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प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की बहुप्रतीक्षित प्रेसवार्ता के बाद पत्रकार दिलीप मण्डल ने अपने फेसबुक वाल पर लिखा कि इस पूरी प्रेसवार्ता में सिर्फ़ दो बार ग़रीब शब्द का उपयोग किया गया और एक प्रमुख चैनल की संवाददाता ने सिर्फ़ दो सवाल पूछे – दोनों क्रिकेट के बारे में थे! यह पूरा घटनाक्रम न केवल सरकार बल्कि मीडिया की भी प्रतिबद्धताओं और पक्षधरताओं को उजागर करता है। ऐसे माहौल में आगामी 28 तारीख़ को आने वाले बज़ट से क्या उम्मीद की जा सकती है?
दरअसल, योजनाबद्ध विकास के नेहरुवादी ढांचे के विघटन के बाद से ही नव उदारवादी आर्थिक प्रणाली के युग में बज़ट धीरे-धीरे अप्रासंगिक होता चला गया है। कभी धीरे और कभी पूरी गति से सुधारवादी एजेण्डे को लागू करने के हथियार के रूप में ही इसका उपयोग विभिन्न सरकारें करती रही हैं। इसीलिये चाहे एन डी ए की सरकार रही हो चाहे अब यू पी ए की, आर्थिक नीतियाँ लगभग निर्बाध और अपरिवर्तित रूप में अमेरिका द्वारा निर्देशित निजीकरण-भूमण्डलीकरण की राह पर ही चलती रही हैं। हर पाँच साल पर होने वाले चुनाव कभी-कभी इसकी गति पर थोड़ा-बहुत अंकुश ज़रूर लगाते हैं लेकिन इसकी दिशा बदल पाने की हैसियत उनकी भी नहीं। ‘आर्थिक विकास’ के परचम तले ये नीतियां देश की एक छोटी सी आबादी के हित में बहुसंख्यक ग़रीब और वंचित आबादी का जीवन लगातार मुश्किल करती जा रही हैं। मिस्र और ट्यूनीशिया का ज़िक्र यहां विषयान्तर न होगा, जहां इन नीतियों ने जनता में वह असंतोष पैदा किया जिसने बरसों पुरानी सत्तायें पलट दीं। पूरे नव उदारवादी विमर्श की विकास नीतियां रिसाव सिद्धांत (ड्रेन थियरी) पर टिकी होती हैं जिसके अनुसार अगर पूंजीपतियों के पास पर्याप्त मात्रा में धन पहुंचा दिया जाये तो अपने-आप उसमें से कुछ हिस्सा निचले संस्तरों पर पहुंच जायेगा, इसीलिये ग़रीबों के लिये दिये गये सरकारी विकास को नव उदारवादी सिद्धांतकार सरकारी धन की बर्बादी या लीकेज कहते हैं। पिछले वर्षों में शिक्षा, स्वास्थय जैसी बुनियादी सुविधाओं में कटौती और कृषि जैसे क्षेत्रों में सब्सीडियों की कटौती के पीछे यही तर्क है।
इस साल अगले कुछ महीनों में होने वाले चुनावों तथा मंहगाई और भ्रष्टाचार के कारण आमजन में व्यापत भयावह असंतोष के कारण संभव है कि बजट में आर्थिक सुधारों को गति देने के नाम पर उस तरह सब्सीडियों आदि में कटौती न की जाय और बहुत संभव है कि मनरेगा, शिक्षा के अधिकार तथा खाद्य सुरक्षा जैसे मदों में राशि आवंटन में वृद्धि की जाये। लेकिन लोगों की क्रयशक्ति बढ़ाने के लिये सुरक्षित तथा नियमित रोज़गारों में वृद्धि जैसे सबसे ज़रूरी मुद्दे पर कोई महत्वपूर्ण क़दम उठाये जाने की कोई उम्मीद नहीं है। पिछले दरवाज़े से खुदरा जैसे क्षेत्र में बहुराष्ट्रीय कंपनियों को प्रवेश दिये जाने के बाद इस बज़ट में उम्मीद की जा रही है कि इस क्षेत्र में शत-प्रतिशत विदेशी निवेश की अनुमति दे दी जाय। इसका सीधा प्रभाव होगा कि इस क्षेत्र के नब्बे फीसदी से अधिक असंगठित छोटे दुकानदारों के रोज़गार ख़तरे में पड़ जायेंगे। यहां यह बता देना उचित होगा कि पिछले दस सालों में संगठित क्षेत्र में रोज़गारों में 15 फीसदी से अधिक की कमी आई ही है, असंगठित क्षेत्र में भी रोज़गार की सालान वृद्धि दर पिछले दशक के 2.03 प्रतिशत से घटकर 1.85 प्रतिशत ही रह गयी है।
अगर इस बज़ट से पूर्व की स्थितियों का आकलन करें तो सरकार के तमाम दावों के बावज़ूद राजकोषीय घाटा लगातार बढ़ते हुए सकल घरेलू उत्पाद के लगभग 5.5 फीसदी के स्तर पर है। मज़ेदार बात यह है कि आर्थिक सुधारों के समय सबसे बड़ी दलील इसी घाटे को नियंत्रण में रखने की थी लेकिन उदारीकरण के लगभग दो दशक बीत जाने के बाद भी यह घाटा घटने की जगह सुरसा के मुंह की तरह बढ़ता ही जा रहा है। साथ ही सरकार की कुल उधारी को पिछले बज़ट में थ्री जी स्पेक्ट्रम की नीलामी से प्राप्त एकमुश्त रक़म के कारण 3.5 ख़रब रुपये पर सीमित रखा जा सका था इस वर्ष इसके 4 करब रुपये तक पहुंचने की संभावना है। इस साल ऐसी किसी सुविधा के अभाव में यह देखना होगा कि सरकार इस घाटे और उधारी से कैसे निपटती है? इसके अलावा लंबे समय से चली आ रही कर-सुधार की मांगो पर भी सरकार के निर्णय की प्रतीक्षा रहेगी। कारपोरेट क्षेत्रों में इस बात को लेकर काफी चिन्ता जताई जा रही है कि कहीं खाद्य असुरक्षा क़ानून के चलते इस मद में सरकार भारी ख़र्च न कर दे। एक अनुमान के मुताबिक इस मद में सरकार वर्तमान में किये जा रहे 56,700 करोड़ को बढ़ा कर एक लाख करोड़ कर सकती है। यहां यह बता देना उचित होगा कि यही पूंजीपति सरकार से मंदी से निपटने के नाम पर 4 लाख करोड़ से अधिक की रक़म सबसीडियों तथा दूसरे नामों से वसूल चुके हैं! यह उम्मीद की जा रही है कि इस घाटे से उबरने के लिये सरकार कुछ बड़ी सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के विनिवेश का क़दम उठा सकती है। पिछली सरकार में वामपंथियों के दबाव में ‘नवरत्नों’ के विनिवेश में असफल रही सरकार इस बार इनमें से कुछ की बड़ी हिस्सेदारी निजी कंपनियों को बेच कर एक तरफ़ इस घाटे की भरपाई कर सकती है तो दूसरी तरफ़ कार्पोरेट सेक्टर की पुरानी मांग को भी पूरा कर सकती है।
सरकार के सामने सबसे बड़ी समस्या मंहगाई से निपटने की है। रिजर्व बैंक भी अपनी रिपोर्ट में स्वीकार कर चुका है कि मंहगाई की समस्या अब ढांचागत समस्या बन चुकी है। पिछले साल भर से सब्ज़ियों, खाद्यान्नों तथा दूसरी ज़रूरी चीज़ों की क़ीमतें लगातार बढ़ रही हैं और तमाम दावों के बावज़ूद उन पर कोई प्रभावी नियंत्रण लगता नहीं दिख रहा है। मंहगाई में वृद्धि एक तरफ़ मध्यवर्ग की आय का बड़ा हिस्सा चट कर जाती है तो दूसरी तरफ़ यह ग़रीबों को धीरे-धीरे बाज़ार से बाहर कर दो जून की रोटी तक सीमित कर देती है। भारत में मंहगाई बढ़ने का मुख्य कारण कृषि क्षेत्र की पूर्ण अनदेखी है। इसका एक उदाहरण खाद में दी जाने वाली सबसीडी है जिसे 2009-2010 के 53 हज़ार करोड़ से घटा कर 50 हज़ार करोड़ कर दिया गया, जिससे यूरिया के दामों में दस फीसदी की बढ़ोत्तरी हो गयी है। इस साल भी इस सब्सीडी के और कम किये जाने की उम्मीद है। असंवेदनशीलता का आलम यह है कि विदर्भ से लेकर बुंदेलखण्ड तक किसानों की आत्महत्या के बावज़ूद सरकारें कृषि के लिये आधारभूत सुविधायें उपलब्ध कराने में असफल रही हैं। देखना होगा कि इस बज़ट में सरकार कृषि के विकास के लिये क्या ठोस क़दम उठाती है। वैसे इसकी उम्मीद तो शायद ही किसी को हो। उम्मीद तो इस बात की ही है कि भारत निर्माण जैसे कार्यक्रमों के नाम पर पूंजीगत उत्पादों के लिये ख़र्च पर और अधिक बढ़ोत्तरी की जायेगी। उद्योगपतियों की सुविधा के लिये आधारभूत संसाधनों के नाम पर इन क्षेत्रों में होने वाले सरकारी ख़र्च में इन क्षेत्रों में सरकारें पहले ही अपार धनराशि ख़र्च कर रही हैं। साथ ही मंदी की मार से अब तक उबरने में असफल निर्माण क्षेत्र भी इस बज़ट से अपने लिये और अधिक सुविधाओं की उम्मीद लगाये है।
शिक्षा के क्षेत्र में बहु-प्रतीक्षित ‘शिक्षा के अधिकार’ के क़ानून के नाम पर जो आधी-अधूरी नीतियां लाई गयीं हैं उनके बाद इस क्षेत्र में सकल घरेलू उत्पाद के छह फीसदी ख़र्च किये जाने की मांग के पूरे होने की कोई उम्मीद नज़र नहीं आती। एक अनुमान के मुताबिक 1995 से 2025 के बीच शिक्षा के क्षेत्र में होने वाले आम आदमी के ख़र्च में 12 गुने से अधिक की बढ़ोत्तरी होगी। इसका सीधा कारण शिक्षा के क्षेत्र से सरकार का पलायन है। जहां प्राइमरी शिक्षा के क्षेत्र में पैरा शिक्षकों की नियुक्ति तथा सरकारी ख़र्च में अपर्याप्त वृद्धि ने इन विद्यालयों के शैक्षणिक स्तरों को गर्त में पहुंचा दिया है वहीं उच्च शिक्षा के क्षेत्र में सरकारी उपेक्षा ने डिग्री कालेजों को बस डिग्री डिस्ट्रीब्यूशन सेन्टर्स में तब्दील कर दिया है। इन पर ध्यान देने की जगह उम्मीद यही है कि इस बज़ट में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में विदेशी विश्विविद्यालयों को प्रवेश की छूट देकर शिक्षा के इस बाज़ार को और बड़ा तथा ‘खुला’ करने में सरकार अपनी ‘अपेक्षित’ भूमिका ही निभायेगी।
यही स्थिति स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी है। सरकारी अस्पतालों की बदहाली ने जनता को पूरी तरह निजी क्षेत्र के रहमोकरम पर छोड़ दिया है। दवाओं के दामों पर किसी तरह का नियंत्रण न होने से हुई भयावह वृद्धि ने कोढ़ में खाज का ही काम किया है। लेकिन आम जनता को कोई राहत देने की जगह उम्मीद यही है कि इन निजी दवा कंपनियों को दिया गया पांच साला टैक्स हालिडे थोड़ा और बढ़ा दिया जायेगा। वैसे ये कंपनियां लंबे समय से आधारभूत उद्योग का दर्ज़ा दिये जाने की मांग कर रही हैं। देखना होगा कि सरकार इस पर क्या निर्णय लेती है।
अन्य चीज़ों पर ग़ौर करें तो इस बज़ट में वस्तु एवं सेवा कर (जी एस टी) तथा प्रत्यक्ष कर कोड (डीटीसी) लागू किये जाने की भी उम्मीद की जा रही है। साथ ही सेवा कर के दायरे में और अधिक सेवाओं को लाने की उम्मीद है। सरकार की कोशिश कर की वर्तमान दरों से अधिक छेड़छाड़ करने की जगह आय में वृद्धि के लिये कर के आधार को विस्तृत करने की है। ज़ाहिर है इन अप्रत्यक्ष करों की अंतिम मार उपभोक्ता पर ही पड़नी है। वहीं आयकर के क्षेत्र में इसकी न्यूनतम सीमा में मामूली वृद्धि की उम्मीद की जा रही है, जो मुख्यतः उच्च मध्यम वर्ग के वाचाल उपभोक्ता को शांत रखने के उद्देश्य से है। और हां सबसे निश्चित रूप से जिस चीज़ की उम्मीद की जा सकती है वह है सिगरेट और बीड़ी की क़ीमतों में वृद्धि। तो हम जैसे लोगों के पास बज़ट से नाराज़ होने का एक और कारण है ही!
असल में नये रूप में होने के बावज़ूद इस बज़ट से किसी वास्तविक नवाचार की कोई उम्मीद नहीं है। यही कारण है कि जनता या उद्योग जगत में इसे लेकर कोई विशेष उत्साह दिखाई नहीं देता। लोग अच्छी तरह से जानते हैं कि मीठी हो या तीखी, छुरी उन्हीं की जेबों पर चलनी है। उदारीकरण के दो दशकों में ‘उदार’, ‘विकास’ और ‘नये’ जैसे शब्दों के अर्थ बदल गये हैं। जनता को इनसे कोई उम्मीद नहीं बची है। तकनीकी शब्दावली में रचे गये प्रपंच की जगह उसे सस्ती और अच्छी शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधायें, रोज़गार और एक सुरक्षित भविष्य का आश्वासन चाहिये जो दुर्भाग्य से किसी सरकार के पास नहीं।
मजबूरों से कैसी उम्मीद?
जवाब देंहटाएंwah! narayan narayan
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