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रविवार, 13 फ़रवरी 2011

लैंग्स्टन ह्यूज की एक कविता














लोकतंत्र

आज या इस साल तो क्या
समझौतों और भय से तो
कभी भी नहीं आयेगी आज़ादी

उतना ही अधिकार है मुझे
अपने दो पावों पर खड़ा होने
और ज़मीन का
जितना किसी और को

थक गया हूँ बिल्कुल यह सुनते-सुनते
कि 'चीज़ों को चलने दो अपने हिसाब से
कल एक अलग दिन होगा'

मुझे मरने के बाद नहीं चाहिये आज़ादी
कल की रोटी पर नहीं जी सकता मैं -

बड़ी ज़रूरतों से बोया हुआ
एक उर्वर बीज है आज़ादी

मैं भी रहता हूँ यहीं
मुझे भी चाहिये आज़ादी
तुम जितनी ही!

लैंग्स्टन ह्यूज

2 टिप्‍पणियां:

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