(यह लेख संबोधन के विष्णु नागर पर केन्द्रित अंक में छपा है, जिसका कुशल संपादन युवा कवि हरेप्रकाश उपाध्याय ने किया है। )
मेरे लिए किसी प्रिय अग्रज कवि पर लिखना हर बार समकालीन कविता के निकट अतीत की यात्रा करने जैसा होता है। इस यात्रा के कई आत्मीय पड़ाव मुझे हौसला देते हैं कि मैं जो कर रहा हूँ वह सही के पक्ष में एक राजनीतिक और सामाजिक कृत्य है। ऐसी यात्राएं मुझे समृद्ध करती हैं। विष्णु नागर के नवीनतम कवितासंग्रह पर लिखना भी एक ऐसी ही रचनात्मक यात्रा है, जिसे आलोचना या समीक्षा के परम्परागत या बौद्धिक ढांचे में जोड़ना तो शायद मुमकिन नहीं होगा पर यह मेरे भीतर के कवि की दुनिया में बहुत कुछ जोड़ देगी। बड़ों से प्रभावित होने के कई उदाहरण युवा कविता में दिखाई देते हैं लेकिन मेरे लिए यह प्रभावित होना एक सरल पद है - मैं महज प्रभावित नहीं होता, सीखता भी हूँ। प्रभाव तो भाषा, विषयचयन और डिक्शन पर दिखाई देता है और थोथा अनुकरण ही लगता है, जिससे मुझे नहीं लगता कि युवा कविता का कुछ भला होगा। सीखना दरअसल अपने थोड़ा पहले के समय को जानना भी है। मेरे लिए यह `सीखना´ सिर्फ़ कविता तक सीमित नहीं है। कुछ वर्ष पहले युवा कवि-आलोचक (अब सम्पादक `समास´ भी) व्योमेश शुक्ल ने पत्र लिखकर जैसे मेरे भीतर के जल को नापते हुए मुझसे पूछा था कि एक युवा कवि को किस तरह की कविता पढ़नी चाहिए? मैंने जवाब दिया था कि भइये कविता तो बाद में, पहले हमें हरिशंकर परसाई को बहुत ध्यान से पढना चाहिए। वह एक ऐसा लेखक है जो जनता के पक्ष में हमारे भीतर की ज़मीन को बार-बार जोतकर उर्वर बना देता है। मेरा मानना है कि हर सच्चे कवि को जनता के पक्ष में सही राजनीति से दीक्षित होना चाहिए और वह राजनीति उसकी कविता में साफ़ दिखाई देनी चाहिए। जनता का पक्ष कवि को राजनीति सिखा ही देता है। कुछ कवि मित्र जो जाहिर तौर पर `राजनीति´ जैसे शब्द से परहेज करते हैं, भले ही वे स्वीकार न करें पर उनकी भी बेहद अच्छी कविताएं दरअसल कहीं न कहीं `सही´ की इसी राजनीति को व्यक्त करती हैं- इसी से वे सफल कविता बनती हैं। कविता के कुछ अपने सामाजिक-राजनीतिक जीवनमूल्य होने चाहिए। जाहिर है कि इन जीवनमूल्यों की अभिव्यक्ति हर कवि में अलग तरह से होगी पर उन्हें वहां होना ज़रूर चाहिए। अपने भीतर की चीज़ों को खंगालना भी कवि के लिए ऐसा हो कि तुरत उससे बाहर की दुनिया से जुड़ जाए। बाहर से भीतर और भीतर से बाहर की यह सम्बद्धता मेरे लिए बहुत ज़रूरी है। इसी को `प्रतिबद्धता´ कहा जाना चाहिए है- `वैचारिक´ तो अपनेआप जुड़ जाएगा। पिछले कुछ दिनों से अपने समय की कविता के बारे में इस तरह के सोच-विचार के बीच नागर जी के नए संग्रह का नाम `घर के बाहर घर´ मेरे मन में बार-बार आता है। यह मुझे अपनी धारणाओं के बहुत निकट लगता है। यह किसी कविता का शीर्षक नहीं, एक बहुत छोटी-सी कविता के शब्द हैं -
मेरा घर
मेरे घर के बाहर भी है
मेरा बाहर
मेरे घर के अन्दर भी
घर को घर में
बाहर को बाहर ढूंढते हुए
मैंने पाया
मैं दोनों जगह नहीं हूँ
मैंने जिस बात को कहने में एक पूरा अनुच्छेद लिया, उसी को यह कविता चन्द शब्दों में कह लेती है। घर और बाहर को ढूँढने के रूढ़ और ग़लत तरीके की शिनाख़्त करती है। चाहे जीवन हो या विचार, भीतर को बाहर भी खोजिए और बाहर को भीतर भी - दोनों जगह ख़ुद को पायेंगे वरना किसी एक से भी जायेंगे।
मैं बार-बार सही राजनीति के पक्ष जाता रहा हूँ या कहें कि जाते रहने का दम भरता हूँ। आख़िर कौन-सी राजनीति है, जिसे हम सही कहेंगे सही को खोजने से पहले यदि ग़लत को पहचान लिया जाए तो यह खोज बहुत आसान हो जायेगी। विष्णु नागर की कविता ठीक यही करती है। वह लगातार एक धुन में ग़लत को रेखांकित करती जाती है। अभी ही नहीं, पिछले सभी संग्रहों में भी। मैं इस बात से बहुत कुछ सीखता हूँ। दरअसल सही कहना उतना जोखिमभरा नहीं होता, जितना ग़लत पर हमला करना। क्या होना चाहिए यह बता कर आप वाहवाही लूट सकते हैं पर क्या नहीं होना चाहिए यह कहकर आप दुश्मन बनाते हैं। हमारे देश में तथाकथित स्वकल्पित समुन्नत राष्ट्रवाद की ऊंची `शाखाओं´ में जीनेवाले प्राणियों से छेड़छाड़ करना कितना घातक हो सकता है, इसके अनेक उदाहरण मौजूद हैं। विष्णु नागर की कविता बार-बार जोखिम लेती है - राजनीतिक रूप से भी और कविता के बेहद सांकेतिक होते जा रहे आधुनिक शिल्प से विद्रोह कर सपाटबयानी करते हुए भी। आलोचकों के लिए कविता बने न बने, जनता के लिए एक सीधा-सच्चा बयान बनना चाहिए, यह संकल्प अनमोल है। `क्योंकि मैं मुसलमान हूँ ´ एक ऐसी ही असाधारण कविता है। इसमें हम चाहें तो एम.एफ. हुसैन प्रकरण की गूँज भी सुन सकते हैं और हमें सुननी भी चाहिए। इस कविता को पिछले दिनों धीरेश सैनी ने अपने ब्लॉग `एक ज़िद्दी धुन´ पर लगाया था और वहां पर काफी बहस भी हुई।
भारतीय कवियों के सामने राजनीतिक संकटों की फेहरिस्त में पूंजीवाद निराला के समय से मौजूद है। हमारे समय में इसका रूप अधिक जटिल और लुभावना होता गया है। सत्ताकेन्द्र इसे अब बहुत आसानी के साथ विकास से जोड़ देते हैं और जनता के सामने लगातार एक कुहासा पैदा करते जाते हैं। आम पढ़ालिखा होशियार हुनरमन्द नौजवान स्वाभाविक रूप से इसे ही अपना `नयापथ´ मानता है और इससे लाभ उठाने की पूरी कोशिश करता है। मैंने देखा है कि चन्द्रकान्त देवताले, लीलाधर जगूड़ी, वीरेन डंगवाल, ज्ञानेन्द्रपति, मंगलेश डबराल जैसे अग्रजों की कविता लगातार इस कुहासे के बीच रोशनी की ज़रूरी तलाश करती है। विष्णु नागर के इस संग्रह में भी यह तलाश अपनी पूरी बैचेनी के साथ उपस्थित है और एक अन्तर्निहित अनिवार्य व्यंग्य उसे चमकाता जाता है। `पूंजीवाद´ और `अमरीकीकरण´ ऐसी ही दो कविताएं हैं। रामचन्द्र शुक्ल ने काफ़ी पहले स्पष्ट कर दिया था कि सभ्यता के विकास के साथ उस पर पड़े आवरणों को हटाते हुए कविकर्म और भी कठिन होता जायेगा। पूँजीवाद भी अब सभ्यता पर पड़े आवरणों की कई-कई परतों में भीतर कहीं मौजूद है और जाहिर है कि इन परतों के नीचे हत्यारी सभ्यताओं को समझना और उसका एक सबल प्रतिपक्ष सम्भव करना एक दुष्कर कार्य है। विष्णु नागर इसे करते हैं। पूँजीवाद शीर्षक कविता की ये पंक्तियां इन सभ्यताओं के नए प्रतिपादित हत्यारे सिद्धान्तों की शिनाख़्त करती हैं -
बहरहाल पूँजीवाद एक कर्मयोगी है
मन, वचन, कर्म से
वह यह सिद्ध करने का प्रयत्न करता है
कि वह पूँजीवाद होकर भी पूँजीवाद नहीं है, शोषण वह नहीं करता
लोगों को ग़रीबी की ओर वह नहीं धकेलता
वह तो रोज़ी-रोटी देता है, आगे आने के अवसर देता है,
समृद्धि लाता है लेकिन आलसी लोगों का कोई क्या करे?
आख़िर दुनिया में वहीं लोकतन्त्र है, जहां पूंजीवाद है
वही है जो मानवाधिकारों की रक्षा करता है
वही है जो तीसरा विश्वयुद्ध नहीं होने दे रहा
(और जो वह होने दे रहा है, उसे विश्वयुद्ध नहीं कहा जा सकता)
वही है जो पूँजी का वैश्विक प्रवाह सुगम बनाए हुए है
सट्टेबाज़ी से कमाने के अवसर देता है
इसी कविता का अन्त बींसवी सदी के आख़िर में शुरू किए गए आर्थिक सुधारों के `मनमोहन´ प्रयत्नों और `अटल´ सम्भावनाओं के बीच से निकलता और हमें अन्तिम रूप से सावधान करता है-
वैसे इस देश में पूँजीवाद
इसलिए भी है कि ईश्वर की ऐसी ही मरज़ी है
और कौन है जो आज तलक उसकी मरज़ी के खिलाफ़ जा सका है?
अनायास नहीं है कि अपने कविजीवन के हर वक़्त में विष्णु नागर ने `हत्यारे´ पर कविता लिखी हैं पर इसे दुहराव नहीं कहा जा सकता। `हत्यारा´ किसी भी कवि का प्रिय पद नहीं हो सकता लेकिन देखिए कि आधुनिक समाज में इस शब्द का फैलाव किस तरह बढ़ता गया है साथ ही उसे बार-बार रेखांकित करने की ज़रूरत भी। समूची सभ्यता और समाज ही हत्यारे में बदलते गए हैं और उदाहरण के लिए अमरीका अपने दुर्दान्त मानवविरोधी कारनामों के साथ सदैव दृश्य पर उपस्थित है। मुझे याद पड़ता है अपने किसी व्यंग्य निबंध में हरिशंकर परसाई ने किसी पश्चिमी विचारक को उद्धृत करते हुए लिखा था कि कोई भी मानवसमाज स्वाभाविक रूप से असभ्यता से सभ्यता और सभ्यता से बर्बरता की तरफ जाता है लेकिन अमरीकी समाज एक ऐसा समाज है जो असभ्यता से सीधे बर्बरता की तरफ गया है - उसने सभ्यता का पड़ाव देखा ही नहीं। विष्णु नागर के इस संग्रह में अमरीका पर भी कविता है और हत्यारे पर भी, जिनके आशय बहुत स्पष्ट और वही हैं जो परसाई जी के उस निबंध के। इसी क्रम में एक कविता `बमाबम´ भी है। यह विषय मुझे येहूदा आमीखाई की एक बेहद संजीदा कविता `बम का व्यास´ की याद दिलाता है, जो अपनी तरह की अनोखी और अकेली कविता है। विष्णु नागर भी इस पर कुछ गम्भीर बातें कहते हैं पर अपने ख़ास वक्रोक्तिप्रकाश में।
इस संग्रह में कुछ कविताएं स्त्रियों और स्त्री-पुरुष सम्बन्धों के तानेबाने में क़दम रखती हैं। इनमें `तुम्हें हंसता देखकर´ जैसी छोटी-सी नाज़ुक कविता भी शामिल है जो दरअसल बहुत कम शब्दों में एक पूरे विधान को व्यक्त करने की क्षमता रखती है -
तुम्हें हंसता देखकर
अचानक यह दुष्ट ख़याल आया
कि तुम रोते हुए कैसी लगोगी
और तब भी मैंने तुम्हें हंसते पाया
इसी क्रम में एक कविता मर्द के रोने पर भी है। `कौन है वह मर्द´ शीर्षक कविता में रोने का ख़ास ज़िक्र तो है ही, स्त्री-पुरुष सम्बन्धों की एक ज़रुरी और मानवीय व्याख्या भी है-
है कोई ऐसा मर्द
जो कभी फूट-फूटकर नहीं रोया
कौन होगा ऐसा अभागा
जिसके आंसू कभी किसी औरत ने नहीं पोंछे
जिसे अपने सीने से नहीं लगाया, जिसे पानी नहीं पिलाया
जिसका सिर नहीं सहलाया, जिसे चुप नहीं कराया
जिसके लिए औरत कभी किसी से लड़ी नहीं ?
ज़रा `है कोई ऐसा मर्द´ से फूट पड़ती चुनौती को देखिए। मुझे तो इन पंक्तियों तक आते-आते आलोक धन्वा की विख्यात कविता `भागी हुई लड़कियां´ का अन्त भी याद आने लगता है, जहां कवि पूछना शुरू करता है कि `तुमसे नहीं कहा कभी किसी स्त्री ने / आज की रात रूक जाओ? ´ साथ ही स्त्रीविषयक इन कविताओं से गुज़रते मनमोहन की कुछ कविताएं भी भीतर कहीं गड्ड-मड्ड होने लगती हैं, जिससे पता लगता है कि हमारे ये अग्रज महज समकालीन ही नहीं, संवेदनात्मक धरातल पर किस हद तक समानधर्मा भी हैं।
हर बड़ा और विचारवान कवि एक विशिष्ट कालबोध रखता है और अपने ढंग से उसे व्यक्त करता है। विष्णु नागर के यहां भी इस तरह की अभिव्यक्ति का होना स्वाभाविक है -
मैं अपना बचपन भूल रहा हूँ
अपने बच्चों का बचपन भी
इतना ज़्यादा वर्तमान हो रहा हूँ
कि मुझे इतिहास होने में देर नहीं लगेगी!
इस कालबोध में एक ज़रूरी राजनीतिक स्वर छुपा हुआ होकर भी मुखर है। पूंजीवादी तात्कालिकता के खिलाफ़ समय के जुड़ने-टूटने का द्वन्द्व यहां साफ़ पहचाना जा सकता है। यह पूरा संग्रह दरअसल छोटी-बड़ी कविताओं से बना हमारे समय का एक बड़ा कोलाज है, जिसे सम्पूर्णता में देखने पर ही उसकी अर्थवत्ता का पता चलता है। फिर कहूंगा कि यह अर्थवत्ता उसी राजनीति में निहीत है, जिसे विष्णु नागर की कविता पूरे साहस के साथ अपना स्वर देती रही है। उम्मीद करता हूँ कि हमारी पीढ़ी भी ज़रूर अपने साथ विष्णु जी जैसे अग्रजों की इस `समकालीनता´ का अहसास करते हुए मनुष्यता के पक्ष में सही राजनीति का संधान करेगी।
***
मेरे लिए किसी प्रिय अग्रज कवि पर लिखना हर बार समकालीन कविता के निकट अतीत की यात्रा करने जैसा होता है। इस यात्रा के कई आत्मीय पड़ाव मुझे हौसला देते हैं कि मैं जो कर रहा हूँ वह सही के पक्ष में एक राजनीतिक और सामाजिक कृत्य है। ऐसी यात्राएं मुझे समृद्ध करती हैं। विष्णु नागर के नवीनतम कवितासंग्रह पर लिखना भी एक ऐसी ही रचनात्मक यात्रा है, जिसे आलोचना या समीक्षा के परम्परागत या बौद्धिक ढांचे में जोड़ना तो शायद मुमकिन नहीं होगा पर यह मेरे भीतर के कवि की दुनिया में बहुत कुछ जोड़ देगी। बड़ों से प्रभावित होने के कई उदाहरण युवा कविता में दिखाई देते हैं लेकिन मेरे लिए यह प्रभावित होना एक सरल पद है - मैं महज प्रभावित नहीं होता, सीखता भी हूँ। प्रभाव तो भाषा, विषयचयन और डिक्शन पर दिखाई देता है और थोथा अनुकरण ही लगता है, जिससे मुझे नहीं लगता कि युवा कविता का कुछ भला होगा। सीखना दरअसल अपने थोड़ा पहले के समय को जानना भी है। मेरे लिए यह `सीखना´ सिर्फ़ कविता तक सीमित नहीं है। कुछ वर्ष पहले युवा कवि-आलोचक (अब सम्पादक `समास´ भी) व्योमेश शुक्ल ने पत्र लिखकर जैसे मेरे भीतर के जल को नापते हुए मुझसे पूछा था कि एक युवा कवि को किस तरह की कविता पढ़नी चाहिए? मैंने जवाब दिया था कि भइये कविता तो बाद में, पहले हमें हरिशंकर परसाई को बहुत ध्यान से पढना चाहिए। वह एक ऐसा लेखक है जो जनता के पक्ष में हमारे भीतर की ज़मीन को बार-बार जोतकर उर्वर बना देता है। मेरा मानना है कि हर सच्चे कवि को जनता के पक्ष में सही राजनीति से दीक्षित होना चाहिए और वह राजनीति उसकी कविता में साफ़ दिखाई देनी चाहिए। जनता का पक्ष कवि को राजनीति सिखा ही देता है। कुछ कवि मित्र जो जाहिर तौर पर `राजनीति´ जैसे शब्द से परहेज करते हैं, भले ही वे स्वीकार न करें पर उनकी भी बेहद अच्छी कविताएं दरअसल कहीं न कहीं `सही´ की इसी राजनीति को व्यक्त करती हैं- इसी से वे सफल कविता बनती हैं। कविता के कुछ अपने सामाजिक-राजनीतिक जीवनमूल्य होने चाहिए। जाहिर है कि इन जीवनमूल्यों की अभिव्यक्ति हर कवि में अलग तरह से होगी पर उन्हें वहां होना ज़रूर चाहिए। अपने भीतर की चीज़ों को खंगालना भी कवि के लिए ऐसा हो कि तुरत उससे बाहर की दुनिया से जुड़ जाए। बाहर से भीतर और भीतर से बाहर की यह सम्बद्धता मेरे लिए बहुत ज़रूरी है। इसी को `प्रतिबद्धता´ कहा जाना चाहिए है- `वैचारिक´ तो अपनेआप जुड़ जाएगा। पिछले कुछ दिनों से अपने समय की कविता के बारे में इस तरह के सोच-विचार के बीच नागर जी के नए संग्रह का नाम `घर के बाहर घर´ मेरे मन में बार-बार आता है। यह मुझे अपनी धारणाओं के बहुत निकट लगता है। यह किसी कविता का शीर्षक नहीं, एक बहुत छोटी-सी कविता के शब्द हैं -
मेरा घर
मेरे घर के बाहर भी है
मेरा बाहर
मेरे घर के अन्दर भी
घर को घर में
बाहर को बाहर ढूंढते हुए
मैंने पाया
मैं दोनों जगह नहीं हूँ
मैंने जिस बात को कहने में एक पूरा अनुच्छेद लिया, उसी को यह कविता चन्द शब्दों में कह लेती है। घर और बाहर को ढूँढने के रूढ़ और ग़लत तरीके की शिनाख़्त करती है। चाहे जीवन हो या विचार, भीतर को बाहर भी खोजिए और बाहर को भीतर भी - दोनों जगह ख़ुद को पायेंगे वरना किसी एक से भी जायेंगे।
मैं बार-बार सही राजनीति के पक्ष जाता रहा हूँ या कहें कि जाते रहने का दम भरता हूँ। आख़िर कौन-सी राजनीति है, जिसे हम सही कहेंगे सही को खोजने से पहले यदि ग़लत को पहचान लिया जाए तो यह खोज बहुत आसान हो जायेगी। विष्णु नागर की कविता ठीक यही करती है। वह लगातार एक धुन में ग़लत को रेखांकित करती जाती है। अभी ही नहीं, पिछले सभी संग्रहों में भी। मैं इस बात से बहुत कुछ सीखता हूँ। दरअसल सही कहना उतना जोखिमभरा नहीं होता, जितना ग़लत पर हमला करना। क्या होना चाहिए यह बता कर आप वाहवाही लूट सकते हैं पर क्या नहीं होना चाहिए यह कहकर आप दुश्मन बनाते हैं। हमारे देश में तथाकथित स्वकल्पित समुन्नत राष्ट्रवाद की ऊंची `शाखाओं´ में जीनेवाले प्राणियों से छेड़छाड़ करना कितना घातक हो सकता है, इसके अनेक उदाहरण मौजूद हैं। विष्णु नागर की कविता बार-बार जोखिम लेती है - राजनीतिक रूप से भी और कविता के बेहद सांकेतिक होते जा रहे आधुनिक शिल्प से विद्रोह कर सपाटबयानी करते हुए भी। आलोचकों के लिए कविता बने न बने, जनता के लिए एक सीधा-सच्चा बयान बनना चाहिए, यह संकल्प अनमोल है। `क्योंकि मैं मुसलमान हूँ ´ एक ऐसी ही असाधारण कविता है। इसमें हम चाहें तो एम.एफ. हुसैन प्रकरण की गूँज भी सुन सकते हैं और हमें सुननी भी चाहिए। इस कविता को पिछले दिनों धीरेश सैनी ने अपने ब्लॉग `एक ज़िद्दी धुन´ पर लगाया था और वहां पर काफी बहस भी हुई।
भारतीय कवियों के सामने राजनीतिक संकटों की फेहरिस्त में पूंजीवाद निराला के समय से मौजूद है। हमारे समय में इसका रूप अधिक जटिल और लुभावना होता गया है। सत्ताकेन्द्र इसे अब बहुत आसानी के साथ विकास से जोड़ देते हैं और जनता के सामने लगातार एक कुहासा पैदा करते जाते हैं। आम पढ़ालिखा होशियार हुनरमन्द नौजवान स्वाभाविक रूप से इसे ही अपना `नयापथ´ मानता है और इससे लाभ उठाने की पूरी कोशिश करता है। मैंने देखा है कि चन्द्रकान्त देवताले, लीलाधर जगूड़ी, वीरेन डंगवाल, ज्ञानेन्द्रपति, मंगलेश डबराल जैसे अग्रजों की कविता लगातार इस कुहासे के बीच रोशनी की ज़रूरी तलाश करती है। विष्णु नागर के इस संग्रह में भी यह तलाश अपनी पूरी बैचेनी के साथ उपस्थित है और एक अन्तर्निहित अनिवार्य व्यंग्य उसे चमकाता जाता है। `पूंजीवाद´ और `अमरीकीकरण´ ऐसी ही दो कविताएं हैं। रामचन्द्र शुक्ल ने काफ़ी पहले स्पष्ट कर दिया था कि सभ्यता के विकास के साथ उस पर पड़े आवरणों को हटाते हुए कविकर्म और भी कठिन होता जायेगा। पूँजीवाद भी अब सभ्यता पर पड़े आवरणों की कई-कई परतों में भीतर कहीं मौजूद है और जाहिर है कि इन परतों के नीचे हत्यारी सभ्यताओं को समझना और उसका एक सबल प्रतिपक्ष सम्भव करना एक दुष्कर कार्य है। विष्णु नागर इसे करते हैं। पूँजीवाद शीर्षक कविता की ये पंक्तियां इन सभ्यताओं के नए प्रतिपादित हत्यारे सिद्धान्तों की शिनाख़्त करती हैं -
बहरहाल पूँजीवाद एक कर्मयोगी है
मन, वचन, कर्म से
वह यह सिद्ध करने का प्रयत्न करता है
कि वह पूँजीवाद होकर भी पूँजीवाद नहीं है, शोषण वह नहीं करता
लोगों को ग़रीबी की ओर वह नहीं धकेलता
वह तो रोज़ी-रोटी देता है, आगे आने के अवसर देता है,
समृद्धि लाता है लेकिन आलसी लोगों का कोई क्या करे?
आख़िर दुनिया में वहीं लोकतन्त्र है, जहां पूंजीवाद है
वही है जो मानवाधिकारों की रक्षा करता है
वही है जो तीसरा विश्वयुद्ध नहीं होने दे रहा
(और जो वह होने दे रहा है, उसे विश्वयुद्ध नहीं कहा जा सकता)
वही है जो पूँजी का वैश्विक प्रवाह सुगम बनाए हुए है
सट्टेबाज़ी से कमाने के अवसर देता है
इसी कविता का अन्त बींसवी सदी के आख़िर में शुरू किए गए आर्थिक सुधारों के `मनमोहन´ प्रयत्नों और `अटल´ सम्भावनाओं के बीच से निकलता और हमें अन्तिम रूप से सावधान करता है-
वैसे इस देश में पूँजीवाद
इसलिए भी है कि ईश्वर की ऐसी ही मरज़ी है
और कौन है जो आज तलक उसकी मरज़ी के खिलाफ़ जा सका है?
अनायास नहीं है कि अपने कविजीवन के हर वक़्त में विष्णु नागर ने `हत्यारे´ पर कविता लिखी हैं पर इसे दुहराव नहीं कहा जा सकता। `हत्यारा´ किसी भी कवि का प्रिय पद नहीं हो सकता लेकिन देखिए कि आधुनिक समाज में इस शब्द का फैलाव किस तरह बढ़ता गया है साथ ही उसे बार-बार रेखांकित करने की ज़रूरत भी। समूची सभ्यता और समाज ही हत्यारे में बदलते गए हैं और उदाहरण के लिए अमरीका अपने दुर्दान्त मानवविरोधी कारनामों के साथ सदैव दृश्य पर उपस्थित है। मुझे याद पड़ता है अपने किसी व्यंग्य निबंध में हरिशंकर परसाई ने किसी पश्चिमी विचारक को उद्धृत करते हुए लिखा था कि कोई भी मानवसमाज स्वाभाविक रूप से असभ्यता से सभ्यता और सभ्यता से बर्बरता की तरफ जाता है लेकिन अमरीकी समाज एक ऐसा समाज है जो असभ्यता से सीधे बर्बरता की तरफ गया है - उसने सभ्यता का पड़ाव देखा ही नहीं। विष्णु नागर के इस संग्रह में अमरीका पर भी कविता है और हत्यारे पर भी, जिनके आशय बहुत स्पष्ट और वही हैं जो परसाई जी के उस निबंध के। इसी क्रम में एक कविता `बमाबम´ भी है। यह विषय मुझे येहूदा आमीखाई की एक बेहद संजीदा कविता `बम का व्यास´ की याद दिलाता है, जो अपनी तरह की अनोखी और अकेली कविता है। विष्णु नागर भी इस पर कुछ गम्भीर बातें कहते हैं पर अपने ख़ास वक्रोक्तिप्रकाश में।
इस संग्रह में कुछ कविताएं स्त्रियों और स्त्री-पुरुष सम्बन्धों के तानेबाने में क़दम रखती हैं। इनमें `तुम्हें हंसता देखकर´ जैसी छोटी-सी नाज़ुक कविता भी शामिल है जो दरअसल बहुत कम शब्दों में एक पूरे विधान को व्यक्त करने की क्षमता रखती है -
तुम्हें हंसता देखकर
अचानक यह दुष्ट ख़याल आया
कि तुम रोते हुए कैसी लगोगी
और तब भी मैंने तुम्हें हंसते पाया
इसी क्रम में एक कविता मर्द के रोने पर भी है। `कौन है वह मर्द´ शीर्षक कविता में रोने का ख़ास ज़िक्र तो है ही, स्त्री-पुरुष सम्बन्धों की एक ज़रुरी और मानवीय व्याख्या भी है-
है कोई ऐसा मर्द
जो कभी फूट-फूटकर नहीं रोया
कौन होगा ऐसा अभागा
जिसके आंसू कभी किसी औरत ने नहीं पोंछे
जिसे अपने सीने से नहीं लगाया, जिसे पानी नहीं पिलाया
जिसका सिर नहीं सहलाया, जिसे चुप नहीं कराया
जिसके लिए औरत कभी किसी से लड़ी नहीं ?
ज़रा `है कोई ऐसा मर्द´ से फूट पड़ती चुनौती को देखिए। मुझे तो इन पंक्तियों तक आते-आते आलोक धन्वा की विख्यात कविता `भागी हुई लड़कियां´ का अन्त भी याद आने लगता है, जहां कवि पूछना शुरू करता है कि `तुमसे नहीं कहा कभी किसी स्त्री ने / आज की रात रूक जाओ? ´ साथ ही स्त्रीविषयक इन कविताओं से गुज़रते मनमोहन की कुछ कविताएं भी भीतर कहीं गड्ड-मड्ड होने लगती हैं, जिससे पता लगता है कि हमारे ये अग्रज महज समकालीन ही नहीं, संवेदनात्मक धरातल पर किस हद तक समानधर्मा भी हैं।
हर बड़ा और विचारवान कवि एक विशिष्ट कालबोध रखता है और अपने ढंग से उसे व्यक्त करता है। विष्णु नागर के यहां भी इस तरह की अभिव्यक्ति का होना स्वाभाविक है -
मैं अपना बचपन भूल रहा हूँ
अपने बच्चों का बचपन भी
इतना ज़्यादा वर्तमान हो रहा हूँ
कि मुझे इतिहास होने में देर नहीं लगेगी!
इस कालबोध में एक ज़रूरी राजनीतिक स्वर छुपा हुआ होकर भी मुखर है। पूंजीवादी तात्कालिकता के खिलाफ़ समय के जुड़ने-टूटने का द्वन्द्व यहां साफ़ पहचाना जा सकता है। यह पूरा संग्रह दरअसल छोटी-बड़ी कविताओं से बना हमारे समय का एक बड़ा कोलाज है, जिसे सम्पूर्णता में देखने पर ही उसकी अर्थवत्ता का पता चलता है। फिर कहूंगा कि यह अर्थवत्ता उसी राजनीति में निहीत है, जिसे विष्णु नागर की कविता पूरे साहस के साथ अपना स्वर देती रही है। उम्मीद करता हूँ कि हमारी पीढ़ी भी ज़रूर अपने साथ विष्णु जी जैसे अग्रजों की इस `समकालीनता´ का अहसास करते हुए मनुष्यता के पक्ष में सही राजनीति का संधान करेगी।
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पत्रिका का यह अंक कमर मेवाड़ी जी को 09829161342 पर फोन करके मंगाया जा सकता है।
पढवाने का शुक्रिया. पत्रिका के आने का पता आपसे ही चला.
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