(मंगलेश डबराल के एक संस्था में जाने और उसके बाद हम जैसों के विरोध के बाद उस पर खेद व्यक्त करने के प्रकरण को बहाना बनाकर जनसत्ता के यशस्वी संपादक आदरणीय श्री ओम थानवी जी ने जो 'बहस' चलाई, उससे आप लोग परिचित हैं. वह इस कदर 'लोकतांत्रिक' थी कि एक साहब ने यह लिखा कि 'योगी आदित्यनाथ साम्प्रदायिक हैं, लेकिन राष्ट्रभक्त हैं. उनके यहाँ जाने में क्या दिक्कत?". मैंने जो उत्तर दिया था उसे न छापने की वजह श्री थानवी जी ने उसका एक ब्लॉग पर प्रकाशित होना बताया, लेकिन अगले ही हफ्ते उसी ब्लॉग पर टिप्पणी के रूप में दर्ज एक पीस जनसत्ता के महान पन्नों पर प्रमुखता से छपा. और फिर झूठे तथ्यों और आरोपों से भरी अपनी एक टिप्पणी से उन्होंने इस 'बहस' को खत्म कर दिया. एक 'महान' अखबार का संपादक होने की यह सुविधा तो है उनके पास कि उसके पन्नों पर वह अपनी सुविधा के हिसाब से 'बहस' चलायें, लेकिन दुनिया जनसत्ता पर ही खत्म नहीं होती. समयांतर के ताजा अंक में 'दिल्ली मेल' स्तंभ के तहत ओम थानवी जी और उनके चम्पूओं (शब्द जनसत्ता के एक चर्चित कालम से साभार) द्वारा चलाई गयी उस बहस के तमाम मिथ्या आलापों-प्रलापों का जवाब देती यह टिप्पणी यहाँ साभार प्रस्तुत है)
शीतयुद्ध के पुराने हथियार, नये प्रहार
इस एब्सर्डिटी का सबसे बड़ा कारण यह है कि यह पूरा लेख इंटरनेट के उन गैरजिम्मेदाराना और अधिकांशत: संदेहास्पद स्रोतों पर आधारित है जिनके चलानेवालों में से अधिकांश की विश्वसनीयता ही शंकास्पद है। यह अचानक नहीं है कि वे अराजकता व उच्छृंखलता के माहिर हैं। पर इससे क्या! ओम थानवी तो अपने लेख की शुरुआत ही इंटरनेट की आरती के साथ करते हैं। सवाल है क्या यह संजाली-प्रेम यों ही उमड़ पड़ा है? और क्या अब संपादक महोदय बुक नहीं सिर्फ फेसबुक में ही उलझे रहते हैं? ऐसा लगता नहीं है। अशोक वाजपेयी की शब्दावली में कहें तो वह ''चतुर-सुजान'' आदमी हैं। विवाद की शुरुआत 29 अप्रैल, 12 के अंक में थानवी के लिखे लेख से हुई जिससे ऊपरी तौर पर ऐसा लगता है मानो वह साहित्य और बौद्धिक जगत में उदारता की वकालत कर रहे हों। इस में किसी को क्या आपत्ति हो सकती है? पर उदारता की आखिर सीमा क्या है या क्या होनी चाहिए इसकी बात वह नहीं करते। असल में इस लेख का असली उद्देश्य वामपंथियों और उनके संगठनों को निशाना बनाना है। दक्षिण पंथ की यह सबसे बड़ी रणनीति रही है कि वह जिसे निशाना बनाता है उसे सबसे पहले अनुदार व कट्टर घोषित करता है और फिर आतंकवादी करार देता है।
फिलहाल लोकतंत्र और उदारता की बात करनेवाले पश्चिम द्वारा दुनिया के मुसलमानों के खिलाफ यही तरीका अपनाया जा रहा है। दूसरे महायुद्ध के बाद दुनिया भर में ठीक यही रणनीति कम्युनिस्टों के खिलाफ अपनायी गई थी। उसी दौरान कांग्रेस फॉर कल्चरल फ्रीडम जैसी सीआईए पोषित संस्थाएं अस्तित्व में आईं और भारत में उससे ओम जी के आराध्य अज्ञेय व अन्य कलावादी और रेडिकल ह्यूमेनिस्ट जुड़े थे।इस पर याद आया कि थानवी के कम्युनिस्टों पर इस बार निशाना साधने का कारण निजी है। (यह बात और है कि वह नवउदारवादी नीतियों से मेल खा रहा है।) वह कम्युनिस्टों से इसलिए जले बैठे हैं कि उन्होंने थानवी के अज्ञेय महोत्सव को उस तरह सफल नहीं होने दिया जैसा वह चाहते थे। इसलिए मंगलेश डबराल तो सिर्फ बहाना हैं।
पर हम इस विवाद पर समय खराब करने की जगह उनके द्वारा प्रस्तुत तथ्यों पर बात करने की कोशिश करते हैं।
कोई कहां जाता है और क्यों जाता है यह मसला निजी विवेक और तात्कालिकता से जुड़ा होता है। उदाहरण के लिए आपातकाल में वामपंथ और आरएसएस तक ने मिल कर काम किया था। या माना कल को नरेंद्र मोदी अहमदाबाद में कोई आयोजन वली दकनी पर करें तो कैसे कोई सेक्युलर कवि, बुद्धिजीवी या संस्था उसमें भाग लेने जा सकती है? या धर्मनिरपेक्षता पर ही कोई आयोजन करे तो कोई कैसे वहां जाएगा? अपने उत्तर में चंचल चौहान ने यह बात बड़े तार्किक ढंग से रख दी है। उन्होंने थानवी के इस अरोप को भी बे-बुनियाद साबित कर दिया है कि वामपंथी लेखक संगठन अपने सदस्यों को आदेश देते हैं कि वे कहां जाएं और कहां न जाएं। उन्होंने उदय प्रकाश के जलेस से तथाकथित मोहभंग के झूठ को भी साफ कर दिया है: ''ओम थानवी ने उदय प्रकाश के जनवादी लेखक संघ से 'मोहभंग' के विचित्र कारण की शोधमयी पत्रकारिता करते हुए ऐसा आभास दिया जैसे जनवादी लेखक संघ 'अर्जुन सिंह की गोद में जा बैठा', और इस वजह से उदय प्रकाश जलेस से भाग गए, ऐसा विचित्र तर्क तो उदय प्रकाश भी संभवत: स्वीकार नहीं करेंगे, और जलेस से उन्होंने इस्तीफा दे दिया हो, ऐसा भी कोई सबूत नहीं है।'
पर थानवी के लेख में हिंदी साहित्य के परम पीडि़त लेखक उदय प्रकाश को लेकर कुछ बहुत ही मजेदार बातें कही गई हैं। उन पर आने से पहले हम याद दिलाना चाहेंगे कि जब अर्जुन सिंह मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री थे तब उदय प्रकाश दौड़कर नौकरी के लिए भोपाल पहुंचे थे। वहां उन्हें किसने बुलाया था या वह कैसे गए थे इन पर विस्तार से बात करने का यह स्थान नहीं है। उन्होंने उदय प्रकाश के इंटरनेट के हाल के लेख को उद्धृत करते हुए कहा है कि वह 16 साल सीपीआई के पूर्णकालिक सदस्य थे, बाईस वर्ष सीपीएम से जुड़े जनवादी लेखक संघ में सक्रिय रहे। सात साल पहले उनका जनवादी लेखक संघ से मोहभंग हुआ है।
अब जरा इस गणित को देखिये। इसका सीधा-सा अर्थ यह है कि उदय प्रकाश दिल्ली आने के बाद, और वह दिल्ली आपात काल के दौरान आ चुके थे, जनवादी लेखक संघ (जिसका जन्म ही 1982 में हुआ) से जुड़ गए थे। फिर सात साल पहले उनका जलेस से मोहभंग भी हो चुका है यानी इस तरह 36 वर्ष तो उन्हें दिल्ली में ही हो गए हैं। तब निश्चय ही उससे पहले वह सीपीआई में होंगे। क्या वह सीपीआई के सदस्य 12-13 वर्ष की अवस्था में हो गए थे? क्या उनके इलाके में सीपीआई ने 'बाल-भाकपा' बनाई हुई थी?
अब दूसरी बात लीजिए। थानवी लिखते हैं, ''तीन साल पहले गोरखपुर में उदय के फुफेरे भाई का निधन हो गया। वे जिस कॉलेज के प्राचार्य थे, वहां उनकी बरसी पर आयोजित कार्यक्रम में कॉलेज की कार्यकारिणी के अध्यक्ष और विवादास्पद सांसद योगी आदित्यनाथ ने उदय प्रकाश को उनके भाई की स्मृति में स्थापित पुरस्कार दिया।... उदय बार-बार कहते हैं उन्हें खबर नहीं थी, न अंदाज कि उनके और भाई की स्मृति के बीच योगी आदित्यनाथ आ जाएंगे।''
पहली बात तो यह है कि आदित्यनाथ का साहित्य या पत्रकारिता से कोई संबंध नहीं है। वह उस कालेज की कार्यकारिणी के अध्यक्ष हो सकते हैं जो उनका मठ चलाता है पर उनका अकादमिक जगत से भी कोई संबंध नहीं है। यहां उनके और राकेश सिन्हा के बीच के अंतर को समझा जा सकता है। राकेश सिन्हा दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीतिविज्ञान के प्राध्यापक हैं और लेखक हैं। यह ठीक है कि उन्होंने हेडगेवार पर किताब लिखी है इस पर भी वह हैंतो लेखक ही। उनसे असहमति और बातचीत की गुंजाइश बनी रहती है पर आदित्यनाथ और एक लेखक के बीच कौन- सा ऐसा बिंदु है जो किसी तरह के संबंध या संवाद की गुंजाइश छोड़ता है? भारत नीति प्रतिष्ठान संघियों का गढ़ हो सकता है पर वह स्वामियों का अखाड़ा तो नहीं ही है। इसलिए उसे लेकर जिस तरह से विवाद खड़ा किया गया है वह पूरी तरह शंकास्पद है। फिर आदित्यनाथ मात्र विवादास्पद नहीं हैंबल्कि घोर सांप्रदायिक और जातिवादी हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश के कई सांप्रदायिक दंगों से उनका संबंध रहा है और 'उत्तर प्रदेश को गुजरात बना देना है' जैसे आह्वान वह समय-समय पर करते रहे हैं। यही कारण है कि लेखकों ने उदय प्रकाश के आदित्यनाथ के हाथ से 'कुंवर नरेंद्र प्रताप सिंह स्मृति सम्मान' लेने की आलोचना करते हुए कहा था: 'हम अपने लेखकों से एक जिम्मेदार नैतिक आचरण की अपेक्षा रखते हैं...।' (उस समारोह के निमंत्रण पत्र में बतलाया जाता है कि उदय प्रकाश का नाम कुंवर उदय प्रकाश सिंह छपा था। क्या यह संयोग मात्र था?) यहां याद करना जरूरी है कि लेखक कोई तटस्थ व्यक्ति नहीं होता है। यह देश सांप्रदायिकता के कारण विभाजन जैसी त्रासदी से गुजर चुका है और आज भी इस समस्या से पार नहीं पा सका है। नरेंद्र मोदी और आदित्यनाथ इस समाज के लिए कलंक हैं। हर रचनात्मक कर्म का संबंध गहरी नैतिक चेतना और दायित्व बोध से होता है। अगर ऐसा नहीं होता तो लेखक होने का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता है। यही कारण है कि उदय प्रकाश और मंगलेश डबराल आदि की द्विजदेव पुरस्कार लेने के लिए आलोचना की गई थी। द्विजदेव ने 1857 में अंग्रेजों का साथ दिया था और स्वतंत्रता सेनानियों के दमन के पुरस्कार स्वरूप उन्हें अयोध्या की जागीर मिली थी।
पर इन सब बातों को छोडि़ए। तत्काल कई सवाल हैं जिनके जवाब उदय प्रकाश को (और उनके पब्लिसिस्ट ओम थानवी को भी) देने चाहिए। पहला, उनके फुफेरे भाई के नाम पर शुरू किया गया वह पुरस्कार क्या सिर्फ परिवार के ही लोगों के लिए था या औरों के लिए भी था? अगर औरों के लिए भी था तो क्या शालीनता के लिए उदय प्रकाश को यह नहीं कहना चाहिए था कि इस पुरस्कार को कम से कम पहली बार परिवार से बाहर के किसी और लेखक को दिया जाए, मैं बाद में ले लूंगा? यह किसी से छिपा नहीं है कि उदय प्रकाश हिंदी के सबसे ज्यादा अलंकृत लेखकों में से हैं। अगर वह एक पुरस्कार के लिए थोड़ा रुक ही जाते तो क्या उनकी प्रतिष्ठा घट जाती?
क्या थानवी बताएंगे कि इस शृंखला का दूसरा, तीसरा या चौथा पुरस्कार किस-किस को मिला है? तब क्या यह सिर्फ उदय प्रकाश को देने के लिए आयोजित किया गया था? कहीं ऐसा तो नहीं है कि स्वर्गीय भाई की स्मृति को सिर्फ आड़ के रूप में इस्तेमाल किया गया हो? ऐसा तो नहीं है कि इस आयोजन के पीछे उद्देश्य कुछ और ही रहा हो, जिसमें आदित्यनाथ महत्त्वपूर्ण घटक था?
इंटरनेट पर ही एक और लेख इस बीच आया है जो सुना है प्रकाशन के लिए पहले जनसत्ता को भेजा गया था पर संपादक महोदय ने उसे छापने से इंकार कर दिया। वह है अशोक कुमार पाण्डेय का। इस लेख में दावा किया गया है कि आदित्यनाथ ने अमर उजाला को दिए अपने साक्षात्कार में विवाद पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि मैंने तो उदय प्रकाश को पहले ही कह दिया था कि मुझे न बुलवाएं विवाद हो जाएगा। यह बात 5 अगस्त, 2009 को इंडिया टुडे हिंदी ने अपने उत्तर प्रदेश संस्करण में भी छापी थी। हफ्तों से चल रहे विवाद में, जिसमें अब तक दर्जन भर लेख छप चुके हैं, जनसत्ता के पास अशोक कुमार पाण्डेय का लेख छापने की जगह नहीं है। इसलिए कि सारा अभियान निश्चित रणनीति के तहत चलाया जा रहा है इसलिए सिर्फ चुनिंदा लेख छप रहे हैं। जो लेख जरा भी असुविधाजनक साबित हो रहे हैं उनका जवाब प्रायोजित तरीके से अगले सप्ताह दिया जा रहा है।
संयोग देखिए, साल के अंदर ही उदय प्रकाश को मोहन दास कहानी (उर्फ उपन्यास?) पर साहित्य अकादेमी मिला।
संयोग और भी बहुत से हैं। जैसे कि साहित्य अकादेमी के उपाध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी उसी गोरखपुर के हैं जहां आदित्यनाथ का लट्ठ पुजता है। (जनवरी, 2011 के दिल्ली मेल में लिखा गया था, ''हिंदी भाषा के संयोजक विश्वनाथ प्रसाद तिवारी हैं। इस पर याद आया कि पिछले वर्ष किसी प्रसंग में समयांतर में ही लिखा गया था कि आजकल अकादेमी का एक रास्ता वाया गोरखपुर होकर भी जाता है, जो स्वामी आदित्यनाथ का कार्य और संसदीय क्षेत्र है।'')
इसी तरह उदय प्रकाश का जलेस से मोहभंग उसी दौरान होता है जब दिल्ली में एनडीए की सरकार आ जाती है। वह थानवी को बतलाते हैं कि उन्होंने जलेस छोड़ दिया है पर संगठन से नहीं कहते कि वह जलेस छोड़ रहे हैं। न ही इतने बड़े नैतिक स्टैंड (?) की सार्वजनिक घोषणा करते हैं या जलेस की अर्जुन सिंह की गोद में बैठ जाने के लिए आलोचना करते हैं। (निर्बाध आवाजाही के लिए?) इसी दौरान उनका पांचजन्य में साक्षात्कार छपता है। वहां भी तर्क यही है कि मुझे नहीं पता था कि यह साक्षात्कार पांचजन्य के लिए लिया जा रहा है। इस पर उदय प्रकाश की जो छीछालेदर उनकी पुरानी सहयोगी ने की वह पाखी (मई, 2011)के पन्नों में दर्ज है।
यह प्रसन्नता की बात है कि उदय अमेरिका में हैं। वह जिस परंपरा से जुड़ गए हैं वह भी कम भव्य नहीं है: अज्ञेय, कैलाश वाजपेयी, निर्मल वर्मा, कृष्ण बलदेव वैद और अशोक वाजपेयी। इनमें कुछ भारतीय दर्शन, संस्कृति और राष्ट्रीयता के अग्रदूत हैं तो कुछ रूपवाद के। पर ओम थानवी यह बताएं कि अगर उदय सीपीआई में होते या सीपीएम में होते तो वर्जीनिया विश्वविद्यालय उन्हें बुलाता? या फिर क्या किसी घोषित कम्युनिस्ट लेखक को आज तक किसी अमेरिकी विश्वविद्यालय ने बुलाया है?
ओम थानवी ने उदय प्रकाश के ब्लॉग में प्रकाशित लेख का उद्धरण विस्तार से छापा है जिसमें उदय ने त्रिलोचन शास्त्री और शैलेश मटियानी के संदर्भ से वामपंथी लेखक संगठनों पर हमला बोला है। उनके अनुसार: '' क्या हम हिंदी के अप्रतिम कवि - और प्रगतिशील कविता वृहत्रयी में से एक - त्रिलोचन को याद करें, जो पहले स्वयं वामपंथी संगठन से निकाले गए, फिर दिल्ली से उनको शहर बदर करके हिंदू तीर्थ-स्थल हरिद्वार भेज दिया गया। अत्यंत विषम परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हुई ...। क्या हम शैलेश मटियानी को याद करें, जिन्हें जिंदा रहने और अपना परिवार पालने के लिए कसाई (चिकवा-गीरी) का काम करना पड़ा, ढाबों में बर्तन मांजने पड़े?...।'
जिस तरह से ये प्रसंग उठाए गए हैं वे लेखकीय मंशा को पूरी तरह उजागर कर देते हैं। त्रिलोचन शास्त्री को कितनी उम्र में जसम से हटाया गया? उन्हें किसने हरिद्वार भेजा? क्यों भेजा? क्या उनके परिवार में कोई नहीं था? वहां वह किसके साथ रहते थे? उनके दो बेटे कहां हैं? वह अंतिम दिनों में वृद्धावस्था के कारण होनेवाले सेनाइल सिंड्रोम या एलजेमियर से पीडि़त नहीं थे? उनकी मृत्यु भरी-पूरी उम्र में बुढ़ापे से जुड़ी बीमारियों के कारण हुई, क्या यह सच नहीं है?
मटियानी को कसाई का काम अपनी पारिवारिक दुकान में करना पड़ा था। इसमें क्या बुराई है? काम तो काम है! उदय प्रकाश जिस ब्राह्मणवाद की कब्र खोदने में लगे हैं क्या वह स्वयं उसी के शिकार नहीं नजर आते हैं? वैसे क्या लेखक दलाई लामा होता है कि पैदा होने के साथ ही उसमें ऐसे चिह्न होते हों कि उसे तुरंत पहचान लिया जाए कि बेटा नामी कथाकार होने वाला है? एक बार लेखक बन जाने के बाद मटियानी ने सिवा लेखन के क्या कोई और काम किया? नौकरी न करना उनका अपना निर्णय था। ऐसा भी नहीं है कि उन्हें नौकरियां मिलती ही नहीं या मिल ही नहीं रही थीं।
मटियानी, शास्त्री आदि के नाम का इस्तेमाल करना आसान है, उनके डंडे से दूसरों को पीटना तो और भी आसान। पर क्या उदय प्रकाश बतलाएंगे कि जब मटियानी दिल्ली के मानसिक रोग चिकित्सालय में भर्ती थे वह उनसे एक बार भी मिलने गए थे? यह अस्पताल उदय प्रकाश के घर से चार-पांच किलोमीटर की दूरी पर ही है। उनके पास तो कार भी कई वर्षों से है। क्या उन्होंने कभी मटियानी की कहानियों पर या उनके जीवन संघर्ष पर कहीं एक पैरा भी लिखा है? उन्हें कहीं श्रद्धांजलि ही दी हो? वह तो हिंदी में पीएचडी हैं। इतना तो कर ही सकते थे। त्रिलोचन शास्त्री के लिए उन्होंने क्या किया, जो बीमारी के दौरान अंतिम दिनों में उनके घर के बगल में ही रहते थे? उदय प्रकाश और थानवी को भी याद दिलाना जरूरी है कि शास्त्री जी के उपचार व मदद के लिए दिल्ली की मुख्य मंत्री के पास जो प्रतिनिधि मंडल गया था उसमें कई वामपंथी लेखक निजी तौर पर और उनके तीनों संगठन के प्रतिनिधि शामिल थे पर जो रिपोर्ट जनसत्ता में इस संबंध में छपी थी, क्या उसमें उदय प्रकाश का नाम था? वैसे यह बतलाना जरूरी है कि दिल्ली सरकार ने शास्त्री जी की भरसक मदद की थी। इसी तरह भाजपा सरकार ने शैलेश मटियानी की।
थानवी ने लिखा है: ''एक लेखक के किसी कार्यक्रम में हिस्सा लेने के विरोध में इतनी बड़ी तादाद में हिंदी लेखक न कभी पहले एकजुट हुए, न बाद में।' निश्चय ही यह सही है पर इस के साथ यह भी सही है कि इस दर्जे की अवसरवादिता न कभी पहले देखने को मिली और न ही बाद में। पर ऐसा भी नहीं है कि हिंदी लेखक समय-समय पर उन बातों का विरोध न करते रहे हों जिनसे समाज और साहित्य का सरोकार हो। स्वयं जनसत्ता के सती प्रथा का महिमा मंडन करनेवाले एक संपादकीय का विरोध करने में पूरे सौ लेखक शामिल थे। इसलिए लेखकों का विरोध न कोई नई बात है और न ही आश्चर्य की। समझने की बात यह है कि वह किसी एक कारण तक सीमित नहीं होता और न ही भविष्य में होगा।
जो भी हो यह कितना दुखद है कि उदय प्रकाश निजी स्कोर सैटल करने के लिए दो दिवंगतों का इस्तेमाल इतनी अशालीनता और हृदयहीनता से करने में जरा भी झिझक नहीं महसूस कर रहे हैं और थानवी भी उसी हथियार से वामपंथियों के आखेट का आनंद ले रहे हैं।
2 - पर उपदेश कुशल बहुतेरे
समयांतर और पंकज बिष्ट ओम थानवी का किस तरह से पीछा (हांट) करते हैं उसका उदाहरण इधर तहलका पाक्षिक में छपा उनका साक्षात्कार है। यह साक्षात्कार कई तरह की गलत बयानियों से भरा है और स्वयं उनके दोहरे चरित्र का सबसे बड़ा प्रमाण है।
साक्षात्कार पर आने से पहले थानवी के इन आप्त वाक्यों को देखें: ''लेकिन क्या ये प्रसंग सचमुच ऐसे हैं, जिन्हें लेकर इतना हल्ला होना चाहिए? क्या हम ऐसा समाज बनाना चाहते हैं, जिसमें उन्हीं के बीच संवाद हो जो हमारे मत के हों? विरोधी लोगों के बीच जाना और अपनी बात कहना क्यों आपत्तिजनक होना चाहिए? क्या अलग संगत में हमें अपनी विचारधारा बदल जाने का भय है? क्या स्वस्थ संवाद में दोनों पक्षों का लाभ नहीं होता? यह बोध किस आधार पर कि हमारा विचार श्रेष्ठ है, दूसरे का इतना पतित कि लगभग अछूत है! पतित है तो उस पर संवाद बेहतर होगा या पलायन?... दुर्भाव और असहिष्णुता का यह आलम हमें स्वतंत्र भारत का अहसास दिलाता है या स्तालिनकालीन रूस का? 'आवाजाही के हक में' जनसत्ता, 29 अप्रैल, 2012।
कितनी उत्तम बातें हैं! कैसे उदात्त विचार और कैसी सदाशयता है! क्या बात है!
अब देखिये थानवी 15 दिन बाद ही तहलका (15 से 31 मई) के साक्षात्कार में क्या कहते हैं: ''पंकज बिष्ट ने अपनी पत्रिका समयांतर में लिखा कि वामपंथियों को अज्ञेय की जन्मशती का विरोध करना चाहिए। उन्होंने तीन पेज की रिपोर्ट लिखी। उसमें अपील की कि लेखकों को कार्यक्रम में शिरकत नहीं करनी चाहिए। हम लोगों ने पंकज बिष्ट जी को आमंत्रित किया और वे कलकत्ता चले आए। आप देख सकते हैं कि इनकी कथनी और करनी में कितना अंतर है।''
निश्चय ही किसी कथनी और करनी में अंतर है, पर जानने की बात यह है कि किसकी?
जनसत्ता, 29 अप्रैल, 2012 में लिखे अपने लेख 'आवाजाही के हक में' के अनुसार तो उन्हें प्रसन्न होना चाहिए था कि पंकज बिष्ट उन के आमंत्रण को स्वीकार कर अपने-अपने अज्ञेय के दूसरे विमोचन, जो उपराष्ट्रपति द्वारा किया जा रहा था, और संगोष्ठी में भाग लेने कोलकाता 'चले आए' थे। 'आवाजाही' की उनकी वकालत का इससे अच्छा प्रमाण क्या हो सकता था। पर तब उन्हें वामपंथियों को कोसने का मौका कैसे मिलता! साफ है कि हाथी के दांत खाने के और हैं और दिखाने के और। इस वक्तव्य में और भी कुछ छिपा है, जो छोटेपन या कहें उनकी अनुदारता का प्रमाण है। उनको पंकज बिष्ट का कोलकाता आना अच्छा नहीं लगा। क्यों कि बिष्ट ने कोलकाता पहुंचकर भी उस अखंड कीर्तन में अपना स्वर नहीं मिलाया जिसमें शेष आमंत्रित शामिल थे। वह पंकज बिष्ट का 'भंडाफोड़' इसलिए करना चाहते हैं कि उन्होंने वहां भी अज्ञेय के बारे में कई ऐसी बातें कही थीं जो थानवी को रास नहीं आईं। कहां गई उनकी वह उदारता जो वह अपने जनसत्ता वाले लेख में मंगलेश डबराल को पीटने के लिए इस्तेमाल करते हैं? कोलकाता से लौट कर बिष्ट ने जो लिखा वह ओम थानवी के लिए किस तरह से असुविधाजनक साबित हुआ वह भी देखने लायक है। थानवी ने अपने साक्षात्कार में कहा है: ''एक अखबार ने लिखा कि अज्ञेय आयोजन में हिंदी के लोग कम बंगाल के लोग ज्यादा शामिल थे...। '' उन्होंने बतलाया नहीं कि वह कौन-सा अखबार था? वह था समयांतर जिसने लिखा था, वहां जो बंगाली भद्रलोक इकठ्ठा हुआ फिर चाहे उसमें शंको घोष हों, सौमित्र चटर्जी हों या अन्य छोटे-बड़े अभिनेता-अभिनेत्री, वे सब उपराष्ट्रपति के कारण ही शामिल हुए थे क्योंकि कोलकाता में उपराष्ट्रपति का आना बड़ी बात थी। उस रिपोर्ट में और भी कई ऐसी बातें थीं जो निश्चित है कि अज्ञेय भक्तों को रास नहीं आई होंगी। (देखें: 'सरोकार निजी बनाम सामाजिक', समयांतर, मार्च, 2012)
आप तहलका के इस साक्षात्कार की भाषा को नोट कीजिए 'चले आए'। यानी बिष्ट बैठे हुए थे कि उन्हें कोई कोलकाता बुलाए। बेचारे ने कोलकाता कभी देखा नहीं था या हवाई यात्रा नहीं की थी, विशेषकर फ्री फंड की, जो पत्रकारों को अक्सर ही उपलब्ध रहती है। इसलिए वह मरे जा रहे थे। पर वह वहां कैसे गए चूंकि ये बातें समयांतर की रिपोर्ट में बताना जरूरी नहीं था इसलिए उस पर बात ही नहीं की। पर चूंकि थानवी ने इस छोटी बात को उठा दिया है तो अब यह भी बता ही दिया जाना चाहिए। क्या ओम थानवी ने उस पंकज बिष्ट को, जो अज्ञेय को अंग्रेजों का एजेंट बताता रहा हो, उसी उदारता के चलते बुलाया था जिसकी वकालत उन्होंने जनसत्ता के अपने लेख में की है? या क्या वह बिष्ट को जानते नहीं थे? या थानवी उन्हें कोलकाता की यात्रा की घूस देकर अपने पक्ष में कर लेना चाहते थे? उन्हें सबसे बड़ा दुख इस बात का होगा कि समयांतर ने ही इस बात को रेखांकित किया था कि थानवी अपनी किताब का तीन बार विमोचन करवा चुके हैं। यहां तक कि उपराष्ट्रपति को भी इस बात का पता नहीं था कि अपने-अपने अज्ञेय का उनसे पहले भी लोकार्पण किया जा चुका है।
इस परिप्रेक्ष्य में समझा जा सकता है कि उन्हें पंकज बिष्ट के कोलकाता आने से क्यों कष्ट हुआ होगा। ऐसे में वह बिष्ट को क्यों बुलाते और उन्होंने बुलाया भी नहीं। वह यह बतलाने से झिझक क्यों रहे हैं कि पंकज बिष्ट उन पर लादे गए थे। पंकज बिष्ट को निमंत्रण प्रभा खेतान फाउंडेशन की ओर से उनके ही आदमी द्वारा मिला था। यह दो दिन तक कोलकाता रहने का था, पर बिष्ट उस दौरान इतने व्यस्त थे कि उन्होंने मेजबानों से कहा कि उनके लिए एक रात से ज्यादा कोलकाता ठहरना संभव नहीं है और इसीलिए वह अगले ही दिन, यानी गोष्ठी खत्म होने से एक दिन पहले, चले आए थे। उनके लौटने का प्रबंध प्रभा फाउंडेशन ने यथानुसार कर दिया था। बिष्ट को प्रभा खेतान फाउंडेशन ने इसलिए बुलाया था क्योंकि वह प्रभा खेतान के मित्रों में रहे हैं। वह भी वहां प्रभा खेतान के सम्मान के कारण गए थे। यह पहली बार भी नहीं था कि वह प्रभा खेतान फाउंडेशन द्वारा आयोजित किसी समारोह में कोलकाता गए हों। इससे पहले फरवरी, 2010 में भी वह फाउंडेशन के समारोह में वहां जा चुके थे। संयोग से उसमें भी ओम थानवी उपस्थित थे पर उस आयोजन में उनकी कोई भूमिका नहीं थी।
ओम थानवी बताएं कि उनकी किताब के विमोचन के इस आयोजन में किस संस्था ने क्या और कितना आर्थिक सहयोग किया था? असल में आयोजन का सारा खर्च प्रभा खेतान फाउंडेशन ने ही उठाया था, जिसमें डेढ़ हजार रुपए कीमत की अपने अपने अज्ञेय की सौ प्रतियां खरीदना भी शामिल था, बाकी संस्थाओं की भूमिका मात्र प्रतीकात्मक थी।
ओम थानवी अपने तथ्यों में कितने दुरुस्त हैं इसके सिर्फ दो प्रमाण प्रस्तुत हैं:
एक : ओम थानवी ने तहलका में कहा है कि ''पंकज बिष्ट ने अपनी पत्रिका समयांतर में लिखा कि वामपंथियों को अज्ञेय की जन्मशती का विरोध करना चाहिए। उन्होंने तीन पेज की रिपोर्ट लिखी। उसमें अपील की कि लेखकों को कार्यक्रम में शिरकत नहीं करनी चाहिए। वामपंथियों को अज्ञेय की जन्मशती का विरोध करना चाहिए?'' हम थानवी और तहलका, दोनों को चुनौती देते हैं कि वे बतलाएं कि पंकज बिष्ट ने समयांतर के कौन से अंक में यह लिखा? इससे ज्यादा गैरजिम्मेदाराना कोई बात हो ही नहीं सकती।
हां उनके द्वारा संपादित पत्रिका में एक लेख में यह जरूर कहा गया था कि वाम पंथियों को अज्ञेय की शताब्दी नहीं मनानी चाहिए। उस में भी ''जन्मशती का विरोध'' जैसी कोई बात नहीं थी। बल्कि यह कहा गया था कि जो मनाना चाहते हैं मनायें। दोनों बातों में कितना अंतर है, पाठक समझ सकते हैं। स्वयं गत वर्ष अपने लेख 'अज्ञेय के दिल जले' को अगर थानवी देखें तो उन्हें मिल जाएगा कि यह बात अजय सिंह ने लिखी थी। क्या थानवी और तहलका अपनी गलती सुधारेंगे?
दूसरा: थानवी के अनुसार, ''शमशेर बहादुर सिंह और केदारनाथ उनके पहले सप्तक तार सप्तक में शामिल थे।'' यह बात तथ्यात्मक रूप से गलत है। 'उनके पहले सप्तक' का क्या अर्थ है वही जानें? पर तार सप्तक का मतलब ही पहला सप्तक है। सच यह है कि तार सप्तक में न तो शमशेर शामिल थे और न ही केदारनाथ, फिर चाहे वह अग्रवाल हों या सिंह। केदारनाथ अग्रवाल तो किसी भी सप्तक में शामिल नहीं थे। हां, केदारनाथ सिंह जरूर तीसरे सप्तक में शामिल हैं।
अगर थानवी के इस साक्षात्कार को देखा जाए तो, जो बात उभर कर सामने आती है, और जिसे कोई अंधा भी देख सकता है वह यह है कि संकीर्णता वामपंथी नहीं वह दिखला रहे हैं बल्कि वह स्वयं वैचारिक संकीर्णता और जबर्दस्त छोटेपन के शिकार हैं। अगर वामपंथी लेखक संगठन अपने लेखकों को अन्य जगह जाने से रोकते तो फिर नामवर सिंह (प्रलेस) और मैनेजर पाण्डेय (जसम) अज्ञेय के जन्मशती समारोहों में कैसे पहुंचते? पंकज बिष्ट कैसे पहुंचते? और प्रणय कृष्ण कैसे अज्ञेय पर मुग्ध भाव से लिखते? पर लेखक संगठन और स्वयं सामाजिक रूप से सजग लेखक अपने साथियों से यह अवश्य चाहते हैं कि वे जहां भी जाएं देख-भाल कर जाएं। अगर कोई इरादतन कुछ करता है और फिर अपने पापों को ढकने के लिए उसे दूसरों के सर मढ़ता है तो इसका क्या किया जा सकता है?
समयांतर में जब कोलकाता (मार्च) और उसके बाद दिल्ली (अप्रैल) समारोहों की रिपोर्टें छपीं तो निश्चित था कि इन्हें इतनी आसानी से सहन नहीं किया जाएगा। हम तैयार थे पर यह जवाबी कार्रवाही इतनी बचकानी होगी इसकी हमें उम्मीद नहीं थी। पर मजे की बात यह है कि उन्होंने जो बातें अपने लेखक में कही हैं जैसे कि पंकज बिष्ट निशंक के साथ बैठे या फिर कोलकाता हमारे बुलाने पर गए ये दोनों ही बातें उनके प्रिय ब्लॉगों में से एक में लिखी गईं थीं। आखिर ओम थानवी से पहले यह बात उस ब्लॉग में कैसे लिखी गई जिसे बाद में उन्होंने उद्धृत किया है? संभव है, और इस अतार्किकता के माहौल में तो कुछ भी संभव है, कि कभी ब्लॉग के जंजाली थानवी से प्रेरणा लेते हों और फिर थानवी ब्लॉगों से।
आपने यह बहुत अच्छी शुरुआत की है, इसके लिए आपका आभार. इस वक्त एकमात्र 'समयांतर' ही ऐसी पत्रिका है जो मुद्दों को सही और विश्वसनीय रूप में बड़े पाठक वर्ग तक पहुंचा रही है. इस मुद्दे पर आपने पहले भी विस्तार से, साफगोई के साथ बातें उठाई हैं. हिंदी में कितने लोग इतनी आत्मीयता और निर्भीकता के साथ बातें करने का साह्स रखते हैं. जी हाँ साह्स, जो आपके पास है. यह सिलसिला जारी रखें. सवाल वाम या दक्षिण का भी उतना नहीं, सच्चाई का है. यह अलग बात है कि सच्चाई जब दायें घूमती है, उसे घिस-घिस कर झूठ बना ही दिया जाता है.
जवाब देंहटाएंअसल में इस लेख का असली उद्देश्य वामपंथियों और उनके संगठनों को निशाना बनाना है। दक्षिण पंथ की यह सबसे बड़ी रणनीति रही है कि वह जिसे निशाना बनाता है उसे सबसे पहले अनुदार व कट्टर घोषित करता है और फिर आतंकवादी करार देता है।------------इसकी अगली प्रक्रिया होती है विक्रतिकरण और समन्वय जैसे बुद्ध को अवतार घोषित करना-------अच्छी बहस है
जवाब देंहटाएंमुख्य धारा के अखबारों की मेथडोलोजी क्या है? पहले तय कर लो (अधिकांशतया पूर्व निर्धारित) कि क्या लिखना है. फिर तर्क गढ़ने का काम. वेद से नहीं तो लबेद से. लेकिन बिष्ट जी ने उनकी अच्छी हवा निकाली है.
जवाब देंहटाएंयदि किसी को अपने vaicharik विरोधी के घर पर जा कर अपनी विचारधारा प्रस्तुत करने का अवसर मिलता हए तो क्या गलत हए ? में जब अपने घर छतरपुर में था, तो हर साल सरस्वती शिशु मंदिर के शिक्षकों के वार्षिक प्रशिक्षण में मुझे बुलाया जाता था, और में उनके बीच अपनी विचारधारा को रख कर उनके साथ भोजन कर के आता था, . वैचारिक संसार में किसी को अछूत करार देने वाले वैचारिक दिवालिया होते हें
जवाब देंहटाएंजब वामपंथियों पर हमले की बाकायदा एक प्रतियोगिता ही चलाई जा रही हो तो कुछ अति महत्वाकांक्षी किन्तु कम योग्य प्रतियोगियों द्वारा थोड़ी बेईमानी कर लेना स्वाभाविक है ! इसी स्वभावजन्य ललक में ओम थानवी भी बह गए और पकड़ गए !लेकिन पकड़े जाने के बा-वजूद उनकी निष्ठा पर कोई आंच नहीं आएगी बल्कि इससे उनकी निष्ठा पर से संदिग्धता का धूमिल आवरण ही हटेगा और वे अपने स्वामियों के वफादार सेवकों मे सम्मानजनक स्थान पा जाएंगे ! उन्हें बधाई !
जवाब देंहटाएंइस लेख में जिस तरह से पूरे प्रकरण को सुलझा कर अलग-अलग करके प्रस्तुत किया गया है और तर्कपूर्ण व सुविचारित तथ्यों के सहारे दूध का दूध और पानी का पानी किया गया है उसके लिए लेखक सराहना के पात्र हैं ! उन्हें भी बधाई !
जब वामपंथियों पर हमले की बाकायदा एक प्रतियोगिता ही चलाई जा रही हो तो कुछ अति महत्वाकांक्षी किन्तु कम योग्य प्रतियोगियों द्वारा थोड़ी बेईमानी कर लेना स्वाभाविक है ! इसी स्वभावजन्य ललक में ओम थानवी भी बह गए और पकड़ गए !लेकिन पकड़े जाने के बा-वजूद उनकी निष्ठा पर कोई आंच नहीं आएगी बल्कि इससे उनकी निष्ठा पर से संदिग्धता का धूमिल आवरण ही हटेगा और वे अपने स्वामियों के वफादार सेवकों मे सम्मानजनक स्थान पा जाएंगे ! उन्हें बधाई !
जवाब देंहटाएंइस लेख में जिस तरह से पूरे प्रकरण को सुलझा कर अलग-अलग करके प्रस्तुत किया गया है और तर्कपूर्ण व सुविचारित तथ्यों के सहारे दूध का दूध और पानी का पानी किया गया है उसके लिए लेखक सराहना के पात्र हैं ! उन्हें भी बधाई !
यह आलेख लेखकों की भेड़खाल व अस्मिता, ईमानदारी को उजागर करता एक जीवंत दस्तावेज़ है..प्रकरणों को बहुत ही तथ्यात्मक ढंग से प्रकट करते हुए उनका विश्लेषण करते हुए आकलन किया गया है
जवाब देंहटाएंहमेशा की तरह जबरदस्त है समयांतर का यह आलेख ...हमें इस बात पर सदा फक्र होता है कि समयांतर हमारे समय की पत्रिका है , और हम उससे जुड़े हुए हैं | "असहमति का यह साहस और सहमति का यह विवेक" इस लेख में भी दिखाई देता है | एक एक चीजों को परखता और खंगालता यह लेख एक महत्पूर्ण दस्तावेज के रूप में याद किया जाएगा ...
जवाब देंहटाएंइसमें व्यक्तिगत पक्ष-विपक्ष, उत्तर-प्रत्युत्तर को दरकिनार भी कर दिया जाए तो इसमें कुछ बिंदु विचारणीय हैं:- जिसमें जीवन और साहित्य में फॉंक, पक्षधरता और लेखकीय आग्रहों पर पुनर्विचार के आग्रह शामिल हैं।
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