यह हंस की सालाना गोष्ठी थी जो विश्वरंजन को बुलाए जाने के विचार से उपजे विवाद और पत्रिका की २५ वीं वर्षगांठ के कारण पहले से ही चर्चा में थी। गोष्ठी में 'वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति' पर बोलते हुए कथित धर्मनिरपेक्षता की मलाई खा चुके विभूति नारायण राय ने राज्य की हिंसा का समर्थन किया और कश्मीर की जनता के संघर्ष को इस्लामिक आतंकवाद की संज्ञा दे दी। साहित्यकार मार्का शिष्टता को तजते हुए (जिसे अपनाने की सलाह के विक्रम सिंह दे रहे हैं) वहीं हम सब ने वीएन राय का घेराव किया था। उनका जनविरोधी चेहरा तो उसी दिन सामने आ गया था। अगले दिन उनका नया रूप इंडियन एक्सप्रेस की खबर से सामने आ गया। ज्ञानोदय में प्रकाशित उनके इंटरव्यू को पढ़कर लगा कि सभ्यता का लबादा ओढ़े एक सामंती, दलित और स्त्री विरोधी सवर्ण मर्द ने अपने भीतर के जहर को निर्लज्जता से उगल दिया है। ज्ञानोदय के संपादक रविन्द्र कालिया का इसे छापना स्त्रियों के बारे में उनकी कुंठाजनित मानसिकता को दर्शाता है। पहले भी वे लेखक-लेखिकाओं पर नियमित अंतराल में औपचारिक-अनौपचारिक रूप से अभद्र टिप्पणीयाँ करते रहे हैं। रचनाओं के साथ अश्लील परिचय छापने की तो उन्होंने खास शैली ही विकसित कर ली थी जो कुछ युवा तुर्कों के खासा विरोध के बाद ही बंद हुई। मतलब ये कि इंटरव्यू देने वाला और छापने वाला सब के लिए उन्हीं के शब्दों में स्त्री शील्ड/ट्राफी है। कालिया और वीएन राय दोनों ने अलग-अलग जगह स्त्रियों के लिए इसी लफ्ज का इस्तेमाल किया है। सचमुच मित्रों के विचार कितने मिलते हैं न!
खैर हंस के कार्यक्रम और ज्ञानोदय के साक्षात्कार में वीएन राय द्वारा दिए गए वक्तव्य को लेकर हम काफी गुस्से में थे। एक-दूसरे से फोन पर बात करने के बाद हमने राय-कालिया के खिलाफ अभियान चलाने की योजना बनाई। यहीं से राय-कालिया गठजोड़ के हवाई नहीं ठोस और जमीनी विरोध की हमने शुरुआत की। आनन-फानन में मंगलवार ३ अगस्त को साहित्य अकादमी में एक मीटिंग रखी और लेखकों-पत्रकारों को संदेश भेज दिया। मंगलवार दोपहर को मंत्री सिब्बल ने लेखिकाओं के प्रतिनिधिमंडल को माफी दिलवा देता हूँ के झुनझुने के साथ वापस भेज दिया था। इसके कुछ ही देर बाद वीएन राय राठौरी स्टाइल में माफी मांग चुके थे। कुछ लेखक-पत्रकार साथियों ने पूछा मीटिंग करेंगे? हमने कहा जरूर करेंगे। अगर माफी ही काफी है तो लेखिकाएं उन्हें ५० जूते मारकर उनसे भी मांग लेंगी। खैर मीटिंग हुई। काफी शॉर्ट नोटिस और अप्रत्याशित घटनाक्रम के बीच तकरीबन ५० लेखकों ने इसमें हिस्सा लिया। स्त्री विमर्श के पैरोकार राजेंद्र यादव इस मीटिंग में आए तो थे पर पुरुष के रूप में ही आए थे। उन्होंने 'ठीक है गलती हो गई, जाने दो' वाली लाइन ले ली। जबकि कथाकार संजीव ने उनके सामाजिक बहिष्कार का प्रस्ताव रखा। लेकिन मैत्रेयी पुष्पा अनीता भारतीय, अंजलि सिन्हा आदि लेखिकाएं और मदन कश्यप, बजरंग बिहारी तिवारी, सुभाष गाताडे, रंजीत वर्मा, रामजी यादव आदि ने राय और कालिया के खिलाफ निर्णायक संघर्ष की जोरदार वकालत की। इसी बीच छह अगस्त को ज्ञानपीठ पर प्रदर्शन करने की योजना बनी। ज्ञानपीठ ने प्रदर्शन के डर से छह अगस्त को आकस्मिक छुट्टी घोषित कर दी। इसके बावजूद लेखकों-पत्रकारों ने ज्ञानपीठ के दफ्तर पर विरोध प्रदर्शन किया। संजीव, मैत्रेयी पुष्पा, रेखा अवस्थी, अनीता भारती, बजरंग बिहारी तिवारी, संजीव कुमार, अन्नू आनंद, इरा झा, विमल कुमार, कुमार मुकुल, भाषा सिंह, गीताश्री, पंकज चौधरी, अभिषेक कश्यप, बली सिंह, जितेंद्र कुमार सहित सौ से भी ज्यादा लोग जुटे। शुरुआती ना-नुकर के बावजूद आलोक जैन को भी आना पड़ा और हमारी बातें सुननी पड़ी। हमने रविन्द्र कालिया को हटाने संबंधी निर्णय करने के लिए उन्हें सोमवार तक का वक्त दिया। अगले दिन मैत्रेयी जी ने बताया कि आलोक जैन बहुत डरे-सहमे हुए हैं और उनके घर आकर माफी मांगने की बात कर रहे हैं। लेकिन लेखकों-पत्रकारों और संघर्षशील नौजवानों का यह समूह माफी के पाखंड में नहीं आने वाला है और अकेले मैत्रेयी जी को माफी देने का हक भी नहीं हैं।
हम मानते हैं कि समाज में मौजूद लोकतंत्र और प्रगतिशील मूल्यों की बुनियाद हमारा संघर्ष है। यहां हमारा से सीधा आशय उत्पीडि़त जनता और उनके पक्ष में खड़े होने वालों से है और राय- कालिया के निष्कासन की मांग इस संघर्ष का ही हिस्सा है। कुछ लेखक ऐसा कह रहे हैं कि इन दोनों का निकाला जाना एक प्रतीकात्मक मसला है। हम ये भी मानते हैं कि इतिहास के ऐसे ही प्रतीकों से प्रगतिशीलता और लोकतंत्र की परंपरा और परिपाटी बनी और बढ़ी है। हम जानते हैं कि इस अभियान में शामिल होना कई लेखकों के लिए निजी घाटे का सौदा हो सकता है। क्योंकि यदि वीएन राय अपने पद से हट भी गए तो सत्ता की दलाली और सांठगांठ उन्हें हमारे-आपके जैसे हाशिये पर पड़े हौसले वालों को नुकसान पहुंचाने वाली हैसियत में बनाए ही रखेगी। इसके अलावा कई संघर्ष के सहयात्री, संजीव, गौरनाथ और अल्पना मिश्र की किताबें ज्ञानपीठ से छपी हैं (वे किताबें वापस लेने को तैयार हैं।) इसके अलावा संघर्ष में शरीक हुए लेखकों के हित जुड़े हैं। ज्ञानपीठ पत्रिका और किताबों के प्रकाशन के अलावा वरिष्ठ-युवा लेखकों को समय-समय पर पुरस्कार आदि भी देता ही रहता है। इसके बावजूद बड़ी संख्या में युवा-वरिष्ठ लेखक अगर निर्णायक संघर्ष पर उतारू हैं तो साफ है बृहत्तर मानवीय और लेखकीय मूल्यों का जोखिमपूर्ण निर्वाह कर रहे हैं। वरना हमारे सामने मिसाल तो उन लेखक और लेखिकाओं की भी है ही जो निज लाभ-लोभ के लिए उनकी तरफ से हस्ताक्षर अभियान चला रहे हैं या अवसरवादी मौन साध के 'ऊंट किस करवट बैठता है' की बाट जोह रहे हैं। हमारा इस बात में पूरा भरोसा है कि लेखक प्रकाशक को खड़ा करते हैं। उनके निमित्त नही होते। ऐसे वक्त में हमें अपने निम्न बुर्जुआ निजी हितों की तिलांजली दे देनी होगी। लोकतंत्र और प्रगतिशील मूल्यों में आस्था रखने वाले तमाम लेखकों, संगठनों और व्यक्तियों से हमारी अपील है कि इस अभियान में शामिल होकर स्त्री-शोषण की सामंती शैली के बरक्स स्त्री-सम्मान की प्रगतिशील परंपरा का निर्माण करें। हमें वीएन राय की वर्धा से बेआबरू विदाई, रवींद्र कालिया की ज्ञानपीठ से बर्खास्तगी और इन दोनों के सामाजिक बहिष्कार से कम कुछ भी मंजूर नहीं है। यही मंगलवार, ३ अगस्त की मीटिंग में पारित प्रस्ताव थे। अब यह लड़ाई कैसे आगे बढ़ाई और जीती जाएगी इस पर विचार करने के लिए हम रविवार ८ अगस्त को कॉफी हाऊस, मोहन सिंह प्लेस में मिले। हमने तय किया कि ज्ञानपीठ को रवीन्द्र कालिया पर कार्रवाई के लिए एक हफ्ते की मोहलत देंगे। अगर इसमें उन्होंने उपयुक्त कार्रवाई नहीं की तो अगले हफ्ते से अपने प्रदर्शन से ज्ञानपीठ का खुलना मुहाल कर देंगे। शुक्रवार १४ अगस्त को मानव संसाधन विकास मंत्रालय के शास्त्री हाउस स्थित दफ्तर पर प्रदर्शन करेंगे। साक्षात्कार देने वाले, छापने वाले संपादक और प्रकाशक के खिलाफ पीआईएल दायर करने का भी फैसला किया गया। लेखकों से ज्ञानपीठ से लेखक-पाठक हर रूप में संबंध खत्म करने की अशोक वाजपेयी की अपील में कॉफी हाउस की मीटिंग में आए लेखकों-पत्रकारों ने भी अपनी आवाज मिलाई। कॉफी हाउस की बैठक में इस संघर्ष को राय-कालिया के खिलाफ जन संघर्ष समिति का नाम दिया गया। इस लड़ाई को अपने-अपने स्तर पर चला रहे सभी साथियों से गुजारिश है कि इसमें शिरकत करें। राय-कालिया के खिलाफ संघर्ष की अलग-अलग धाराओं को इस मोड़ पर मिलकर एक नदी की शक्ल अख्तियार कर ही लेनी चाहिए।
हम मानते हैं कि समाज में मौजूद लोकतंत्र और प्रगतिशील मूल्यों की बुनियाद हमारा संघर्ष है। यहां हमारा से सीधा आशय उत्पीडि़त जनता और उनके पक्ष में खड़े होने वालों से है और राय- कालिया के निष्कासन की मांग इस संघर्ष का ही हिस्सा है। कुछ लेखक ऐसा कह रहे हैं कि इन दोनों का निकाला जाना एक प्रतीकात्मक मसला है। हम ये भी मानते हैं कि इतिहास के ऐसे ही प्रतीकों से प्रगतिशीलता और लोकतंत्र की परंपरा और परिपाटी बनी और बढ़ी है। हम जानते हैं कि इस अभियान में शामिल होना कई लेखकों के लिए निजी घाटे का सौदा हो सकता है। क्योंकि यदि वीएन राय अपने पद से हट भी गए तो सत्ता की दलाली और सांठगांठ उन्हें हमारे-आपके जैसे हाशिये पर पड़े हौसले वालों को नुकसान पहुंचाने वाली हैसियत में बनाए ही रखेगी। इसके अलावा कई संघर्ष के सहयात्री, संजीव, गौरनाथ और अल्पना मिश्र की किताबें ज्ञानपीठ से छपी हैं (वे किताबें वापस लेने को तैयार हैं।) इसके अलावा संघर्ष में शरीक हुए लेखकों के हित जुड़े हैं। ज्ञानपीठ पत्रिका और किताबों के प्रकाशन के अलावा वरिष्ठ-युवा लेखकों को समय-समय पर पुरस्कार आदि भी देता ही रहता है। इसके बावजूद बड़ी संख्या में युवा-वरिष्ठ लेखक अगर निर्णायक संघर्ष पर उतारू हैं तो साफ है बृहत्तर मानवीय और लेखकीय मूल्यों का जोखिमपूर्ण निर्वाह कर रहे हैं। वरना हमारे सामने मिसाल तो उन लेखक और लेखिकाओं की भी है ही जो निज लाभ-लोभ के लिए उनकी तरफ से हस्ताक्षर अभियान चला रहे हैं या अवसरवादी मौन साध के 'ऊंट किस करवट बैठता है' की बाट जोह रहे हैं। हमारा इस बात में पूरा भरोसा है कि लेखक प्रकाशक को खड़ा करते हैं। उनके निमित्त नही होते। ऐसे वक्त में हमें अपने निम्न बुर्जुआ निजी हितों की तिलांजली दे देनी होगी। लोकतंत्र और प्रगतिशील मूल्यों में आस्था रखने वाले तमाम लेखकों, संगठनों और व्यक्तियों से हमारी अपील है कि इस अभियान में शामिल होकर स्त्री-शोषण की सामंती शैली के बरक्स स्त्री-सम्मान की प्रगतिशील परंपरा का निर्माण करें। हमें वीएन राय की वर्धा से बेआबरू विदाई, रवींद्र कालिया की ज्ञानपीठ से बर्खास्तगी और इन दोनों के सामाजिक बहिष्कार से कम कुछ भी मंजूर नहीं है। यही मंगलवार, ३ अगस्त की मीटिंग में पारित प्रस्ताव थे। अब यह लड़ाई कैसे आगे बढ़ाई और जीती जाएगी इस पर विचार करने के लिए हम रविवार ८ अगस्त को कॉफी हाऊस, मोहन सिंह प्लेस में मिले। हमने तय किया कि ज्ञानपीठ को रवीन्द्र कालिया पर कार्रवाई के लिए एक हफ्ते की मोहलत देंगे। अगर इसमें उन्होंने उपयुक्त कार्रवाई नहीं की तो अगले हफ्ते से अपने प्रदर्शन से ज्ञानपीठ का खुलना मुहाल कर देंगे। शुक्रवार १४ अगस्त को मानव संसाधन विकास मंत्रालय के शास्त्री हाउस स्थित दफ्तर पर प्रदर्शन करेंगे। साक्षात्कार देने वाले, छापने वाले संपादक और प्रकाशक के खिलाफ पीआईएल दायर करने का भी फैसला किया गया। लेखकों से ज्ञानपीठ से लेखक-पाठक हर रूप में संबंध खत्म करने की अशोक वाजपेयी की अपील में कॉफी हाउस की मीटिंग में आए लेखकों-पत्रकारों ने भी अपनी आवाज मिलाई। कॉफी हाउस की बैठक में इस संघर्ष को राय-कालिया के खिलाफ जन संघर्ष समिति का नाम दिया गया। इस लड़ाई को अपने-अपने स्तर पर चला रहे सभी साथियों से गुजारिश है कि इसमें शिरकत करें। राय-कालिया के खिलाफ संघर्ष की अलग-अलग धाराओं को इस मोड़ पर मिलकर एक नदी की शक्ल अख्तियार कर ही लेनी चाहिए।
पढ़ लिया यह पक्ष भी.
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंराजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।