अभी हाल में


विजेट आपके ब्लॉग पर

सोमवार, 12 जुलाई 2010

काशीनाथ सिंह से बतकही

( वरिष्ठ कहानीकार काशीनाथ सिंह जी का जनपक्ष की साथी प्रतिभा कटियार द्वारा लिया गया यह साक्षात्कार पल्लव द्वारा संपादित बनास के ताज़ा अंक में छपा है। उन्हीं पर केन्द्रित इस अंक में आप इस बहुआयामी कथाकार के जीवन और रचनाकर्म के तमाम रंगो की पड़ताल कर सकते हैं। 'काशी का अस्सी' के अंश तो है ही साथ में हिमांशु पण्ड्या, राजीव कुमार,निखिलेश,वैभव सिंह,विनोद तिवारी, गौतम सान्याल आदि के इस उपन्यास पर लिखे महत्वपूर्ण आलेख भी हैं। राजकमल चौधरी, धूमिल, राजेन्द्र यादव,भीष्म साहनी, कमला प्रसाद,कुमार सम्भव, मूलचन्द गौतम,उदय प्रकाश, स्वयंप्रकाश, दिनेश कुशवाह आदि के साथ उनके पत्र-व्यवहार लेखक की ज़िन्दगी में पाठकों का प्रवेश कराते हैं तो रमाकांत श्रीवास्तव,श्रीवल्लभ शुक्ल,वरुण ग्रोवर के संस्मरणात्मक लेख इस झरोखे में पर्याप्त रोशनी भरते हैं।
295 पन्नों की इस संग्रहणीय किताबनुमा ख़ूबसूरत पत्रिका की क़ीमत है मात्र 75 रु और आप इसे pallavkidak@gmail.com पर मेल करके मंगा सकते हैं। )


प्रश्न- काशी का अस्सी अनायास लिखा गया उपन्यास है. आपने तो कथा रिर्पोताज लिखे थे, क्या तब आपने यह सोचा था कि कभी ये कथा रिर्पोताज उपन्यास का रूप ले लेंगे. कथा रिर्पोताजों की उपन्यास तक की यात्रा कैसे हुई और कैसी रही?
- असल में पूरे उपन्यास में पांच कहानियां हैं. शुरुआत में जो दो हैं देख तमाशा लकड़ी का और संतो घर में झगड़ा भारी ये दोनों कथा रिर्पोताज हैं. तीसरा संतो और घोंघा बसंतों का अस्सी संस्मरण के रूप में छपा था. चौथा व पांचवां खंड पांडे कौन कुमति तोहे लागे और कौन ठगवा नगरिया लूटल हो कहानी के रूप में छपा था. जब इसका पहला खंड छपा था, तब इसके प्रारूप को लेकर मेरे और संपादक राजेन्द्र यादव दोनों के बीच मतभेद था. राजेन्द्र जी को लग रहा था कि यह रिर्पोताज है जबकि मैं इसे कहानी मानता था. आखिर काफी सोच-विचार के बाद उन्होंने इसे कथा रिर्पोताज का नाम दिया. जब मैंने लिखना शुरू किया था तब मैंने यह नहीं सोचा था कि जो मैं लिख रहा हूं इसका स्वरूप क्या होगा. मेरे सामने जो काशी के अस्सी का लोकेल था, मैं उस लोकेल को अपने पाठकों तक पहुंचाना चाहता था. मैं यह लोकेल उन्हें पढ़ाना नहीं, दिखाना चाहता था. अस्सी सिर्फ एक जगह नहीं है. यह नगर भी है गांव भी, कस्बा भी है. यहां जो चाय की दुकान है वहां रिक्शेवाले, दूधवाले, विद्यार्थी, गायक, कवि, पत्रकार, प्रोफेसर सब इकट्ठे होते हैं. यह ऐसी जगह है जहां ढेर सारी विविधताएं एकत्र होती हैं. प्रजातंत्र का असली चेहरा भी यहीं नजर आता है. एक रिक्शेवाला भी अपनी बात को प्रोफेसर साहब को समझाते हुए नजर आता है, तो एक विद्यार्थी बिना किसी डर के अपने विचार व्यक्त कर रहा होता है. कहीं कोई डर नहीं, घबराहट नहीं. सच्चा लोकतंत्र यही है. इसीलिए उपन्यास में मैंने इसे संसद का नाम भी कई जगह दिया है. लोकेल एक है चाय की दुकान. पात्र भी एक ही है जो पांचों लंबी कहानियों में फैले हुए हैं.


प्रश्न-काशी का अस्सी ने शिल्प के स्तर पर नये प्रयोग किये हैं और यह पाठकों ने पसंद भी किये हैं. क्या पारंपरिक शिल्प में यह नहीं लिखा जा सकता था?
- कई बार जब हम लिखने बैठते हैं तो प्रचलित प्रारूपों की सीमाओं के पार जाना पड़ता है. यूं भी जिस दौर में काशी का अस्सी लिखा गया था तब विधाओं की एक-दूसरे में आवाजाही शुरू हो गयी थी. कविता कहानी में, कहानी कविता में, वैचारिक बहसें कहानियों में चहलकदमी करने लगी थीं. शायद इसीलिए इसमें भी विधाओं के टूटने या किसी नयी विधा या शिल्प के जन्म लेने की गुंजाइश बन पाई. यूं मेरा उद्देश्य कतई नहीं था कि इसे उपन्यास ही माना जाए. जैसा कि मैंने पहले ही कहा कि मैंने यह तय करके लिखा ही नहीं था कि यह किस विधा की कौन सी चीज होगी. मेरे हिसाब से विधाओं का प्रारूप रचनाओं के आधार पर तय होना चाहिए न कि रचनाएं विधा के प्रारूप पर लिखी जानी चाहिए. मेरे लिए महत्वपूर्ण था उस लोकेल को दिखाया जाना. जो मैंने दिखाया भी है. इसलिए अगर इसमें उपन्यास का ढांचा टूटा है तो उसे लेकर मुझे कोई गुरेज नहीं है.


प्रश्न-काशी का अस्सी से पहले बहती गंगा जैसा क्लासिक नॉवेल लिखा जा चुका है, उसके साथ तुलना करें तो आपका पक्ष क्या होगा?
- मैंने बहती गंगा पढ़ा जरूर था, लेकिन लिखते समय वह मेरे ज़ेहन में कहीं नहीं था. बहती गंगा में पुराना और पूरा काशी है. यह उन्नीसवीं सदी का काशी है. जबकि मेरे यहां बीसवीं सदी के आखिरी दशक का काशी न$जर आता है. मेरे यहां पूरा काशी नहीं काशी का एक मोहल्ला भर दिखता है. इस मोहल्ले को तुलसीदास के कारण जाना जाता है. नामवर सिंह, केदारनाथ सिंह, विद्यासागर नौटियाल, विजयमोहन सिंह, त्रिलोचन, विश्वचंद्र शर्मा, चंद्र बली सिंह, शिवप्रसाद सिंह, जारी प्रसाद द्विवेदी, धूमिल आदि के कारण जाना जाता रहा है. यहां इन लोगों का आना-जाना रहा है. आजादी के इतिहास की कई कडिय़ां यहां मिलती हैं. काशी का अस्सी का समय बीसवीं सदी का आखिरी दशक था. उस समय सोवियत रूस का विघटन हो चुका था. उदारीकरण पांव पसार रहा था. बाबरी मस्जिद, राम मंदिर विवाद जोरों पर था, मंडल की आग में देश जल रहा था. कांग्रेस की सत्ता खंडित हो रही थी. अस्सी घाट पर विदेशियों का आना बढऩे लगा था. ग्लोबलाइजेशन का आमजन पर क्या असर पड़ रहा है और उसकी प्रतिक्रिया क्या उसे बताने के लिए मैंने इसे लिखा.

बहती गंगा और काशी का अस्सी में समानता बस इतनी है कि दोनों की संरचना औपन्यासिक नहीं है. बहती गंगा में भी अलग-अलग कहानियां है. गुंडों की कहानियां, पंडों की कहानियां, गायकों की, कोठों की कहानियां वगैरह. बहती गंगा में लोकतंत्र नहीं है. ग्लोबलाइजेशन नहीं है. बदलाव नहीं है. इसमें और काशी का अस्सी में काफी अंतर है.

प्रश्न-काशी का अस्सी पर आरोप है कि वह राजनीति का माखौल उड़ाता है. लेकिन क्या परिवर्तन कभी राजनीति के बिना हो सकता है?
- नहीं, परिवर्तन राजनीति के बिना तो नहीं हो सकता. मैंने काशी का अस्सी में राजनीति का माखौल उड़ाया भी नहीं है. मैंने राजनैतिक पार्टियों का माखौल उड़ाया है. इसमें राजनीतिक महत्व पर टिप्पणियां $जरूर हैं लेकिन मेरी दृष्टि सामाजिक जीवन पर है. कौन ठगवा नगरिया लूटल हो में $जरूरी भौतिक सुविधाएं हैं फिर भी उल्लास, हंसी, खुशी सब दुर्लभ होती जा रही है. यह अस्सी का हमारा लोकेल है. यह एक तरह से म्यूजियम होता जा रहा है. यहां की सारी चीजें हंसी, खुशी, उल्लास, लोकतंत्र, उन्मुक्तता सब धीरे-धीरे लुप्त होता जा रहा है. हम असामाजिक और अलोकतांत्रिक होते जा रहे हैं.


प्रश्न- दूधनाथ जी कहते हैं कि काशी का अस्सी को नामवर जी ने इसलिए आगे बढ़ाया, ताकि उनके आखिरी कलाम को महत्व मिल सके. इस बारे में आपकी क्या राय है?
-दूधनाथ सिंह महत्वपूर्ण कथाकार हैं. इस मामले में वे नामवर सिंह को बेवजह घसीट रहे हैं. अगर वे मेरे कहने से संतुष्ट हों तो मैं कहे देता हूं कि काशी का अस्सी आखिरी कलाम के आगे कौड़ी का तीन है. वैसे मैं अपनी रचनाएं आलोचकों के लिए नहीं पाठकों के लिए लिखता हूं. और पाठकों ने इसे बेहद सराहा है. इसलिए बाकी टिप्पणियों से मुझे कोई खास फर्क नहीं पड़ता.

प्रश्न-काशी का अस्सी को लेकर कोई अलग सा अनुभव जो आप शेयर कर सकें?
-अनुभव तो बहुत सारे हैं. जब ये छपता था तो उस चाय की दुकान पर कई दिनों तक इसकी चर्चा होती रहती थी. दूधवाले, रिक्शेवाले, सब्जीवाले सब आकर यहां जमा होते थे. हंस की प्रतियां सुरक्षित रखी जाती थीं. उनका पाठ होता था. जो लोग पढऩा नहीं जानते थे, वो दूसरों से पढ़वाया करते थे. इसे लेकर मुझे काफी धमकियां वगैरह भी मिलीं. कुछ लोगों ने तो कुलपति को पत्र लिखकर यह तक कहा कि मैं विश्वविद्यालय में पढ़ाने लायक ही नहीं हूं. लेकिन यहां चाय की दुकान पर हमेशा मुझे सम्मान मिला. साहित्य की दुनिया में तो इसे स्वीकृति काफी बाद में मिली लेकिन अस्सी पर इसे शुरू से ही अपनाया गया
.

एक किस्सा जरूर बताना चाहूंगा. जब काशी का अस्सी का शायद दूसरा एपिसोड आया था, तब की बात है. यहां एक संस्कृत पाठशाला हुआ करती थी. यहां ब्राह्मणों के बच्चे पढ़ते थे. उनकी उम्र यही कोई 13-14 साल की रही होगी. वे रोज गंगा स्नान करके निकलते थे. यह बताना जरूरी है कि वह भाजपा का दौर था. तो एक दिन वे बच्चे जनेऊ वगैरह चढ़ाये हुए नहा-धोकर उधर से निकले और उन्होंने पत्थर उठाकर पप्पू चायवाले की दुकान पर उठाकर फेंकने शुरू कर दिये. यह प्रतिक्रिया थी मेरे लिखने को लेकर. पप्पू को काफी चोटें आई थीं. उसे प्लास्टर वगैरह चढ़वाना पड़ा था. राजेन्द्र यादव ने कहा कि इस मुद्दे को मीडिया में लाना चाहिए. इस पर बहस चलाई जानी चाहिए. हमने पप्पू से बात की कि तुम हिम्मत से पूरे मामले का सामना करो और अपनी बात रखो. लेकिन वो बेचारा डर गया. उसने हाथ जोड़ दिये कि भैया, हम इलाज करा लेंगे लेकिन अब और इस मामले को आगे नहीं बढ़ा पायेंगे. दुकान बंद न करवाइये. फिर यह पूरा मामला शान्त हो गया.

प्रश्न- काशी का अस्सी की भाषा को लेकर काफी नकारात्मक प्रतिक्रियाएं भी सामने आईं. खासकर इसमें हुए गालियों के प्रयोग को लेकर. महिला पाठकों की प्रतिक्रिया कैसी रही?
- महिला पाठकों की प्रतिक्रिया तो बहुत अच्छी रही. उन्हें इसकी भाषा से कोई आपत्ति नहीं हुई. कइयों ने तो यह तक कहा कि जिस तरह की गालियां इसमें हैं उससे ज्यादा फूहड़ गालियां तो हमें व्यवहारिक जिंदगी में सुननी पड़ती हैं. महिला पाठकों से काफी सराहना मिली काशी के अस्सी को.



प्रतिभा कटियार कवि और पत्रकार हैं। आपने पहले भी कई साहित्यकारों के महत्वपूर्ण साक्षात्कार लिये हैं। ब्लाग जगत में भी वह ख़ासा दखल रखती हैं और दो किताबें भी आ चुकी हैं।

6 टिप्‍पणियां:

  1. पढने मे अवश्य परेशानी हुई . आनन्द आ गया ।

    जवाब देंहटाएं
  2. अच्छा साक्षात्कार है। ऐसे साक्षात्कारों की और दरकार है।

    जवाब देंहटाएं
  3. पढ़ने में परेशानी काहें हुई अरुणेश जी…?

    जवाब देंहटाएं
  4. पप्पू की चाय की दूकान एक संसद है रिवोलुशन ऐसी ही जगह से शुरू होते हैं वो बात अलग है ऐसी जगह पर भी हंसी, उल्लास, लोकतंत्र सब मयूजियम होता जा रहा है ...

    जवाब देंहटाएं
  5. puri patrikaa padhane me aanand aa rahaa hai. pallav ji ne dhire dhire kaam kiyaa magar bahut saarthak aur smridha ank nikaalaa hai

    जवाब देंहटाएं
  6. pallav ne bahut mehnat se yah ank taiyar kiya hai. unhen badhaai.

    जवाब देंहटाएं

स्वागत है समर्थन का और आलोचनाओं का भी…