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मंगलवार, 1 मार्च 2011

साहित्य की विरासत


जब चेतना की पहली किरण ने आदिम मनुष्य के मस्तिष्क को आलोकित किया और वह अभिव्यक्ति के लिए ललक उठी तब साहित्य का जन्म हुआ. इस तरह मनुष्य की पीड़ा और हर्ष की, गुस्से और प्यार की शब्दहीन पुकारें हरेक अनुभव के लिए मुख्तलिफ़ आवाजों में परिभाषित हुईं और शब्द इकाई का जन्म हुआ. उसी समय, आदिम शिकारी के एकाकीपन की जगह ली परिवारों के समूहीकरण ने जो क्रिया और प्रतिक्रिया की बिरादरी दर्याफ़्त करते हैं. इस तरह शब्द ने अभिव्यक्ति के अलावा एक और काम संभाला, मतलब सम्प्रेषण. और फिर उन समुदायों ने पाया कि शब्द केवल अभिव्यक्ति और सम्प्रेषण का माध्यम ही नहीं, बल्कि उसे अन्य कई कामों के लिए तब्दील किया जा सकता है. लयबद्ध गतिविधि को सहज बनाकर शब्द ने सामुदायिक श्रम को एक उपयोगी तत्त्व दिया. भौतिक जगत के पर्यवेक्षण के आदान प्रदान के द्वारा शब्द ज्ञान में वृद्धि का माध्यम बना. इंसान की खुशहाली और इच्छाओं को प्रभावित करने वाली अग्नि और प्रकाश और वर्षा और बिजली जैसी रहस्यमयी और अज्ञात शक्तियों के आवाहन के भी वह काम आया. हर समुदाय के इतिहास में स्मरणीय रहे स्त्रियों-पुरुषों की घटनाओं और अनुभवों का आगार भी वह रहा. इस तरह साहित्य नामक शब्दों का संचयन विवेक, जादू, स्मृति और प्रेरणा इन सभी का मिश्रण था.

और साहित्य यूं ही बना रहा है.

शोषणात्मक तत्व


समय बीतते बीतते परिवार और समूह आपस में जुड़कर शक्तिशाली कबीलों में बदल गए और कबीले एक होकर राष्ट्र बन गए. भौतिक संसाधनों पर मनुष्य के बढ़ते प्रभुत्व से अतिरिक्त संपत्ति पैदा हुई और संपत्ति का अर्थ था ताक़त. फिर इंसानी सामाजिक अस्तित्व में एक नए तत्त्व का प्रवेश हुआ, वर्चस्वात्मक और शोषणात्मक तत्त्व. कबीलों के अंतर्गत धनी और शक्तिशाली अपने अन्य हमजोलियों पर वर्चस्व जमाने लगे और अधिक संख्या वाले और ताक़तवर कबीले अन्य अपेक्षाकृत कमज़ोर कबीलों को बस में करने लगे. राजा-महाराजा और साम्राज्य और वर्ग सामने आये और उनके साथ सामने आया वह विभाजन जिसमें एक ओर तो था सुविधासंपन्न और आरामतलब वर्ग और दूसरी ओर मेहनतकश और वंचित जन. इस विभाजन के साथ साहित्य भी दो अलग-अलग ज़बानें बोलने लगा: राजाओं और सिपहसालारों और उनके आश्रितों की ज़बान एक तरफ और लकड़ी काटनेवालों और पानी खींचनेवालों की ज़बान दूसरी तरफ.
ये दो समानांतर परम्पराएँ, दरबारों की क्लासिकी परंपरा और जन साधारण की लोक परम्परा ही एफ्रो-एशियाई देशों के हमारे समूचे साहित्य का अतीत है. कुछ मामलों में तो इन दो ज़बानों के बीच का विभाजन केवल लाक्षणिक नहीं बल्कि शाब्दिक भी था जैसे हमारे उपमहाद्वीप में संस्कृत और पाली साहित्य, यूरोप में लैटिन और स्थानीय राष्ट्रीय भाषाओं के या मध्य-पूर्व और मध्य एशिया में फ़ारसी और अरबी और दीगर देशज बोलियों के मामले में हुआ.

वर्चस्वात्मक सामंतवाद और उसके नुमाइंदों की तकदीरों की तर्ज पर गुज़रे ज़माने के क्लासिकी साहित्य बने या बिगड़े, मगर लोक परंपरा पर इन उतार-चढ़ावों का दुष्प्रभाव बहुत कम पड़ा और उसे बड़े पैमाने पर निरंतरता नसीब हुई. अतीत के इस गीतात्मक, भक्तिपरक, वीररसपूर्ण या सूक्तिपूर्ण साहित्य ने क्लासिकों की दो समानांतर श्रृंखलाएं पैदा की: दरबारों के परंपरागत क्लासिक जिनके लेखकों के नाम भली भाँति सुरक्षित हैं और जनकवियों और सूफियों की लोक परंपरा जो चंद अपवादों को छोड़कर ज्यादातर गुमनाम ही रहे हैं.
साहित्य का यह समूचा स्वरूप, जिसमें लोक और क्लासिकी दोनों शामिल हैं, मौजूदा पीढ़ी और आगे आनेवाली पीढ़ियों की साहित्यिक विरासत का हिस्सा है. जैसा कि ऊपर कहा गया है, यह बुद्धिमत्ता, अनुभव, विश्वासों, इतिहास और उनके पूर्वजों के साझा सपनों और उम्मीदों का मूर्तन है. इस तरह यह उनकी राष्ट्रीय पहचान की गवाही देता है और साथ ही उनके साझा अनुभव की निरंतरता को बनाए रखता है.

प्रतिरोध

सातवीं सदी के बाद, पश्चिमी जगत में पहले ताक़तवर व्यापारिक वर्ग और फिर पूंजीपति वर्ग के उभरने के साथ, और उत्पादन के तरीकों और संबंधों में उनके द्वारा लाई गई क्रान्ति के साथ-साथ साम्राज्यवादी, उपनिवेशवादी विस्तार के युग की शुरुआत हुई. एशिया और अफ्रीका के देश एक एक करके इस आक्रमण के सामने परास्त होते गए और साम्राज्यवादी, उपनिवेशवादी गुलामी की लम्बी रात इन दो महाद्वीपों पर तारी हुई. ये नए आका अपनी प्रजा के आर्थिक शोषण और राजनीतिक दासत्व मात्र से मुतमईन नहीं थे, क्योंकि उन्हें यह अहसास था कि उनकी प्रजा की राष्ट्रीय संस्कृतियों को बर्बाद किये बिना कभी इस प्रक्रिया को मुकम्मल नहीं किया जा सकता या दूसरे शब्दों में कहें तो यह सांस्कृतिक इकाइयों के तौर पर उनके मुख्तलिफ़ व्यक्तित्वों को नष्ट करना था. और इसके लिए ज़रूरत थी उस व्यक्तित्व को बनाने वाली हर चीज़ पर हमला करने की, साहित्य,आस्थाएँ,मूल्य, विचार और अनुभूति की प्रणालियाँ, भाषा और सामाजिक अस्तित्व की रीतियाँ. यह एक योजनाबद्ध और दृढ प्रयास था उन्हें स्वयं के अतीत से दूर करने का और अपने आकाओं की छवि के अनुरूप ढली अनाम, हृदयहीन और बेजान कठपुतलियाँ बना देना का. मगर एशिया और अफ्रीका की जनता के दरमियाँ जो अज़ीम और बहादुर लोग थे उन्होंने कभी हार नहीं मानी और राजनीतिक गुलामी और सांस्कृतिक विध्वंस दोनों के खिलाफ अनवरत संघर्ष छेड़ दिया. इस संघर्ष में लेखकों ने कभी अपनी कलम से हिस्सा लिया तो कभी खून से. इस तरह एक नए किस्म के साहित्य का जन्म हुआ- प्रतिरोध का साहित्य. इसके प्रमुख घटक थे, पहला तो लेखकों द्वारा अपने अतीत की साहित्यिक विरासत की फिर एक बार खोज और उसका पुनर्मूल्यांकन. दूसरे, जनता के दुखों और अभावों का मर्मस्पर्शी और यथार्थपरक चित्रण; तीसरे, दमन और दासता का तीव्र प्रतिकार; और चौथे, अपने आज़ाद मुस्तकबिल में प्रबल आस्था और गहरी उम्मीद. और इन सबके ऊपर रखी थी ज़िन्दगी को अच्छा और खूबसूरत बनाने वाली हर चीज़ से टूटकर मुहब्बत - अमन, आज़ादी और सामाजिक न्याय. यह साहित्य ही मौजूदा पीढ़ी और आगे आनेवाली पीढ़ियों की साहित्यिक विरासत का दूसरा अर्धांश है. विदेशी प्रभुत्व के दौरान एफ्रो-एशियाई लोगों ने जो सहा यह सिर्फ उसकी तहरीर नहीं बल्कि जो लड़ाई अब तक जीती नहीं गई उसके लिए एक प्रेरणा भी है.


अक्टूबर क्रांति


आधी सदी पहले, अक्टूबर की महान समाजवादी क्रांति की सफलता के बाद, स्वतंत्रता और मुक्ति की दिशा में बढ़ता लम्बा मार्च धीरे धीरे एक के बाद एक सफल मोर्चे पर अंजाम पाता गया. दूसरे विश्व-युद्ध की समाप्ति के समय फासीवादी गिरोहों की हार के बाद यह मार्च एक रैली में तब्दील हो गया और आज कुछ इलाकों को छोड़ दिया जाए तो लगभग समूचा एशिया और अफ्रीका आज़ाद है. इस से एक और बात हुई. साम्राज्यवादी शक्तियों द्वारा लगाये गए अवरोधों के कारण एशिया और अफ्रीका के लोग जो लम्बे समय से एक दूसरे से जुदा थे, वे आपस में संवाद करने और केवल विचार के स्तर पर ही नहीं बल्कि व्यवहार में भी अपने साझा आदर्शों की प्राप्ति हेतु साथ मिलकर काम करने में असमर्थ थे. इस तरह जन्म हुआ एफ्रो-एशियाई आन्दोलन का. इन दो महाद्वीपों के लेखकों के बीच इस आन्दोलन ने एफ्रो-एशियाई लेखक संगठन का रूप लिया जिसका जन्म १९५८ में ताशकंद में हुआ था. इस तरह,पहले तो एफ्रो-एशियाई लेखक दूसरे देशों के अपने समकालीनों के सृजनात्मक प्रयासों से सीखने और खोज करने में समर्थ हुए. दूसरे यह कि कोरिया में, इंडो-चाइना में, अल्जीरिया में, पुर्तगाली उपनिवेशों में, रोडेशिया में,दक्षिण अफ्रीका में,फिलिस्तीन और अरब कब्ज़े वाले इलाकों में,दुनिया के इन अलग-अलग हिस्सों में ख़ूनी लड़ाइयों में ग्रस्त अपने अपेक्षाकृत कम भाग्यशाली बिरादरान के समर्थन में वे अपनी ताक़त को एकजुट कर पाए. इनमें से कुछ लड़ाइयाँ अब जीती जा चुकी हैं, कुछ अब भी जीती जानी शेष हैं. इस दौर में जो साहित्य पैदा हुआ उसने इस प्रकार अतीत की इन सारी लड़ाइयों के लिए आज़ादी के मतवालों के जखीरे में एक ताकतवर जोड़ तो मुहैया करवाया ही, इस वक़्त लड़ी जा रही लड़ाइयों के लिए भी साहित्य ऐसा किये जा रहा है.

लब्बोलुआब यह कि साहित्य ने मौजूदा पीढ़ी और आगे आनेवाली पीढ़ियों की खातिर यह विरासत रख छोड़ी है. साहित्य ने उन्हें अपने व्यक्तित्व का आईना, मानवतावाद में तर्कसंगत विश्वास का मन्त्र, अमन, आज़ादी और इन्साफ़, इंसानी दुखों और इंसानी पीड़ा के प्रति भावना और संवेदना का माहौल, क्रूरता और दमन के खिलाफ बुलंद युद्धघोष, प्रेम और करुणा के, सौंदर्य के और सच्चाई के मधुर गीतों का खज़ाना पेश किया है.

{लाहौर से निकलने वाले अंग्रेजी साप्ताहिक 'व्यूपॉइंट' में १५ जुलाई १९७७ के रोज़ प्रकाशित और शीमा माजिद द्वारा सम्पादित पुस्तक 'कल्चर एंड आइडेंटिटी: सिलेक्टेड इंग्लिश राइटिंग्स ऑफ़ फैज़ (ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, २००५) में संकलित}

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