यह कविता हमारे साथी भारत भूषण तिवारी ने इस आग्रह के साथभेजी है कि,'अशोक भाई, मेरे प्रिय कवि मार्टिन एस्पादा की एक कविता भेज रहा हूँ. 'अघोषित आपातकाल' के इस दौर में यह कविता सीमा आज़ाद और हेम पांडे के सम्मान में जनपक्ष पर लगा दीजिये.'
मैं साथ में कामरेड चारु मज़ूमदार को और जोड़े ले रहा हूं, जिनकी आज जंयती है
किताबों का बादशाह
कमीलो पेरेज़-बुस्तीयो* के लिए
कमीलो के साथ किताबें हर कहीं
सफ़र करतीं, झुर्रीदार चेहरे वाले बेताल
की तरह हिदायतें देती हुईं.
नजूमी ने हथेली जैसे दबोच ली उसकी
और चेताया उसे
अल सल्वाडोर के बारे में,
जहाँ सरहद पर पहरेदार तलाशी लेते हैं किताबों की
दढ़ियल इंकलाबी की जेबों की तरह ही
उखाड़ लेते हैं किताबों के पन्ने भी.
चे और बगावत जैसे
गैरकानूनी लफ्ज़ों की तस्करी करती हुई
किताबें जैसे थीं डकैत
किताबों की खातिर,
उसकी रीढ़ में राइफल चुभोई गई
खातिर किताबों के,
उसकी ठुड्डी को कुचला एक कुहनी ने;
किताबों की खातिर,
बिजली के तारों ने हौले से लहराईं
शाखें ज़ालिम चिंगारियों की.
छद्मावरण ओढ़े कप्तान ने उसे
दीवालतोड़ घूंसे और तर्कसंगत फासीवादी फलसफे
की तालीम देने की कोशिश की;
उसे समझाने में लगे रहे पहरेदार
बार बार वही सवाल पूछ-पूछ कर उसे
टिकाये रखा खाट पर तब तक
जब तक कोठरी में दाखिल न हो गई सुबह
और फैल गई फर्श पर बिना किसी की नज़र पड़े;
जीप में सख्त ख़ामोशी रख कर
नौसैनिक भिड़ गए उसे मनाने के लिए
और बिना किताबों और पैसों के
उसे सरहद पर छोड़ आए अकेला.
पर वह नहीं माना.
उसके अपार्टमेन्ट में किताबें फलती-फूलती हैं
किताबों का प्रकोप हो जैसे
ढेर जमा होतीं, बिखरतीं-पड़तीं,
अल सल्वाडोर में
ट्रेज़री पुलिस और सेना के कप्तानों के
बुरे ख्वाबों को स्याह कर देने वाले टिड्डों के झुण्ड की भांति
झुण्ड छपे हुए शब्दों का,
किताबों के बादशाह,
कमीलो के अधीन
कोई प्लेग.
--मार्टिन एस्पादा
*कमीलो पेरेज़-बुस्तीयो (Camilo Pérez-Bustillo) एक अध्यापक,संगठक, एक्टिविस्ट और मानवाधिकार अधिवक्ता होने के साथ-साथ पुस्तक-प्रेमी और कविमार्टिन एस्पादा के करीबी मित्र भी हैं. उनका जन्म न्यू योंर्क में हुआ; उनके माता-पिता कोलंबिया से अमरीका आ बसे थे. कमीलो एस्पादा के साथ केम्ब्रिज, मैसाचुसेट्स स्थित एक गैर-लाभ जनहित कानूनी संस्था META (Multicultural,Education,Training and Advocacy) के लिए काम कर चुके है जो द्विभाषीय शिक्षा और भाषाई एवं सांस्कृतिक अल्पसंख्यक अधिकारों के लिए काम करती है. कुछ वर्षों से वे मेक्सिको सिटी में रहकर देशज जनता के अधिकारों की पैरवी करने के अलावा ज़पतिस्ता का प्रतिनिधित्व भी कर रहे हैं. यह कविता उनके अपनी कुछ प्यारी किताबों के साथ अल सल्वाडोर की सीमा पार करने के वाकिये पर आधारित है ; उन किताबों के शीर्षक मात्र ने उन्हें भारी संकट में डाल दिया था. केम्ब्रिज, मैसाचुसेट्स स्थित उनके अपार्टमेन्ट का भी इसमें ज़िक्र है जहाँ पड़ी किताबों का ढेर से जा भिड़ा था.
इस पोस्ट में कितना कुछ एक साथ है, बहुत शुक्रिया।
जवाब देंहटाएंबेहतर ....
जवाब देंहटाएंजोरदार कविता है भाई।
जवाब देंहटाएंदिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi ने आपकी पोस्ट " मार्टिन एस्पादा की एक कविता " पर एक टिप्पणी छोड़ी है:
जवाब देंहटाएंबहुत जीवन्त!
to is waqt duniya bhar men yahee ho raha hai. yahn bhi ap kisi poster, kisi kitab par dhar liye jate hain. Bhagat singh bhi nishiddh hain.
जवाब देंहटाएंसच है एक किताब कितने विचार लाती है और फैलाती है। किसी की पढ़ी हुई किताब जब हम पढ़ते हैं तब भी उसके विचार हमारे पास चले आते हैं।
जवाब देंहटाएंMaartin Aspada se parichay aur unki kavita ke prastuti ke liye aabhar
जवाब देंहटाएंयह शायद पहली ही कविता पढ़ी एस्पादा की... आब लगता है इस कवि को पढ़ना पड़ेगा...आशोक भाई का आभार....
जवाब देंहटाएंपढ़ाते रहिए, कि एक विचार को ज़िन्दा रख सकूँ मैं भी. आभार!
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