लोकतंत्र
आज या इस साल तो क्या
समझौतों और भय से तो
कभी भी नहीं आयेगी आज़ादी
उतना ही अधिकार है मुझे
अपने दो पावों पर खड़ा होने
और ज़मीन का
जितना किसी और को
थक गया हूँ बिल्कुल यह सुनते-सुनते
कि 'चीज़ों को चलने दो अपने हिसाब से
कल एक अलग दिन होगा'
मुझे मरने के बाद नहीं चाहिये आज़ादी
कल की रोटी पर नहीं जी सकता मैं -
बड़ी ज़रूरतों से बोया हुआ
एक उर्वर बीज है आज़ादी
मैं भी रहता हूँ यहीं
मुझे भी चाहिये आज़ादी
तुम जितनी ही!
लैंग्स्टन ह्यूज
tadaf waazib hai
जवाब देंहटाएंकमाल की रचना है! बेहतरीन!
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