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शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010

निज़ार कब्बानी की कविता

(निज़ार कब्बानी की इस कविता का अनुवाद करते हुए अशोक जी की एक कविता की याद आई और इसे उन्हें भेजा तो बहुत अच्छा लगा कि उन्होंने जनपक्ष पर इसे खुद ही पोस्ट करने का अधिकार दे दिया. आप भी देखें इस कविता को)


पत्थर उठाए हुए बच्चे : निज़ार कब्बानी


अपने हाथों में सिर्फ पत्थर लिए
पूरी दुनिया को भौचक्का कर दिया उन्होंने
और अच्छी खबर की तरह आए हम तक.
प्रेम और गुस्से से भरे,
उन्होंने चुनौती दिया और तख्तापलट कर दिया,
जबकि बने रहे हम ध्रुवीय भालुओं के झुण्ड
गठरी बने हुए मौसम के खिलाफ.

शम्बूक की तरह बैठे रहे हम काफीघरों में,
कोई व्यापारिक सौदे की तलाश में था
तो कोई एक और बिलियन के लिए मरा जा रहा था
और तलाश थी उसे
सम्पन्नता से परिष्कृत वक्षों वाली चौथी बीवी की.
कोई आलीशान हवेली के लिए छान रहा था लंदन
तो दूसरा लिप्त था हथियारों के गैरकानूनी काम में
एक कसर निकाल रहा था नाईटक्लबों में
तो दूसरा साजिशें कर रहा था राजगद्दी, एक निजी सेना
और राजकुमारशाही के लिए.

आह, विश्वासघातियों की पीढ़ी,
दोयम, निर्लज्ज लोगों की
पीढ़ी जूठन की,
तो क्या हुआ सुस्त रफ़्तार है समय
बुहार कर फेंक दिया जाएगा हमें
पत्थर उठाए बच्चों के हाथों.

(अनुवाद : मनोज पटेल)


6 टिप्‍पणियां:

  1. मेरी कविता का मान बढ़ाने और जनपक्ष से जुड़ने का बहुत आभार्…वैसे मैने इसे बार-बार पढ़ा…मेरी कविता इसके आगे कहीं नहीं है…और मैं यह किसी अतिरिक्त विनम्रता में नहीं कह रहा

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  2. ओह क्या कहें मन को वेचैन कर गया... और प्रेरित भी... साधुवाद

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  3. AAp english kavita ka hindi anuwad karte hai ya origanal bhasha may likhi kavita ka hindi anuwad karte hai . aap toh kamal hai. ! thanks

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