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बुधवार, 15 अगस्त 2012

संघ की देशभक्ति : कुछ ऐतिहासिक तथ्य


आज पंद्रह अगस्त को संघ का देशभक्ति का दावा कुछ ज्यादा ही मुखर हो जाता है. आइये इतिहास के पन्नों से तलाशें संघ और देशभक्ति के रिश्ते की कुछ असलियत. यह अंश शम्सुल इस्लाम की किताब 'वी आर अवर नेशनहुड डिफाइंड - ए क्रिटिक' से लिया गया है और अनुवाद मेरा है.

वैसे यह भी की यह 'जनपक्ष' की तीन सौवीं पोस्ट है...आप सबके बिना यह सफ़र मुमकिन न था. इस सफ़र पर अगली पोस्ट में कुछ और...
गोलवलकर ने राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन से दूर रहने को सही ठहराया

गोलवरकर ने अपनी किताब ‘हम या हमारी परिभाषित राष्ट्रीयता’ में यह स्पष्ट कर दिया कि उनकी हिन्दुत्व की अवधारणा अपनी उत्पति और स्वभाव से ही ब्रिटिश राज के ख़िलाफ़ पनप रहे उस स्वाधीनता संग्राम से कोई संबंध और लगाव नहीं रख सकती थी जो एक ऐसी व्यवस्था के लिये लड़ रहा था जहाँ हिन्दू और मुसलमान दूसरे समुदायों के साथ बराबरी के भागीदार हो सकें। स्वाभाविक तौर पर गोलवरकर ने ऐसे किसी धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवादी विमर्श का हिस्सा बनने से इंकार किया क्योंकि वह हिन्दू राष्ट्र या नस्ल की श्रेष्ठता स्वीकार नहीं करता। वह आज़ादी की लड़ाई का हिस्सा नहीं बनना चाहते थे क्योंकि यह लड़ाई धार्मिक विभेदों से ऊपर उठ कर सभी भारतीय जन की मुक्ति की तलबगार थी। चूंकि यह लड़ाई हिंदू राष्ट्र के निर्माण की आश्वस्ति नहीं देती थी, एक हिन्दू राष्ट्रवादी के रूप में गोलवरकर ने औपनिवेशिक सत्ता के ख़िलाफ़ ज़ारी लड़ाई से अलग रहने के लिये निम्नलिखित वैचारिक तर्क प्रस्तुत किया –

‘हम एक राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के पक्ष में हैं न कि राज्य के रूप में रूप में राजनैतिक अधिकारों के एक बेतरतीब समुच्चय के। हम जो चाहते हैं वह है – स्वराज और हमें इस बात को पक्के तौर पर जानना होगा कि इस ‘स्व’ का अर्थ क्या है। ‘हमारा राज्य’- हम कौन हैं? इस दौर में यही सबसे ज़रूरी सवाल है जिसका जवाब देने की हम कोशिश करेंगे। इसके लिये, हमें दुनिया भर में स्वीकृत राष्ट्र की अवधारणा को समझना तथा विवेचित करना होगा और यह देखना होगा कि हम ख़ुद उससे कितने सहमत हैं? और अगर नहीं तो क्यों और क्या इस तरह का भटकाव किसी मायने में सही है। हमें निश्चित तौर पर अपने संदर्भ में वैश्विक अवधारणा को लागू कर यह देखना होगा कि राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के लिये हमारे संघर्ष में राष्ट्रीय विचार का क्या अर्थ होना चाहिये। और हम अपनी समस्या की तरफ़ एक की जगह कई अन्य दृष्टिकोणों से देखेंगे।[1]  

उनके दृष्टिकोण से भारतीय राष्ट्रवाद के धर्मनिरपेक्ष विमर्श के ठीक उलट भारतीय राष्ट्रवाद का आधार केवल हिन्दू धर्म और नस्ल ही हो सकते हैं और कोई भी अलग अन्तर्वस्तु एक वि-राष्ट्रीकरण की प्रक्रिया की और ले जायेगी।

‘अब यह देखते हुए कि प्राचीन हिन्दुस्थान अपनी हिन्दू राष्ट्रीयता को समझता था हमारे सामने स्वाभाविक रूप से यह सवाल उठता है कि कैसे हमलोग आज तक उस वैज्ञानिक अवधारणा और अपनी हिन्दू राष्ट्रीय चेतना को जाग्रत करने की ज़रूरत को भुलाये रहे? ऐसा क्यूं हुआ कि हमारे तमाम कार्यकर्ताओं ने दूसरे रास्ते पकड़ लिये और ऐसी राष्ट्रीयता के लिये घातक कामों में लगे हैं? ऐसा क्यूं हो रहा है कि आज हम यह देख रहे हैं कि यह पारंपरिक और सही समझ ज़्यादा लोगों को आकर्षित करने में असफल रही है और वे अपने वास्तविक राष्ट्रीय प्रकृति की एक गड़बड़ समझदारी से शुरुआत करते हैं। लेकिन उनकी ग़लत समझ के कारणो का पता लगाना मुश्किल नहीं है।[2]     

वह सभी समुदायों और वर्गों के एक संयुक्त मुक्ति संघर्ष को और कुछ नहीं अपितु विराष्ट्रीकरणकहने की हद तक जाते हैं। मिले-जुले राष्ट्रवाद की अवधारणा को पूरी तरह  ख़ारिज़ करते हुए उन्होंने कहा कि

हिन्दुओं को यह कहकर बरगलाया जा रहा है कि हम, जो हिन्दू राष्ट्रीय पुनर्जागरण के पक्ष में हैं ( जैसा कि हमें सबसे तार्किक रूप में होना चाहिये), ‘राष्ट्रीयनहीं हैं और वे दूसरे, जो सराय सिद्धांत से बेहूदे तरीके से चिपके हुए हैं और अपनी सांस्कृतिक विरासत को नहीं स्वीकार करते, वास्तविक देशभक्तहैंहमारा क्रमिक विराष्ट्रीयकरण, हमारा अपनी नस्ली भावना को सो जाने देना ही हमारी वर्तमान दुखद अवस्था का मूल कारण है और आज भी अपनी वास्तविक राष्ट्रीयता के प्रति हमारी वही अरुचि राष्ट्र के अपने सर्वोच्च शिखर तक उठने और दुनिया में अपनी वाज़िब जगह फिर से हासिल करने में बाधा उत्पन्न कर रही है।[3] 










स्वाधीनता संग्राम से गद्दारी

हम या हमारी परिभाषित राष्ट्रीयताके अलावा भी गोलवरकर का तमाम ऐसा लिखा और कहा उपलब्ध है जिससे यह बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि वह भी अपने गुरु हेडगेवार की ही तरह स्वाधीनता आंदोलन से नफ़रत करते थे। आज़ादी के काफ़ी बाद मध्यप्रदेश के इन्दौर में 9 मार्च 1960 को आर एस एस के उच्च-स्तरीय कार्यकर्ताओं की एक बैठक को संबोधित करते हुए वे स्वाधीनता आंदोलन के प्रति अपने दृष्टिकोण को निम्न शब्दों में व्यक्त करते हैं-

रोज़मर्रा के कामों में हमेशा उलझे रहने की ज़रूरत के पीछे एक और कारण है। देश में समय-समय पर विकसित होने वाली स्थितियों के कारण लोगों के दिमाग़ में कुछ बैचैनी बनी रहती है। 1942 में ऐसी ही उथल-पुथल थी। उसके पहले 1930-31 का आंदोलन (असहयोग आंदोलन) था। उस समय कई दूसरे लोग डाक्टर जी के पास गये थे। इस प्रतिनिधिमण्डल ने डाक्टर जी से अनुरोध किया कि यह आंदोलन स्वाधीनता दिलायेगा और संघ को भी पीछे नहीं रहना चाहिये। उस समय जब एक सज्जन ने डाक्टर जी से कहा कि वह जेल जाने को तैयार है तो डाक्टर जी ने कहा, ‘ज़रूर जाइये। लेकिन फिर आपके परिवार का ख़्याल कौन रखेगा? उस सज्जन ने जवाब दिया, ‘मैने न केवल दो वर्षों तक घर चल जाने लायक अपितु आवश्यकतानुसार आर्थिक दण्ड के भुगतान की भी पर्याप्त व्यवस्था कर दी है।इस पर डाक्टर जी ने उनसे कहा, ‘अगर आपने पर्याप्त धन की व्यवस्था कर ली है तो दो वर्षों तक संघ का कार्य करने के लिये आ जाईये।घर लौटने के बाद वह सज्जन न तो जेल गये और न ही संघ कार्य करने के लिये आगे आये।[4]

यह घटना स्पष्ट तौर पर दिखाती है कि संघ नेतृत्व किस तरह ईमानदार देशभक्त लोगों को हतोत्साहित कर आज़ादी की लड़ाई के उद्देश्य से हटाने में लगा था।

भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में असहयोग आंदोलन तथा भारत छोड़ो आंदोलन, मील के दो महान पत्थर थे और यहाँ आप देखिये कि संघ के महान गुरु (गोलवलकर) की आज़ादी की लड़ाई की इन दो महान घटनाओं पर क्या थीसिस है। कांग्रेस के नेतृत्व वाले ब्रिटिश विरोधी इन दो महान आंदोलनो पर ख़ुले तौर पर कीचड़ उछालते हुए वह कहते हैं-

निश्चित तौर पर इस संघर्ष के बुरे परिणाम होंगे। 1920-21 के आंदोलन (असहयोग आंदोलन) के बाद लड़के उद्दण्ड हो गये। यह नेताओं पर कीचड़ उछालने की कोशिश नहीं है। लेकिन ये संघर्ष के अवश्यंभावी परिणाम थे। बात यह है कि हम इनके नतीजों को सही तरीके से नियंत्रित नहीं कर पाये। 1942 के बाद लोग अक्सर ऐसा सोचने लगे कि अब क़ानून के बारे में सोचने की कोई ज़रूरत नहीं है।[5]

इस प्रकार गोलवरकर चाहते थे कि भारतीय अमानवीय ब्रिटिश शासकों के बर्बर तथा दमनकारी क़ानूनों का सम्मान करें! जैसा कि हम आगे देखेंगे, गोलवरकर ने यह स्वीकार किया कि 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान संघ के रवैये की चतुर्दिक आलोचना के बावज़ूद तत्कालीन संघ नेतृत्व (उस समय गोलवरकर संघ के सरसंघचालक थे) स्वाधीनता संग्राम से अलग रहने के अपने स्टैण्ड से नहीं डिगा।

‘1942 में भी कई लोगों के हृदय में बड़ी प्रबल भावनायें थीं। उस समय भी संघ का रोज़मर्रा का काम ज़ारी रहा। प्रत्यक्ष रूप से संघ ने कुछ न करने का संकल्प लिया। बहरहाल, संघ के स्वयंसेवकों के मन में उथल-पुथल मची हुई थी। ऐसा केवल बाहरी लोगों ने नहीं बल्कि स्वयंसेवकों ने भी कहा कि संघ अकर्मण्य लोगों की संस्था है, वे फालतू बातें करते हैं। वे बुरी तरह से नाराज़ भी हुए।[6] 

बहरहाल, संघ का ऐसा एक भी प्रकाशन या दस्तावेज़ नहीं है जो भारत छोड़ो आंदोलन या उस समय चल रही आज़ादी की लड़ाई में संघ द्वारा किये गये अप्रत्यक्ष कामों पर कुछ प्रकाश डाल सके। हालाँकि उस दौर के जन उभार को देखते हुए यह मुमकिन है कि संघ से जुड़े कुछ लोगों ने व्यक्तिगत तौर पर किन्हीं ब्रिटिश विरोधी संघर्षों में हिस्सेदारी की हो, लेकिन वे इक्की-दुक्की पृथक घटनायें रही होंगी। बहरहाल, एक संगठन के तौर पर संघ ने ब्रिटिश साम्राज्यवादी शासन के ख़िलाफ़ या दमित भारतीय जनता के अधिकारों के लिये कोई संघर्ष नहीं छेड़ा, न ही संघ का उच्च नेतृत्व कभी भी आज़ादी की लड़ाई का हिस्सा रहा।

गोलवरकर और संघ विदेशी शासन के ख़िलाफ़ किसी भी आंदोलन के प्रति अपना विरोध छिपा पाने में कभी भी सफल नहीं हुए। यहां तक कि मार्च 1947 में भी जब ब्रिटिश शासक सिद्धांत रूप में भारत छोड़कर चले जाने का फैसला कर चुके थे, दिल्ली में संघ के वार्षिक दिवस समारोह को संबोधित करते हुए गोलवलकर ने कहा कि संकुचित दृष्टि वाले नेता ब्रिटिश राज्यसत्ता के विरोध का प्रयास कर रहे हैं। इस बिन्दु को और विस्तारित करते हुए उन्होंने कहा कि देश की बुराईयों के लिये शक्तिशाली विदेशियों को दोषी ठहराना उचित नहीं। उन्होंने विजेताओं से अपनी घृणा के आधार पर राजनैतिक आंदोलन शुरु करने की प्रवृतिकी निन्दा की।[7] इस मुद्दे पर अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करने के लिये उन्होंने एक घटना का वर्णन भी किया :

‘एक बार एक सम्माननीय वरिष्ठ सज्जन हमारी शाखा में आये। वह संघ के स्वयंसेवकों के लिये एक नया संदेश लाये थे। जब उन्हें बोलने का मौका दिया गया तो वह बड़े प्रभावी तरीके से बोले, ‘अब केवल एक काम कीजिये। अंग्रेज़ों को पकड़िये, उनकी पिटाई कीजिये और उन्हें खदेड़ दीजिये। बाद में जो होगा देखा जायेगा।उन्होंने बस इतना कहा और बैठ गये। इस तरह की विचारधारा के पीछे राज्यसत्ता के प्रति दुख और क्षोभ की भावना और घृणा पर आधारित प्रतिक्रियावादी प्रवृति है। आज के राजनैतिक संवेदनावाद की बुराई यह है कि इसका आधार प्रतिक्रिया, क्षोभ और क्रोध और दोस्ताने को भुलाकर विजेताओं का विरोध है।[8]

गोलवरकर के प्रति पूरी इमानदारी बरतते हुए यह कहना होगा कि उन्होंने कभी इस बात का दावा नहीं किया कि संघ ब्रिटिश शासन के ख़िलाफ़ था। 5 मार्च 1960 को इंदौर में दिये गये भाषण के दौरान उन्होंने स्वीकार किया कि :

बहुत सारे लोगों ने अंग्रेज़ों को बाहर निकाल कर देश को आज़ाद कराने की प्रेरणा से काम किया। अंग्रेज़ों की औपचारिक विदाई के बाद यह प्रेरणा कमज़ोर पड़ गयी। असल में इस तरह की प्रेरणा धारण करने की कोई ज़रूरत ही नहीं थी। हमें याद रखना चाहिये कि अपनी प्रतिज्ञा में हमने देश को धर्म तथा संस्कृति रक्षा के द्वारा आज़ाद कराने की बात की है। उसमें अंग्रेज़ों की विदाई का कहीं कोई ज़िक्र नहीं है।[9]  

यहाँ तक कि संघ औपनिवेशिक शासन को एक अन्याय मानने के लिये भी तैयार नहीं था। 8 जून 1942 को जब देश अभूतपूर्व ब्रिटिश दमन के दौर से गुज़र रहा था संघ कार्यकर्ताओं के अखिल भारतीय प्रशिक्षण कार्यक्रम की समाप्ति के अवसर पर दिये गये भाषण में गोलवरकर ने घोषणा की :

समाज की वर्तमान पतित अवस्था के लिये संघ किसी और को दोष नहीं देना चाहता। जब लोग दूसरों के सर पर दोष मढ़ने लगते हैं तो उसके मूल में उनकी अपनी कमज़ोरी होती है। कमज़ोरों के प्रति होने वाली नाइंसाफ़ी को मज़बूतों के सर मढ़ना बेकार हैसंघ अपना बेशक़ीमती वक़्त दूसरों को गाली देने या उनकी आलोचना करने में बर्बाद नहीं करना चाहता। अगर हम यह जानते हैं कि बड़ी मछली छोटी मछली को निगल जाती है तो उस बड़ी मछली पर आरोप लगाना निरा पागलपन है। अच्छा हो या बुरा क़ुदरत का नियम हमेशा सही होता है। यह कह देने से कि यह अन्यायपूर्ण है वह नियम बदल नहीं जाता।[10]

इस प्रकार यह देखा जा सकता है कि गोलवरकर के नेतृत्व में संघ ने आज़ादी की पूरी लड़ाई के दौरान एक अत्यंत विश्वासघाती भूमिका निभाई। सभी साक्ष्य इसकी तोड़फोड़ की कार्यवाहियों की ओर तथा इस तथ्य की ओर इशारा करते हैं कि यह संगठन और इसका नेतृत्व कभी भी आज़ादी की लड़ाई का हिस्सा नहीं रहे। आर एस एस का इकलौता महत्वपूर्ण योगदान ब्रिटिश साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ भारतीय जनता के उभरते हुए  एकताबद्ध संघर्ष को हिन्दू राष्ट्र के अपने अत्यन्त पृथकतावादी नारे से लगातार बाधित करना था।         

   


भगत सिंह, चन्द्रशेखर आज़ाद और अशफ़ाक़ उल्ला ख़ान की क्रांतिकारी परंपरा को कलंकित करना

गोलवरकर के नेतृत्व में संघ न केवल आज़ादी की लड़ाई से अलग रहा बल्कि उसने शहादत की पूरी परंपरा को भी ख़ारिज़ किया और इस प्रकार भगत सिंह, चन्द्रशेखर आज़ाद, अशफ़ाक़ उल्ला ख़ान और उनके जैसे क्रांतिकारियों के नेतृत्व वाले आंदोलन को कलंकित भी किया। वह लिखते हैं- हमारी भारतीय संस्कृति के अलावा बाक़ी सभी शहादत की प्रशंसा करते हैं और उसे आदर्श बनाते हैं तथा ऐसे शहीदों को अपने नायकों दर्ज़ा देते हैं।[11] वह यह तर्क देने की हद तक जाते हैं कि

‘हमारी पूजा के तत्व हमेशा सफल जीवन रहे हैं। यह साफ़ है कि जो जीवन में असफल होते हैं उनमें निश्चित तौर पर कुछ गंभीर खामियां होती हैं। जो ख़ुद हारा हुआ है वह किस प्रकार दूसरों को रौशनी दे सकता है और सफलता की राह पर ले जा सकता है।[12]

निश्चित तौर पर यही कारण रहा होगा कि चाहे हेडगेवार का नेतृत्व रहा हो या गोलवरकर का, संघ ने ‘विजेता’ ब्रिटिश शासकों का कभी विरोध नहीं किया। यहाँ पर शहादत की पूरी परंपरा की निंदा करते गोलवरकर के हुए कुछ और मौलिक विचार प्रस्तुत हैं :

‘निःसंन्देह ऐसे पुरुष जो शहादत को अपनाते हैं महान नायक हैं और उनका दर्शन भी प्रमुखतया मर्दाना है। वे ऐसे सामान्य पुरुषों से बहुत ऊपर हैं जो भयभीत होकर भाग्य के भरोसे बैठ जाते हैं और भय तथा अकर्मण्यता में पड़े रहते हैं। लेकिन सबके बावज़ूद ऐसे व्यक्ति हमारे समाज में आदर्श की तरह नहीं देखे जाते। हम उनके बलिदान को महानता के उस सर्वोच्च बिंदु की तरह नहीं देखते जिसकी आकांक्षा पुरुषों को करनी चाहिये। क्योंकि अंततः वे अपने आदर्श की प्राप्ति में असफल हुए, और असफलता का मतलब है कि उनमें कोई गंभीर त्रुटि थी।[13]

क्या शहीदों को इससे अधिक कलंकित और अपमानित करने वाला कोई वक्तव्य हो सकता है?

महान क्रांतिकारियों के बारे में ऐसी बकवास फैलाने वाले गोलवलकर अकेले नहीं थे। आज़ादी की लड़ाई के शहीदों को प्यार करने वाले और उनकी प्रशंसा करने वाले किसी भी भारतीय को अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लड़ रहे उन क्रांतिकारियों के बारे में हेडगेवार की भावनायें जानकर धक्का लगेगा। संघ द्वारा प्रकाशित हेडगेवार की जीवनी के अनुसार उनका दृढ़ विश्वास था कि-

‘देशभक्ति का मतलब केवल जेल जाना नहीं है। इस तरह की दिखावटी देशभक्ति में बह जाना सही नहीं है। वह (हेडगेवार) अक्सर यह अपील किया करते थे कि वक़्त आने पर देश के लिये मरने के लिये हमेशा तैयार रहने के साथ-साथ देश की आज़ादी के लिये संगठन बनाते हुए ज़िंदा रहने की इच्छा बहुत ज़रूरी है।[14]

यह वास्तव में बेहद करुणास्पद है कि भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव, अशफ़ाक़ उल्ला ख़ान, चन्द्रशेखर आज़ाद जैसे क्रांतिकारी इस ‘महान देशभक्त विचारक’ के संपर्क में नहीं आये। अगर उन्हें इनसे मिलने का महान अवसर मिला होता तो इन शहीदों को ‘दिखावटी देशभक्ति’ के लिये अपनी जान की क़ुर्बानी देने से बचाया जा सकता था। निश्चित रूप से यही वज़ह रही होगी कि संघ ने आज़ादी की लड़ाई के दौरान न तो कोई शहीद पैदा किया न ही कोई देशभक्त।

जिन लोगों ने ब्रिटिश शासकों के ख़िलाफ़ संघर्ष में अपना सब कुछ क़ुर्बान कर दिया उनके प्रति गोलवरकर के दृष्टिकोण को ‘शर्मनाक’ कहना भी पर्याप्त नहीं होगा। भारत के अंतिम मुग़ल शासक बहादुर शाह ज़फ़र देशभक्त भारतीयों का केंद्रबिंदु और 1857 के महान स्वाधीनता संग्राम का प्रतीक बनकर उभरे थे। उनका मज़ाक उड़ाते हुए गोलवलकर ने लिखा :

‘1857 में भारत के तथाकथित अंतिम शासक ने आह्वान किया था – गाज़ियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की/ तख़्ते लंदन तक चलेगी तेग़ हिन्दुस्तान की…लेकिन अंततः क्या हुआ? वह हर आदमी जानता है।[15]

देश के लिये अपना सब कुछ क़ुर्बान करने वालों के बारे में गोलवलकर क्या सोचते थे यह उनके नीचे लिखे शब्दों से भी स्पष्ट है। उनमें अपनी मातृभूमि की आज़ादी के लिये अपना जीवन न्यौछावर करने की आकांक्षा रखने वाले महान क्रांतिकारियों से इस तरह का सवाल पूछने का दुस्साहस था कि मानो वह अंग्रेज़ों का प्रतिनिधित्व कर रहे हों,

‘लेकिन एक आदमी को सोचना चाहिये कि क्या संपूर्ण राष्ट्रीय हित इसके द्वारा पूरा होगा? बलिदान के कारण पूरे समाज देश के हित के लिये अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देने की सोच नहीं बढ़ती। अब तक के अनुभव से यह पाया गया है कि सीने की यह आग आम लोगों के लिए असहनीय होती है।’[16]





















[1] देखें, गोलवलकर की किताब वी आर अवर नेशनहुड डिफाइंड’, पेज़-3, प्रकाशक- भारत पब्लिकेशन, 1939
[2] देखें, गोलवलकर की किताब वी आर अवर नेशनहुड डिफाइंड’, पेज़-57, प्रकाशक- भारत पब्लिकेशन, 1939
[3] वही, पेज़-63
[4] देखें श्री गुरुजी समग्र दर्शन, खण्ड-4, पेज़-39-40, प्रकाशक- भारतीय विचार साधना, नागपुर, 1981
[5] वही, पेज़ 41
[6] वही, पेज़ 40
[7] देखें श्री गुरुजी समग्र दर्शन, खण्ड-1, पेज़-109, प्रकाशक- भारतीय विचार साधना, नागपुर, 1981
[8]वही पेज़-109
[9] वही, पेज़-2
[10] वहीपेज़ 11-12
[11] देखें ,गोलवरकर की पुस्तक बंच आफ़ थाट्सका पेज़-183, प्रकाशक- साहित्य सिंधु, बेंगलोर- 1996
[12] वही, पेज़ 282
[13] वही, पेज़-283
[14] देखें, सी पी भिषकर की किताब ‘संघवृक्ष के बीज- डा केशव राव हेडगेवार’ का पेज़-21, प्रकाशक- सुरुचि, दिल्ली-1994
[15] देखें श्री गुरुजी समग्र दर्शन, खण्ड-1, पेज़-11, प्रकाशक- भारतीय विचार साधना, नागपुर, 1981

[16] वही पेज़-61

रविवार, 13 फ़रवरी 2011

लैंग्स्टन ह्यूज की एक कविता














लोकतंत्र

आज या इस साल तो क्या
समझौतों और भय से तो
कभी भी नहीं आयेगी आज़ादी

उतना ही अधिकार है मुझे
अपने दो पावों पर खड़ा होने
और ज़मीन का
जितना किसी और को

थक गया हूँ बिल्कुल यह सुनते-सुनते
कि 'चीज़ों को चलने दो अपने हिसाब से
कल एक अलग दिन होगा'

मुझे मरने के बाद नहीं चाहिये आज़ादी
कल की रोटी पर नहीं जी सकता मैं -

बड़ी ज़रूरतों से बोया हुआ
एक उर्वर बीज है आज़ादी

मैं भी रहता हूँ यहीं
मुझे भी चाहिये आज़ादी
तुम जितनी ही!

लैंग्स्टन ह्यूज

शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010

निज़ार कब्बानी की कविता

(निज़ार कब्बानी की इस कविता का अनुवाद करते हुए अशोक जी की एक कविता की याद आई और इसे उन्हें भेजा तो बहुत अच्छा लगा कि उन्होंने जनपक्ष पर इसे खुद ही पोस्ट करने का अधिकार दे दिया. आप भी देखें इस कविता को)


पत्थर उठाए हुए बच्चे : निज़ार कब्बानी


अपने हाथों में सिर्फ पत्थर लिए
पूरी दुनिया को भौचक्का कर दिया उन्होंने
और अच्छी खबर की तरह आए हम तक.
प्रेम और गुस्से से भरे,
उन्होंने चुनौती दिया और तख्तापलट कर दिया,
जबकि बने रहे हम ध्रुवीय भालुओं के झुण्ड
गठरी बने हुए मौसम के खिलाफ.

शम्बूक की तरह बैठे रहे हम काफीघरों में,
कोई व्यापारिक सौदे की तलाश में था
तो कोई एक और बिलियन के लिए मरा जा रहा था
और तलाश थी उसे
सम्पन्नता से परिष्कृत वक्षों वाली चौथी बीवी की.
कोई आलीशान हवेली के लिए छान रहा था लंदन
तो दूसरा लिप्त था हथियारों के गैरकानूनी काम में
एक कसर निकाल रहा था नाईटक्लबों में
तो दूसरा साजिशें कर रहा था राजगद्दी, एक निजी सेना
और राजकुमारशाही के लिए.

आह, विश्वासघातियों की पीढ़ी,
दोयम, निर्लज्ज लोगों की
पीढ़ी जूठन की,
तो क्या हुआ सुस्त रफ़्तार है समय
बुहार कर फेंक दिया जाएगा हमें
पत्थर उठाए बच्चों के हाथों.

(अनुवाद : मनोज पटेल)


मंगलवार, 20 जुलाई 2010

क्यूबाई क्रांतियुद्ध का संस्मरण-- चे ग्वेरा

( आजकल चे ग्वेरा के इस प्रसिद्ध संस्मरण का अनुवाद करने में लगा हूं…उसी से एक चैप्टर जनपक्ष के पाठकों के लिये)

एक गद्दार की मौत
इस छोटी सी सेना के फिर से एकजुट हो जाने के बाद हमने अल लोमोनो के क्षेत्र को छोड़कर एक नये क्षेत्र की तरफ बढ़ने का निर्णय लिया। रास्ते में हमने उस इलाके के किसानों से सम्पर्क बनाने और उस क्षेत्र में अपने आधार स्थापित करने की कोशिश की जो हमारे अस्तित्व के लिये आवश्यक था। उसी समय, हम सियेरा मैस्त्रा छोड़ रहे थे और मैदानी इलाकों की तरफ बढ़ रहे थे, उन जगहों की तरफ़ जहां हमें उन लोगों से मिलना था जो शहरों में काम कर रहे थे।

हम ला मान्टेरिया नामक गांव से गुजरे और उसके बाद एक छोटी सी धारा के पास की घनी झाड़ियों में हमने अपना कैम्प बनाया। यह एपिफेनिओ डियाज़ नामक व्यक्ति की संपत्ति थी जिसके पुत्र क्रांति की लड़ाई में शामिल हुए थे।

हम और करीब आये क्योंकि 26 जुलाई के आंदोलन के साथ और मज़बूत संपर्क स्थापित करना चाहते थे, क्योंकि हमारी खानाबदोश और गुप्त जिंदगी ने जुलाई आंदोलन के दो हिस्सों के बीच किसी भी प्रकार के सम्पर्क को असंभव बना दिया था।[1] ( विशिष्ट रूप में कहा जाय तो वे दो अलग-अलग ग्रुप थे, जिनकी भिन्न रणनीतियां थी और भिन्न योजना। बाद के महीनों में आंदोलन की एकता को ख़तरे में डालने वाला गहरी दरार अभी नहीं उभरी थी लेकिन हम पहले से ही देख पा रहे थे कि हमारी समझ अलग-अलग थी।)

इसी फार्म पर हम शहरी आंदोलन के सबसे प्रमुख लोगों से मिले- उनमें तीन महिलायें थीं जिन्हें अब क्यूबा में हर कोई जानता है : विलिमा एस्पिन, जो क्यूबा की महिला फेडरेशन की अध्यक्ष और राऊल की पत्नी हैं, हाईडी सैन्टामेरिया, जो अब कैसा डि ला अमेरिकास की अध्यक्ष हैं और आर्माण्डो हार्ट की पत्नी और सेलिया सान्चेज़ जो थोड़े दिनों बाद हमारे साथ पूर्णकालिक रूप में जुड़ गयीं और पूरे संघर्ष में हमारी प्रिय कामरेड रहीं। एक और व्यक्ति जो हमारे कैम्प में आये वह थे ग्रैन्मा के दिनों के हमारे पुराने परिचित फास्टिनों पेरेज थे, जो कुछ दिनों पहले एक मिशन पर शहर गये थे और अब हमें रिपोर्ट करने लौटे थे और फिर तुरत शहर लौट गये। (कुछ समय बाद वह गिरफ़्तार हो गये)।

हम अर्मान्डो हार्ट से भी मिले और यह सैन्टियागो के उस महान नेता फ्रैंक पायस से मिलने का मेरा इकलौता संयोग था।
फ्रैंक पायस उन लोगों में से थे जिनके लिये पहली मुलाकात से ही सम्मान पैदा हो जाता है। वह काफी हद वैसे ही लगते थे जैसा कि आजकल तस्वीरों में हम उन्हें देखते हैं लेकिन उनकी आंखों में अद्भुत गहराईयां थीं।


उस मृत कामरेड के बारे में कुछ कहना मुश्किल है जिससे मैं बस एक बार मिला हूं और जिसका इतिहास जनता की थाती है। मैं बस इतना कह सकता हूं कि उनकी आंखों से यह तुरंत पता लग जाता था कि वह एक उद्देश्य के लिये समर्पित हैं और यह कि वह एक श्रेष्ठ व्यक्ति हैं। आज उन्हें अविस्मरणीय फ्रैंक पायस कहा जाता है ; मेरे लिये, जिसने उन्हें बस एक बार देखा है, वह निश्चित तौर पर अविस्मरणीय थे। फ्रैंक उन तमाम अन्य कामरेडों में से एक थे जिनकी जिन्दगियां अगर इतनी जल्दी ख़त्म न कर दी गयी होतीं तो वे आज समाजवादी क्रांति के आम लक्ष्य को समर्पित होते। यह नुक्सान उस भारी कीमत का हिस्सा है जिसे जनता को मुक्ति हासिल करने के लिये चुकाना होता है।

फ्रैंक ने हमें अनुशासन और व्यवस्था के बारे काफी चीज़ें बताईं कि कैसे राईफलें साफ़ की जायें, कारतूसों की गिनती तथा पैकिंग की जायें जिससे वे गायब न हों। उस दिन से मैने तय किया कि मैं अपनी बन्दूक का बेहतर रख-रखाव करुंगा ( और यह मैने आज तक किया है, हालांकि मै यह नहीं कह सकता कि मैं कभी भी सुघड़ता का प्रतिमान रहा हूं।)

पुस्तक चित्र एमेजोन से साभार
वह झुरमुट और भी घटनाओं का गवाह रहा। पहली बार हमसे मिलने एक पत्रकार आये और वह भी विदेशी पत्रकार, वह थे प्रसिद्ध हर्बर्ट एल मैथ्यूज, जो अपने साथ एक छोटा सा बाक्स कैमरा लेकर आये थे जिससे उन्होंने हमारी वो तस्वीरें खींचीं जो बाद में बहुत ज्यादा प्रचारित हुईं और बतिस्ता के मंत्रियों के मूर्खतापूर्ण भाषणों में जिन पर बहुत विवाद पैदा किये गये। उस समय अनुवादक थे जेवियर पेजोस जो बाद में गुरिल्लाओं के साथ हो गये और काफी दिनों तक उसके साथ रहे।

फिडेल के अनुसार (क्योंकि मैं उस साक्षात्कार में उपस्थित नहीं था) मैथ्यूज ने ठोस सवाल पूछे, उनमें कोई चालाकी नहीं थी और वह ज़ाहिर तौर पर क्रांति के साथ सहानूभूति रखते थे। मुझे याद है कि फिडेल ने कहा था कि वह साम्राज्यवाद विरोधी थे और उन्हें यह ज़ोर देते हुए कि हथियारों का प्रयोग अन्तर्महाद्वीपीय सुरक्षा के लिये नहीं बल्कि जनता के दमन के लिये किया जायेगा खुले तौर पर बतिस्ता को हथियार दिये जाने का विरोध किया था।

मैथ्यूज की यह यात्रा स्वाभाविक रूप से बहुत छोटी थी। जैसे ही वह गये हम आगे बढ़ने के तैयार हो गये। तथापि हमें यह सलाह दी गयी कि हम अपनी सुरक्षा दुगनी कर लें क्योंकि आटिमियो उसी क्षेत्र में था। अल्मैदा को तुरत उसे ढूढ़ने और गिरफ़्तार करने का आदेश दिया गया। जूलियो डियाज, सेरो फ़्रायस,कैमिलो सिनेफ़्यूगो और एफ़िजेनिओ एमिजेरास के साथ गश्त रवाना की गयी। सेरो फ्रायस ने आसानी से आटिमियो पर काबू पा लिया और वह हमारे सामने लाया गया। हमें उसके पास एक प्वाइन्ट 45 पिस्तौल, तीन ग्रेनेड और केसिलास द्वारा ज़ारी सुरक्षित व्यवहार का पास मिला। पकड़े जाने के बाद और इन स्पष्ट सबूतों के मिलने के बाद उसे अपना हश्र मालूम था। वह फिडेल के सामने घुटनों पर झुक गया और उसने बस इतना कहा कि उसे मार दिया जाय। उसने कहा कि वह जानता है कि उसे मृत्यदण्ड ही मिलना चाहिये। उस क्षण वह बूढ़ा लग रहा था, उसके कपाल पर काफी सारे सफेद बाल थे जिन पर हमने पहले कभी गौर नहीं किया था।

वह असाधारण रूप से तनाव का क्षण था। फिडेल ने उसकी गद्दारी के लिये ऊंची आवाज़ में भर्त्सना की और आटिमियो बस यही चाहता था कि उसे गोली मार दी जाय क्योंकि उसे अपनी गल्ती का पता है। हम वह क्षण नहीं भूल सकते जब जब उसके एक करीबी दोस्त सेरो फ्रायस ने उससे बोलना शुरु किया : उसने आटिमियो को हर वह चीज़ याद दिलाई जो उसने उसके लिये की थी, उन छोटी-छोटी चीज़ों की याद दिलाई जो उसने और उसके भाई ने आटिमियो के परिवार के लिये की थी और यह कि किस तरह आटिमियो ने उसे धोखा दिया था- पहले सेरो के भाई की हत्या करवा के जिसे आटिमियो ने सेना से पकड़वा दिया था और फिर पूरे ग्रुप को नष्ट कराने की कोशिश करके। यह एक लंबा और विदारक भाषण था जिसे आटिमियो ने चुपचाप सिर झुकाकर सुना। हमने उससे उसकी आख़िरी इच्छा के बारे में पूछा और उसने कहा कि हां वह क्रांति से या फिर हमसे वह यह चाहता है कि उसके बच्चों का ख़्याल रखे।

इंकलाब ने अपना वादा निभाया। आटिमियो ग्वेरा का नाम आज इस किताब में आया लेकिन उसका नाम पहले ही भुलाया जा चुका है, यहां तक कि शायद उसके बच्चों द्वारा भी। अब उनके नये नाम हैं और वे हमारे तमाम नये स्कूलों में से एक में पढ़ते हैं। उनके साथ वही व्यवहार होता है जैसा कि जनता के दूसरे सारे बच्चों के साथ होता है। और वे एक बेहतर ज़िंदगी लिये तैयार हो रहे हैं। लेकिन एक दिन उनको जानना ही होगा कि उनके पिता की हत्या क्रांतिकारी नेतृत्व ने गद्दारी की वज़ह से कर दी थी। यह भी न्यायसंगत है कि उन्हें बताया जाये कि कैसे उनके पिता ने जो एक किसान थे ख़ुद को धन और गौरव की चाह में भ्रष्टाचार में फंसने दिया और एक संगीन जुर्म किया लेकिन इसके बावज़ूद उन्होंने अपनी ग़लती का एहसास किया और क्षमादान के लिये कोई प्रार्थना नहीं कि क्योंकि वह जानते थे कि उनका गुनाह इस योग्य नहीं था। और आख़िर में यह कि अपने अंतिम क्षण में उन्होंने अपने बच्चों को याद किया था और यह कहा था कि उनके साथ अच्छा व्यवहार किया जाये।

ठीक तभी तूफान आ गया और आसमान में अंधेरा हो गया ; तेज़ बारिश के बीच आसमान में बिजली कड़की और उसी बीच बंदूक की एक गोली से आटिमियो ग्वेरा की जिंदगी का अंत हो गया और उसके बेहद करीब खड़े कामरेड भी गोली की आवाज़ नहीं सुन पाये।

अगले दिन जब हम उसको दफ़ना रहे थे तो एक छोटी सी घटना हुई जो मुझे याद है। मैनुएल फजार्डो उसकी कब्र पर एक क्रास बनाना चाहता था लेकिन मैने उसे मना किया क्योंकि हत्या का ऐसा सबूत उन लोगों के लिये बहुत ख़तरनाक हो सकता था, जिनकी जगह पर हमने कैम्प बनाया था। इसलिये पास के पेड़ की टहनी से उसने एक क्रास बनाया। और यह था वह चिन्ह जो उस गद्दार की कब्र की पहचान देता था।

मोरान उस समय हमें छोड़ गया; उसे पता था कि तब तक उसका कितना कम विश्वास करते थे और हम सब उसे संभावित भगोड़ा मानते थे। एक बार वह तीन दिन तक गायब हो गया था और बहाना यह कि वह आटिमियो को ढूंढ़ रहा था और जंगल में गायब हो गया था।

जैसे ही हम आगे बढ़ने को तैयार हुए एक गोली की आवाज़ आई और हमने देखा कि मोरान के पैरों में गोली लगी है। जिस आदमी ने उसे देखा उससे उसकी गर्मागर्म बहस चल रही थी क्योंकि कुछ कह रहे थे कि यह गोली गल्ती से चल गयी थी और दूसरों का कहना था कि उसने जानबूझ कर ख़ुद को घायल किया है ताकि वह वहीं रुक सके।

मोरान का उसके बाद का इतिहास, उसकी गद्दारी और ग्वाटेमाला के क्रांतिकारियों के हाथों उसकी हत्या से लगता है कि उसने ख़ुद को गोली जानबूझकर ही मारी थी।

फिर हम निकल गये। फ्रैंक पायस ने हमसे वादा किया था कि अगले महीने, मार्च के आरंभ में वह हमें युवकों का एक समूह भेजेंगे जो जिबारो के पास एपिफानिओ डियाज़ के घर पर मिलेगा।


[1] आंदोलन के पहाड़ी और मैदानी, गुरिल्ला और शहरी हिस्से

शुक्रवार, 19 मार्च 2010

मैं भी अमरीका का गीत गाता हूं

मैं भी अमरीका का गीत गाता हूं
मैं उसका एक काला बाशिंदा हूं
जब मेहमान आते हैं
वे मुझे रसोईघर में भेज देते हैं
पर मैं हंसता हूं
और खा खा कर पेट भर लेता हूं
और पहलवान की तरह मोटा होता रहता हूं

कल जब मेहमान आएंगे
मैं सीधे मेज पर बैठ जाउंगा
और किसी की हिम्‍मत नहीं होगी कहने की
कि जाओ रसोईघर में
वहीं जाकर खाना खाओ

फिर वे देखेंगे कि
मैं कैसा जंवा मर्द हूं
और शर्म से सिर झुका लेंगे
मैं भी अमरीका का ही एक आदमी हूं

मैं भी अमरीका का गीत गाता हूं

-- - लैंग्‍स्‍टन ह्यूज - अनु. - रामकृष्‍ण पाण्‍डेय