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मंगलवार, 10 अगस्त 2010

यह लेख तो रचनाकार विरोधी है

वर्तमान में हिंदी साहित्य के गलियारे में विभूति नारायण राय को लेकर जो बहस चल रही है, उससे लगता है कि साहित्य जगत में हुए अवमूल्यन से लोग परेशान और चिंतित हैं। यह चिंता होनी चाहिए। मूल्य के बगैर न तो साहित्य का सृजन संभव है, न उसका संरक्षण। मैं यह भी स्पष्ट कर दूं कि इस भाषिक/शाब्दिक लड़ाई में मैं श्री राय के विरोधियों के साथ हूं। लेकिन मेरे दिमाग में कुछ ऐसी बातें भी हैं जो हमें इस तात्कालिक द्वंद्व-युद्ध के मैदान से परे जाकर झांकने की ओर विवश करती हैं। और इस वर्तमान घटना को भी मैं उसी संदर्भ में देखने की कोशिश करता हूं।

नंदकिशोर नवल ने एक बार बातचीत के क्रम में यूं ही कहा था कि जैसे ही आप लिखने के लिए कलम अपने हाथ में उठाते हैं कि असंख्य अदृश्य दुश्मन भी जन्म ले लेते हैं। मतलब कि लेखन एक जोखिम भरा काम है। लेखन से आप दुश्मन सिरजते हैं, लेकिन मौजूदा समय का अधिकांश लेखन मैं पाता हूं कि ‘गुडविल’ पैदा करने के लिए ही किया जा रहा है। और जमाने का दस्तूर है कि यथार्थ लिखकर आप ‘गुडविल’ पैदा नहीं कर सकते। हद तो यह है कि समीक्षक का नाम भी रचनाकार ही तय करता है। लोग यथार्थ न तो लिखना चाहते हैं न बोलना-सुनना। इस तरह की अभिव्यक्ति के अपने खतरे हैं। इसलिए अव्वल तो लेखकों का बहुजन समाज इस पथ का चुनाव ही नहीं करता, कुछ थोड़े से लोग जो ‘मैनुफैक्चरिंग डिफेक्ट’ (मित्र डा. अशोक कुमार से उधार लिया गया शब्द) के शिकार हैं, इस कर्म को अपने हाथ में लेते हैं। लेकिन साहित्य की मुख्यधारा से काट दिये गये ऐसे लोगों पर विशेष नजर रखी जाती है। पूरा ध्यान रखा जाता है कि उनका लिखा कहीं छपने न पाये। इसके लिए संपादकों को अत्यंत गोपनीय पत्र तक लिखे जाते हैं। कभी-कभी तो संपादक/उप संपादक स्वयं ही खारिज कर देता है। कुछ दिनों पहले की बात है, मेरे शहर के एक प्रतिष्ठित अखबार के उप संपादक ने ‘सृजन-समय’ पर लिखने को कहा। मैंने जब अपना लेख उन्हें थमाया और वे पढ़ने लगे तो मैं इतमीनान हो गया कि अब इसका प्रकाशन असंभव है। ठीक ऐसा ही हुआ। उक्त महोदय ने कहा कि ‘यह लेख तो रचनाकार विरोधी हो गया है।’ मैंने आखिर पूछ ही डाला कि ‘यथार्थ विरोधी तो नहीं न है ?’ बोले, ‘है तो सच्चाई ही लेकिन...।’ आप समझ सकते हैं कि वह लेख वहां नहीं छपा। नामवर जी अरसे से कहते आ रहे हैं कि यह दौर आत्मालोचना का दौर है। हम सब इस मंत्र का जाप करते हैं, लेकिन अपने को ब्रैकेट में बंद रखकर। जब तक यह ब्रैकेट नहीं हटेगा, विभूति नारायण राय जैसे लोग लेखन की दुनिया में पैदा होते रहेंगे।

मैं हमेशा से ही इस बात का कायल रहा हूं कि लोग जो लिखें, वही दिखें। लेखन और जीवन के दर्शन में जो अंतर आता है, वह अवसरवाद को खुलकर खेलने की गुंजाइश छोड़ता है। बल्कि आप कह ले सकते हैं कि लेखन और जीवन को जो अलगाकर देख रहा है, या देखे जाने की वकालत करता है, वह दरअसल चालाकियों से भरे शब्दों में अवसरवाद को प्रकारांतर से स्थापित करता है। कहते तनिक भी अच्छा नहीं लग रहा कि अधिसंख्य लेखक एनजीओ के चाकर हो चुके हैं। कुछ जो इस लाभ से वंचित रह गये वे अपने झोले में इनकम टैक्स/सेल्स टैक्स कमिश्नर लिये चल रहे हैं। तो कुछ पुलिस कमिश्नर को। किसी भी तथाकथित सम्मानित लेखक के झोले में निराला की ‘गर्वीली गरीबी’ नहीं है। कहानी-कविता में बाजार /बाजारवाद का विरोध करनेवाले (वैसे कुछ को ‘फाव’ भी पसंद है) वास्तविक जीवन में सटोरिये हो चुके हैं। गांधीजी अंग्रेजों से इसलिए भी लड़ सके कि उन्होंने अपने चारों ओर अभावों की एक दुनिया खड़ी कर ली थी। ऐसा नहीं है कि संपन्नता और सुविधा से कोई स्थायी विरोध है मेरा। शर्त केवल यही हो कि मूल्यों को त्याग कर उसका पग न गहा जाये। जब तक हम ऐसा नहीं करेंगे, राय जैसे लोग प्रकट होते रहेंगे।

सिरे से कहा जा रहा है कि श्री राय ‘पुरुष मानसिकता’ से ग्रस्त सामंती चरित्र है। क्या श्री राय का यह चरित्र कोई आज का नया गढ़ा हुआ चरित्र है ? क्या वे अपनी महफिल में इस चरित्र के अकेले नुमाइंदे हैं ? अगर नहीं तो मेरे भाई विश्वविद्यालय में वे अकेले नहीं हैं। कोई किसी का चुनाव ऐसे ही नहीं करता। कई तरह के आवश्यक परीक्षणों के बाद ही बड़े लोगों की शागिर्दी नसीब होती है। श्री राय के साथ जनवाद और मार्क्सवाद के नाम पर मर-मिटनेवाले लोग भी तो हैं! उन जनवादी रचनाकारों की आज से पहले क्या राय थी। क्या आज भी वे कोई सकारात्मक पहल ले पा रहे हैं ? फिर विरोध में जो लोग खड़े हैं क्या उन लोगों ने इस मानसिकता की दुर्बलताओं से मुक्ति पा ली है ? कभी-कभी तो मैं यह सोचने पर विवश हो जाता हूं कि लेखक जो कहता-लिखता है, उसका अपने ही जीवन में अगर पालन करने लगे तो हमारी अधिकतर समस्याएं खत्म हो जा सकती हैं। दुर्भाग्यवश ऐसा अगर आज तक संभव न हो सका तो महज इसलिए कि हम दूसरों को संबोधित करते हुए लिखते-बोलते हैं। कोई नामवर जी से पूछे कि आत्मालोचना का वह दौर हिंदी लेखकों में कब शुरू होगा या कि मंगलाचरण ही इसका स्थायी भाव है ? कोई यह न समझे कि मैं श्री राय की हरकतों से शर्मिंदा या आहत नहीं हूं। मैं सर्वथा विरोध में हूं, लेकिन अपनी इन बातों के साथ।

3 टिप्‍पणियां:

  1. इस तरह के लेखों से साहित्य का माहौल खराब होता है,अच्छे लेखन की संभावनाएं नही पनप पाती हैं. आपने अच्छा लक्ष्य किया है कि जीवन और लेखन में द्वैत नहीं होना चाहिए.

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  2. imandar lekhan k liye use tour-e-zindgi shamil karna padega. aaj k samay me mukhote kisi ko kyati to dila sakte hain, lekin lambe samy tak unhe chehron par chipkaya nahi ja sakta.

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  3. लेखक के गुडबिल बाली बात ही यथार्थ है. विचारनिये.

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