’
बाज़ार का प्रभाव असल में
पूंजीवाद के आगमन के साथ बढ़ता चला जाता है. इस दौर में बाज़ार ‘समाज
के कार्यकलाप में सहायक’ की भूमिका से आगे बढ़कर एक ऐसी सत्ता
में तब्दील हो जाता है जो पूरी आर्थिक प्रणाली का नियंत्रण, नियमन और निर्देशन
करने लगता है. लाभ इकलौता उद्देश्य बन जाता है और बाज़ार पर समाज का नियंत्रण
धीरे-धीरे खत्म होता चला जाता है. यह ‘स्वचालित तथा स्वनियमित’
बाज़ार मनुष्यता के समक्ष एक चुनौती की तरह आता है. उत्पाद आवश्यकताओं की पूर्ती के
लिए नहीं अपितु बाज़ार में बेचने के लिए आता है, जिसका उद्देश्य, जाहिर तौर पर
मुनाफ़ा कामना होता है. यहाँ तक कि श्रम, भूमि और मुद्रा भी मुनाफे के उद्देश्य से
माल में तब्दील हो जाते हैं. पोलान्यी का उद्धरण देते हुए वह बताते हैं कि ‘श्रम,
भूमि और मुद्रा को माल बनाकर उन्हें बाज़ार तंत्र के हवाले करने के परिणाम समाज के
लिए विध्वंसकारी होंगे.” आज हिन्दुस्तान सहित दुनिया भर में
जारी जल-जंगल-जमीन की लूट और श्रम के बेतहाशा शोषण के साथ मुद्रा बाज़ार की उठापठक
के चलते मानवता के सम्मुख उपस्थित अभूतपूर्व संकट के मद्देनजर इस भविष्यवाणी के
महत्व को समझा जा सकता है. श्रम, भूमि और मुद्रा को माल बनाकर पूंजीवाद की हवस ने
खुद स्वनियमित बाज़ार को भी संकट में डाल दिया है. इसका सीधा परिणाम ‘बाज़ार
और समाज में टकराव’ के रूप में सामने आता है. इसी शीर्षक के अगले अध्याय में वह
पूंजीवाद के विकास के साथ पैदा हुई परिस्थितियों का विस्तार से वर्णन किया है.
योरप में औद्योगीकरण की प्रक्रिया में हुए गाँवों के विघटन और वहाँ से पलायन पर
मजबूर मजदूरों की नगरीय व्यवस्था से पैदा हुई घृणा को रेखांकित करते हुए वह इस
असंतोष के कारणों की विस्तार से विवेचना करते हैं. साथ ही वह पूंजीवादी उत्पादन
संबंधो के स्थापित होने के साथ-साथ उसके पक्ष में चलने वाली बौद्धिक कार्यवाहियों
का ज़िक्र करते हैं. एडम स्मिथ के ‘वेल्थ आफ नेशंस’ के साथ वह
टामसन हाब्स और विलियम टाउनसेंड के उस निष्कर्ष का ज़िक्र करते हैं जिसमें यह साफ़
किया गया था कि ‘मुक्त समाज में दो नस्लें होंगी, सम्पतिवानों की और मजदूरों
की. मजदूरों की संख्या खाद्य पदार्थों की उपलब्धि पर निर्भर होगी ; और जब तक
संपत्ति सुरक्षित रहेगी तब तक भूख मजदूरों को काम करने के लिए बाध्य करेगी. किसी
मैजिस्ट्रेट की ज़रूरत नहीं पड़ेगी, क्योंकि भूख अनुशासित करने का अच्छा तरीका है’.
ज़ाहिर है कि इस गैरबराबरी और संसाधनों की लूट के पक्ष में माल्थस या रिकार्डो जैसे
सिद्धांतकार सामने आते हैं. पी बी से कहते हैं कि ‘जो बना है वह
सब बिक जाता है’, एडम स्मिथ ‘किसी अदृश्य हाथ द्वारा बाज़ार को हमेशा
संतुलन में रखे जाने’ की बात करते हैं, माल्थस श्रमजीवी वर्ग की विपन्नता की
जिम्मेवारी उनके द्वारा जनसंख्या बढाए जाने के सर थोप देते हैं. साहित्य से लेकर
दर्शन तक में पूंजीवाद के निजी सम्पति के अधिकार और श्रम, जमीन और मुद्रा को माल
में बदल देने के पक्ष में माहौल बनया जाता है. लेकिन इसी के साथ-साथ इस लूट का
प्रतिरोध भी जन्म लेता है. गिरीश जी ने राबर्ट ओवेन का हवाला दिया है, जिसने ‘अगर
बाज़ार अर्थव्यस्था को अपने खुद के नियमों के अनुसार विकसित होने दिया गया तो वह
बड़ी और स्थाई बुराइयों को जन्म देगी.’ इसी दौर में अंपटन सिंक्लेयर के
‘जंगल’
जैसे उपन्यास लिखे गए, जो नई फैक्ट्रियों के भीतर श्रमिकों के भयावह शोषण और बाहर
उनकी नारकीय जीवन स्थितियों का ज़िंदा दस्तावेज बना.
इस अध्याय में गिरीश जी,
सामंतवाद के दौर से निकलकर पूंजीवाद के दौर में आने पर सामाजिक संरचनाओं में हुए
बदलाव का ज़िक्र करते हैं. ज़ाहिर तौर पर पूंजीवाद सामंतवाद की तुलना में एक आगे बढ़ी
हुई सामाजिक-राजनैतिक व्यवस्था थी, जहाँ मनुष्य की अस्मिता और आजादी के लिए सम्मान
था. आर्थिक गैरबराबरी तो खैर पूंजीवाद की लाक्षणिकता है ही, लेकिन सामंतवाद के
सामाजिक गैरबराबरी वाले ढांचे में दरार तो इसने लगाई ही. गिरीश जी के शब्दों में ‘
जाति-बिरादरी, छुआछूत और धर्म-सम्प्रदाय के बंधनों से मुक्त तो कर दिया मगर भूख और
सामाजिक असुरक्षा का हर्निश भय पैदा कर दिया’. हालांकि,
भारत में अपनी स्वाभाविक विकास प्रक्रिया से गुजरे बिना जिस तरह से औपनिवेशिक शासन
द्वारा बीमार और सतमासा पूंजीवाद आया, गिरीश जी
का यह कथन और अधिक विवेचना की मांग करता है कि – ‘ब्राह्मण-शूद्र,
हिन्दू-मुसलमान, ऊंच-नीच के भेद मिट गए और वे सब एक ही नई बिरादरी-मजदूर वर्ग- के
सदस्य हो गए.’ असल में, भारत में इस तरह के जाति-धर्म विहीन मजदूर वर्ग के
उदय की बात सरलीकरण सी लगती है. यहाँ ये सामाजिक विभेद लंबे समय तक अधिरचना में
उपस्थित रहे और आधार में आज भी इनकी गहरी उपस्थिति दिखाई देती है. इस सन्दर्भ में
थोड़ी और विवेचना और खास तौर पर उस दौर के फुले-पेरियार-अम्बेडकर जैसे आन्दोलनों के
महत्व के रेखांकन की आवश्यकता थी, जिसे लेखक चुके हैं. साथ ही पूरी किताब में
महिलाओं के सन्दर्भ में कोई बातचीत न होना भी खटकता है. पूंजीवाद महिलाओं को भी एक
हद तक आजादी देता है, लेकिन साथ ही वह न तो उन्हें चूल्हे-चौके से मुक्ति दिलाता
है और न ही लैंगिक असमानता को पूरी तरह खत्म करता है. साथ ही वह नारी देह को एक
वस्तु के रूप में तब्दील कर देता और महिलाओं के श्रमिक के रूप में तब्दील हो जाने
के बाद भी उन्हें पुरुषों की तुलना में दोयम दर्जे की मजदूरी और कार्य
परिस्थितियाँ मिलती हैं. अभी हाल में आई जयति घोष की किताब ‘नेवर डन एंड
पुअरली पेड’ और इन्द्रानी मजूमदार की किताब ‘विमेन
वर्कर्स एंड ग्लोबलाइजेशन’ बताती हैं कि किस तरह आरंभिक पूंजीवादी
बाज़ार में ही नहीं, बल्कि भूमंडलीकृत बाज़ार में महिला श्रम के साथ दोयम व्यवहार
जारी है.
आगे के दो अध्यायों ‘पाश्चात्य
चिंतन में बाज़ार : एक’ और ‘पाश्चात्य चिंतन में बाज़ार :दो’ में
गिरीश जी बाजार के प्रति पश्चिमी समाजशास्त्रियों, दार्शनिकों तथा शासन व्यवस्था
के बदलते नजरिये का विस्तार से जिक्र करते हैं. किताब पढ़ते हुए इन अध्यायों में
बदलती सामाजिक व्यवस्थाओं के साथ बाजार के असर और उसके समर्थन के बदलते माहौल का
ज़िक्र तो मिलता है, लेकिन यहाँ एक तरह का दोहराव भी लगता है और किताब के क्रम में
एक व्यवधान सा आता भी दिखता है. ये दोनों अध्याय अगर ‘बाजार और
समाज में टकराव’ के पहले होते तो शायद बेहतर होता. जहाँ पहले अध्याय में
उन्होंने अरस्तू और ईसाई धर्मगुरुओं की ‘धन कमाने की बेलगाम प्रवृति के
राजनीतिक सद्गुण और व्यक्ति के कल्याण के लिए घातक’ होने की
मान्यता के साथ शुरुआत कर अठारहवीं सदी आते-आते पूंजीवाद के प्रमुख विचारक
वाल्तेयर के इस निषकर्ष कि ‘धार्मिक सहिष्णुता और बाजार के बीच
घनिष्ठ संबंध होता है’ और फिर उनके इस स्टैंड कि ‘धर्मगुरु,
योद्धा और सामंत, खलनायक और व्यापारी नायक और बुद्धिजीवी होते हैं’ के
बहाने पहले कही बात को ही और स्पष्ट किया है. बाद में वह पूंजीवादी विचारों के
विकास और इसी के बरक्स समाजवाद के विचार के विकास का विस्तार से विवेचन करते हुए
हीगेल, मार्क्स और शुम्पीटर जैसे विचारकों पर चर्चा करते हैं. यहाँ भी शुम्पीटर के
बाद सीधे केन्स का आना थोड़ा खलता है. यहाँ विषय विस्तार माँगता था. पूंजीवादी
संतुलन के ‘अदृश्य हाथों’ या से के सिद्धांत के असफल होने के
कारणों की विवेचना और उन स्थितियों के विवरण जिसके कारण महामंदी आई और केन्स उसके
तारणहार बने, के बिना यह आम पाठक के लिए मुश्किलात पैदा करता है. हालांकि केन्स के
बाद के विकास को जरूरी तवज्जो दी गयी है, जिसमें एक बार फिर से शासकीय नियंत्रण को
समाप्त कर मुकरत बाज़ार विचारधारा की वापसी की बात की गयी है. हाँ, यहाँ अगर भारतीय
संदर्भ में नेहरूवादी ‘मिश्रित अर्थव्यवस्था’ के
तत्कालीन पूंजीवादी विश्व की मजबूरियों और सहूलियतों तथा समाजवादी ब्लाक की मजबूत
उपस्थिति के बरक्स चर्चा की गयी होती तो पाठक के लिए इसके असली चरित्र को समझना और
नेहरूवादी समाजवाद के पूंजीवादी रंग को पहचानना आसान हो जाता. साथ ही वह यह
रेखांकित करने में भी स्पष्ट नहीं हैं कि बाज़ार नहीं बल्कि मुनाफे की हवस में डूबा
अनियंत्रित पूंजीवाद हमारे समय के लिए घातक है, जिसके चलते उत्पादन आवश्यकता की
पूर्ती की जगह माल के उपभोग को केन्द्र में रखकर किया जाता है. दिक्कत बाजार से
नहीं, उस पर पूंजीवादी नियंत्रण से है, जिसमें सारा अधिशेष पूंजीपतियों की जेब में
चला जाता है और इस प्रकार सामाजिक सम्पति व्यक्तिगत सम्पति में तब्दील होती जाती
अहि और असमानता की खाई और गहरी होती जाती है. जिस सरलीकरण के खिलाफ उन्होंने शुरू
में बात की थी, कई बार ‘बाज़ार के खिलाफ’ जैसे टर्म्स
का उपयोग कर वह खुद उसके शिकार होते हैं. यह विषय अलग से एक अध्याय की मांग करता
है. इसके आगे मुद्रा बाजार की विवेचना है, जो अर्थशास्त्र न जानने वाले पाठकों के
लिए बहुत महत्वपूर्ण है.
इस पुस्तक की एक विशिष्ट उपलब्धि
है इसका अंतिम अध्याय ‘ईश्वर मंडी और बाज़ार’.
वाल्तेयर बाजार की उपस्थिति में जिस ‘धार्मिक सहिष्णुता’ की
बात कर रहे थे, उसे तो खैर उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के इतिहास ने गलत साबित किया
ही साथ ही मुनाफे की हवस ने धर्म को ही एक बाजार में तब्दील कर दिया. अक्सर हम सोचते
हैं कि ऐसा हिन्दुस्तान में ही हुआ. लेकिन गिरीश जी एमिल जोला की किताब लुर्द के
हवाले से बताते हैं कि किस तरह डेढ़ सौ साल पहले एक असामान्य दृष्टि वाली चौदह साल
की बच्ची द्वारा कुमारी मेरी के तथाकथित दर्शन के किस्से का वाणिज्यिक उपयोग कर
पोप की संस्तुति से एक स्थल को तीर्थस्थल और उसके पास के झरने को ‘चमत्कारी’
घोषित कर वहाँ न केवल एक भव्य गिरिजाघर बनाया गया बल्कि उसे एक सफल वाणिज्यिक
केन्द्र में तब्दील कर दिया गया. एक ऐसे दौर में जब औद्योगिक क्रान्ति के प्रभाव
में चारों ओर वैज्ञानिकता का बोलबाला था, यह परिघटना रहस्यात्मकता के प्रति लोगों
के असीम आकर्षण और पूंजीवादी बाज़ार द्वारा हर चीज को माल में तब्दील कर लेने को
स्पष्ट रेखांकित करता है. भारत में तो ऐसे तमाम किस्सों से हम परिचित हैं ही.
कुल मिलाकर गिरीश जी की यह किताब हिन्दी में अर्थशास्त्र पर उपस्थित गैर पाठ्य-पुस्तकीय पुस्तकों की कमी को एक हद तक पूरा करने वाली ही नहीं बल्कि एक नई बहस को शुरू करने वाली भी है जो आम पाठक को चीजों को देखने की एक ताज़ा अंतर्दृष्टि देती है. हालांकि 174 पृष्ठों की इस किताब का 350/- रुपये का मूल्य पाठक और किताब के बीच एक दूरी पैदा करता ही है, लेकिन यह भी साबित करता है कि पूंजीवादी बाज़ार ने किसी को नहीं छोड़ा है, यहाँ तक कि अपने विरोधियों को भी नहीं.
समीक्षित पुस्तक – बाज़ार –अतीत और वर्तमान
लेखक – गिरीश मिश्र
प्रकाशक – ग्रन्थ शिल्पी
पृष्ठ संख्या – 174 (हार्डबाऊंड)मूल्य – रु 350/-
उत्कृष्ट प्रस्तुति |
जवाब देंहटाएंआभार ||
बेहतर समीक्षा।
जवाब देंहटाएंजिस पुस्तक को सब की पहुँच में होना चाहिए वह हार्डबाउंड की कीमत में कैद हो कर रह गई है।
Whosoever has written the following has a very shallow and wrong understanding of economics:
जवाब देंहटाएं"ज़ाहिर है कि इस गैरबराबरी और संसाधनों की लूट के पक्ष में माल्थस या रिकार्डो जैसे सिद्धांतकार सामने आते हैं. पी बी से कहते हैं कि ‘जो बना है वह सब बिक जाता है’, एडम स्मिथ ‘किसी अदृश्य हाथ द्वारा बाज़ार को हमेशा संतुलन में रखे जाने’ की बात करते हैं, माल्थस श्रमजीवी वर्ग की विपन्नता की जिम्मेवारी उनके द्वारा जनसंख्या बढाए जाने के सर थोप देते हैं."
माफ कीजिए आपकी बात से सौ फीसदी असहमत हूँ. हाँ अगर आप पूंजीवाद के तहत अधिकतम मुनाफे को ही इकलौता लक्ष्य मानेंगे तो उसके समर्थक आपको देवता लगेंगे ही. इस मुद्दे पर बहस के लिए तैयार हूँ.
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