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मंगलवार, 8 जून 2010

जाति गणना और सामाजिक न्याय का सवाल

जाति की गणना एक समतापूर्ण समाज के निर्माण में सहायक हो सकती है
  • अरुण माहेश्वरी


भारत में वर्ण-व्यवस्था की प्राचीनता अब बहस का विशय नहीं है। वर्ण-व्यवस्था सनातन धर्म का मूलाधार रही है। इतिहासकारों ने इस विशय पर भी काफी गंभीर काम किये हैं कि वर्ण-व्यवस्था के ढांचे के अंदर ही जातियों के लगातार विभाजन और पुनर्विभाजन के जरिये कैसे यहां एक प्रकार की सामाजिक गतिशीलता बनी रही है। इस बारे में खास तौर पर डा. डी.डी.कोसांबी और आर.एस.शर्मा के कामों को याद किया जा सकता है। 

इसी सिलसिले में हमारे लिये बहस और विचार का एक विषय यह भी है कि अभी हमारे समाज में जिस प्रकार का जातिवाद दिखाई दे रहा है, उसका कितना संबंध उस प्राचीनकालीन वर्ण-व्यवस्था से है और कितना कुछ अन्य नयी चीजों से है जिन्होंने पिछले 100 वर्शों में हमारे समाज में प्रवेश किया है। 

आज के जातिवाद को हजारों वर्षों के भारतीय समाज के इतिहास से जोड़ना समस्या की जड़ों तक जाने की दिशा में एक सही कदम होने के बावजूद, मुझे लगता है कि इस मामले में कुछ आधुनिक विचारधाराओं के प्रभाव को भी निश्चित तौर पर नजरंदाज नहीं किया जाना चाहिए। इसमें सबसे महत्वपूर्ण है नस्लवाद (Racism) की विचारधारा, जो एक प्रकार का जातिवाद ही है। यह एक ऐसा विचार है जो यह मानता है कि आदमी की कुछ खास विशेषताएं और उसकी योग्यताएं उसकी नस्ल से निर्धारित होती है। 19वीं सदी से ही ‘वैज्ञानिक नस्लवाद’  की तरह की विचारधारा चल पड़ी थी जिसमें आदमी की नस्ल को ही उसकी बुद्धि, उसके स्वास्थ्य और यहां तक कि उसमें अपराध की प्रवृत्ति से भी जोड़ कर देखा जाता था। फ्रांसीसी विचारक जोसेफ आर्थर कोम्टे द गोबिनो की प्रसिद्ध भारी-भरकम कृति ‘मानव नस्लों की असमानता पर एक निबंध’(1853-1855) के शीर्षक से प्रकाशित हो गयी थी जिसमें आर्यों को शासक जाति बताने के नस्लवादी सिद्धांत को स्थापित किया गया था। इसी जातीय श्रेष्ठता के तत्व को हिटलर के नाजीवाद ने उसके चरम और वीभत्स रूप तक पहुंचाया और जर्मन राष्ट्र की सर्व-श्रेष्ठता के सिद्धांत के बल पर दुनिया के अन्य सभी राष्ट्रों को कीड़े-मकोड़ों की तरह रौंद डालने को जर्मन राश्ट्र का जन्मसिद्ध अधिकार घोषित किया। भारत में आरएसएस की आधारशिला भी इसी प्रकार के भ्रामक, ब्राह्मणों को आर्य और शासक नस्ल का मानते हुए जातीय श्रेष्ठता के सिद्धांत पर रखी गयी थी।    

बहरहाल, देखने की चीज यह है कि पष्चिम के इस नस्लवाद के सिद्धांत ने भारत की प्राचीन काल से चली आ रही वर्ण-व्यवस्था के साथ मिल कर समग्रतः हमारे समाज पर कैसा प्रभाव डाला और यहां की जाति-व्यवस्था को कौन सा नया रूप दिया। जब हम जातियों के आधार पर जनगणना के औचित्य-अनौचित्य के मुद्दे पर विचार करते हैं, तब हमें अपने इधर के इतिहास के इन पक्षों का भी थोड़ा अध्ययन जरूर करना चाहिए। 

जैसा कि हम पहले ही कह चुके हैं, पश्चिम के प्राचीन समाज में भले ही वर्ण  व्यवस्था की तरह की कोई चिरंतर व्यवस्था न रही हो, लेकिन 19वीं सदी के आधुनिक काल में पश्चिम का शासक वर्ग एक खास प्रकार के जातिवाद (नस्लवाद) के सिद्धांत पर प्रयोग कर रहा था। विभिन्न समुदाय के लोगों की चमड़ी और आंख की पुतली के रंग, उनके ललाट और मस्तक के माप आदि के कथित वैज्ञानिक तौर तरीकों से इस सिद्धांत का ईजाद किया था और उसी के जरिये समाज तथा शासन के क्रम-विन्यास में विधि ने किसके लिये कौन सी जगह तय की है, इसे अनंत काल के लिये स्थिर कर देने का उन्होंने बीड़ा उठाया था। वे नस्ल (जाति) को इतिहास की कुंजी मानते थे।1 

कहना न होगा कि हमारे देश में भी ब्रिटिश शासन के पैर जमाने के साथ ही अंग्रेजों की इसी ‘वैज्ञानिक’ खुराफात के प्रयोग ने इस समाज पर कम रंग नहीं दिखाया। भारत में 1901 की जनगणना का आयुक्त राबर्ट रिस्ले कहता है, “ जाति भावना ... इस सचाई पर आधारित है कि उसे वैज्ञानिक विधि से परखा जा सकता है; कि उससे किसी भी जाति को संचालित करने वाले सिद्धांत की आपूर्ति होती है; कि यह शासन के सर्वाधिक आधुनिक विकास को आकार देने के लिये गल्प अथवा परंपरा के रूप में कायम रहती है; और अंत में उसका प्रभाव उसके द्वारा समर्थित खास स्थिति को तुलनात्मक शुद्धता के साथ संरक्षित रखता है। 

जाहिर है कि अंग्रेजों ने भारत की वर्ण व्यवस्था को यहां नस्ली शुद्धता को चिरंतर बनाये रखने के पहले से बने-बनाये एक मुकम्मल ढांचे के रूप में देखा और यहां अपनी शासन व्यवस्था के विकास लिये इसका भरपूर प्रयोग करने का निर्णय लिया। उनकी इसी दृष्टि ने भारत में 1871 का जरायमपेशा जातियों का कानून बना कर कुछ तबको को हमेशा के लिये दागी घोषित कर दिया। और यही वह नजरिया था जिसके चलते 1891 की पहली मर्दुम शुमारी में सिर्फ जातियों की गणना नहीं बल्कि उनकी परिभाषा और व्याख्या को भी शामिल किया गया। इतिहास में वे सारी कहानियां दर्ज है कि जातियों की इन उद्देश्यपूर्ण पहचान की कोशिशों ने भारतीय समाज में ऐसा गुल खिलाया कि यहां के विभिन्न जातीय समुदायों में जनगणना के खातों में अपनी जाति को अपने खास ढंग से परिभाषित-व्याख्यायित कराने की होड़ सी लग गयी। जो लोग अंग्रेजों के मंसूबों को समझ रहे थे, ऐसे ‘समझदारों’ को यह जानते देर नहीं लगी कि इसीसे यह तय होना है कि आने वाले दिनों में अग्रेजी शासन की पूरी व्यवस्था में कौन सा समुदाय किस पायदान पर खड़ा होगा; शासन की रेवड़ियों के बंटवारे में किसके हाथ कितना लगेगा। और इसप्रकार, भारतीय वर्ण-व्यवस्था इस नये पश्चिमी नस्लवादी सिद्धांत से जुड़ कर एक अलग प्रकार की जाति-चेतना के उद्भव का कारण बनी। यही वजह है कि आज हम जिस जातिवाद से अपने को जकड़ा हुआ पाते हैं, उसके बहुत कुछ को भारत में अंग्रेजी शासन की देन कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। 19वीं सदी के पहले के इतिहास में जो ब्राह्मण विरले ही कहीं बलशाली, वैभवशाली दिखाई देते हैं; सदा राज-कृपा के मुखापेक्षी और उसीके बल पर यदा-कदा भौतिक दुनिया में भी किंचित महत्व पाते रहे हैं, वे अंग्रेजांे की ‘जाति-गणना’ में संगठित रूप में दखल देकर ब्राह्मणों को आर्य और ‘शासक जाति’ घोषित कराके हमारे समाज के भौतिक और आत्मिक, दोनों जगत के परंपरागत रूप में पूर्ण अधिकारी बन गये। और, इसप्रकार नई शासन व्यवस्था से उनका अपना एक खास रिश्ता बना, वे भी अंग्रेजों के ‘कानून के शासन’ के एक प्रमुख स्तंभ बन गये। 

आज जब जनगणना में जातियों की गणना के प्रश्न पर इतनी बहस चल रही है, उस समय हमारे लिये इतिहास के इन थोड़े से पृष्ठों को पलट कर देखना नुकसानदेह नहीं होगा। फिर किसी जाति को जरायमपेशा अथवा शासक जाति घोशित करवाने अथवा किसी जाति को पूरी शासन व्यवस्था में किसी नि्श्चित पायदान पर स्थायी तौर पर रखवा देने, अथवा सरकारी कृपा की एकमात्र अधिकारी घोषित करवाने आदि की तरह की गैर-जनतांत्रिक होड़ और तनाव में हमारा समाज न जकड़ जाए, इसके प्रति सावधान रहने की जरूरत है। अन्यथा सामाजिक न्याय के लक्ष्य को पूरी तरह से हासिल करने के लिये, कमजोरों को सहारा देकर ऊंचा उठाने के लिये किसी भी प्रकार की गणना आदि से किसी भी न्यायप्रिय व्यक्ति को कोई आपत्ति नहीं हो सकती है। हमारा यह मानना है कि सतर्क ढंग से प्रयोग करने पर इस प्रकार की गणना एक समतापूर्ण और न्यायपूर्ण समाज के निर्माण के लिये काफी उपयोगी साबित हो सकती है। 

2 टिप्‍पणियां:

  1. हां जो बहुमत का शोर मचाते हैं और अल्पमत में होते हुए भी बहुमत का हिस्सा खाते हैं, उन्हें भीऐसी गणना से दिक्कत हो सकती है।

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